संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 25: विक्रय के पूर्व और पश्चात क्रेता और विक्रेता के अधिकार तथा दायित्व (धारा 55)

Shadab Salim

16 Aug 2021 4:49 AM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 25: विक्रय के पूर्व और पश्चात क्रेता और विक्रेता के अधिकार तथा दायित्व (धारा 55)

    संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 धारा 55 विक्रय के पश्चात और उसके पहले क्रेता और विक्रेता के अधिकार तथा दायित्व का उल्लेख करती है। यह धारा एक प्रकार से क्रेता और विक्रेता के अधिकारों तथा उनके एक दूसरे के विरुद्ध दायित्व को स्पष्ट रूप से उल्लखित कर देती है जिससे किसी भी विक्रय में उसके पूर्व तथा उसके बाद किसी भी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं आए।

    लेखक इस आलेख के अंतर्गत इन्हीं अधिकारों पर तथा दायित्व पर टीका प्रस्तुत कर रहे है। इससे पूर्व के आलेख के अंतर्गत विक्रय की समस्त अवधारणा पर टीका किया गया था जिसके अंतर्गत विक्रय की परिभाषा, विक्रय के तत्व तथा विक्रय के प्रकारों पर प्रकाश डाला गया था।

    विक्रय से पूर्व विक्रेता के दायित्व-

    (1) विक्रय की जाने वाली सम्पत्ति एवं विक्रेता के अधिकार के विषय में सारवान एवं महत्वपूर्ण कमियों का प्रकटीकरण- [ धारा 55 (1) (क)]

    विक्रय की जाने वाली सम्पत्ति के विषय में विक्रेता के दो महत्वपूर्ण दायित्व हैं-

    (क) सम्पत्ति से सम्बन्धित दायित्व तथा

    (ख) स्वामित्व से सम्बन्धित दायित्व।

    इन दोनों विषयों के सम्बन्ध में प्रकटीकरण का दायित्व केवल उन तथ्यों तक विस्तारित है जिसका ज्ञान विक्रेता को है। ऐसे तथ्यों, जिनका ज्ञान उसे नहीं है, प्रकटीकरण का दायित्व नहीं है। इसी प्रकार उन कमियों को भी प्रकट करने का दायित्व नहीं है जिनकी जानकारी सहजता से ही क्रेता को हो सकती थी। उदाहरण स्वरूप यदि विक्रय की जाने वाली वस्तु भवन है, तो उसके दरवाजे खिड़कियाँ अच्छी स्थिति में हैं या नहीं, भवन जीर्णावस्था में है या नहीं इत्यादि। इसी प्रकार सम्पति भूमि है तो उस पर कोई पगडंडी बनी है या नहीं, इत्यादि।

    स्पष्ट दोषों या कमियों के लिए विक्रेता दायित्वाधीन नहीं होता है, किन्तु यदि निम्नलिखित परिस्थतियाँ विद्यमान हैं तो विक्रेता दायित्वाधीन होगा :-

    (1) सम्पत्ति में दोष आधारभूत एवं सारवान हो

    (2) विक्रेता को उसका ज्ञान हो।

    (3) क्रेता को उसका पता न चल पाया हो।

    (4) क्रेता के लिए सामान्यतः उसका ज्ञान प्राप्त करना सम्भव न रहा हो।

    विक्रेता का प्रकटीकरण का दायित्व उस स्थिति में भी बना रहेगा जबकि विक्रय "सभी दोषों के साथ" किया गया हो। स्वामित्व के सन्दर्भ में यह अवधारणा रहती है कि विक्रेता दोष रहित स्वामित्व प्रदान करेगा, क्योंकि इस आशय का ज्ञान केवल उसे ही हो सकता है। यदि भूमि अधिग्रहण अधिनियम के अन्तर्गत अधिग्रहीत की गयी है या दी जाने वाली भूमि पर किसी व्यक्ति को सुखाधिकार प्राप्त है, अथवा भूमि पट्टे पर है, इत्यादि तथ्यों की जानकारी देना विक्रेता के लिए आवश्यक है।

    यदि संव्यवहार के दोनों पक्षकार किसी ऐसी वस्तु के विषय में अनभिज्ञ हैं जो संव्यवहार के लिए सारवान हैं, तो ऐसा संव्यवहार शून्य होगा।

    इस अधिनियम में पदावलि 'तात्विक त्रुटि' या 'सारवान त्रुटि' को परिभाषित नहीं किया गया। है। फ्लाइट बनाम बूथी के वाद में इसे निम्नलिखित ढंग से व्यक्त किया-

    "इसे ऐसी प्रकृति का होना चाहिए जिससे यह अवधारित किया जा सके कि यदि क्रेता को इसका ज्ञान रहा होता तो वह बिल्कुल ही संविदा न करता क्योंकि उस दशा में वह उससे भिन्न वस्तु प्राप्त करेगा जिस के लिए उसने संविदा की थी।"

    धारा 55 (1) (क) विक्रेता को आबद्ध करती है कि वह उस सम्पत्ति में या विक्रेता के उस सम्पत्ति के हक में किसी ऐसी तात्विक त्रुटि को, जिसे विक्रेता जानता हो और क्रेता नहीं जानता हो और क्रेता जिसका पता मामूली सावधानी से नहीं लगा सकता था, को प्रकट करे।

    सुखदेव कौर बनाम गुरदेव सिंह के वाद में यह प्रश्न विवादित था कि यदि किसी भूमि को अधिगृहीत करने हेतु सरकार मात्र विचार कर रही हो एवं अधिग्रहण की अधिसूचना अभी जारी न की गयी हो और यह तथ्य विक्रेता के संज्ञान में हो किन्तु वह इस तथ्य को विक्रेता को प्रकट न करे करार के समय या विक्रय के समय तो क्या यह अन्तरण धारा 55 (1) (क) का उल्लेख करता हुआ समझा जाएगा।

    क्या यह कहा जा सकेगा कि विक्रेता अपने दायित्व का निर्वहन करने में विफल रहा है। क्या यह कृत्य किसी तात्विक त्रुटि, जिसका साधारण सावधानी से पता न लगाया जा सके, के तुल्य है।

    पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह सुस्पष्ट किया है कि जब तक अधिग्रहण की सूचना जारी नहीं हो जाती है तब तक इस तथ्य को प्रकट करने के लिए विक्रेता आबद्ध नहीं होगा, एवं इस तथ्य का प्रकट न किया जाना धारा 55 (1) (क) का उल्लंघन नहीं माना जाएगा।

    यदि अधिग्रहण की सूचना जारी की जा चुकी है तो उस सूचना का संज्ञान विक्रेता स्वयं ले सकेगा क्योंकि ऐसी सूचना लोक के लिए होती है और यदि क्रेता उसका पता नहीं लगा पाता है तो यह चूक उसके स्वयं के पक्ष पर होगी।

    न्यायालय ने यह भी सुस्पष्ट किया है कि इस तथ्य का प्रकट न करना किसी तात्विक त्रुटि का प्रतीक नहीं है या इस त्रुटि को तात्विक त्रुटि नहीं कहा जा सकेगा। इस तथ्य को प्रकट न करने के कारण यह नहीं कहा जा सकेगा कि विक्रेता ने अपने दायित्व का निर्वहन नहीं किया है।

    यदि इस आधार पर क्रेता यदि संव्यवहार का निष्पादन कराने से मना करता है या संव्यवहार से अपने आप को विरत करता है तो विक्रेता उस अग्रिम रकम को जो उसे इस संव्यवहार को पूर्ण कराने की दिशा में दी गयी, वापस करने से मना कर सकेगा।

    इस प्रकरण में वादग्रस्त भूमि के अधिग्रहण के सन्दर्भ में सरकार के स्तर पर विचार विमर्श चल रहा था जिसका ज्ञान विक्रेता को था किन्तु उक्त भूमि के अधिग्रहण हेतु औपचारिक राजकीय अधिसूचना जारी उस समय तक नहीं हुई थी जब विक्रेता एवं क्रेता के बीच इसके विक्रय हेतु करार हुआ किन्तु संव्यवहार निष्पादित (पूर्ण) होने से पूर्व ही अधिसूचना जारी कर दी गयी जिस कारण क्रेता ने संव्यवहार पूर्ण करने से मना कर दिया तथा रु० 10,500/- मात्र जो उसने अग्रिम भुगतान के रूप में दिया था, वापस प्राप्त करने हेतु वाद संस्थित किया। न्यायालय ने क्रेता के तर्क को अस्वीकार करते हुए उसकी माँग निरस्त कर दिया।

    (2) हक सम्बन्धी दस्तावेजों का प्रस्तुतीकरण [ धारा 55 (1) (ख) ] -

    यह खण्ड, हक सम्बन्धी दस्तावेजों के प्रस्तुतीकरण के सम्बन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करता है। दस्तावेजों का निरीक्षण या तो क्रेता स्वयं या उसके द्वारा प्राधिकृत कोई अन्य व्यक्ति कर सकेगा। दस्तावेजों का निरीक्षण क्रेता के लिए आवश्यक है।

    यदि वह निरीक्षण नहीं करता है तो वह अवधारणा की जाएगी कि उसे उन तथ्यों को प्रलक्षित सूचना थी जिनकी सूचना उसे हुई होती यदि उसने दस्तावेजों का अध्ययन किया होता। विक्रेता दस्तावेजों को निरीक्षण हेतु प्रस्तुत करने के लिए स्वतः दायित्वाधीन नहीं है। वह केवल क्रेता की मांग पर ही इसे प्रस्तुत करने के दायित्वाधीन है।

    प्रस्तुत किया जाने वाला दस्तावेज मूल होना चाहिए न कि उसकी प्रति। मूल प्रति के नष्ट होने की दशा में ही प्रमाणित प्रति प्रस्तुत को जा सकेगी। हक विलेख की मांग किये जाने पर विक्रेता न केवल मूल विलेख प्रस्तुत करेगा, अपितु अन्य सभी विलेख भी प्रस्तुत करेगा जिन्हें वह प्रस्तुत करने की स्थिति में है।

    विलेख साधारणतया विक्रेता के निवास पर ही प्रस्तुत किये जाते हैं किन्तु यदि क्रेता ने किसी अन्य स्थान पर प्रस्तुत किये जाने की इच्छा व्यक्त की है तो इसे इच्छित स्थान पर ही प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

    ( 3 ) पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देना [ धारा 55 (1) (ग) ] -

    विक्रेता, क्रेता द्वारा पूछ गये सभी सुसंगत प्रश्नों का उत्तर देने के दायित्वाधीन है। पूछे गये प्रश्न सम्पत्ति का हक से सम्बन्धित होने चाहिए। इस प्रक्रिया से क्रेता को सम्पत्ति के विषय में छानबीन करने का समुचित अवसर मिलता है।

    सम्पत्ति विषयक प्रश्न इस प्रकार के हो सकेंगे-जैसे सम्पत्ति अन्तरणीय भूमिधरी है या अनन्तरणीय भूमि नजूल की है या अन्य प्रकृति की। विक्रेता का सम्पत्ति में किस प्रकार का हित है? विक्रेता पूर्ण हित का स्वामी है अथवा सीमित हित का? सम्पत्ति कब्रिस्तान, श्मशान घाट, हाट या बाजार आदि के लिए उपयोग में लायी जाती है या नहीं इत्यादि।

    स्वत्व विषयक प्रश्न इस प्रकार के हो सकेंगे : विक्रेता के पक्ष में सृष्ट विलेख सक्षम व्यक्ति द्वारा निष्पादित किये गये थे अथवा नहीं? विक्रेता सम्पत्ति का स्वामी है या नहीं? यदि नहीं तो क्या उसे सम्पत्ति का विक्रय करने का अधिकार है या नहीं? सम्पत्ति के विलेख वास्तविक हैं या जाली? अनुप्रमाणन प्रभावपूर्ण है या नहीं? इत्यादि।

    पर यदि विक्रेता चाहे तो वह इस दायित्व से मुक्त कर सकता है। वह क्रेता स्पष्ट रूप से यह कह सकता है कि जैसा हित उसके पास है क्रेता को वैसा ही हित प्राप्त होगा। यदि क्रेता को विक्रेता के हित की स्थिति का ज्ञान है और वह सम्पत्ति स्वीकार करता है तो वह विक्रेता को चुनौती नहीं दे सकेगा।

    पर यदि संविदा में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख है कि विक्रेता त्रुटिरहित हित अन्तरित करेगा और वह त्रुटिपूर्ण हित अन्तरित करता है, तो वह क्रेता के प्रति जवाब देय होगा। क्रेता, स्वविवेक के आधार पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रश्न पूछने के अपने अधिकार का त्याग कर सकता है।

    (4) अन्तरण का निष्पादन [ धारा 55 (1) (घ) ] -

    विक्रय संविदा पूर्ण हो जाने के उपरान्त जब क्रेता अपेक्षा करे विक्रेता सम्पत्ति का परिदान करने के दायित्वाधीन होगा। परिदान के समय क्रेता को उसका मूल्य अदा करना होगा क्योंकि मूल्य की अदायगी, और सम्पत्ति का परिदान दोनों ही पारस्परिक प्रक्रियाएँ हैं।

    इन प्रक्रियाओं को संविदा द्वारा भिन्न भी किया जा सकता है। सम्पत्ति का परिदान विक्रेता तथा उन सभी व्यक्तियों द्वारा होना चाहिए जिनका हित सम्पत्ति में है। यह खण्ड परिदान के स्थान तथा समय के सम्बन्ध में कोई सिद्धान्त नहीं प्रतिपादित करता है। इस सम्बन्ध में संविदा अधिनियम 1872 की धाराएं 46 से 50 महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगी।

    (5) सम्पत्ति के संरक्षण का दायित्व [ धारा 55 (1) (ङ) ] -

    विक्रय के लिए संविदा हो जाने तथा सम्पत्ति के परिदान तक विक्रेता सम्पत्ति के संरक्षण और उसकी देखभाल के दायित्वाधीन होता है। विक्रेता इस कालावधि में न्यासी की हैसियत में कार्य करेगा यह दायित्व सांपाश्विक (Collateral) है।

    यदि विक्रेता अपने इस दायित्व का निर्वाह समुचित रीति से नहीं करता है तो वह क्रेता को क्षतिपूर्ति अदा करने के दायित्वाधीन होगा यदि उसकी असावधानी के फलस्वरूप सम्पत्ति को कोई क्षति पहुँचती है। विक्रेता न केवल सम्पत्ति की देखभाल करने के दायित्वाधीन है अपितु स्वत्व विलेख को भी सुरक्षा के दायित्वाधीन है क्योंकि इसको क्षति से सम्पत्ति का मूल्य घट जाता है।

    (6) व्ययों का भुगतान [ धारा 55 (1) (छ) ] -

    विक्रय के लिए करार हो जाने के उपरान्त भी विक्रेता बैनामें की तिथि तक सभी प्रकार के भाटक मालगुजारी एवं करों का भुगतान करने के दायित्वाधीन होता है। यह दायित्व भी पूर्वोक्त की भांति सांपाश्विक दायित्व है जिसका अनुपालन विक्रय से पूर्व न होने पर विक्रय के बाद भी कराया जा सकेगा। यह दायित्व केवल लोक प्रभारों तक ही सीमित है, किन्तु इसे भी विपरीत संविदा द्वारा समाप्त किया जा सकेगा। विक्रय पूर्ण होने के पश्चात्

    विक्रेता के दायित्व :-

    (1) कब्जा देने का दायित्व [ धारा 55 ( 1 ) (च) ] -

    विक्रय की कार्यवाही पूर्ण हो जाने के पश्चात् विक्रेता का यह कर्तव्य होता है कि वह सम्पत्ति का कब्जा क्रेता को प्रदान करें और यदि कब्जा उसके पास नहीं है तो कब्जा दिलाने का प्रयास करे। क्रेता को स्वयं कब्जा प्राप्त करने के लिए छोड़ नहीं देना चाहिए। कब्जा देने का समय इस खण्ड में निर्धारित तो नहीं किया गया है किन्तु अवधारणा यह है कि स्वामित्व अंतरण के साथ ही कब्जा दे दिया जाना चाहिए।

    स्वामित्व का अन्तरण साधारणतया दस्तावेज के निष्पादन के साथ हो होता है। किन्तु इस स्थिति को विपरीत संविदा द्वारा परिवर्तित भी किया जा सकता है। यदि विक्रय की गयी सम्पत्ति का कब्जा विक्रेता प्रदान करने की स्थिति में नहीं है तो क्रेता संविदा को समाप्त कर सकता है और यदि उसने अग्रिम धनराशि का भुगतान विक्रेता को किया है तो उसे वापस ले सकता है कब्जे का परिदान सम्पत्ति को प्रकृति के अनुरूप होना चाहिए।

    उदाहरणार्थ, भवन का कब्जा चाभियों के अन्तरण द्वारा पूर्ण होगा। कृषि योग्य भूमि का कब्जा, भूमि पर जाकर उसकी सोमा बताकर पूर्ण होगा इत्यादि। सम्पत्ति का कब्जा स्वयं क्रेता को या उसके द्वारा प्राधिकृत किसी व्यक्ति को दिया जा सकता है।

    (2) स्वामित्व की विवक्षित प्रसंविदा [ धारा 55 (2) ] -

    यह खण्ड उपबन्धित करता है कि विक्रेता क्रेता से यह प्रसंविदा करेगा कि विक्रेता ने क्रेता को जो हित अन्तरित करने को अव्यंजना की है यह हित विद्यमान है तथा उस हित को यह अन्तरित करने के लिए सक्षम है। यह प्रसंविदा प्रत्यक्ष या परोक्ष हो सकेगी। यह खण्ड केवल विवक्षित प्रसंविदा से सम्बद्ध है।

    यदि सम्पत्ति का विक्रय वैश्वासिक स्तर (Fiducrary character) के व्यक्ति द्वारा किया गया है। तो उसके सन्दर्भ में यह विवक्षित होगा कि उसने यह प्रसंविदा की है कि विक्रेता ने ऐसा कोई भी कार्य नहीं किया है जिसके कारण सम्पत्ति पर कोई प्रभार आरोपित हुआ है या उसको सम्पत्ति अन्तरित करने की क्षमता प्रतिवाधित हो गयी है।

    यह विवक्षित प्रसंविदा अन्तरिती के हित में उपाबद्ध रहेगी और उसी के साथ अन्तरित होगी। इसे ऐसा व्यक्ति प्रवर्तित करा सकेगा जिसमें वह हित समय-समय पर पूर्णतः या अंशत: निहित हो।

    (3) स्वामित्व विलेखों का परिदान [ धारा 55 (3) ] -

    सम्पत्ति के सम्बन्ध में साधारण नियम यह है कि सम्पत्ति के स्वत्व विलेख को उसी व्यक्ति को अपने पास रखने का अधिकार होता है जिसके पास सम्पत्ति का कब्जा रहता है। यह खण्ड यह प्रतिपादित करता है कि विक्रेता अपने आधिपत्य अथवा नियंत्रण में विद्यमान स्वामित्व विलेखों का परिदान करने के दायित्वाधीन है।

    स्वामित्व विलेख सम्पत्ति के अनुसंग के रूप में उसी के साथ अन्तरित होता है, किन्तु क्रेता इसे केवल तभी प्राप्त कर सकेगा जबकि उसने सम्पूर्ण विक्रय धनराशि का भुगतान कर दिया हो। जैसे ही वह मूल्य का भुगतान करेगा, विक्रेता तुरन्त विलेख का परिदान करने के दायित्वाधीन हो जाएगा। इसका विभाजन नहीं हो सकता। किन्तु इसके दो अपवाद हैं

    (1) यदि विक्रेता, विक्रय विलेख में उल्लिखित सम्पत्ति का एक अंश अपने पास ही रखे रहता है तो वह स्वामित्व विलेख को अपने पास रोक सकेगा। जब क्रेता उससे अपेक्षा करेगा तो वह स्वामित्व विलेख की सत्यप्रति उसे प्रदान करेगा।

    (2) यदि सम्पत्ति का विक्रय अनेक खण्डों में किया जा रहा है तो गुरुतर खण्ड का क्रेता उसे अपने पास रखने का अधिकारी होगा।

    विक्रय से पूर्व विक्रेता के अधिकार :-

    (1) किराया तथा लाभ प्राप्त करने का अधिकार [ धारा 55 (4) (क) ] -

    सम्पत्ति में स्वामित्व के हस्तान्तरण से पूर्व स्वामी सम्पत्ति से उत्पन्न किराये एवं अन्य प्रलाभों को प्राप्त करने का अधिकारी होता है। तत्समय तक वह सम्पत्ति का स्वामी रहता है और बतौर स्वामी उसे उन सब लाभों को पाने का हक होगा जो सम्पत्ति से उद्भूत होते हैं।

    किन्तु यदि क्रेता, विक्रय को समस्त कार्यवाही पूर्ण होने से पहले ही सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त कर लेता है और सम्पत्ति से उत्पन्न लाभों एवं किराये को प्राप्त करता है तो यह अदत्त मूल्य पर ब्याज देने के दायित्वाधीन होगा।

    क्योंकि यह अनुचित होगा कि एक ही व्यक्ति सम्पत्ति के किराये एवं लाभों को भी ले और उस पर व्याज भी प्राप्त करे। किन्तु यदि विक्रेता अन्तरण पूर्ण करने में विलम्ब करता है और परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिनमें मूल्य की धनराशि क्रेता के पास बेकार और अनुपयोगी पड़ी रहती है तो विक्रेता ब्याज़ प्राप्त करने का हकदार नहीं होगा।

    विक्रय पूर्ण होने के पश्चात् विक्रेता का दायित्व :- विक्रेता का धारणाधिकार [ धारा 55 (4) (b) ]

    यदि विक्रय की समस्त कार्यवाहियां पूर्ण हो चुकी हैं, सम्पत्ति अन्तरित की जा चुकी है किन्तु विक्रय धनराशि या उसके किसी अंश का भुगतान नहीं हुआ है तो विक्रेता की असंदत्त धनराशि पर एक प्रभार प्राप्त होगा। असंदत्त विक्रेता का अधिकार एक धारणाधिकार है।

    यह अधिकार सम्पत्ति को रोके रखने का अधिकार नहीं है। वह केवल स्वामित्व विलेख को रोकने और असंदत मूल्य पर प्रभार का अधिकारी है। यदि क्रेता एक न होकर अनेक हैं तो विक्रेता का इस तथ्य से कोई सरोकार नहीं होगा कि प्रत्येक क्रेता किस अनुपात में भुगतान करेगा, परन्तु जहाँ तक प्रभार का प्रश्न है, वह विक्रेता के पास सम्पूर्ण अदत्त धनराशि के सम्बन्ध में रहेगा।

    क्रेता उस स्थिति में भी असंदत्त धनराशि का भुगतान करने के दायित्वाधीन रहेगा जबकि उसने उस सम्पत्ति से भिन्न, जिसके लिए संविदा की गयी थी, कोई अन्य व्यक्ति सम्पत्ति स्वीकार किया हो असंदत्त धनराशि पर क्रेता को ब्याज का भी भुगतान करना पड़ता है, किन्तु यदि विक्रेता के पास ही सम्पत्ति का कब्जा है, तो क्रेता ब्याज अदा करने के दायित्वाधीन नहीं होगा क्रेता उस स्थिति में भी ब्याज अदा करने के दायित्वाधीन नहीं होगा जबकि उसने विक्रय धनराशि का एक अंश अपने पास इसलिए रोक रखा हो कि विक्रेता को किसी प्रभार का भुगतान करना है।

    किन्तु यदि उसने विक्रय धनराशि का एक अंश अपने पास उन प्रभारों का भुगतान स्वयं करने के उद्देश्य से रोक रखा है परन्तु भुगतान करने में विफल रहता है, तो यह ब्याज अदा करने के दायित्वाधीन होगा।

    इस खण्ड के अन्तर्गत प्राप्त धारणाधिकार विपरीत संविदा द्वारा विबन्धन द्वारा या त्याग द्वारा, समाप्त किया जा सकता है। स्पष्ट संविदा के अभाव में, इस आशय का निष्कर्ष मामले की परिस्थितियों अथवा विक्रेता के अचारण से निकाला जा सकता है।

    यह धारणाधिकार उस स्थिति में भी समाप्त हो जाता है जबकि क्रेता, विक्रेता के निर्देश पर किसी तीसरे व्यक्ति के पक्ष में विक्रेता के दायित्व को समाप्त करता हुआ एक प्रोनोट निष्पादित कर दें। ऐसी स्थिति में क्रेता विक्रेता के बजाय तृतीय पक्षकार के दायित्वाधीन हो जाएगा।

    विक्रय के संव्यवहार को पूर्ण करने हेतु यह आवश्यक होता है कि विक्रय सम्पत्ति में का हित विक्रेता से क्रेता में संक्रान्त हो गया हो। इस सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रथा, जो एक विधिक व्यवस्था प्रतिपादित करती है, जिसे "खुब्जुल बदलन" कहा जाता है, बिहार राज्य में प्रचलित है। इसके अनुसार विक्रेता से क्रेता में सम्पत्ति का स्वामित्व तभी संक्रांत होता है जब उनके बीच समतुल्य का विनिमय हो।

    अतः यदि विक्रय विलेख में यह उल्लिखित हो कि सम्पूर्ण प्रतिफल का भुगतान हो चुका है तथा सम्पत्ति का कब्जा प्रदान किया जा चुका है, किन्तु रजिस्ट्रीकरण रसीद विक्रेता अपने पास रखता है तथा सम्पत्ति का कब्जा भी उसी के पास रहता है क्योंकि निश्चित प्रतिफल का भुगतान या तो पूर्णतः या अंशतः विक्रेता को प्राप्त नहीं हुआ था भले ही विक्रय विलेख में इससे भिन्न उल्लिखित हुआ था। क्रेता में स्वामित्व का अन्तरण तब तक पूर्ण नहीं माना जाएगा जब तक कि क्रेता सम्पूर्ण विक्रय राशि का भुगतान कर रजिस्ट्रीकरण रसीद न प्राप्त कर ले।

    जनक दुलारी देवी एवं अन्य बनाम कपिल देव राय एवं अन्य के वाद में 'क' जो सम्पत्ति का स्वामी था, ने अपनी सम्पत्ति रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख द्वारा 'ख' के पक्ष में रु० 22,000/ प्रतिफल के एवज में बेच दिया। किन्तु प्रतिफल की कुल रकम में से केवल रु० 17,000/- का भुगतान किया गया तथा यह वचन किया गया कि शेष रु० 5000/- का भुगतान शीघ्र कर दिया जाएगा।

    किन्तु 'ख' शेष रकम का भुगतान करने में विफल रहा; फलस्वरूप 'क' ने 'ख' के पक्ष में हुए अन्तरण को निरस्त कर सम्पत्ति 'ग' के पक्ष में बेंच दिया तथा उसे सम्पत्ति का कब्जा भी संदत्त कर दिया। प्रश्न यह था कि क्या 'ग' के पक्ष में किया गया अन्तरण बँध था। न्यायालय ने "खुब्जुल बदलन" के सिद्धान्त के आधार पर 'ग' के पक्ष में संव्यवहार को वैध माना तथा 'ख' के पक्ष में हुए अन्तरण को रद्द कर दिया।

    क्रेता के दायित्व: विक्रय पूर्ण होने से पहले :-

    (1) सम्पत्ति के मूल्य में सारवान वृद्धि करने वाले तथ्यों को प्रकट करने का दायित्व [ धारा ( 55 ) 5 (क) ] -

    जिस प्रकार विक्रेता पर इस धारा के अन्तर्गत यह दायित्व है कि वह अन्तर्निहित दोषों को स्पष्ट करे उसी प्रकार इस खण्ड के अन्तर्गत क्रेता पर यह दायित्व है कि वह उन तथ्यों को, जो सम्पत्ति के मूल्य में सारवान वृद्धि करने वाले हैं, विक्रेता को सुस्पष्ट करे, किन्तु क्रेता का दायित्व केवल उन तथ्यों के प्रकटीकरण तक सीमित हैं जिन का ज्ञान उसे तो है किन्तु विक्रेता को नहीं है और जिनसे सम्पत्ति के मूल्य में सारवान वृद्धि हो सकती है।

    कोक्स बनाम बोसवेल के वाद में लार्ड सेलबर्न ने प्रेक्षित किया था कि,

    "प्रत्येक क्रेता से यह अपेक्षित है कि वह जो कुछ भी कहता है या करता है उसमें सद्भावना का अनुपालन करे जिससे संविदा का क्रियान्वयन हो सके और कपट से बचा जा सके कपट, सत्य तथ्य को दबाकर या मिथ्या सुझाव द्वारा अस्तित्व में आ सकता है। साधारणतया क्रेता, विक्रेता को उन तथ्यों को प्रकट करने के पूर्विक दायित्व के अधीन नहीं होता है जो, उसके स्वयं के हितों के लिए संव्यवहार करते समय उसके आचरण एवं निर्णय को प्रभावित करते हों। क्रेता की चुप्पी मात्र से कपट की अवधारणा की जाएगी, यदि वह उन तथ्यों के बगैर कोई अन्य सूचना देता है जो निश्चयत पर स्वभावतः और संभाव्यतः मिथ्याकारी है।"

    किन्तु इस नियम के अपवाद भी हैं। साधारणतया यह विक्रेता का दायित्व है कि वह अपने स्वामित्व के विषय में जाने, किन्तु ऐसी भी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिनमें विक्रेता को ज्ञान न हो और क्रेता को हो। ऐसी स्थिति में क्रेता का यह दायित्व होगा कि वह अपने ज्ञान का अनुचित लाभ न ले।

    अतः ऐसी स्थिति में क्रेता अपने ज्ञान को विक्रेता को प्रकट करने के दायित्वाधीन होता है अन्यथा इस तथ्य की सूचना मिलते ही विक्रेता कपट के आधार पर संव्यवहार को रद्द करा सकेगा। उदाहरणस्वरूप, यदि कोई स्त्री अपनी सम्पत्ति बाजार मूल्य से अत्यधिक कम मूल्य पर बेचती है. क्योंकि वह इस भ्रम में है कि वह उस सम्पत्ति में अच्छा हित अन्तरित नहीं कर सकती है जबकि क्रेता को यह ज्ञान है कि वह अच्छा हित अन्तरित कर सकती है तो ऐसी स्थिति में यह माना जाएगा कि क्रेता ने तथ्यों को दबाया था। इस आधार पर संव्यवहार रद्द किया जा सकेगा।

    (2) मूल्य का भुगतान [ धारा 55 (5) (ख)] -

    यह खण्ड क्रेता से यह अपेक्षा करता है। कि क्रेता मूल्य का भुगतान करे भुगतान उस समय होना चाहिए जब बैनामा लिखा जा रहा हो। ये दोनों ही कार्यवाहियों साथ-साथ पूर्ण होनी चाहिए। विक्रेता तब तक विक्रय विलेख लिखने को बाध्य नहीं है, जब तक कि क्रेता सम्पत्ति का पूरा मूल्य अदा न कर दे या इस आशय का कोई करार न कर लें। यदि मूल्य का वास्तविक भुगतान नहीं किया जा रहा हो तो भुगतान की निविदा पर्याप्त होगी।

    यह खण्ड, उपधारा 55 (1) (घ) का स्वाभाविक निष्कर्ष जो यह प्रतिपादित करता है कि यदि क्रेता ने उचित मूल्य से अधिक का भुगतान किया है तो यह विक्रेता से अधिक मूल्य वापस पाने का हकदार होगा।

    विक्रय के पश्चात् क्रेता के दायित्व :-

    (1) सम्पत्ति के नुकसान को सहना [ धारा 55 ( 5 ) (ग) ] -

    स्वामित्व क्रेता में साधारणतया विक्रय-विलेख के निष्पादन के साथ ही अन्तरित हो जाता है। उसे विक्रेता के समस्त अधिकार एवं शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। अतः उसे सम्पत्ति के सम्बन्ध में होने वाले समस्त नुकसानों को वहन करना पड़ेगा। सम्पत्ति को होने वाले नुकसान आकस्मिक विनाश के कारण हो सकते हैं अथवा हास के कारण नुकसान को सहन करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि सम्पत्ति क्रेता के कब्जे में हो। इतना ही पर्याप्त है कि स्वामित्व क्रेता में निहित हो गया हो।

    (2) लोक प्रभारों का भुगतान [ धारा 55 (5) (घ) ] -

    विक्रय विलेख के निष्पादन की तिथि से क्रेता समस्त लोक प्रभारों का भुगतान करने के दायित्वाधीन हो जाता है। वह मूलधन के साथ ही साथ ब्याज अदा करने के भी दायित्वाधीन रहता है, किन्तु वह ब्याज की अवशिष्ट राशि का भुगतान करने के दायित्वाधीन नहीं है।

    यदि एक व्यक्ति किसी कम्पनी, जो कि विघटन के अध्यधीन है, की सम्पति क्रय करता है तो उसे उस सम्पत्ति पर सभी भारों एवं विल्लंगमों से मुक्त स्पष्ट स्वत्व प्राप्त होगा भले ही सांविधिक प्राधिकारी द्वारा कुर्की का आदेश दिया गया हो। जब क्रेता "जैसे है जहाँ है" के आधार पर सम्पत्ति क्रय करता है तो उसकी स्थिति उसी के अनुरूप होती है।

    विशेष अधिकारी (वाणिज्य) नेस्को एवं अन्य बनाम मेसर्स रघुनाथ पेपर मिल्स प्रा० लि० एवं अन्य के वाद में मेसर्स कोणार्क पेपर्स एण्ड इण्डस्ट्रीज लि० जो कि कम्पनी अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत एक निगमित कम्पनी थी के "जैसे है, जहाँ है" के आधार पर विक्रय हेतु शासकीय समापक ने एक विज्ञापन प्रकाशित कराया।

    इस विज्ञापन के आधार पर मेसर्स रघुनाथ पेपर्स मिल्स प्रा० लि० ने भी निविदा में अपनी भागीदारी सुनिश्चित किया, उन्हें सबसे अधिक बोली लगाने वाला पाया गया। फलस्वरूप वह कम्पनी मेसर्स रघुनाथ को बेच दी गयी एवं उसका कब्जा भी शासकीय समापक द्वारा सौंप दिया गया।

    तत्समय मेसर्स कोणार्क पेपर्स को विद्युत की आपूर्ति नहीं हो रही थी अतः मेसर्स रघुनाथ ने विद्युत आपूर्ति हेतु जनरल मैनेजर (वाणिज्यिक) के समक्ष आवेदन प्रस्तुत किया जिसे जनरल मैनेजर ने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। विद्युत आपूर्ति हेतु आवश्यक औपचारिकताएं पूर्ण होने के उपरान्त मेसर्स रघुनाथ को कार्य सम्पादित होने का प्रमाण पत्र भी प्राप्त हो गया।

    इसके बाद मेसर्स रघुनाथ ने नेस्को प्रबन्धन के साथ करार कर प्रतिभूति हेतु आवश्यक धनराशि जमा कर दिया। किन्तु विद्युत विभाग ने विद्युत आपूर्ति प्रारम्भ नहीं की अपितु लगभग रु० 79,02,262/- विद्युत मूल्य बकाया होने की बात की और कहा कि जब तक यह रकम जमा नहीं होगी विद्युत आपूर्ति प्रारम्भ नहीं होगी। इन परिस्थितियों में विवाद न्यायालय पहुंचा।

    उड़ीसा उच्च न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि जब कोई व्यक्ति किसी कम्पनी को शासकीय समापन के आदेश के अन्तर्गत क्रय करता है तो उसे सम्पत्ति में स्पष्ट स्वत्व सभी भारों एवं विल्लंगमों से मुक्त मिलता है भले ही एक संविधिक प्राधिकारी द्वारा कुर्की का आदेश हो।

    जब कोई व्यक्ति "जैसा है जहाँ है" के आधार पर सम्पत्ति क्रय करता है तो वह पूर्व के बकायों के लिए उत्तरदायी नहीं होता है। इस मामले में कहा गया कि मेसर्स रघुनाथ ने अपने नाम में विद्युत का नया कनेक्शन लेने हेतु आवेदन प्रस्तुत किया था न कि पूर्व संस्थान द्वारा लिए गये विद्युत कनेक्शन को अपने नाम हस्तान्तरित करने हेतु अतः मेसर्स रघुनाथ पूर्व की बकाया रकम का भुगतान करने के दायित्वाधीन नहीं हैं।

    विक्रय से पूर्व क्रेता के अधिकार :-

    क्रेता के धारणाधिकार [ धारा 55 ( 6 ) (ख) ] -

    जिस प्रकार विक्रेता को धारणाधिकार प्राप्त है ठीक उसी प्रकार क्रेता को भी इस खण्ड के अन्तर्गत धारणाधिकार प्राप्त है। यह अधिकार तब उत्पन्न होता है जबकि क्रेता ने मूल्य का अग्रिम भुगतान इस उम्मीद से कर दिया हो कि विक्रेता उसे सम्पत्ति अन्तरित करेगा बशर्ते कि उसने अवैध रूप से कब्जा लेने से इन्कार कर दिया हो।

    धारणाधिकार न केवल उस धनराशि पर प्राप्त होता है जिसका भुगतान उसने किया है, अपितु उससे सृष्ट ब्याज पर भी। ब्याज़ की गणना उस तिथि को की जाती है जिस तिथि को कब्जे की अदायगी होती है।

    यदि क्रेता अनुचित ढंग से कब्जे का परिदान लेने से इन्कार कर देता है तो उसका धारणाधिकार समाप्त हो जाएगा, किन्तु इस स्थिति में भी विक्रेता अग्रिम भुगतान को अपने पास रोकने का अधिकारी नहीं होगा है,

    यदि किसी सम्पत्ति का विक्रय नीलामी के माध्यम से इस आधार पर किया जाता है कि उसका स्वामी बिजली विभाग को देय रकम का भुगतान करने में विफल रहा है तो नीलामी में सम्पत्ति को क्रय करने वाला व्यक्ति उन प्रभारों का भुगतान करने के दायित्वाधीन होगा क्योंकि नीलामी क्रेता समस्त परिस्थितियों को जानते समझते हुए सम्पत्ति क्रय करता है। वह नीलामी की शर्तों से बाध्य होगा। वह बकाया रकम का भुगतान करने के दायित्वाधीन होगा।

    धारा 55 (6) (ख) उपबन्धित करती है कि सम्पत्ति पर क्रेता का भार प्रवर्तनीय है न केवल विक्रेता के विरुद्ध अपितु उससे व्युत्पन्न अधिकाराधीन दावा करने वाले सभी व्यक्तियों के विरुद्ध भी जब तक क्रेता ने सम्पत्ति का परिदान प्रतिगृहीत करने से अनुचित रूप से इन्कार न कर दिया हो। क्रेता का यह भार सांविधिक भार है तथा यह संविदात्मक भार से पृथक् है। संविदात्मक भार, पक्षकारों के बीच संविदा के फलस्वरूप ही अस्तित्व में आता है।

    अग्रिम भुगतान तथा बयाना (Advance Payment and Earnest Money) -

    अग्रिम भुगतान उस भुगतान को कहते हैं जिसमें प्रतिफल के एक अंश को संव्यवहार की कार्यवाही पूर्ण होने से पूर्व विक्रेता को अदा कर दिया जाता है इस आशय से कि भविष्य में संव्यवहार पूर्ण होगी, परन्तु बयाना वह धनराशि होती है जो मूल्य के भुगतान में उपयोगी तो होती है, किन्तु मूलतः वह संविदा अनुपालन हेतु प्रतिभूति के रूप में दी जाती है।

    कुँवर चिरन्जीत बनाम हर स्वरूप के वाद में लार्ड शा ने अभिप्रेक्षित किया था कि-

    "बयाना वह धनराशि है, जो संव्यवहार के पूर्ण होने की दशा में विक्रय धनराशि का अंश होती है, किन्तु क्रेता की गलती या असफलता के कारण संव्यवहार के विफल होने की दशा में जब्त हो जाती है।"

    उपरोक्त से स्पष्ट है कि अग्रिम भुगतान जब्त नहीं होता है, जबकि बयाना जब्त हो जाता है। कोई भुगतान अग्रिम है या बयाना इस तथ्य का निर्धारण मामले के समस्त तथ्यों को ध्यान में रख कर किया जाता है।

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