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संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 28: बंधकदार के अधिकार और कर्तव्य

Shadab Salim
17 Aug 2021 7:40 AM GMT
संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 28: बंधकदार के अधिकार और कर्तव्य
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संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत जिस प्रकार इससे पूर्व के आलेख में एक बंधककर्ता के मोचन के अधिकार का उल्लेख किया गया था इसी प्रकार इस आलेख के अंतर्गत बंधकदार के अधिकार और कर्तव्यों का उल्लेख किया जा रहा है।

एक बंधकदार के अधिकार और कर्तव्य संपत्ति अंतरण अधिनियम कि किसी एक धारा में समाहित नहीं किए गए हैं अपितु धारा 67 से लेकर धारा 77 तक बंधकदार के अधिकारों एवं कर्तव्यों से संबंधित है तथा उनकी विवेचना प्रस्तुत कर रही है।

इस आलेख के अंतर्गत उन सभी धाराओं के प्रावधानों पर सारगर्भित टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है तथा इससे पूर्व के आलेख में एक बंधककर्ता के मोचन के अधिकार से संबंधित जानकारियों के लिए अध्ययन किया जा सकता है।

धारा 67 से 77 तक की धाराएँ बन्धकदार के अधिकारों एवं कर्तव्यों की विवेचना करती हैं। धारा 67 से 73 तक बन्धकदार के अधिकारों का उल्लेख करती हैं जबकि धारा 67क, 76 और 77 उसके कर्तव्यों का उल्लेख करती हैं।

यह धारा, धारा 60 की प्रतिरूप (Counter part) है जो बन्धककर्ता के अधिकारों का वर्णन करती है। यह धारा बन्धकदार को जब्तीकरण अथवा विक्रय का अधिकार प्रदान करती है। जब्तीकरण या पुरोबन्ध वह प्रक्रिया है, जिसके फलस्वरूप बन्धककर्ता का मोचनाधिकार समाप्त हो जाता है तथा बन्धकदार बन्धक सम्पत्ति का स्वामी बना जाता है।

किसी तत्प्रतिकूल संविदा के अभाव में बन्धकदार, बन्धक धन शोध्य हो जाने के उपरान्त तथा मोचनाधिकार के प्रयोग हेतु डिक्री पारित होने या बन्धकधन चुकाये जाने, या निक्षिप्त किये जाने से पहले किसी भी समय, बन्धककर्ता को मोचनाधिकार का प्रयोग करने से आत्यन्तिक रूप से विवर्जित करने, या सम्पत्ति बेचने की डिक्री अभिप्राप्त कर सकता है।

मोचनाधिकार तथा पुरोबन्ध या जब्तीकरण में निम्नलिखित अन्तर है :-

1. मोचनाधिकार बन्धक धन के संदाय हेतु निर्धारित तिथि के समाप्त होने पर तुरन्त उत्पन्न होता है। पुरोबन्ध का अधिकार भी तत्समय ही उत्पन्न होता है, पर इसका प्रयोग मोचनाधिकार हेतु डिक्री पारित होने या बन्धक धन चुकाये जाने या निक्षिप्त किये जाने से पूर्व ही हो सकेगा।

2. बन्धककर्ता को प्राप्त मोचनाधिकार आत्यन्तिक होता है। अतः प्रतिकूल संविदा द्वारा यह उसका त्याग या अभित्यजन नहीं कर सकता है। इसके विपरीत पुरोबन्ध या विक्रय का अधिकार प्रतिकूल संविदा द्वारा समाप्त किया जा सकता है। यह अधिकार आत्यन्तिक प्रकृति का नहीं होता है।

स्पष्टीकरण-खण्ड (क) यह उपबन्धित करता है कि बन्धकदार को कब पुरोबन्ध तथा कबबविक्रय का अधिकार प्राप्त होगा।

साधारण बन्धक - साधारण बन्धक में पुरोबन्ध का अधिकार बन्धकदार को नहीं प्राप्त होगा, क्योंकि इसमें यथार्थतः विक्रय का ही अधिकार अन्तरित होता है। विक्रय के अधिकार का प्रयोग भी न्यायालय की पूर्वानुमति से हो सकेगा। इस आशय हेतु बन्धक धन शोध्य होने की तिथि से 12 वर्ष की अवधि बीतने से पूर्व न्यायालय में वाद संस्थित हो जाना चाहिए।

यदि बन्धक सम्पत्ति के विक्रय से बन्धक धन का भुगतान नहीं हो पाता है तो बन्धककर्ता के विरुद्ध अवशिष्ट धनराशि के भुगतान हेतु वैयक्तिक डिक्री पारित की जा सकेगी, पर यह तभी सम्भव हो सकेगा जबकि वैयक्तिक माँग परिसीमन द्वारा अवरोधित न हो चुकी हो।

भोग बन्धक- भोग बन्धक में केवल कब्जे का अधिकार प्राप्त होता है। अतः बन्धकदार तब तक सम्पत्ति को अपने कब्जे में रख सकता है जब तक कि उसके ऋण का भुगतान न हो जाए। अत: इस प्रकार के बन्धक में न तो पुरोबन्ध और न ही विक्रय के अधिकार का प्रयोग हो सकेगा।

सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक - सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक में बन्धकदार केवल जब्तीकरण या पुरोबन्ध के अधिकार का प्रयोग कर सकता है। वह विक्रय हेतु न्यायालय से डिक्री नहीं प्राप्त कर सकेगा। सशर्त विक्रय निर्धारित तिथि पर बन्धक धन का भुगतान न किये जाने पर पूर्ण विक्रय में परिवर्तित हो जाता है।

यदि बन्धकदार पहले से ही सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त नहीं किये हुए है तो वह उसके कब्जे का हकदार उस समय हो जाएगा जब पुरोबन्ध की डिक्री उसके पक्ष में पारित होगी और यदि बन्धककर्ता कब्जा देने से इन्कार करता है तो बन्धकदार उस तिथि से जिस तिथि को वा कब्जे का हकदार हुआ था, 12 वर्ष की अवधि बीतने के पूर्व कब्जा प्राप्त करने हेतु वाद दायर कर सकेगा

इंग्लिश बन्धक- इंग्लिश बन्धक की स्थिति में बन्धकदार केवल बन्धक सम्पत्ति का विक्रय करा सकता है। पुरोबन्ध का लाभ उसे नहीं प्राप्त होगा। हक विलेख के निक्षेप द्वारा बन्धक इस प्रकार के बन्धक में भी बन्धकदार बन्धक सम्पत्ति के विक्रय द्वारा अपने ऋण की आपूर्ति कर सकेगा।

विलक्षण बन्धक- विलक्षण बन्धक की स्थिति में बन्धकदार का अधिकार विलेख में उल्लिखित शर्तों पर निर्भर करता है। पुरोबन्ध हेतु वह तभी वाद दायर कर सकेगा जब इस आशय का स्पष्ट उल्लेख हो।

यदि ऐसा नहीं है तो वह केवल बन्धक सम्पत्ति के विक्रय हेतु बाद दायर कर सकेगा। विक्रय हेतु वाद वह तब भी दायर कर सकेगा जबकि इस आशय का कोई भी उल्लेख बन्धक विलेख में न हुआ हो। पर कोई तत्प्रतिकूल संविदा न हुई हो।

जहाँ बन्धककर्ता, बन्धकदार के लिए न्यासी है- खण्ड (ख) उपबन्धित करता है कि यदि बन्धककर्ता बन्धकदार के लिए न्यासी है या उसका विधिक प्रतिनिधि है तो वह अपनी इस हैसियत में पुरोबन्ध के अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकेगा वह केवल विक्रय हेतु वाद दायर कर सकेगा।

न्यासी की स्थिति में भी यह विक्रय हेतु वाद दायर कर सकेगा। न्यासी अथवा विधिक प्रतिनिधि के रूप में बन्धककर्ता का यह दायित्व होता है कि वह उस सम्पत्ति को लाभार्थी हेतु सुरक्षित रखे।

बन्धकदार के अधिकार यदि बन्धक सम्पत्ति, लोक सम्पत्ति है— खण्ड (ग) यह उपबन्धित करता है कि यदि बन्धक की विषयवस्तु लोक सम्पत्ति है जिसके अनुरक्षण में लोक हित व्याप्त है तो बन्धकदार न तो उस सम्पत्ति का पुरोबन्ध करा सकेगा और न ही विक्रय ऐसे मामलों में समुचित कार्यवाही यह होगी कि बन्धक सम्पत्ति का रिसीवर नियुक्त किया जाए, जिसका यह दायित्व होगा कि वह उक्त सम्पत्ति का चालू प्रतिष्ठान को भाँति प्रबन्ध करें और उससे उद्भूत आय को ऋण के भुगतान हेतु इस्तेमाल करे।

आंशिक पुरोबन्ध या विक्रय - खण्ड (घ) आंशिक पुरोबन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करता है। यह खण्ड आंशिक पुरोबन्ध की अनुमति नहीं देता है कि यदि कोई व्यक्ति बन्धक धन के एक भाग मात्र में ही हितबद्ध है तो वह उस भाग के सम्बन्ध में ही वाद संस्थित करने में सक्षम नहीं होगा। पर ऐसा बन्धकदार, जो बन्धककर्ता की सम्मति से अनेक सम्पत्तियों को बन्धक धन के रूप में धारण किये हुए हैं, एक या अनेक सम्पत्तियों के सम्बन्ध में वाद संस्थित करने में सक्षम होगा।

इस खण्ड में वर्णित सिद्धान्त इस उक्ति पर आधारित है कि बन्धक ऋण एक एवं अविभाजनीय । अतः बन्धकदार प्रतिभूति के एक अंश मात्र का पुरोबन्ध नहीं कर सकेगा। बन्धककर्ता को अनेक वादों से परेशान नहीं किया जा सकता है।

पर एक बन्धक के लिए यदि अनेक प्रतिभूतियाँ दी गयी हैं तो अलग-अलग पुरोबन्ध सम्भव अंश व बन्धकदार का उपचार अन्य बन्धकदारों की सम्पत्ति में निहित होता है पर यदि उनकी सम्पत्ति प्राप्त करने में वह विफल रहता है तो उसका उपचार यह है कि वह उनके साथ सह प्रतिवादी के रूप में पूर्ण बन्धक धन प्राप्त करने हेतु वाद संस्थित करे। इस धारा में वर्णित सिद्धान्त, धारा 60 में वर्णित सिद्धान्त का स्वाभाविक परिणाम है।

पूर्वोक्त धारा 67क में यह उपबन्धित है कि बन्धकदार कब पुरोबन्ध के अधिकार का प्रयोग कर सकेगा और कब विक्रय के अधिकार का इस धारा में यह उपबन्धित है कि कब वह विक्रय हेतु वाद संस्थित कर सकेगा। यह बन्धकदार का वैयक्तिक अधिकार है। इस धारा में दो भिन्न प्रकृति के वादों का उल्लेख है।

खण्ड (क) में वर्णित वाद किसी प्रत्यक्ष या परोक्ष वैयक्तिक प्रसंविदा के प्रवर्तन हेतु है जबकि खण्ड (ख), (ग) तथा (घ) में वर्णित वाद प्रतिकर की प्रकृति का है।

इन प्रावधानों का उद्देश्य बन्धकदार को उस अवस्था में प्रतिकर देना है जबकि सम्पत्ति के शान्तिपूर्ण उपभोग में बाधा उत्पन्न हुई हो। ये प्रावधान समर्थकारी (Enabling) प्रकृति के हैं। अत: बन्धकदार ऐसे अतिचारी के विरुद्ध वाद संस्थित करने के वंचित नहीं हैं जिसके पास सम्पत्ति का कब्जा है। इसमें उन परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है जिनके अधीन बन्धक धन की प्राप्ति हेतु वाद संस्थित किया जा सकेगा।

शर्तें इस प्रकार हैं:

(क) जबकि बन्धककर्ता ने बन्धक धन का स्वयं भुगतान करने का वचन दिया हो।

(ख) जबकि किसी भी पक्षकार की त्रुटि के बिना बन्धक सम्पत्ति पूर्णत: या अंशत: नष्ट हो गयी हो।

(ग) जबकि बन्धककर्ता के किसी त्रुटिपूर्ण कार्य के फलस्वरूप बन्धकदार अपनी प्रतिभूति से पूर्णत: या अंशतः वंचित हो गया हो, तथा

(घ) जबकि बन्धकदार बन्धक सम्पत्ति के कब्जा का हकदार हो, किन्तु बन्धककर्ता कब्जा प्रदान करने में असफल हो।

( क ) वैयक्तिक प्रसंविदा – यदि बन्धककर्ता ने बन्धक धन के भुगतान हेतु वैयक्तिक दायित्व लिया था चाहे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से और वह भुगतान करने में विफल रहता है, तो बन्धकदार उस धन की अदायगी हेतु वाद दायर कर सकेगा, ऐसी स्थिति साधारण बन्धक के मामलों में उत्पन्न होती है।इंग्लिश बन्धक में भी ऐसी ही स्थिति होती है।

पर अन्य प्रकार के बन्धकों में बन्धक धन के भुगतान हेतु बन्धककर्ता व्यक्तिगत तौर पर दायित्व नहीं लेता है। पर यदि दोनों पक्षकार चाहें तो आपस में इस आशय की संविदा कर सकते हैं। बन्धक विलेख में यह वचनबद्धता कि ऋण की अदायगी एक निश्चित अवधि के भीतर कर दी जाएगी।

वैयक्तिक दायित्व का परिचायक नहीं है, पर यह उल्लिखित है कि बन्धकधन बन्धकर्ता ने स्वयं प्राप्त किया था और उस ऋण की अदायगी हेतु किसी अन्य रीति का उल्लेख नहीं है तो यह माना जाएगा कि उसने ऋण भुगतान के लिए व्यक्तिगत दायित्व लिया था। यह सदैव विचारण विषयक प्रश्न होता है कि प्रसंविदा बन्धककर्ता के विरुद्ध व्यक्तिगत तौर पर प्रवर्तनीय होगी या नहीं।

वैयक्तिक प्रसंविदा भूमि के साथ नहीं चलती है। अतः मोचनाधिकार के क्रेता के विरुद्ध वैयक्तिक डिक्री नहीं पारित की जा सकेगी वैयक्तिक प्रसंविदा का लाभ बन्धकदार को तब भी प्राप्त होगा जबकि विलेख पंजीकरण के अभाव में अवैध है। पड़ यदि बन्धक स्वयं में अवैध है तो वैयक्तिक प्रसंविदा के आधार पर वाद संस्थित नहीं हो सकेगा।

बन्धककर्ता अथवा उसके विधिक प्रतिनिधि के अन्तरिती के विरुद्ध बन्धक धन की अदायगी हेतु वाद संस्थित नहीं होगा। इस खण्ड में वर्णित प्रावधान केवल उन परिस्थितियों में लागू होंगे जबकि वादी वैयक्तिक प्रसंविदा के आधार पर बन्धकदार की हैसियत से वाद दायर कर रहा हो।

(ख) जबकि बन्धक सम्पत्ति नष्ट हो गयी हो - जबकि बन्धक सम्पत्ति पूर्णरूपेण अथवा अंशतः बन्धककर्ता अथवा बन्धकदार की बिना किसी त्रुटि के नष्ट हो गयी हो तो ऐसी स्थिति में बन्धककर्ता या तो नवीन प्रतिभूति प्रदान करता है अथवा बन्धक धन की अदायगी करता है।

पर यदि बन्धक सम्पत्ति बन्धकदार की किसी त्रुटि के फलस्वरूप नष्ट हुई है तो बन्धककर्ता क्षतिपूर्ति पाने का हकदार होगा। यदि बन्धक सम्पत्ति भूमि के कटाव के फलस्वरूप पूर्णत: या अंशत: नष्ट हुई है तो बन्धकदार, बन्धक धन की माँग करने के लिए स्वतंत्र होगा। भूमि अधिग्रहण अधिनियम के अन्तर्गत भूमि का अधिग्रहण सम्पत्ति के नष्ट होने के तुल्य है और ऐसी प्रक्रिया पर यह खण्ड लागू होगा।

इस खण्ड के अन्तर्गत बन्धकदार का प्रथम उपचार यह है कि वह बन्धककर्ता से दूसरी प्रतिभूति की माँग करे और बन्धककर्ता यदि उसका अनुपालन करने में विफल रहता है तो बन्धक धन की अदायगी हेतु वह वाद संस्थित कर सकेगा।

(ग) बन्धककर्ता का दोषपूर्ण कार्य या त्रुटि- यदि बन्धकदार पूर्णरूपेण या अंशतः अपनो प्रतिभूति से वंचित कर दिया जाता है और ऐसा बन्धककर्ता के किसी दोषपूर्ण कार्य या त्रुटि के कारण होता है तो बन्धकदार, बन्धक धन प्राप्त करने के उद्देश्य से बन्धककर्ता के विरुद्ध वाद संस्थित कर सकेगा। बन्धककर्ता का दोषपूर्ण कार्य या त्रुटि बन्धकदार के वंचयन की पूर्व प्रक्रिया है।

अतः यदि बन्धक सम्पत्ति किसी पूर्विक बन्धक के अध्यधीन थी, किन्तु यह तथ्य पाश्चिक बन्धकदार को प्रकट नहीं किया गया था तो बन्धक सम्पत्ति से वंचित होने पर बन्धकदार बन्धकधन की अदायगी हेतु वाद संस्थित कर सकेगा।

इसी प्रकार यदि बन्धककर्ता, बन्धक सम्पत्ति पर देय करों का भुगतान नहीं करता है जिसके परिणास्वरूप बन्धकदार उस सम्पत्ति से वंचित हो जाता है तो वह बन्धक धन के लिए वाद चला सकेगा। पर उस स्थिति में बन्धकदार को कोई उपचार नहीं प्राप्त होगा जबकि वह अपनी त्रुटि के कारण बन्धक सम्पत्ति से वंचित हुआ हो यदि बन्धककर्ता की मृत्यु के पश्चात् उसका उत्तराधिकारी बन्धक सम्पत्ति का स्वामी बनता है और अपने पूर्ववत बन्धक को स्वीकार करता है पर बन्धक सम्पत्ति का दुरुपयोग करता है जिसके कारण प्रतिभूति का मूल्य कम हो जाता है, तो बन्धकदार वाद चलाने का अधिकारी होगा

(घ) कब्जा प्रदान करने में बन्धककर्ता की विफलता- खण्ड (घ) उपबन्धित करता है कि यदि बन्धकदार कब्जे का हकदार है पर बन्धककर्ता कब्जा प्रदान करने में असमर्थ रहता है तो बन्धकदार बन्धक धन की अदायगी हेतु वाद संस्थित कर सकेगा। यह खण्ड वस्तुतः भोग बन्धक के सम्बन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करता है। भोग बन्धक में सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करना बन्धकदार का विधिक अधिकार है। अतः बन्धककर्ता कब्जा प्रदान करने के दायित्वाधीन है। यदि बन्धकदार बन्धक सम्पत्ति के कब्जा से कब्जा प्राप्त करने के बाद वंचित कर दिया जाता है, तो भी वह बन्धक धन की अदायगी के लिए वाद संस्थित कर सकेगा।

वाद का स्थगन - उपधारा (2) न्यायालय को बन्धकदार द्वारा संस्थित वाद तथा समस्त कार्यवाहियों को स्थगित करने का प्राधिकार देती है यदि वाद इस धारा के खण्ड (क) या (ख) के अन्तर्गत दायर किया गया है। ऐसा न्यायालय, तत्प्रतिकूल संविदा के होते हुए भी कर सकेगा। इसके साथ ही न्यायालय बन्धकदार को यह भी निर्देश देने के लिए सक्षम होगा कि वह बन्धक सम्पत्ति के विरुद्ध अपने समस्त उपचार प्राप्त करे जब तक कि उसने बन्धक सम्पत्ति का त्याग न कर दिया हो यदि आवश्यक होगा तो उस दशा में जबकि बन्धकदार ने बन्धक सम्पत्ति का त्याग कर दिया हो, बन्धक सम्पत्ति के पुनः अन्तरण का आदेश देगा।

विक्रय द्वारा बन्धक के प्रवर्तन हेतु वाद सिविल न्यायालय द्वारा ही निर्णीत हो सकता है क्योंकि यह एक लोकलक्षी अधिकार होता है और लोकलक्षी अधिकार के सम्बन्ध में केवल सिवित न्यायालय ही सक्षम न्यायालय होता है। इस सन्दर्भ में यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि बन्धक का करार या विक्रय का करार स्वयं में किसी लोकलक्षी अधिकार का सृजन नहीं करता है क्योंकि मात्र करार में किसी अधिकार का सृजन नहीं होता है, इससे मात्र एक वैयक्तिक आबद्धता का सृजन होता है। वैयक्तिक आबद्धता की स्थिति भिन्न होती है।

विक्रय करने की शक्ति कब विधिमान्य होती है- (धारा 69)

यह धारा बन्धकदार की विक्रय की शक्ति के सम्बन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करती है। इसमें वर्णित शक्ति का प्रयोग न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना हो सकेगा। इस धारा में वर्णित शक्ति साधारण बन्धक के मामले में बन्धकदार को प्राप्त शक्ति से भिन्न है।

न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना विक्रय शक्ति का प्रयोग निम्नलिखित दशाओं में हो सकेगा:-

(क) बन्धक, इंग्लिश बन्धक हो और बन्धक के पक्षकार हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध या किसी अधिसूचित वर्ग के न हों।

(ख) जब सरकार बन्धकदार हो और बन्धक विलेख द्वारा विक्रय की शक्ति सरकार को प्रदान की गयी हो।

(ग) जबकि सम्पत्ति कलकत्ता, मद्रास, बम्बई या राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित किसी अन्य कस्बे में विद्यमान है। विक्रय की शक्ति का प्रयोग बन्धकदार स्वयं कर सकता है या उसके बदले कार्य करता हुआ कोई अन्य व्यक्ति या उसका समनुदेशिती (Assignee) विक्रय की शक्ति का प्रयोग करते हुए बन्धकदार सम्पूर्ण सम्पत्ति का विक्रय कर सकता है या उसके एक अंश का इंग्लिश विधि भारतीय विधि से कुछ भिन्न है। उक्त विधि के अन्तर्गत बन्धकदार भूबद्ध वस्तुओं को भूमि से अलग कर नहीं बेच सकता है।

विक्रय शक्ति के प्रयोग हेतु शर्ते- इस शक्ति का प्रयोग बन्धकदार उपधारा (2) में वर्णित प्रावधान का अनुसरण करते हुए कर सकेगा। उक्त उपधारा में वर्णित प्रावधान का अनुसरण अनिवार्य है। संविदा या किसी अन्य प्रक्रिया द्वारा इन्हें समाप्त नहीं किया जा सकेगा।

उपधारा (2) में वर्णित प्रावधान इस प्रकार हैं:

(i) बन्धकदार बन्धक धन के भुगतान हेतु निर्देश देते हुए लिखित सूचना बन्धककर्ता को दे। यदि एक से अधिक बन्धककर्ता हैं तो उनमें से किसी एक को दी गयी सूचना पर्याप्त होगी। ऐसी सूचना दिये जाने के उपरान्त बन्धकर्ता बन्धक धन या उसके किसी भाग का तीन माह तक भुगतान करने में असफल रहे; अथवा

(ii) बन्धक के अधीन कुछ ब्याज, जिसकी रकम कम से कम पाँच सौ रुपया हो और शोध्य होने पर तीन मास तक अदत्त बकाया हो।

यदि बन्धक धन के भुगतान कोई तिथि निश्चित नहीं की गयी है तो इस भुगतान में बन्धककर्ता द्वारा व्यतिक्रम तब तक नहीं माना जाएगा जब तक कि उसके भुगतान की माँग न की गयी हो। विक्रय की सूचना देने के पश्चात् लम्बे समय तक सम्पत्ति का विक्रय न करने से बन्धकदार के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। नवीन सूचना आवश्यक नहीं होगी। सूचना देने के प्रकार का इस धारा में उल्लेख नहीं है। इतना पर्याप्त होगा कि सूचना में कालावधि की चेतावनी दे दो गयी है। बन्धककर्ता को इस अधिनियम की धारा 102 के अनुरूप सूचना दी जाएगी।

क्रेता की सुरक्षा—उपधारा 3 क्रेता के हितों को सुरक्षित करती है और यह उपबन्धित करती है कि क्रेता के हितों से इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकेगी कि ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं हुई है जिसमें सम्पत्ति का विक्रय आवश्यक हो, या विक्रय हेतु समुचित सूचना नहीं दी गयी थी, या विक्रय शक्ति का अनियमित ढंग से प्रयोग किया गया था। विक्रय में बरती गयी अनियमितताओं के कारण विक्रय रद्द नहीं किया जा सकेगा।

अनियमितता के कारण हुई क्षति की पूर्ति के लिए वह मुआवजा पाने का हकदार होगा। जहाँ तक क्रेता का प्रश्न है, उसका दायित्व सामान्य छानबीन तक सीमित है पर उसे सामान्य प्रज्ञा वाले व्यक्ति की तरह कार्य करना होगा।

यदि इस प्रकार कार्य करते हेतु उसे किसी अनियमितता का आभास होता है, फिर भी वह सम्पत्ति क्रय करता है, तो उसे संरक्षण प्राप्त न होगा और वह संव्यवहार का एक पक्षकार बन जाएगा। किन्तु यदि उसे अनियमितता का आभास नहीं है या नोटिस की औपचारिकता समाप्त कर दी गयी है तो उसे संरक्षण प्राप्त होगा।

विक्रय धन का विनियोग - उपधारा (4) सम्पत्ति के विक्रय से प्राप्त धन के विनियोग के सम्बन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करती है। विक्रय से प्राप्त धन के विनियोग का दायित्व बन्धकदार पर होता है और वह निम्नलिखित क्रम में उसके विनियोग करेगा:

(i) पूर्विक ऋण भारों के उन्मोचन हेतु।

(ii) विक्रय की प्रक्रिया पूर्ण करने में समुचित रूप में हुए खर्ची, प्रभारों एवं व्ययों के भुगतान हेतु।

(iii) बन्धक धन के भुगतान हेतु।

(iv) यदि कोई धन अवशिष्ट बचता है तो वह उस व्यक्ति को सौंप दिया जाएगा जो बन्धक सम्पत्ति का हकदार है। अवशिष्ट धनराशि के लिए बन्धकदार न्यासी की हैसियत में होगा जिसका भुगतान अन्ततः बन्धककर्ता को या उसके द्वारा मनोनीत किसी अन्य व्यक्ति को कर दिया जाएगा।

यदि वह अवशिष्ट धनराशि को अपने पास ही रखे रहता है तो उस धनराशि पर वह सरकार द्वारा निर्धारित दर से ब्याज अदा करने के दायित्वाधीन होगा। यदि बन्धक सम्पत्ति पर पाश्चिक प्रभार भी है और उन प्रभारों का ज्ञान उसे है तो उसका यह कर्तव्य होगा कि वह अवशिष्ट धन राशि बन्धककर्ता को वापस करने से पूर्व उन पाश्चिक प्रभारों का भी भुगतान करे। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो पाश्चिक बन्धकदार उसके विरुद्ध वाद संस्थित करने में सक्षम होगा।

विक्रय का प्रभाव - राजा राजेश किशन दत्त बनाम राजा मुमताज अली खान के वाद में इस प्रश्न पर विचार करते हुए प्रिवी कौंसिल ने यह मत अभिव्यक्त किया था कि बन्धक सम्पत्ति के विक्रय के फलस्वरूप बन्धककर्ता का मोचनाधिकार समाप्त हो जाता है तथा बन्धकदार समस्त दायित्वों का निर्वाह करने के पश्चात् यदि कोई अवशिष्ट धन राशि है तो उसका न्यासी बन जाएगा. और अन्ततः अवशिष्ट धनराशि बन्धककर्ता को या उसके द्वारा मनोनीत व्यक्ति को वापस लौटाने के दायित्वाधीन होगा। क्रेता बन्धक सम्पत्ति को सभी पूर्विक दायित्वों से मुक्त रूप में प्राप्त करता है।

यदि बन्धक धन के भुगतान हेतु बन्धक सम्पत्ति का विक्रय किया जाता है तो ऐसी सम्पत्ति का विक्रेता इस बात के दायित्वाधीन होता है कि वह बन्धक सम्पत्ति का संभावित उचित मूल्य प्राप्त करे। सम्भावित उचित मूल्य का अभिप्राय है कि वह सम्पत्ति का उपयुक्त बाजार मूल्य प्राप्त करे क्योंकि बन्धकदार, जो सम्पत्ति का विक्रय कर रहा है वह तत्समय उस सम्पत्ति का न्यासी होता है।

तथा अपनी रकम की अदायगी के उपरान्त अवशिष्ट रकम को वह अन्य बंधक धारकों के लिए धारण करता है और अन्ततः बन्धककर्ता के लिए अतः प्रथम भार धारक के लिए यह आवश्यक है कि वह सम्पत्ति इस प्रकार धारण करे जिससे न केवल उसका हित सुरक्षित रहे अपितु पाश्चिक भार धारकों का भी हित सुरक्षित रहे।

इससे यह अभिप्रेत है कि प्रथम भार धारक बन्धक सम्पत्ति का सर्वोत्तम सम्भव मूल्य प्राप्त करने के दायित्वाधीन है और यह सर्वोत्तम सम्भव मूल्य है उचित बाजार मूल्य अतः जब तक अपिलार्थी यह साबित नहीं कर देता है कि बन्धक सम्पत्ति का उचित बाजार मूल्य प्राप्त नहीं किया गया था, तब तक यह निष्कर्ष निकाला जाएगा कि बन्धक सम्पत्ति का विक्रय करने वाले व्यक्ति ने उस सम्पत्ति का उचित मूल्य प्राप्त किया था।

क्या बन्धकदार, बन्धक सम्पत्ति का क्रय करने के लिए सक्षम है?— यदि बन्धकदार, अपनी विक्रय शक्ति का प्रयोग करते हुए स्वयं उस सम्पत्ति को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खरीदता है तो विक्रय शून्य माना जाएगा अतः विक्रय की वैधता हेतु यह आवश्यक है कि बन्धकदार न तो स्वयं और न ही अपने अभिकर्ता या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उस सम्पत्ति को क्रय करे।

रिसीवर की नियुक्ति - धारा 69 (क)

इस धारा में रिसीवर की नियुक्ति, उसके कर्तव्यों और दायित्वों का उल्लेख किया गया है। रिसीवर की नियुक्ति बन्धकदार करता है, पर केवल उस परिस्थिति में जब कि बन्धक सम्पत्ति का कब्जा उसके पास हो। बन्धककर्ता भी उसकी नियुक्ति में महत्व रखता है। इस धारा में वर्णित सिद्धान्त इंग्लिश विधि से लिए गये हैं जिन्हें सन् 1929 में इस अधिनियम को संशोधित कर इसमें समाहित किया गया।

टी० पी० एक्ट, 1882 एवं सिक्योरिटाइजेशन एण्ड रीकान्स्ट्रक्शन आफ फाइनेन्सियल एसेट्स एण्ड इन्फोर्समेण्ट आफ सिक्योरिटी इन्टरेस्ट्स एक्ट, 2002 - सिक्योरीटाइजेशन एक्ट 2012 में सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 की धारा 69 एवं 69 क का उल्लेख हुआ है।

इस कारण एन० वी० पुष्पंगदन एवं अन्य बनाम फेडरल बैंक लि० एवं अन्य में यह प्रश्न विचारण हेतु उठा था कि क्या सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम में उल्लिखित धाराओं 69 एवं 69-क में वर्णित उपबन्ध ही सिक्योरिटाइजेशन एक्ट, 2002 के सम्बन्ध में प्रवर्तनीय हैं या समस्त सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम।

केरल उच्च न्यायालय ने सूत्र "कतिपय का स्पष्ट उल्लेख अन्य का निषेध करता है" का प्रयोग करते हुए यह सुस्पष्ट किया है कि चूँकि सिक्योरिटाइजेशन अधिनियम में सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धाराओं 69 एवं 69 क का स्पष्ट उल्लेख हुआ है अतः सम्पत्ति अन्तरण के अन्य प्रावधान सिक्योरिटाइजेशन अधिनियम के सन्दर्भ में लागू नहीं होंगे।

बंधकदार के कर्तव्य -(धारा 76)

इस धारा में कब्जा सहित बन्धकदार के दायित्वों का उल्लेख हुआ है। खण्ड (ग) तथा (घ) में वर्णित दायित्वों के सिवाय सभी दायित्व बाध्यकारी हैं। अतः किसी प्रतिकूल संविदा द्वारा इन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता है। प्रत्येक मामले में इनका अनुपालन होना आवश्यक है। सकब्जा बन्धकदार, बन्धक सम्पत्ति के न्यासी की हैसियत से होता है।

इस धारा के अन्तर्गत उसके निम्नलिखित दायित्व हैं :-

(क) सामान्य प्रज्ञा से सम्पत्ति का प्रबन्ध करना - यह खण्ड उपबन्धित करता है कि बन्धकदार सामान्य प्रज्ञा वाले व्यक्ति की भाँति बन्धक सम्पत्ति का प्रबन्ध करे। उससे इस प्रकार कार्य करना अपेक्षित है, जैसे वह उसकी अपनी सम्पत्ति हो। उससे विशिष्ट कौशल एवं सावधानी अपेक्षित नहीं है। इतना ही पर्याप्त है कि वह सामान्य प्रज्ञा वाले व्यक्ति की भाँति कार्य करे। उदाहरण स्वरूप, यदि बन्धक सम्पत्ति कृषि भूमि है तो बन्धकदार द्वारा उसमें साधारण किस्म की फसल उगाना पर्याप्त होगा। यदि उसकी किसी गलती के बगैर उपज कम हो जाती है तो वह जवाबदेह नहीं होगा, किन्तु यदि उसकी उपेक्षा सिद्ध हो जाती है तो उसके लिए जवाबदेह होगा। इसी प्रकार उससे यह अपेक्षित है कि वह बन्धक सम्पत्ति की मरम्मत कराये और ऐसा करने में यदि वह चूक करता है तो उत्तरदायी होगा और उसे क्षतिपूर्ति अदा करनी होगी।

(ख) भाटकों एव लाभों को वसूल करना - सकब्जा बन्धकदार का यह दायित्व है कि वह सम्पत्ति से उद्भूत भाटकों एवं प्रलाभों को वसूल करे, पर वह ऐसे भाटकों को वसूल करने के दायित्वाधीन नहीं होगा जिन्हें उचित प्रयास के बावजूद भी प्राप्त नहीं किया जा सकता हो। बनारसी प्रसाद बनाम रामनारायन के वाद में प्रिवी कौंसिल ने अभिप्रेक्षित किया था कि "बन्धकदार केवल उन भाटकों तथा लाभों के लिए उत्तरदायी है जिन्हें उसने प्राप्त किया था या जो उसके बदले प्राप्त किये गये थे या जो उसके द्वारा भी की गयी उपेक्षा के कारण प्राप्त नहीं किये जा सके।" यह सुनिश्चित करना बन्धकदार का दायित्व है कि जहाँ तक सम्भव है, सभी भाटक वसूल किये जाएं। और उनका समुचित लेखा रखा जाए। बन्धकदार बन्धककर्ता तथा उसके द्वारा मनोनीत व्यक्ति के प्रति जवाबदेह है।

(ग) सरकारी राजस्व का भुगतान- किसी प्रतिकूल संविदा के अभाव में सकब्जा बन्धकदार सरकारी राजस्व का भुगतान करने के दायित्वाधीन होता है।

उसका यह दायित्व दो तथ्यों के अध्यधीन है :-

(i) उक्त राजस्वों का भुगतान सम्पत्ति से होने वाली आय से सम्भव है, तथा

(ii) उक्त राजस्वों के भुगतान का दायित्व तब उत्पन्न होगा जब सम्पत्ति उसके कब्जे में आ चुकी हो।

यह खण्ड बन्धककर्ता और बन्धकदार के पारस्परिक दायित्वों का उल्लेख करता है। यह किसी तीसरे पक्षकार को कोई अधिकार नहीं प्रदान करता है।

यदि बन्धकदार और बन्धककर्ता के बीच कोई करार हुआ है जिसके फलस्वरूप बन्धककर्ता ने इन राजस्वों के भुगतान का दायित्व स्वयं ले लिया है तो बन्धकदार इनके भुगतान के लिए उत्तरदायी नहीं होगा भले ही सम्पत्ति उसके कब्जे में हो।

धारा 76 (ग) के अन्तर्गत बन्धकदार का दायित्व केवल सरकार के देयता तक का भुगतान करने तक सीमित है। अन्य दायित्वों के लिये वह बाध्य नहीं है। उदाहरण के लिये कृषि भूमि आयकर का भुगतान बन्धकदार का दायित्व नहीं है, क्योंकि यह देयता भू-स्वामी होने के कारण बन्धककर्ता का दायित्व है। यह भू-सम्पत्ति के सम्बद्ध नहीं है। अतः बन्धकदार आयकर देयता का भुगतान करने के दायित्वाधीन नहीं है।

(घ) मरम्मत - बन्धकदार का प्रथम दायित्व यह है कि सरकारी राजस्व का भुगतान करे और ब्याज का भुगतान करे। इन भुगतानों के पश्चात् यदि कोई धन अवशिष्ट बचता है तो उस अवशिष्ट धन से उसे बन्धक सम्पत्ति की मरम्मत करनी होगी।

पर यदि अवशिष्ट धनराशि नहीं है तो वह मरम्मत कराने के दायित्वाधीन नहीं है। बन्धकदार से यह अपेक्षित नहीं है कि वह मरम्मत का कार्य सम्पन्न कराकर बन्धक धन में वृद्धि करे पूर्वोक्त की भाँति यह दायित्व भी तत्प्रतिकूल संविदा के अध्यधीन है। यदि प्रतिकूल संविदा है तो बन्धकदार मरम्मत कराने के दायित्वाधीन नहीं होगा।

(ङ) क्षति - खण्ड (ङ) अपेक्षा करता है कि बन्धकदार सम्पत्ति को नष्ट न करे या स्थायी नुकसान न पहुँचाये। यह खण्ड धारा 66 तथा धारा 108 (ण) के समतुल्य है। इस खण्ड में इस सत्य के निर्धारण हेतु कौन कृत्य सम्पत्ति के लिए नाशकारक है और कौन कृत नहीं, कोई प्रकाश नहीं डाला गया है। इसका निर्धारण प्रत्येक तथ्य की परिस्थिति के आधार पर किया जाता है। उदाहरणस्वरूप बन्धक के समय, बन्धक सम्पत्ति पर खड़े वृक्षों को काटना, क्षतिकारक है। पर यदि वह स्वयं द्वारा लगाये वृक्षों को काटता है, तो यह कार्य क्षतिकारक या हानिकारक नहीं है।" इसके विपरीत यदि वह पेड़ों को इसलिए काटता है कि जमीन में सुधार कर उसमें फसल उगायी जाए और उसकी उत्पादकता बढ़ायी जाए तो ऐसा कार्य क्षति कारक नहीं होगा, फिर भी बन्धकदार पेड़ काटने के लिए क्षतिपूर्ति अदा करने के दायित्वाधीन होगा। बन्धकदार का यह परम कर्तव्य होता है कि वह बन्धक सम्पत्ति पर होने वाले समस्त कार्यों नैसर्गिक या मानवीय की सूचना बन्धककर्ता को देता रहे।

(च) बीमा - धारा 72 बन्धकदार को प्राधिकृत करती है कि यदि सम्पत्ति पहले से ही बन्धककर्ता द्वारा बीमाकृत नहीं है और दोनों के बीच कोई तत्प्रतिकूल संविदा नहीं है तो वह उस सम्पत्ति का बीमा कराएँ। बीमा कराने में जो धनराशि व्यय होगी उसे वह बन्धक धन में जोड़ने का हकदार होगा। बीमा से जो आय होगी उस आय को बन्धकदार सम्पत्ति को स्थापित करने में प्रयोग करने के दायित्वाधीन है, पर तब जब बन्धककर्ता इस आशय का निर्देश दे।

(छ) लेखा - इस खण्ड में बन्धकदार से यह अपेक्षित है कि वह सभी प्राप्तियों एवं खर्ची का सही-सही हिसाब रखे और बन्धक के दौरान बन्धककर्ता की प्रार्थना तथा खर्च पर उस प्राप्ति एवं व्यय को सत्य प्रतिलिपि उसे प्रदान करे, साथ ही उन कागजातों को भी प्रस्तुत करेगा जिससे लेखा का सही-सही आकलन हो सके। बन्धकदार से ऐसा करना किसी निश्चित तिथि पर अपेक्षित नहीं है। बन्धककर्ता जब भी इस आशय का अनुरोध करेगा, उसे, उसके अनुरोध को पूर्ण करना होगा। बन्धकदार ने सम्पत्ति के कब्जे के दौरान उससे जो कुछ भी प्राप्त किया है, उसका दायित्व उसी तक सीमित नहीं है, बल्कि उस तक विस्तारित है जो कुछ उसने प्राप्त किया होता या प्राप्त करना चाहिए था सम्यक् लेखा तैयार करने में की गयी उपेक्षा से वह अ

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