संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 30: संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत क्रमबंधन और अभिदाय क्या होता है (धारा 81-82)

Shadab Salim

18 Aug 2021 1:24 PM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 30: संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत क्रमबंधन और अभिदाय क्या होता है (धारा 81-82)

    संपत्ति अंतरण अधिनियम से संबंधित इस आलेख के अंतर्गत इस अधिनियम की धारा 81 जो क्रमबंधन का उल्लेख करती है तथा धारा 82 जो अभिदाय का उल्लेख करती है पर सारगर्भित टिप्पणियां प्रस्तुत की जा रही है।

    इससे पूर्व के आलेख में पूर्विक बंधकदार के मुल्तवी किए जाने के संबंध में उल्लेख किया गया था। इस एक ही आलेख के अंतर्गत इन दोनों ही धाराओं पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां प्रस्तुत की जा रही है जिससे एक ही आलेख में दोनों ही धाराओं पर महत्वपूर्ण जानकारियों को प्राप्त किया जा सके।

    क्रमबंधन- (धारा 81)

    'क्रमबन्धन' से अभिप्रेत है चीजों को या वस्तुओं को एक क्रम में रखना क्रमबन्धन का अधिकार पाश्चिक बन्धकदार का अधिकार है।

    धारा 81 प्रतिभूतियों का क्रमबन्धन सम्बन्धी सिद्धान्त अधिनियमित करती है। क्रमबन्धन के सिद्धान्त के अनुसार यदि दो या अधिक सम्पत्तियों का स्वामी, जब उन्हें एक व्यक्ति के पास बन्धक रखता है और तत्पश्चात् उन सम्पत्तियों में से एक या अधिक सम्पत्तियों को किसी अन्य व्यक्ति के पास बन्धक रखता है, तो तत्प्रतिकूल संविदा के अभाव में पाश्चिक बन्धकदार इस बात का हकदार है कि वह पूर्विक बन्धक ऋण को सन्तुष्टि जहाँ तक सम्भव हो उस सम्पत्ति या उन सम्पत्तियों से कराये जिनका बन्धक उसके पक्ष में नहीं किया गया है।

    क्रमबन्धन का सिद्धान्त लार्ड एल्टन द्वारा एल्ड्रिच बनाम कूपर के वाद में प्रतिपादित किया गया था।

    न्यायमूर्ति ने यह कहा किया था कि,

    "यह एक ऋणदाता की इच्छा पर यह निर्भर नहीं करेगा कि वह दूसरे को निराश करे।"

    क्रमबन्धन के अधिकार का प्रयोग उसी समय किया जाता है जब प्रथम बन्धकदार अपनी प्रतिभूति प्राप्त करने के लिए कदम उठाता है।

    क्रमबन्धन का सिद्धान्त साम्या पर आधारित है। एक व्यक्ति, जिसके पास दो निधियों में अपनी रकम को प्राप्त करने के लिए उसे साम्या में यह अनुमति नहीं दी जा सकती है कि वह उसे निराश करे जिसके पास अपनी प्रतिभूति के रूप में केवल निधि उपलब्ध है।

    दोनों को सन्तुष्ट करने के उद्देश्य से, साम्या प्रथम बन्धकदार को बाध्य करती है कि वह उस सम्पत्ति में से अपने ऋण की अदायगी कराये जो उसकी पहुँच में है तथा उस सम्पत्ति को छोड़ दूसरे के लिए दे, जो उसकी पहुँच में नहीं है, परन्तु यदि प्रथम प्रतिभूति बन्धक रकम की अदायगी के लिए पर्याप्त नहीं है तो उसका उपयोग करने के पश्चात् पूर्विक बन्धकदार उस प्रतिभूति पर अपना अधिकार/हक जमा सकेगा जो पाश्चिक बन्धकदार को प्रतिभूति के रूप में दी गयी थी।

    क्रमबन्धन का सिद्धान्त इस देश में इस अधिनियम के लागू होने से पूर्व भी प्रचलन में था। पर इस धारा में इंग्लिश विधिक सिद्धान्त को ही समाहित किया गया है। इंग्लिश विधि के अनुसार प्रतिभूतियों का इस प्रकार प्रबन्धन समस्त बन्धकदारों के दावों को यथासंभव सन्तुष्ट किया जा सकें। क्रमबन्धन कहलाता है।

    आवश्यक तत्व-

    इस धारा में वर्णित सिद्धान्त के प्रवर्तन हेतु निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक है-

    1)- बन्धककर्ता एक ही व्यक्ति हो जो अपनी विभिन्न सम्पत्तियों का बन्धक भिन्न भिन्न व्यक्तियों को करे। विभिन्न सम्पत्तियों, जो बन्धकों की विषयवस्तु हैं एक ही बन्धककर्ता की हो तथा सम्पत्तियों के लिए दावा प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति एक ही बन्धककर्ता के ऋणदाता हों।

    2)- बन्धक की विषयवस्तु एक से अधिक सम्पत्तियाँ होती हैं। सर्वप्रथम समस्त सम्पत्तियों का एक व्यक्ति के पक्ष में बन्धक किया गया हो, तत्पश्चात् उनमें से केवल एक पर कुछ का बन्धक दूसरे बन्धकदार के पक्ष में किया गया हो।

    3)- दोनों बन्धकदार एक ही धरातल पर स्थित हों। यदि दोनों बन्धकदारों का बन्धक की गयी सम्पत्तियों के सम्बन्ध में पृथक्-पृथक् दावे हैं, तो क्रमबन्धन का प्रश्न हो नहीं उठेगा। न केवल यह, अपितु यह भी कि बन्धकदारों का उनके पक्ष में बन्धक की गयी सम्पत्तियों में भी समान हित हो। 'उदाहरणार्थ', यदि पूर्विक बन्धकदार को उसके पक्ष में अन्तरित की गयी दोनों सम्पत्तियों में से एक पर भार का अधिकार था तथा दूसरी सम्पत्ति पर समंजन (मुजराई) का अधिकार। ऐसी स्थिति में पाश्चिक बन्धकदार पूर्विक बन्धक को बाध्य नहीं कर सकता है कि वह अपने दावे की पूर्ति समंजन वाली सम्पत्ति से कराए तथा भार वाली सम्पत्ति छोड़ दे जिससे पाश्चिक बन्धकदार अपने दावे की पूर्ति कर सके। इसी प्रकार एक फण्ड तथा एक वाद के अधिकार के बीच क्रमबन्धन नहीं हो सकता।

    4)- तत्प्रतिकूल संविदा न हो अर्थात् यदि इस आशय की संविदा है कि पूर्विक बन्धकदार के दावे की सन्तुष्टि के पश्चात् हो, पाश्चिक बन्धकदार अपने दावे की सन्तुष्टि हेतु माँग प्रस्तुत करेगा, तो वह पूर्विक बन्धकदार से क्रमबन्धन हेतु अनुरोध नहीं कर सकेगा।

    5)- क्रमबन्धन का सिद्धान्त लागू नहीं होगा यदि इसका प्रभाव प्रथम बन्धकदार के अधिकारों को क्षति पहुंचाना है या किसी अन्य व्यक्ति के अधिकारों को जिसने किसी भी सम्पत्ति में कोई हित प्रतिफल के एवज में प्राप्त कर लिया। अर्थात् क्रमबन्धन से न तो प्रथम बन्धकदार के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े या पाश्चिक बन्धकदार के हितों को नष्ट करे। उदाहरण के लिए- क सम्पत्ति x तथा y. ख के पास बन्धक रखता है। तत्पश्चात् सम्पत्ति का बन्धक ग के पास एवं सम्पत्ति का बन्धक घ के पास रखता है। इस स्थिति में यदि ग जोर दे कि ख अपनी सम्पूर्ण धनराशि का भुगतान सम्पत्ति y से कराये तो घ के लिए, सम्भव है शेष न रहे और इस प्रकार घ का दावा नष्ट हो जाएगा। अतः ग एवं घ दोनों के कुछ भी हितों को सुरक्षित रखने हेतु सम्पत्ति x तथा y में ख के हितों का आनुपातिक वितरण किया जाएगा।

    एक स्वैच्छिक व्यक्ति, क्रमबन्धन के सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होता है। वह क्रमबन्धन की माँग नहीं कर सकता है। एक क्रेता द्वारा क्रमबन्धन की माँग सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 156 के अन्तर्गत की जा सकती है, जबकि पट्टाग्रहीता, क्रमबन्धन की माँग करने के लिए प्राधिकृत नहीं है। क्रमबन्धन की माँग पाश्चिक बन्धकदार, उसका समनुदेशिती या नीलामी विक्रय का क्रेता, कर सकेगा। इस सिद्धान्त को भार एवं ग्रहणाधिकार के मामले में भी लागू किया गया।

    प्रतिकूल संविदा -

    क्रम बन्धन का सिद्धान्त तभी लागू होता है जब पक्षकारों के बीच कोई तत्प्रतिकूल संविदा न हो। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि धारा 81 पक्षकारों को इस बात की पूर्ण अनुमति देती है कि वे आपसी संविदा द्वारा इस सिद्धान्त से अपने आप को बचा सकते हैं एवं स्वेच्छया निर्धारित शर्तों से अपने सम्बन्धों को विनियमित कर सकते हैं।

    प्रतिकूल संविदा अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकेगी पर उपयुक्त होगा यदि वह लिखित हो। उदाहरणार्थ दो सम्पत्तियाँ 'x' एवं 'y', ख को बन्धक प्रतिभूति के रूप में दी गयी। तत्पश्चात् सम्पत्ति 'x' ग को इस शर्त के साथ बन्धक की गयी कि ग ख को उन्मोचित करेगा। इस शर्त से यह अभिप्रेत है कि ग को क्रमबन्धन के अधिकार से मुक्त नहीं किया गया है।

    वह केवल ख को उन्मोचित कर सकेगा अर्थात् ख को बन्धक धनराशि अदा कर वह ग, ख का स्थान ग्रहण करेगा। वह किसी भी दशा में ख से यह नहीं कह सकेगा कि वह ख जहाँ तक सम्भव हो अपने ऋण की अदायगी '' सम्पत्ति से करें जो उसके (ख) स्वयं के नियंत्रण में है। यहाँ ग का अधिकार संविदा द्वारा विवक्षित रूप में समाप्त कर दिया गया है।

    अभिदान- (धारा 82)

    अभिदान या अंशदान से अभिप्रेत है सामान्य निधि के लिए धन की व्यवस्था करना। धारा 82 इसी आशय का प्रावधान उपबन्धित करती है। यह एक साम्या का सिद्धान्त है। इसके अनुसार जब एक ही ऋण के लिए एक से अधिक व्यक्ति उत्तरदायी हों, तो उनका दायित्व उसी अनुपात में होगा जिस अनुपात में बन्धक सम्पत्ति में उनका अंश होगा।

    उदाहरण स्वरूप यदि क, ख एवं ग, तीन भाई जो सम्पत्ति x में समान हित रखते हैं तथा उक्त सम्पत्ति को प्रतिभूति के रूप में ऋण के भुगतान हेतु घ के पक्ष में बन्धक रखते हैं। तत्पश्चात् तीनों भाइयों में आपस में बँटवारा हो जाता है।

    सम्पत्ति के विक्रय एवं बन्धक रकम को वापसी हेतु घ, एक वाद संस्थित करता है और निर्णयानुसार वह सम्पत्ति में क के अंश को बेचकर अपनी रकम को अदायगी करता है। इस स्थिति में प्रश्न यह उठेगा कि ख एवं ग का क के प्रति क्या कर्तव्य या दायित्व होगा? क्या ख एवं ग क की सहायता के लिए आबद्ध हैं?

    इस उदाहरण में तीनों का अंश प्रतिभूति के रूप में घ के पक्ष में अन्तरित हुआ था अतः तीनों अंश समान रूप में उत्तरदायी हैं उस ऋण के भुगतान हेतु जिसके लिए सम्पत्ति प्रतिभूति के रूप में दी गयी थी। चूँकि बन्धक रकम की अदायगी केवल एक अंश से हुई है, अत: शेष दोनों अंशों का यह दायित्व बनता है कि वे क को उस क्रम की भरपायी करें जो उसने अपने अंश से अधिक दिया था।

    अतः क, ख तथा ग के अंश से उसी अनुपात में अंशदान पाने के लिए प्राधिकृत होगा जिस अनुपात में उनका अंश सम्पत्ति में था। अंशदान का दायित्व तब तक उत्पन्न नहीं होता है जब तक कि साम्या समान न हो अर्थात् जो सम्पत्तियाँ प्रतिभूति के रूप में दी गयी हों वे समान रूप में ऋण के भुगतान के लिए उत्तरदायी हों।

    सामान्य ऋण के मामले में किसी ऋणी को विवश करना कि वह समस्त ऋण का भुगतान करे न्यायसंगत नहीं है। प्रत्येक ऋणी को अपने अपने अंश का भुगतान समानुपातिक रूप में करना चाहिए। यही साम्या न्याय एवं सद्विवेक का सिद्धान्त है। पर जहाँ तक बन्धकग्रहीता का प्रश्न है। वह किसी एक या एक से अधिक या सभी ऋणी व्यक्तियों से भुगतान की अपेक्षा कर सकता है।

    यदि उसने (बन्धकदार ने) किसी एक ऋणी की सम्पत्ति को आधार बनाया है अपनी रकम के भुगतान हेतु तो अन्य ऋणी व्यक्तियों का यह कर्तव्य होगा कि वे उस सीमा तक भुगतान करे जो उसने अपने अंश से अधिक दिया था। अन्य ऋणी व्यक्तियों का अंशदान इस निमित्त उसी अनुपात में होगा जितना उनका स्वयं का अंश बन्धक सम्पत्ति में था।

    जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा संयुक्त रूप में ऋण लिया जाता है तब यह अवधारणा अन्तर्निहित होती है कि वे संयुक्त रूप में ऋण के लिए बन्धक की जाती है। बन्धक ऋण एक एवं अविभाज्य होता है।

    अतएव अभिदाय या अंशदान का सिद्धान्त यह उपबन्धित करता है कि जहाँ ऋण की पूरी रकम किसी एक सम्पत्ति से वसूली जाती है तो शेष अन्य सम्पत्तियों का यह दायित्व बनता है कि वे उसकी भरपायी हेतु अंशदान करें।

    सर रास बिहारी घोष के अनुसार-

    "जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों की सम्पत्ति एक बन्धक के सृजन के लिए किसी बन्धकदार को दी जाती है या एक ही सम्पत्ति बन्धक के पश्चात् कई व्यक्तियों को परिदत्त कर दी जाती है, तो ऋणदाता नियमतः उनमें से किसी के भी विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है तथा सम्पत्ति के विक्रय या उन्मोचन को रोकने के लिए यह आवश्यक होगा कि सम्पूर्ण बन्धक रकम का भुगतान कर दिया जाए। अतः यह स्वाभाविक एवं युक्तियुक्त है कि ऐसे मामलों में वह व्यक्ति जिसे बन्धक को सम्पूर्ण सामान्य बन्धक रकम का भुगतान करने के लिए आबद्ध किया गया था को अन्य से क्षतिपूर्ति की माँग करने का अधिकार हो एवं इससे उचित नियम का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता कि उनमें से प्रत्येक अपने द्वारा या उनके द्वारा धारित सम्पत्ति के मूल्य के बराबर या इसमें अपने हित को सीमा तक अभिदान करे। विधि ऋणदाता को इस बात के लिए कष्ट नहीं देगी कि वह अपने शिकार का चयन करे और अनुचित पक्षपात करके सामान्य भार को घोर व्यक्तिगत पीड़ा में परिवर्तित कर दे।"

    अभिदाय / अंशदान का सिद्धान्त- इस अधिनियम की धारा 82 निम्नलिखित नियम का प्रतिपादन करती है -

    नियम 1.- यह एक उपबन्धित करता है कि यदि बन्धक के अध्यधीन सम्पत्ति ऐसे दो या अधिक व्यक्तियों की है जिनके उसमें सुभिन्न और पृथक् स्वामित्वाधिकार है, तत्प्रतिकूल संविदा न हो तो ऐसी सम्पत्ति में के विभिन्न अंश या भाग, जो ऐसे व्यक्तियों के स्वामित्व में है, उस बन्धक द्वारा प्रतिभूत ऋण के लिए अनुपात में अभिदाय करने के लिए दायी है और ऐसा हर अंश या भाग जिस अनुपात में अभिदाय करेगा, उसके अवधारण के प्रयोजन के लिए उसका मूल्य ऐसे किसी बन्धक या भार की रकम की जिसके अध्यधीन वह बन्धक की तारीख पर रहा हो, काट कर वह मूल्य समझा जाएगा जो तारीख पर उसका था। यह नियम अंशदान के सम्बन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करता है, साथ ही साथ यह भी सुस्पष्ट करता है कि बन्धक सम्पत्ति का मूल्य कैसे सुनिश्चित किया जाएगा। वह बन्धककर्ता जिसकी अकेली सम्पत्ति से ऋण की वसूली होती है, ऋण का अभिदाय करने के लिए अन्य सह बन्धककर्ताओं को विवश कर सकेगा। जब ऋण सामान्य होता है तो भार भी सामान्य होगा।

    क एवं ख, दो भाई अपनी संयुक्त सम्पत्ति ग के पक्ष में 10,000 रुपये बन्धक रखते हैं। बन्धक के पश्चात् वे सम्पत्ति का विभाजन कर आधा-आधा भाग लेते हैं। क एवं ख, दोनों ही बन्धक का मोचन कराने में विफल रहते हैं, फलस्वरूप ग. क के भाग को बेचकर अपनी रकम वसूल करता है। क, ख से 5,000 रुपये का अभिदाय प्राप्त करने का हकदार है।

    अभिदाय हेतु वाद-

    अभिदाय हेतु वाद तब पोषणीय होगा जब सम्पूर्ण बन्धक रकम का भुगतान बन्धक सम्पत्ति के एक भाग से किया हो। यह आवश्यक नहीं है कि सम्पूर्ण ऋण का भुगतान केवल वादी की ही सम्पत्ति से हुआ हो। बन्धक के प्रवर्तन हेतु वाद में पारित डिक्री में ही बन्धकदारों के बीच अभिदाय के प्रश्न का निर्धारण भी हो सकेगा यदि बन्धक ऋण का पूर्णरूपेण भुगतान नहीं हुआ है तो अभिदाय हेतु दावे को स्वीकृति नहीं प्राप्त होगी क्योंकि इससे जटिलता एवं वादों को बहुसंख्या को बढ़ावा मिलेगा।

    बन्धकदार के अधिकार-

    बन्धकदार को अपनी बन्धक रकम पाने का अधिकार है। बन्धक की गयी किसी भी सम्पत्ति से तथा बन्धकदार के दावे को बन्धक की गयी सम्पत्ति के किसी भी क्रेता के कहने पर विभाजित नहीं किया जा सकता है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि बन्धककतांगण व्यक्तिगत रूप से अभिदाय करने के दायित्वाधीन नहीं होते हैं। वे बन्धक सम्पत्ति में अपने पृथक् पृथकू अंशों की सीमा तक ही अभिदाय करने के दायित्वाधीन होते हैं।

    जब दो सम्पत्तियों में से एक का बन्धक किया गया हो, तत्पश्चात् दोनों सम्पत्तियों का बन्धक किया गया हो-

    नियम-2 उपबन्धित करता है कि जब बन्धककर्ता के पास दो सम्पत्तियाँ हों और उनमें से एक सम्पत्ति एक ऋण की प्रतिभूति के लिए बन्धक रखी गयी हो और फिर दोनों सम्पत्तियों को एक अन्य ऋण की प्रतिभूति के लिए बन्धक रखा गया हो तथा पूर्विक ऋण का भुगतान प्रथम सम्पत्ति से किया गया हो, तो दोनों ही सम्पत्तियाँ, तत्प्रतिकूल संविदा के अभाव में, द्वितीय बन्धक के भुगतान हेतु अनुपाती रूप में उत्तरदायी होंगी परन्तु उस सम्पत्ति से अभिदाय जिससे पूर्वभावी ऋऋण चुकाया गया है, उसके मूल्य में से वह पूर्वभावी ऋण की रकम काटकर हो, अभिदाय लिया जाएगा।

    उदाहरणार्थ क के पास x एवं y दो सम्पत्तियाँ हैं तथा प्रत्येक सम्पति को मूल्य 5,000 रुपये है। क सर्वप्रथम सम्पत्ति x, ख को प्रतिभूति के रूप में बन्धक करता है तथा ख से 3,000 रु० प्राप्त करता है। तत्पश्चात् वह x एवं y दोनों ही सम्पत्तियाँ ग के पक्ष में बन्धक करता है 7,00 रु० के लिए। सम्पत्ति x से बन्धकदार ख को 3,000 रु० का भुगतान कर दिया जाता है।

    चूँकि सम्पत्ति x का मूल्य 5,000 रु० मात्र है जिसमें 3,000 रु० मात्र का भुगतान ख के पक्ष में हो चुका है। अतः क के सम्पत्ति x से केवल 2,000 रु० बचे हैं। द्वितीय बन्धक में दोनों ही सम्पतियाँ x एवं y प्रतिभूति के रूप में दी गयी हैं तथा वर्तमान में x का मूल्य 5,000 रु० न हो कर केवल 2.00 रु० है अतः सम्पत्ति x यदि तत्प्रतिकूल संविदा नहीं है तो मात्र 2,000 रु० का अभिदान करने से लिए दायी होगी।

    चूँकि द्वितीय बन्धक 7,000 रु० में हुआ था अतः शेष 5,000 रु० का भुगतान सम्पत्ति से होगा। आनुपातिक रूप में सम्पत्तियाँ एवं y क्रमश: 2 एवं 5 (2 × 5 = 7) के अनुपात भुगतान हेतु दायी होंगी।

    वस्तुतः द्वितीय नियम प्रथम नियम का एक दृष्टान्त मात्र है और यह प्रकल्पित करता है कि यदि पूर्विक बन्धक का भुगतान किया जा चुका है तो आनुपातिक अभिदाय सुनिश्चित करने हेतु तो उक्त सम्पत्ति से संदत्त रकम काटकर ही पाश्चिक ऋण के भुगतान हेतु उससे अभिदाय लिया जाएगा। तथा वर्तमान स्थिति के अधार पर ही दोनों सम्पत्तियों का आनुपातिक अभिदाय सुनिश्चित किया जाएगा।

    दृष्टान्त - दो सम्पत्तियाँ z एवं y 1,000 रु० के ऋण के लिए प्रतिभूति के रूप में बन्धक को जाती हैं। सम्पत्ति का बाजार मूल्य 1,000 रुपये है जबकि सम्पत्ति y का बाजार मूल्य हैं 15,00 रुपये सम्पत्ति पहले से ही 500 रुपये के लिए प्रतिभूत है। रुपये 500 जिसके लिए सम्पत्ति y पहले से ही प्रतिभूत है, उसके बाजार मूल्य 1,500 रुपये में काटकर सम्पत्ति y का बाजार मूल्य निर्धारित होगा जो 1,000 रुपये होगा।

    इस 1,000 रुपये को सम्पत्ति का बाजार मूल्य माना जाएगा एवं इसी को y सम्पत्ति के दायित्व अंश के निर्धारण हेतु स्वीकृति प्रदान की जाएगी। फलस्वरूप द्वितीय ऋण के भुगतान हेतु सम्पत्ति x एवं y 1000 1000 के अनुपात में दायी होगी। दूसरे शब्दों में दोनों सम्पत्तियों का अभिदाय अंश बराबर-बराबर होगा। चूँकि बन्धक रकम 1,000 रुपये है अतः x एवं y से पाँच-पाँच सौ रुपये की अदायगी होगी:

    परन्तु यदि पूर्विक बन्धक के अन्तर्गत देय रकम पूर्विक प्रतिभूति के बाजार मूल्य से अधिक है तो पाश्चिक बन्धक रकम के भुगतान हेतु पूर्विक प्रतिभूति का बाजार मूल्य शून्य माना जाएगा और पाश्चिक बन्धक रकम के भुगतान हेतु उक्त सम्पत्ति पर कोई दायित्व नहीं होगा तथा दूसरी सम्पति पर ही भुगतान का समस्त दायित्व होगा।

    यह ध्यान में रखना समीचीन होगा कि अभिदाय हेतु वाद में सम्पत्ति का स्वामी केवल उतनी ही रकम अंशदान के रूप में मांग सकेगा जितनी उसने अपने समानुपातिक अंश से आर्थिक का भुगतान किया था। माँगकर्ता इससे अधिक की माँग नहीं कर सकता है। अभिदाय हेतु माँग सम्पत्ति पर एक दावा है।

    अभिदाय कोई दायित्व उत्पन्न नहीं होगा तक कि यह स्पष्ट कि दोनों हो सम्पत्तियों सामान्य बन्धक के अध्यधीन थी। इसी प्रकार वहाँ भी अभिदाय का सृजन नहीं होगा वहाँ एक सम्पत्ति बन्धक के लिए प्रतिभूति थी तथा दूसरी सम्पत्ति के लिए साधारण ग्रहणाधिकार के अध्यधीन हो।

    तत्प्रतिकूल संविदा आनुपातिक अभिदाय का सिद्धान तत्प्रतिकूल संविदा के अध्यधीन होता है। यदि बन्धक विलेख में यह उल्लिखित है कि एक सम्पत्ति के भुगतान के लिए मुख्य प्रतिभूति है तो अभिदाय हेतु दायित्व केवल उसी सम्पत्ति पर होगा।

    क्रमबन्धन के अध्यधीन- धारा 82 नियम तीन उपबन्धित करता है कि पाश्चिक बन्धकदार के दावे के लिए जो सम्पत्ति धारा 181 के अधीन दायी है उसे इस धारा को कोई भी बात लागू नहीं होगी। उदाहरण के लिए क के पास दो सम्पत्तियों z एवं y है। यह सम्पत्ति को बन्धक करता है तथा सम्पत्ति ग को तथा दोनों सम्पत्तियों एवं y घ को तत्पश्चात् सम्पत्ति 'च' को।

    यहाँ y दोनों हो सम्पत्तियाँ z एवं y. घ के ऋण के भुगतान के लिए समानुपातिक रूप दायी है, सम्पत्ति में से ख को बन्धक रकम के भुगतान एवं y सम्पत्ति में से ग को बन्धक रकम के भुगतान के पश्चात जहाँ तक 'घ' का प्रश्न है, उसका क्रम अन्धन का अधिकार अभिदाय के अधिकार के विरुद्ध प्रभावी होगा।

    दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यदि क्रमबन्धन एवं अभिदाय के बीच टकराव की स्थिति बनती है तो क्रमबन्धन को अभिदाय पर वरीयता प्राप्त होगी क्योंकि क्रमबन्धन का सिद्धान्त पाश्चिक बन्धकदार के हितों को सुरक्षित करता है, पूर्विक बन्धकदार को आबद्ध करते हुए कि जहाँ तक सम्भव हो वह अपनी रकम का भुगतान उसी सम्पत्ति से करे जो उसको बन्धक ऋण के भुगतान हेतु प्रतिभूति के रूप में दी गयी है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अभिदाय का अधिकार बन्धककर्ता का है जबकि क्रमबन्धन का अधिकार पाश्चिक बन्धकदारों का।

    क्रमबन्धन एवं अभिदाय में तुलना-

    1. क्रमबन्धन के अन्तर्गत प्रतिस्पर्धी बन्धकदारों के अधिकारों का निर्धारण होता है जिसमें उनके भुगतान की वरीयता निर्धारित होती है जबकि अभिदाय में बन्धकर्ताओं के अधिकारों का आपस में निपटारा होता है।

    2 क्रमबन्धन में पाश्चिक बन्धकदार, पूर्विक बन्धकदार से अपेक्षा करता है कि वह अपने ऋण का भुगतान उन सम्पत्तियों से कराये जो उनके ( पाश्चिक बन्धकदार के) पक्ष में अन्तरित नहीं की गयी है। किन्तु अभिदाय में यह अपेक्षा की जाती है कि एक निधि जो किसी अन्य निधि के साथ समान रूप में ऋण के भुगतान हेतु दायी है भुगतान से बच नहीं सकेगी क्योंकि ऋणदाता को केवल एक निधि से भुगतान कर दिया गया था।

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