संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 26: संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत बंधक क्या होता है (धारा 58)

Shadab Salim

16 Aug 2021 1:30 PM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 26: संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत बंधक क्या होता है (धारा 58)

    संपत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 की धारा 58 संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत बंधक की परिभाषा और उसकी अवधारणा को प्रस्तुत करती है। यह अधिनियम संपत्तियों के अंतरण से संबंधित है। जिस प्रकार इससे पूर्व के आलेख में संपत्ति के विक्रय के संबंध में समझा गया है इसी प्रकार बंधक भी संपत्ति अंतरण अधिनियम का एक महत्वपूर्ण भाग है।

    बंधक भी एक प्रकार से संपत्ति का अंतरण करता है तथा बंधक में किया गया संपत्ति का अंतरण सीमित अधिकार के अंतर्गत होता है जबकि विक्रय में किया गया संपत्ति का आत्यंतिक अधिकार के रूप में होता है। इस आलेख के अंतर्गत संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 58 के अंतर्गत प्रस्तुत की गई बंधक की अवधारणा पर चर्चा की जा रही है।

    खण्ड 'क' बन्धक की परिभाषा प्रतिपादित करता है। इसके अनुसार, बन्धक किसी सुनिश्चित स्थावर सम्पत्ति में से किसी हित का वह अन्तरण है जो उधार के तौर पर दिये गये या दिये जाने वाले धन के संदाय को या वर्तमान या भावी ऋण के संदाय को या ऐसे वचनबन्ध के पालन को, जिससे धन सम्बन्धी दायित्व पैदा हो सकता है, प्रतिभूत करने के उद्देश्य से किया जाता है।

    इस परिभाषा के निम्नलिखित तत्व हैं :-

    1. यह किसी सुनिश्चित या विनिर्दिष्ट स्थावर सम्पत्ति में के किसी हित का अन्तरण है।

    2. इसका उद्देश्य धन के भुगतान को सुनिश्चित करना है जो :-

    (i) ऋण के रूप में दिया गया है या दिया जाने वाला है।

    (ii) वर्तमान या भावी ऋण है।

    (iii) वचनबन्ध के अनुपालन हेतु जिससे धन सम्बन्धी दायित्व पैदा हो सकता हो ।

    सम्पत्ति हस्तान्तरित करने वाला व्यक्ति बन्धककर्ता और जिस व्यक्ति के पक्ष में सम्पत्ति अन्तरित की जाती है, बन्धकदार कहलाता है। दूसरे शब्दों में ऋण लेने वाला तथा उस ऋण के भुगतान हेतु स्थावर सम्पत्ति में हित अन्तरित करने वाला व्यक्ति बन्धककर्ता होगा तथा ऋण देने वाला व्यक्ति और स्थावर सम्पत्ति में हित प्राप्त करने वाला व्यक्ति बन्धकदार कहलाता है। मूलधन एवं ब्याज़, जिसका संदाय तत्समय प्रतिभूत है, बन्धकधन कहलाते हैं और वह लिखत या विलेख जिसके द्वारा हस्तान्तरण किया जाता है, बन्धक विलेख कहलाता है।

    हित का अन्तरण –

    किसी विनिर्दिष्ट स्थावर सम्पत्ति में किसी हित के हस्तान्तरण के फलस्वरूप बन्धक का सृजन होता है। बन्धक में बन्धककर्ता का सम्पत्ति में सम्पूर्ण हित अन्तरित नहीं होता है। केवल आंशिक हित का अन्तरण होता है। अन्तरित हित की प्रकृति एवं मात्रा बन्धक की शर्तों पर निर्भर करती है, किन्तु बन्धककर्ता का स्वामित्व बन्धकदार के पक्ष में अन्तरित नहीं होता है।

    यद्यपि कुछ बन्धकों में सम्पत्ति का कब्जा उसे दे दिया जाता है। इस संव्यवहार में बन्धकदार के पक्ष में अन्तरित हित, विधिक हित होते हैं। किन्तु केवल आनुषंगिक (Accessory ) होते हैं जिनका उद्देश्य ऋण के भुगतान को सुनिश्चित करना है। यह अधिकार लोक लक्षी (Right in rem) है अर्थात् वास्तविक स्वामी को छोड़कर विश्व के सभी व्यक्तियों के विरुद्ध प्राप्त है।

    किसी संव्यवहार में बन्धककर्ता ने बन्धकदार के पक्ष में हित अन्तरित किया है अथवा नहीं, यह उनकी मंशा तथा उनके बीच हुए संविदा के विवाचन पर निर्भर करेगा। बन्धक के सृजन हेतु किसी विशिष्ट प्रकार की शब्दावली की आवश्यकता नहीं पड़ती हैं।

    जवाहर लाल बनाम इन्दुमती के वाद में यह अभिनिर्णीत हुआ था कि यदि सम्पत्ति को ऋण के भुगतान हेतु केवल दायी घोषित किया गया है तो सम्पत्ति में हित का अन्तरण नहीं माना जाएगा, पर अनन्य अय्यर बनाम एस० आर० अय्यरू के वाद में यह अभिनिर्णीत किया गया कि यदि अन्तरिती लिखत में उल्लिखित सम्पत्ति का किराया लेने के लिए प्राधिकृत है अथवा सम्पत्ति को अपने कब्जे में रखने का अधिकारी है तो प्रत्येक स्थिति में उल्लिखित सम्पत्ति में अन्तरिती के पक्ष में हित अन्तरित समझा जाएगा, किन्तु यह आवश्यक है कि हित का अन्तरण हो, न कि अन्तरण हेतु केवल संविदा। साथ ही सम्पत्ति का स्पष्ट रूप से उल्लेख हो।

    उल्लेख इस प्रकार होना चाहिए जिससे पंजीकरण अधिनियम की धाराओं 21 तथा 22 के अनुसार सम्पत्ति को स्पष्टतः पहचान की जा सके।

    3. क्या चल सम्पत्ति का बन्धक-

    इस धारा में बन्धक को परिभाषित करते समय 'अचल या स्थावर' सम्पत्ति शब्द का प्रयोग किया गया है। न तो 'जंगम' या 'चल' सम्पति और न ही केवल 'सम्पत्ति' शब्द का प्रयोग किया गया है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना नितान्त स्वाभाविक है कि क्या चल सम्पत्ति का बन्धक हो सकेगा? संविदा अधिनियम में चल सम्पत्ति की गिरवी के सम्बन्ध में प्रावधान मिलता है, किन्तु बन्धक के सम्बन्ध में नहीं। न्यायिक निर्णयों द्वारा अब यह सुस्पष्ट हो गया है कि चल या जंगम वस्तु का भी बन्धक किया जा सकेगा।

    चल सम्पत्ति का कब्जे के बिना भी बन्धक प्रभावी होगा, पर यदि ऐसी चल सम्पत्ति किसी सद्भावयुक्त क्रेता को जिसे उक्त संव्यवहार की सूचना न हो, बेच दो गयी हो तो बन्धकदार का हित क्रेता के हितों के अध्यधीन होगा।

    बन्धक तथा अन्य संव्यवहार-

    1. बन्धक एवं गिरवी - गिरवी में ऋण के भुगतान हेतु चल या जंगम सम्पत्ति का कब्जा ऋणदाता को दिया जाता है। इसमें ऋणदाता को सम्पत्ति के विक्रय के सम्बन्ध में कुछ अधिकार रहते हैं, पर सामान्य हित ऋणी व्यक्ति में ही रहता है। ऋणदाता के पास केवल सम्पत्ति का कब्जा रहता है। इसके विपरीत बन्धक में सम्पत्ति में सम्पूर्ण विधिक हित सशर्त बन्धकी में निहित हो जाता है। और यदि निर्धारित समय पर बन्धक का मोचन नहीं होता है तो बन्धको का हित आत्यन्तिक हो जाता है। इसके अतिरिक्त यदि वैयक्तिक सम्पत्ति गिरवी रखी गयी है तो गिरवीधारक का अधिकार कब्जे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता और कब्जा समाप्त होते ही गिरवी समाप्त हो जाती है या उसका परित्याग हो जाता है, किन्तु वैयक्तिक सम्पत्ति के बन्धक की दशा में सम्पत्ति में अधिकार अन्तरण द्वारा बन्धकदार में निहित हो जाता है। इसमें सम्पत्ति का कब्जा दिया जा सकता है और नहीं भी। कब्जे का परिदान, बन्धक का अपरिहार्य गुण नहीं है

    2. बन्धक और प्रभार- लगभग सभी व्यावहारिक प्रयोजनों हेतु, प्रभार को बन्धक की एक जाति या वर्ग माना जाता है, पर दोनों में मूलभूत अन्तर है। बन्धक, मोचनाधिकार के अध्यधीन, बन्धककर्ता द्वारा बन्धकदार के पक्ष में सम्पत्ति का हस्तान्तरण है जबकि प्रभार में कुछ भी हस्तान्तरित नहीं होता है। प्रभार में ऋण के भुगतान हेतु सम्पत्ति पर केवल कुछ अधिकार ऋणदाता को प्राप्त होता है। बन्धक तथा प्रभार के बीच अन्तर को निम्नलिखित ढंग से सुस्पष्ट किया जा सकता

    3. बन्धक तथा धारणाधिकार- धारणाधिकार एक ऐसा अधिकार है जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की सम्पत्ति तब तक अपने कब्जे में रोके रहने के लिए प्राधिकृत करता है जब तक कि उसके ऋण का भुगतान नहीं हो जाता। यह सम्पत्ति को रोके रखने का एक निष्क्रिय अधिकार है। धारणाधिकार से युक्त व्यक्ति न तो सम्पत्ति का विक्रय कर सकता है और न ही अन्यथा उसे हस्तान्तरित कर सकता है। यदि ऋणदाता कब्जे से वंचित हो जाता है या कब्जा ऋणी व्यक्ति या उसके अभिकर्ता को यह दे देता है, तो उसका धारणाधिकार समाप्त हो जाएगा। किन्तु बन्धक में बन्धकदार के पक्ष में हित सृष्ट होता है जो विधिक प्रकृति का होता है, परन्तु जहाँ तक कब्जे का प्रश्न है, बन्धकदार के पास सदैव बन्धक सम्पत्ति का कब्जा नहीं रहता है।

    4. बन्धक तथा पट्टा- बन्धक में, किसी विनिर्दिष्ट अचल सम्पत्ति में हित बन्धकदार के पक्ष में किसी ऋण के भुगतान को सुनिश्चित करने हेतु अन्तरित किया जाता है, पर पट्टे में कोई अचल सम्पत्ति प्रतिफल के बदले पट्टागृहीता द्वारा उपभोग के लिए अन्तरित की जाती है। पट्टे में, सम्पत्ति में हित का अन्तरण ऋण के भुगतान हेतु प्रतिभूति के रूप में नहीं किया जाता है। एम० के० उम्मा बनाम पी० पी० उम्मा के वाद में उच्चतम न्यायालय ने प्रेक्षित किया है कि कोई लिखत पट्टा है या बन्धक इस तथ्य का निर्धारण करने के लिए यह देखना अभीष्ट है कि क्या संव्यवहार का प्रयोजन अन्तरिती द्वारा सम्पत्ति का उपभोग है अथवा किसी ऋण के भुगतान को सुनिश्चित करना है। प्रथम स्थिति में संव्यवहार पट्टा होगा, जबकि द्वितीय स्थिति में यह बन्धक होगा।

    5. बन्धक तथा पुनः अन्तरण की शर्त के साथ विक्रय-बन्धक- विनिर्दिष्ट स्थावर सम्पत्ति में के हित का वह अन्तरण है जो उधार के तौर पर दिये गये धन के संदाय को प्रतिभूत करने के प्रयोजन से किया जाता है। अतः बन्धक में ऋणदाता और ऋण का सम्बन्ध रहता है। इसके विपरीत पुनअन्तरण की शर्त के साथ विक्रय में, ऋण जैसा तत्व विद्यमान नहीं रहता है। अतः ऋणदाता और ऋणी का सम्बन्ध इसमें विद्यमान नहीं रहता है। बन्धक में बन्धककर्ता को प्राप्त सम्पत्ति में के केवल कुछ हितों का अन्तरण होता है, जबकि पुनअन्तरण को शर्त के साथ विक्रय में, अन्तरक के सम्पूर्ण हित अन्तरिती के पक्ष में अन्तरित हो जाते हैं, उसके पास पुनक्रय का केवल एक वैयक्तिक अधिकार संरक्षित रहता है। पुनर्क्रय का यह अधिकार यदि निर्धारित अवधि के अन्दर इस्तेमाल नहीं किया जाता है तो वह समाप्त हो जाता है।

    इन दोनों संव्यवहारों के बीच के अन्तरण को एल्डरसन बनाम हाइट के बाद में इस प्रकार व्यक्त किया गया है:

    बन्धक के प्रकार-

    इस धारा में निम्नलिखित प्रकार के बन्धकों का उल्लेख किया गया है:-

    (1) सादा बन्धक (Simple Mortgage) धारा 58 (ख)

    (2) सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक (Mortgage by Conditional sale)

    (3) भोग बन्धक (Usufructuary Mortgage) धारा 58 (घ)

    (4) इंग्लिश बन्धक (English Mortgage) धारा 58 (ग)

    (5) हक विलेखों के निक्षेप द्वारा बन्धक (Mortgage by deposit of title deeds) धारा 58 (च)

    (6) विलक्षण बन्धक (Anomalous mortgage) धारा 58 (छ)

    सभी प्रकार के बंधक का नीचे विस्तारपूर्वक उल्लेख किया जा रहा है-

    (1) सादा बन्धक- सादा बन्धक के निम्नलिखित तत्व होते हैं:-

    (i) इसमें बन्धक में दी गयी सम्पत्ति का कब्जा, बन्धककर्ता के पास ही रहता है। बन्धकदार कब्जा नहीं प्राप्त करता है।

    (ii) बन्धककर्ता, बन्धक धन (ऋण) के भुगतान हेतु व्यक्तिगत रूप से आबद्ध होता है। यह वचनबद्धता स्पष्ट या विवक्षित होती है। उदाहरणस्वरूप, 'मैं बन्धककर्ता सम्पूर्ण बन्धकधन की अदायगी चार किस्तों में कर दूंगा' या 'मैं, बन्धककर्ता, सम्पूर्ण बन्धक धन की आदायगी 1 जनवरी, 2011 तक कर दूंगा', मैं बन्धककर्ता, वचन देता है कि बन्धक धन, ब्याज़ सहित तीन महीने में अदा कर दूंगा।'

    (iii) बन्धककर्ता तथा बन्धकदार के बीच प्रत्यक्ष या विवक्षित रूप से यह करार होता है कि बन्धक धन का भुगतान होने की दशा में उसकी वसूली बन्धक रखी गयी सम्पत्ति बेंचकर की जा सकेगी। ऐसी संविदा सांपाश्विक करार के नाम से जानी जाती है और यह बन्धक धन के भुगतान को सुनिश्चित कर बन्धकदार को अतिरिक्त सुविधा प्रदान करती है।

    बन्धककर्ता की विफलता की दशा में बन्धकदार सम्पत्ति को अपने कब्जे में नहीं ले सकेगा। न्यायालय के माध्यम से वह केवल सम्पत्ति का विक्रय करा सकेगा और विक्रय के फलस्वरूप प्राप्त रकम से अपने मूलधन तथा ब्याज की अदायगी करा सकेगा। सादा बन्धक गठित करने हेतु किसी विशिष्ट शब्दावली की आवश्यकता नहीं होती है। पक्षकारों के आशय से ही इसका निर्धारण कर लिया जाता है।

    गोकुल दास बनाम कृपा राम के वाद में निम्नलिखित शब्दावली को सादा बन्धक गठित करने हेतु पर्याप्त माना गया था:

    'यदि अभिकथित के अनुसार में भुगतान करने में विफल रहता हूँ तो मैं और मेरे उत्तराधिकारी बिना किसी आपत्ति के उक्त गाँव का बन्दोवस्त आप के साथ कर देंगे।'

    यदि बन्धकदार, बन्धककर्ता की विफलता की दशा में सम्पत्ति के विक्रय हेतु कार्यवाही करता है। तो वह कार्यवाही, बन्धक धन शोध्य होने की तिथि से 12 की अवधि बीतने के पूर्व प्रारम्भ हो जानी चाहिए।

    (2) सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक– इस प्रकार के बन्धक के निम्नलिखित तत्व हैं :-

    1. बन्धककर्ता बन्धक सम्पति का दृश्यमान विक्रय करता है।

    2. बन्धककर्ता सम्पत्ति का विक्रय इस शर्त पर करता है कि

    (क) यदि निश्चित तिथि तक बन्धक धन का भुगतान न किया गया तो विक्रय पूर्ण व अन्तिम हो जाएगा।

    (ख) यदि निश्चित तिथि तक बन्धक धन का भुगतान कर दिया गया तो विक्रय शून्य हो जाएगा।

    (ग) बन्धक धन अदा हो जाने पर दृश्यमान क्रेता सम्पत्ति विक्रेता को वापस कर देगा।

    3. विक्रय को प्रभावी बनाने वाली सभी शर्तों का उल्लेख स्पष्ट रूप से विक्रय विलेख में होना चाहिए।

    इस प्रकार के बन्धक में, सादा बन्धक की भाँति बन्धककर्ता का ऋण के भुगतान का दायित्व व्यक्तिगत नहीं होता है। ऋण के भुगतान हेतु केवल एक तिथि सुनिश्चित कर दी जाती है और सुनिश्चित तिथि तक ऋण का भुगतान नहीं कर दिया जाता है तो विक्रय आत्यन्तिक हो जाता है। बन्धकदार को बन्धककर्ता के विरुद्ध कोई व्यक्तिगत अधिकार नहीं प्राप्त होता है।

    ऋण का भुगतान न होने की दशा में बन्धकदार केवल जब्ती के लिए वाद चला सकेगा। ऋण भुगतान की तिथि समाप्त होने तथा न्यायालय द्वारा जब्ती के लिए आदेश दिये जाने के बीच बन्धककर्ता अपने मोचनाधिकार का प्रयोग कर सकेगा। जब्ती के लिए न्यायालय का आदेश हो जाने के बाद मोचनाधिकार स्वतः समाप्त हो जाता है।

    इस प्रकार के बन्धक में जैसे ही सम्पत्ति बन्धकदार के पास आती है, वह उसी समय से उसका समुचित लेखा-जोखा रखने के लिए बाध्य होता है। यह इस बात के भी दायित्वाधीन होगा कि सम्पत्ति को क्षति न पहुँचे तथा सम्पत्ति से होने वाले लाभों को जैसा कि धारा 76 में उल्लिखित है. अपने ऋण के भुगतान हेतु उपयोग में लाए।

    धारा 58 (ग) में दिया गया परन्तुक यह सुस्पष्ट करता है कि बन्धक धन की अदायगी के सम्बन्ध में शर्त कि बन्धक धन का भुगतान होने के उपरान्त बन्धक सम्पत्ति विक्रेता बन्धककर्ता को वापस हो जाएगी का उल्लेख विक्रय विलेख में ही स्पष्टतः होना चाहिए। न्यायालय ने यह भी सुस्पष्ट किया है कि प्रत्येक विक्रय जो सम्पत्ति के प्रतिहस्तान्तरण के करार के साथ किया गया है, सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक गठित नहीं करता है।

    सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक तथा पुनर्क्रय करने की शर्त के साथ विक्रय - इन दोनों ही प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण अन्तर है यद्यपि सामान्य प्रज्ञा वाले व्यक्ति के लिए दोनों प्रक्रियाओं में विभेद करना कठिन प्रतीत होता है। दोनों प्रक्रियाओं में अन्तर को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्यामलाल बनाम श्याम नारायके के वाद में सुस्पष्ट किया है।

    सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक, एक ऐसी कार्यवाही है, जिसमें सम्पत्ति में का कोई हित उस व्यक्ति को अन्तरित कर दिया जाता है जो इसके बदले धन उधार देता है। धन उधार के रूप में लेने वाले और देने वाले के बीच ऋणी और ऋणदाता का सम्बन्ध रहता है तथा वह सम्पत्ति जिसमें के हित का अन्तरण होता है प्रतिभूति के रूप में कार्य करती है।

    इसके विपरीत पुनक्रय की शर्त के साथ विक्रय में पक्षकारों के बीच ऋणी और ऋणदाता का सम्बन्ध नहीं रहता है। सम्पत्ति में का केवल कोई हित अन्तरित नहीं होता है, अपितु सम्पूर्ण हित अन्तरित हो जाता है। अन्तरक के पक्ष में पुनः क्रय करने या हकशुफा के अधिकार का प्रयोग करने का एक वैयक्तिक अधिकार रहता है, और यदि निश्चित अवधि के भीतर इस अधिकार का प्रयोग न किया जाय तो यह समाप्त हो जाता है।"

    दोनों प्रक्रियाओं के बीच अन्तर स्थापित करना एक कठिन प्रक्रिया होती है। यदि लिखत से यह स्पष्ट है कि निष्पादक कोई सम्पत्ति आत्यन्तिक रूप से क्रेता के पक्ष में अन्तरित कर रहा है तथा विक्रेता पर कोई दायित्व नहीं है कि वह मूल्य को वापस कर सम्पत्ति को पुनः प्राप्त कर करें, अपितु उसके पास इस आशय का केवल एक विकल्प मात्र है और दोनो पक्षकारों के बीच ऋणी और ऋणदाता का सम्बन्ध भी नहीं सृष्ट है तो ऐसे लिखत से पुनर्क्रय करने की शर्त के साथ विक्रय का सृजन होता है न कि सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक में विक्रय केवल दृश्यमान होता, परन्तु पुनर्क्रय करने की शर्त के साथ विक्रय में, वास्तविक होता है।

    (3) भोग बन्धक- इसके निम्नलिखित तत्व हैं:-

    1. बन्धककर्ता या तो बन्धक सम्पत्ति का कब्जा बन्धकदार को परिदत्त करे या परिदत्त करने के लिए अपने आप को अभिव्यक्त या विवक्षित तौर पर आबद्ध करे।

    2. बन्धककर्ता, बन्धकदार को प्राधिकृत करे कि बन्धक धन संदाय किये जाने तक वह (क) अपने कब्जे को बनाये रखे।

    (ख) उस सम्पत्ति से प्रोद्भूत भाटकों और लाभों को या ऐसे किसी भाग को प्राप्त करें तथा और लाभों के।

    (ग) इस प्रकार प्राप्त भाटकों और लाभों को।

    (i) ब्याज मद्दे, या

    (ii) बन्धक धन के संदाय में, या

    (iii) भागत: ब्याज मद्दे और भागतः बन्धक धन के संदाय में विनियोजित करे।

    उपरोक्त से भोग बन्धक की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं:-

    (1) कब्जे का परिदान आवश्यक है।

    (2) ऋण अथवा बन्धक धन के भुगतान हेतु बन्धककर्ता का कोई व्यक्तिगत दायित्व नहीं होता है।

    (3) बन्धक धन के भुगतान हेतु कोई अवधि नहीं होती है। बन्धककर्ता, बन्धक धन का भुगतान कर किसी भी समय सम्पत्ति वापस प्राप्त कर सकता है। यदि वह ऐसा करने में समर्थ नहीं है तो सम्पत्ति तब तक बन्धकदार के पास रहेगी जब तक उसके मूलधन एवं ब्याज़ दोनों का भुगतान नहीं हो जाता भुगतान पूर्ण होते ही सम्पत्ति का वापस होना आवश्यक बन्धक में बन्धकदार को जब्ती का अधिकार नहीं होता है।

    किसी लिखत से भोग बन्धक सृष्ट होता है या नहीं, इसका निर्धारण पक्षकारों के आशय से किया जाता है। यदि संख्यवहार में सम्पत्ति में के हित का अन्तरण कर्जे की जमानत के लिए है तो यह बन्धक होगा, किन्तु यदि अन्तरण इस आशय से किया गया है कि अन्तरिती सम्पत्ति का उपभोग करे तो यह बन्धक नहीं होगा।

    एक भोग बन्धक में, जिसमें बन्धक रकम के पुनः भुगतान हेतु कोई समय सुनिश्चित नहीं है, के मोचन हेतु मर्यादा या परिसीमन अवधि 30 वर्ष की होगी (मर्यादा अधिनियम 1963) इससे पूर्व यह अवधि 60 वर्ष की थी (मर्यादा अधिनियम, 1908) बन्धककर्ता का मोचन का अधिकार अथवा सम्पत्ति का कब्जा वापस प्राप्त करने का अधिकार उसी समय उसे प्राप्त हो जाता है जब बन्धककर्ता एवं बन्धकदार के बीच विधिक सम्बन्ध स्थापित होते हैं सम्पूरन सिंह बनाम निरंजन कौर के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह सुस्पष्ट कर दिया है कि मर्यादा या परिसीमन की अवधि उसी दिन तिथि से प्रारम्भ हो जाएगी जिस तिथि/दिन से एक वैध बन्धक को निष्पादित हुआ कहा जा सकेगा।

    यदि विधिक सम्बन्धों की स्वीकारोक्ति के आशय से कोई अभिस्वीकृति की जाती है तो मर्यादा को अवधि उसी तिथि से प्रारम्भ हो जाती है जिस तिथि को अभिस्वीकृति की जाती है। यह भी अभिप्रेक्षित किया गया है कि मर्यादा की अवधि उसी समय से चलना प्रारम्भ हो जाती है जबकि मोचन का अधिकार या कब्जा प्राप्त करने का अधिकार शोध्य हो जाता है।

    अतः भोगबन्धक में, जिसमें मोचन हेतु किसी तिथि का निर्धारण नहीं हुआ है, अपितु केवल यह उल्लेख है कि बन्धकदार सम्पत्ति का तब तक सम्पत्ति का कब्जा धारण किए रहेगा जब तक कि उसका मोचन न हो जाए तो ऐसी स्थिति में मोचन का अधिकार उसी समय सृजित हो जाएगा।

    ( 4 ) इंग्लिश बन्धक - इस बन्धक का उद्भव इंग्लिश विधि एवं साम्या से हुआ है।

    इसके निम्नलिखित तत्व हैं-

    1. बन्धककर्ता बन्धकधन के भुगतान हेतु व्यक्तिगत दायित्व लेता है।

    2. वह बन्धक धन का एक निश्चित तिथि पर भुगतान करने का वचन देता है।

    3. वह बन्धक सम्पत्ति, आत्यन्तिक रूप से बन्धकदार को परिदत्त कर देता है तथा

    4. जब बन्धककर्ता बन्धक धन का भुगतान, बन्धकदार को कर देता है तो वह बन्धक सम्पत्ति, बन्धककर्ता को पुनः अन्तरित कर देता है। इंग्लिश बन्धक में बन्धककर्ता और बन्धकदार के अधिकारों की समीक्षा प्रिवी काँसिल ने रामकिंकर बनाम सत्याचरन के वाद में की है। इस विवाह में पट्टाधारी ने अपने पट्टाजन्य अधिकार को बन्धक के रूप में हस्तान्तरित कर दिया था। प्रश्न यह था कि क्या पट्टाकर्ता बन्धकदार के विरुद्ध. किराये के लिए वाद चला सकता है।

    प्रिवी कॉसिल ने अभिनिर्णीत किया कि भारत में बन्धककर्ता का अधिकार केवल संविदा जन्य अधिकार नहीं है, अपितु इससे अधिक है। यह एक विधिक अधिकार है जो बन्धककर्ता में निहित रहता है। अतः स्पष्ट है कि बन्धक की स्थिति में यह अपने सभी अधिकारों से वंचित नहीं होता है।

    इस अवधारणा के विपरीत इंग्लिश बन्धक में सम्पति आत्यन्तिक रूप से बन्धकदार के पक्ष में अन्तरित हो जाती है। न्यायाधीशों के मतानुसार इंग्लिश बन्धक मुख्यतया प्रकार से सम्बद्ध हैं न कि वास्तविक अन्तरण से वास्तविक रूप में, इसमें भी केवल किसी हित का ही अन्तरण होता है, और अन्तरित हित मोचनाधिकार के अध्यधीन होता है।

    अतः पट्टाधारी यदि इंग्लिश बन्धक द्वारा अपना हित बन्धकदार के पक्ष में अन्तरित करता है, तो वह केवल नाम के लिए आत्यन्तिक हित अन्तरित करता है यथार्थत नहीं। पट्टकर्ता का जहाँ तक बन्धकदार से किराया प्राप्त करने के अधिकार का प्रश्न है, यह किराया नहीं प्राप्त कर सकेगा क्योंकि उसके तथा बन्धकदार के बीच संविदा की समीपता (Privity of Contract) नहीं है यद्यपि सम्पति को समीपता है। अतः वह पट्टाकर्ता को किराये का भुगतान करने के दायित्वाधीन नहीं माना गया।

    स्कोबो बनाम ओलिन्स के वाद में यह कहा गया है कि इंग्लिश बन्धक में यदि बन्धकर्ता के पास सम्पति का कब्जा है तो उसको स्थिति मर्पणजात आभोगी (Tenant at sufference) से उत्तम नहीं होती है और उसे किसी भी समय बिना सूचना के सम्पति से अपदस्थ या बेदखल किया जा सकता है इंग्लिश बन्धक में सम्पत्ति के परिदान के बावजूद भी ऋण के भुगतान हेतु व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी रहता है।

    इंग्लिश बन्धक बन्धककर्ता से यह अपेक्षा करता है कि वह बाध्यकारी प्रतिबद्धता व्यक्त करे कि एक निश्चित तिथि को वह बन्धक धन का भुगतान कर देगा। यदि बन्धककर्ता न तो निश्चित तिथि तक बन्धक रकम का भुगतान करने की प्रतिबद्धता व्यक्त करता है और न ही विक्रय विलेख दूर-दूर तक यह इंगित करता है कि संव्यवहार, बन्धक का संव्यवहार है या बन्धक की प्रकृति का है अथवा पक्षकारों के बीच कोई सहमति या करार था जिसके अन्तर्गत सम्पति बन्धककर्ता को प्रतिहस्तान्तरित हो जाएगी एवं बन्धककर्ता ने उस प्रतिहस्तान्तरण करार पर अपना हस्ताक्षर नहीं किया था, तो ऐसे संव्यवहार को इंग्लिश बन्धक का संव्यवहार नहीं कहा जाएगा।

    इस मामले के तथ्य इस प्रकार थे। अपीलार्थी राज किशोर, अपने भाई जुगल किशोर के साथ एक कृषि भूमि का स्वामी था राजकिशोर ने उक्त भूमि के लगभग 14 बीघे भूमि को प्रतिवादी प्रेम सिंह को रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख द्वारा 6 जुलाई, 1974 को रुपये 6000/- प्रतिफल के बदले बेच दिया। राज किशोर का कहना था कि उसने उक्त भूमि केवल रुपये 6000/- के लिए प्रतिभूति के रूप में दिया था जो कि प्रेम सिंह से ऋण के रूप में ली गयी थी।

    उसका यह भी कहना था कि जब उसने 6 जुलाई, 1981 को बन्धक की रकम प्रतिवादी प्रेम सिंह को वापस की तो विवादग्रस्त भूमि उसे वापस हो जानी चाहिए थी जैसा कि उसके एवं प्रेम सिंह के बीच 6 जुलाई 1974 को करार में सुनिश्चित हुआ था। उसने यह भी उद्घोषणा की कि इस कालावधि में भूमि उसी के कब्जे में थी तथा प्रतिवादी प्रेम सिंह इससे सहमत भी था।

    वादी का यह भी कहना था कि प्रतिवादी ने यह वचन दिया था कि यह भूमि का दाखिल खारिज अपने नाम में नहीं कराएगा, 6 जुलाई, 1981 तक किन्तु उसने दाखिल खारिज अपने नाम में करा लिया और जब वादी 6 जुलाई 1981 को बन्धक रकम वापस कर अपनी भूमि वापस लेनी चाही तो प्रतिवादी ने मना कर दिया। प्रतिवादी का कहना था कि उसने (प्रतिवादी ने) अपने पुरोबन्ध के अधिकार का प्रयोग किया था क्योंकि वादी ने बन्धक रकम समय से वापस नहीं की थी।

    यह अभिनिर्णीत हुआ कि वादी अपनी सम्पत्ति वापस नहीं पा सकता है क्योंकि उसने शर्त के अनुसार निश्चित तिथि को बन्धक रकम का भुगतान नहीं किया था। इंग्लिश बन्धक में बन्धकदार का उपचार अधिनियम की धारा 67 के अन्तर्गत सम्पत्ति के विक्रय द्वारा है।

    इंग्लिश बन्धक तथा सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक दोनों में यह अन्तर है कि इंग्लिश बन्धक में सम्पत्ति के आत्यन्तिक परिदान के बावजूद भी बन्धककर्ता ऋण के भुगतान हेतु व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी रहता है। इसके विपरीत सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक में ऋण भुगतान हेतु बन्धककर्ता का व्यक्तिगत दायित्व नहीं होता है इंग्लिश बन्धक में आशय यह रहता है कि ऋण का भुगतान होने पर बन्धकदार बन्धक सम्पत्ति को पुनः अन्तरित कर देगा, जबकि सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक में सम्पत्ति का परिदान सशर्त होता है।

    (5) स्वत्व विलेखों के निक्षेप द्वारा बन्धक इसके निम्नलिखित अवयव है:-

    1. बन्धककर्ता, बन्धकदार या उसके अभिकर्ता को अचल सम्पत्ति से सम्बन्धित दस्तावेजों को सौंपे।

    2. दस्तावेजों का परिदान, ऋण के भुगतान को सुनिश्चित करने के लिए हो।

    3. इस प्रकार का बन्धक, केवल कोलकाता, मुम्बई और मद्रास तथा राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित अन्य शहरों में ही हो। इस प्रकार के बन्धक का विकास वाणिज्यिक क्रियाकलापों को सुगम बनाने हेतु हुआ है, जिससे धन की अचानक आवश्यकता पड़ने पर बन्धक की आवश्यक औपचारिकताओं का निर्वाह किये बिना भी ऋण प्राप्त किया जा सके।

    इनका प्रचलन बड़े व्यापारिक शहरों में ही है। इंग्लिश विधि के अन्तर्गत ऐसे बन्धक को साम्यिक बन्धन के नाम से जाना जाता है। इस बन्धक का सबसे महत्वपूर्ण अवयव है, बन्धककर्ता द्वारा बन्धकदार के पास जमा स्वत्व विलेख का बन्धक धन के भुगतान हेतु प्रतिभूति के रूप में कार्य करना।

    यदि बन्धककर्ता का आशय इससे भिन्न है तो बन्धकदार को दिया गया स्वत्व विलेख प्रतिभूति नहीं होता और यह संव्यवहार बन्धक नहीं होगा। इम्पोरियल बैंक ऑफ इण्डिया बनाम राया के वाद में प्रिवी कौंसिल ने प्रेक्षित किया था कि यद्यपि औपचारिक अन्तरण नहीं होता है, फिर भी साम्पिक बन्धन (हक विलेखों के निशेष द्वारा बन्धक) में हिता का हस्तान्तरण होता है और प्राथमिकता के प्रयोजनों हेतु यह उसी धरातल पर होता है जिस पर विलेख द्वारा सृष्ट बन्धक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस प्रकार का बन्धक केवल उन शहरों में सम्भव हो सकेगा जिनका उल्लेख इस धारा में किया गया है या जिनका उल्लेख, राज्य सरकार इस निमित्त जारी अधिसूचना में करे इन शहरों से भिन्न शहरों में यदि हक विलेखों का निष्पादन किया जा रहा है, तो इस प्रक्रिया से न तो बन्धक और न ही प्रभार सृष्ट होगा।

    पंजीकरण- हक या स्वत्व विलेख के निक्षेप द्वारा बन्धक का लिखित होना अनिवार्य नहीं है। यह संव्यवहार साधारणतया मौखिक होता है। अतः यह पंजीकरण अधिनियम से प्रभावित नहीं होता है। परन्तु स्वत्व विलेखों के साथ एक लिखत की औपचारिकता पूर्ण कर दी जाती है।

    जहाँ स्वत्व विलेख के साथ कोई पत्र भी दिया जाता है, यहाँ पत्र का पंजीकृत होना आवश्यक होगा, क्योंकि संव्यवहार में ऐसा कुछ नहीं होता है जो हक विलेख को ऋण से सम्बद्ध कर सके इस प्रकार के बन्धक में विलेख का पंजीकरण केवल तभी अपेक्षित होता है जब दोनों पक्षकार अपनी इच्छा को विलेख के रूप में परिवर्तित कर दें

    इस मामले में उच्च न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि स्वत्व विलेख के निक्षेप द्वारा सृजित बन्धक सम्व्यवहार मुद्रा के विकास के साथ अस्तित्व में आते हैं। इसमें पंजीकृत विलेख का निष्पादन आवश्यक नहीं है। विलेख के निक्षेप का साक्ष्य प्रस्तुत करने वाला ज्ञापन, पंजीकरण हेतु यदि प्रस्तुत किया जाता है तो इसे बन्धक विलेख के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

    यह मात्र एक अतिरिक्त कदम है, इस विशिष्ट प्रकार के बन्धक के निष्पादन की औपचारिकताओं को पूर्ण करने की दिशा में तथा इसका बन्धक के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

    इस प्रकरण में अपीलार्थी ने कतिपय सम्पत्तियों का स्वत्व विलेख जमा कर 18-2006 को बैंक से ऋण प्राप्त किया था। दूसरे दिन, पक्षकारों द्वारा एक ज्ञापन, स्वत्व विलेख जमा की पुष्टि के आशय का निष्पादित किया गया।

    इस ज्ञापन को पंजीकरण हेतु रजिस्ट्रार के समक्ष रु० 1000.00 स्टाम्प शुल्क भुगतान के साथ प्रस्तुत किया गया, जबकि रु० 22,350/- की माँग भारतीय स्टाम्प अधिनियम की अनुसूची के अनुच्छेद 35 (ख) के अन्तर्गत की गयी जिसका भुगतान करने से अपीलार्थी ने इन्कार कर दिया इस आधार पर कि स्वत्व विलेख के निक्षेप द्वारा बन्धक के मामले में पंजीकरण अपेक्षित नहीं है। इस प्रकार उठायी गयी आपत्ति को आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया। इस निष्कर्ष पर पहुँचने हेतु उच्च न्यायालय ने, उच्चतम न्यायालय के, डी० डी० सोल बनाम आर० एल० फुमरा, को आधार बनाया।

    श्रीमती प्रकाशवती जैन एवं अन्य बनाम पंजाब इण्डस्ट्रियल डेवेलपमेण्ट कार्पोरेशन एवं अन्य के वाद में स्वत्व विलेखों के निक्षेप द्वारा अपीलार्थी ने प्रतिउत्तरदाता से एकमुश्त रकम बन्धक धन के रूप में प्राप्त किया। पक्षकारों के बीच एक ज्ञापन पत्र तैयार हुआ इस तथ्य को अभिलिखित करने हेतु कि स्वत्व विलेख प्रतिउत्तरदाता को संदत्त कर दिए गये हैं।

    दस्तावेज के अन्तिम भाग में ज्ञापन को एक निष्पादित दस्तावेज के रूप में अभिलिखित किया गया था तथा दोनों पक्षकारों ने अभिव्यक्ति "पुष्ट" एवं "स्वीकृति" के अन्तर्गत अपने हस्ताक्षर किए थे। इससे यह स्पष्ट था कि पक्षकारों ने केवल स्वत्व विलेखों के संदान की "पुष्टि" एवं "स्वीकृति" की थी। ज्ञापन में मात्र अतीत में घटित घटना अर्थात् बन्धक की स्थिति को अभिलिखित किया गया था। इसके द्वारा बन्धक का सृजन नहीं किया गया था।

    प्रश्न यह था कि क्या इस ज्ञापन का पंजीकरण होना आवश्यक था। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह सुस्पष्ट किया है कि ज्ञापन का पंजीकरण होना आवश्यक नहीं था क्योंकि इसके द्वारा सम्पत्ति का अन्तरण नहीं हुआ था। ज्ञापन केवल इस तथ्य का प्रतीक मात्र था कि अपीलार्थी ने अपनी सम्पत्ति का स्वत्व विलेख प्रति उत्तरदाता को निक्षेपित कर दिया था।

    न्यायालय ने सुस्पष्ट किया है कि स्वत्व विलेखों के निक्षेप द्वारा बन्धक के मामलों में बन्धक के सृजन हेतु किसी दस्तावेज की आवश्यकता नहीं होती है, फिर भी एक ज्ञापन पत्र तैयार किया जा सकता है, इस तथ्य को अभिलिखित करने हेतु कि स्वत्व विलेख का निक्षेप बन्धककर्ता द्वारा बन्धकदार के पक्ष में कर दिया गया है।

    ऐसे दस्तावेज के पंजीकरण/रजिस्ट्रीकरण की आवश्यकता नहीं होती है। किन्तु यदि दस्तावेज स्वयं निक्षेप का सृजन करता है तथा पक्षकारों के बीच के समझौते को अभिलिखित करता है तो ऐसे दस्तावे�

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