संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 21: संपत्ति संबंधी वाद के लंबित रहते हुए संपत्ति का अंतरण (धारा 52)

Shadab Salim

14 Aug 2021 4:41 AM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 21: संपत्ति संबंधी वाद के लंबित रहते हुए संपत्ति का अंतरण (धारा 52)

    संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 52 किसी संपत्ति के ऐसे अंतरण पर रोक लगाती है जिस के संबंध में कोई वाद न्यायालय में लंबित है। इस धारा का मूल अर्थ यह है कि जब भी किसी संपत्ति पर कोई विवाद न्यायालय के समक्ष पंजीकृत हो तब उस संपत्ति का अंतरण नहीं किया जाए और यदि ऐसा अन्तरण किया जाता है तब उस अंतरण को अवैध और शून्य करार दिया जाएगा।

    अधिनियम कि यह धारा 52 इसकी अवधारणा पर स्पष्ट रूप से प्रावधान करती है तथा उससे संबंधित नियमों को प्रस्तुत करती है। इस आलेख के अंतर्गत लेखक इस धारा की विस्तारपूर्वक व्याख्या कर रहे हैं इससे पूर्व के आलेख में त्रुटि युक्त हकों के संबंध में सुधार कार्यों के माध्यम से कोई बढ़ोतरी होने पर प्रतिकर पाने के विषय पर सारगर्भित टिप्पणी की गई थी जो कि इस अधिनियम की धारा 51 से संबंधित हैम संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 51 से संबंधित प्रावधानों को समझने हेतु इससे पूर्व के आलेख का अध्ययन किया जा सकता है।

    इस धारा में वर्णित सिद्धान्त इस सूत्र पर आधारित है कि अचल सम्पत्ति से सम्बन्धित किसी वाद के लम्बन के दौरान उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होना चाहिए। यह सिद्धान्त प्रतिपादित करता है कि किसी वाद के लम्बन के दौरान, जिसमें अचल सम्पत्ति से सम्बन्धित कोई अधिकार विवादित है, विवाद का कोई भी पक्षकार उक्त सम्पत्ति को इस प्रकार अन्तरित या अन्यथा व्ययनित नहीं करेगा जिससे कि उसके प्रतिपक्षी पर विपरीत प्रभाव पड़े। इस सिद्धान्त का उद्भव आवश्यकता के सिद्धान्त से हुआ।

    लम्बित वाद के सिद्धान्त को लाई टर्नर ने बेलामी बनाम साबिन के मामले में इस प्रकार व्यक्त किया था:

    "जैसा कि मैं सोचता हूँ, यह सिद्धान्त विधि तथा साम्या दोनों ही न्यायालयों के लिए सामान्य है और जैसा कि मैं महसूस करता हूँ, इस तथ्य पर आधारित है कि यदि वाद के लम्बन के दौरान उक्त सम्पत्ति के अन्तरण की अनुमति दे दी जाए तो विवादों का सफलतापूर्वक निपटारा कभी भी सम्भव नहीं हो सकेगा। प्रत्येक मामले में वादी प्रतिवादी द्वारा किए गये अन्तरण के कारण विफल हो जाएगा यदि अन्तरण निर्णय या डिक्री से पूर्ण कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में वादी बार-बार वाद संस्थित करने के लिए बाध्य होगा और हर बार अन्तरण का उसी प्रक्रिया द्वारा विफल हो जाएगा।"

    इस वाद का निर्णय सन् 1857 में हुआ था जबकि इससे पूर्व इंग्लैण्ड में जजमेण्ट्स एक्ट 1839 पारित हो चुका था जिससे यह अपेक्षा की गयी थी कि लम्बित वाद से प्रभावित होने के लिए यह आवश्यक है कि वाद पंजीकृत किया गया हो। यदि वाद पंजीकृत है तो वाद के लम्बन की अवधि में विवादित सम्पत्ति का अन्तरण, इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा।

    उक्त अधिनियम को अब लैण्ड चार्जेज एक्ट, 1925 से प्रतिस्थापित कर दिया गया है। एक बार कराया गया पंजीकरण पाँच वर्ष तक प्रभावी रहता है और इस अवधि में यदि विवाद का निर्णय नहीं हुआ तो वाद को पुनः पाँच वर्ष के लिए पंजीकृत कराया जा सकेगा।

    भारतीय विधि-

    भारत में इस सिद्धान्त को लेकर फैय्याज हुसेन बनाम प्राग नारायण का महत्वपूर्ण वाद निर्णीत हुआ है। इस मामले में एक बंधककर्ता ने अपने बन्धक को प्रवर्तित कराने के लिए वाद संस्थित किया, पर समन की तामील होने से पूर्व ही बन्धककर्ता ने उसी सम्पत्ति का पुनः बन्धक करने की साज़िश की पूर्व बन्धकों ने अपना वाद जारी रखा, पर पाश्चिक बन्धको को पक्षकार नहीं बनाया प्रश्न यह था कि क्या पाश्चिक अन्तरिती लम्बित वाद के सिद्धान्त से प्रभावित होगा?

    यह अभिनिर्णीत हुआ कि विक्रय के पश्चात् पाश्चिक अन्तरिती का पूर्विक अन्तरिती को मोचित करने का अधिकार समाप्त हो जाता है। पाश्चिक अन्तरिती पूर्विक अन्तरण से प्रभावित होगा। दूसरे शब्दों में लम्बित वाद के सिद्धान्त को लागू किया गया।

    सिद्धान्त का प्रभाव- इस सिद्धान्त का प्रभाव जैसा कि धारा 52 में वर्णित है, पाश्चिक अन्तरण को शून्य या शून्यकरणीय बनाना नहीं है। यह उस अन्तरण को केवल न्यायालय के निर्णय के अध्यधीन बना देता है।

    दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि लम्बित वाद के दौरान अन्तरित सम्पत्ति पर अधिकार उस व्यक्ति का होगा जिसके पक्ष में न्यायालय का निर्णय होगा। यह स्थिति तब भी रहेगी, जबकि सम्पत्ति का अन्तरण इन्जंक्शन आदेश जिसके द्वारा सम्पत्ति के अन्तरण को प्रतिषेधित किया गया था का उल्लंघन करते हुए किया गया हो। उल्लंघन का प्रभाव केवल यह होगा कि दोषी पक्षकार उल्लंघन के लिए दोषी होगा।

    वाद के लम्बित रहने के दौरान अन्तरित सम्पत्ति का अन्तरिती सम्पत्ति में तब तक स्वत्व नहीं प्राप्त करता है जब तक कि न्यायालय द्वारा उसके अन्तरण के पक्ष में अन्तिम डिक्री न पारित हो जाए। डिक्री धारक के पक्ष में होने वाली निष्पादन प्रक्रिया को भी ऐसा अन्तरिती नहीं रोक सकता।

    वाद के लम्बन के दौरान ऐसी सम्पत्ति का अन्तरिती सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने का भी अधिकारी नहीं होता है। विशेष कर तब जब कि उक्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में पारित निष्पादन की कार्यवाही लम्बित हो।

    पर वाद के लम्बन के दौरान सम्पत्ति क्रय करने के वाला अन्तरिती सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के अन्तर्गत सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने हेतु अन्तरक के विरुद्ध कार्यवाही कर सकेगा, यदि सम्पत्ति अन्तरक को प्राप्त होती है। वह अपने अधिकार को, यदि कोई हो, को प्रवर्तित कराने हेतु वाद संस्थित कर सकेगा।

    मेसर्स सुप्रीम र फिल्म एक्सचेंज लिमिटेड बनाम बाजनाथ सिंह के मामले में एक थियेटर को, थियेटर स्वामी के विरुद्ध पारित डिक्री के निष्पादन में कुर्क कर लिया गया। कुर्की के दौरान स्वामी ने उक्त थियेटर को अपीलार्थी के पक्ष में पट्टे द्वारा अन्तरित कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्णत किया कि सम्पत्ति का पट्टा लम्बित वाद के सिद्धान्त से प्रभावित होगा।

    इस धारा मुख्य तत्व - इस धारा के निम्नलिखित प्रमुख तत्व है-

    (1) किसी वाद अथवा कार्यवाही का लम्बित होना।

    (2) वाद अथवा कार्यवाही एक ऐसे न्यायालय में लंबित हो जिसे उस पर विचार करने की शक्ति प्राप्त हो।

    (3) वाद अथवा कार्यवाही दुरभिसन्धि पूर्ण न हो।

    (4) उक्त वाद में किसी अचल सम्पत्ति से सम्बन्धित कोई प्रश्न प्रत्यक्षतः और विशिष्टत: वादग्रस्त हो।

    (5) विवादग्रस्त सम्पत्ति विवाद के किसी अन्य पक्षकार द्वारा अन्तरित की गयी हो या अन्यथा व्ययनित की गयी हो।

    (6) अन्तरण विवाद के किसी अन्य पक्षकार को प्रभावित करे।

    इन सभी तत्वों को विस्तार से नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है-

    1. वाद अथवा कार्यवाही का लम्बित होना- प्रथम तत्व यह है कि कोई वाद अथवा कार्यवाही लम्बित हो। इस धारा के अन्त में दिया गया स्पष्टीकरण उपबन्धित करता है कि किसी वाद अथवा कार्यवाही का लम्बन इस धारा के प्रयोजनों के लिए उस तारीख से प्रारम्भ हुआ समझा जाएगा, जिस तारीख को सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय में वह वाद-पत्र प्रस्तुत किया गया हो या वह कार्यवाही संस्थित की गयी हो और तब तक चलता हुआ समझा जाएगा जब तक कि उस वाद या कार्यवाही का निपटारा अन्तिम डिक्री या आदेश द्वारा न हो गया हो और ऐसी डिक्री या आदेश की पूरी तुष्टि या उन्मोचन न अभिप्राप्त कर लिया गया हो या तत्समय प्रवृत्त विधि द्वारा उसके निष्पादन के लिए विहित किसी अवधि के अवसान के कारण वह अनभिप्राय न हो गया हो।

    अतः स्पष्ट है कि वाद अथवा कार्यवाही का लम्बन उसकी प्रस्तुति की तिथि से माना जाएगा, किन्तु वाद अथवा कार्यवाही की प्रस्तुति मात्र ही पर्याप्त नहीं है। यह भी आवश्यक है कि सक्षम प्राधिकारिता वाले न्यायालय ने विचारण हेतु उसे स्वीकार कर लिया हो।

    उदाहरणस्वरूप, यदि वादी अकिंचन के रूप में, वाद संस्थित करना चाहता है तो उसे न्यायालय की पूर्वानुमति लेनी होगी। यदि न्यायालय इस आशय की अनुमति प्रदान कर दें तो अकिंचन वाद उस तिथि से ही लम्बित माना जाएगा जिस तिथि को अकिंचन के रूप में वाद संस्थित करने हेतु आवेदन प्रस्तुत किया गया था।

    विवारण हेतु वाद अथवा कार्यवाही साधारणतया कनिष्ठ न्यायालय में प्रस्तुत की जाती है यदि कनिष्ठ न्यायालय में न प्रस्तुत कर, उसे वरिष्ठ न्यायालय में प्रस्तुत किया गया है और वरिष्ठ न्यायालय विचारण हेतु उसे कनिष्ठ न्यायालय को सुपुर्द कर देता है तो वाद या कार्यवाही उसी तिथि से लम्बित मानी जाएगी जिस तिथि को वरिष्ठ न्यायालय ने उसे विचारण हेतु स्वीकार किया था।

    इसका कारण यह है कि वरिष्ठ न्यायालय द्वारा प्रथम दृष्टया विचारण केवल एक अनियमितता है अवैधता नहीं, किन्तु यदि वरिष्ठ न्यायालय बाद अथवा कार्यवाहों को स्वीकार नहीं करता है केवल यह निर्देश देता है कि उसे कनिष्ठ न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाए तो बाद कनिष्ठ न्यायालय में प्रस्तुति को तिथि से लम्बित माना जाएगा न कि वरिष्ठ न्यायालय में प्रस्तुति को तिथि में किन्तु यदि वरिष्ठ न्यायालय के पास क्षेत्राधिकार ही नहीं था, तो बाद लम्बित नहीं माना जाएगा।

    ऐसी स्थिति में सम्पत्ति का अन्तरण इस नियम से प्रभावित नहीं होगा। इसी प्रकार यदि बाद उचित न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया था और न्यायालय ने वाद को समुचित या सक्षम न्यायालय में प्रस्तुत करने के लिए वापस कर दिया है तो सक्षम न्यायालय में प्रस्तुति की तिथि से हो वाद लम्बित माना जाएगा। सम्पत्ति का अन्तरण इस कालावधि में इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा।

    यदि वाद अथवा कार्यवाही को अपर्याप्त स्टाम्प के साथ न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है और न्यायालय इस आधार पर आवेदन को इस निर्देश के साथ वापस कर देता है कि पर्याप्त स्टाम्प के साथ उसे प्रस्तुत किया जाए तो वाद लम्बित नहीं माना जाएगा किन्तु यदि न्यायालय आवेदन वापस करने के बजाय केवल यह निर्देश देता है कि उचित मात्रा में स्टाम्प आवेदन पर लगा दिया जाए तो वाद उसी प्रकार से लम्बित होगा जब से न्यायालय ने उसे स्वीकार किया था।

    यदि वाद एक पक्षकार के न्यायालय में उपस्थित न होने के कारण खारिज हो जाता है और तत्पश्चात् वाद को पुनस्थापित करने के लिए आवेदन प्रस्तुत किया जाता है और न्यायालय इस आशय का आदेश दे देता है तो वाद उसी तिथि से लम्बित समझ लिया जाएगा जिस तिथि को न्यायालय ने पहली बार उसे विचारण के लिए स्वीकार किया था न कि उस तिथि से जिस तिथि को उसे पुनस्थापित करने का आदेश हुआ था अतः वाद खारिज होने और पुनस्थापित होने के बीच की कालावधि में सम्पत्ति का अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा।

    वहाँ तक वाद के संशोधन का प्रश्न है न्यायिक निर्णय एक मत के नहीं है। रंगास्वामी बनान उप्पराजों के वाद में यह मत व्यक्त किया गया था कि वाद पत्र में संशोधन, वाद दाखिल करने की तिथि से प्रभाव नहीं होगा, किन्तु कुमार बनाम याग्निक के वाद में यह अभिनित हुआ था कि वाद-पत्र में संशोधन कर उसमें कतिपय सम्पत्तियों का उल्लेख करने के लिए प्रस्तुत आवेदन की तिथि तथा इस आशय हेतु न्यायालय द्वारा पारित आदेश के बीच सम्पत्ति का अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा, क्योंकि संशोधन इसी तिथि से प्रभावी माना जाएगा जिस तिथि को आवेदन प्रस्तुत किया गया था।

    अपील तथा निष्पादन की कार्यवाही किसी वाद के निरन्तरता की प्रतीक होती हैं। अत: इस कालावधि में सम्पत्ति का अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा। परन्तु पुनर्विलोकन या पुनर्विचारण की कार्यवाही स्वतंत्र कार्यवाही होती है। वाद के निरन्तरता की प्रतीक नहीं है।

    अतः अंतिम आज्ञप्ति और उसके पुनर्विचारण के बीच की कालावधि में सम्पत्ति का अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा। किन्तु यदि पुनर्विलोकन या पुनर्विचारण कार्यवाही प्रारम्भ हो चुकी है और उसके बाद सम्पत्ति अन्तरित हो रही है तो यह अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा।

    एक पत्नी ने अपने पति के माध्यम से, जिसके पास पावर ऑफ अटानी था, ने एक मकान रु० 30,000/- मात्र में बेचने की संविदा की। इसमें से रु० 5000/- का भुगतान उसे अग्रिम रूप में कर दिया गया तथा शेष रु० 25,000/- का भुगतान 31-7-1974 से पूर्व कर दिया जाना था। पर उक्त तिथि तक रकम भुगतान नहीं हो सका।

    पत्नी ने तत्पश्चात् उक्त सम्पत्ति को दूसरे क्रेता गुरुस्वामी नाडार को रु० 45,000/- में 15-5-1975 को बेच दिया। इसके साथ ही मकान का कब्जा भी गुरुस्वामी नाडार को दे किया गया। किन्तु 3-5-1975 को प्रथम क्रेता ने संविदा के विशिष्ट अनुपालन हेतु वाद संस्थित कर दिया।

    इस वाद को विचारण न्यायालय ने खारिज कर दिया पर विचारण न्यायालय के आदेश को उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने पलट दिया तथा प्रथम क्रेता के पक्ष में आदेश पारित कर दिया। अपील में उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने एकल पीठ के आदेश को खारिज कर दिया जिसके फलस्वरूप उच्चतम न्यायालय में अपील विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से प्रस्तुत की गयी।

    उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह विचारणीय प्रश्न है कि क्या द्वितीय अन्तरिती "लम्बित वाद" के सिद्धान्त से प्रभावित होगा। न्यायालय ने यह अभिमत दिया कि क्योंकि द्वितीय विक्रय से पूर्व ही प्रथम क्रेता ने संविदा के विशिष्ट अनुपालन हेतु वाद संस्थित कर दिया था अतः द्वितीय विक्रय 'लम्बित वाद' के सिद्धान्त से प्रभावित होगा।

    प्रथम विक्रय पर यह अधिभावी प्रभाव प्रवर्तनीय नहीं होगा। इस वाद को निर्णीत करते समय न्यायालय ने आर० के० मोहम्मद ओबैदुल्ला एवं अन्य बनाम हाजी अब्दुल वहाब (मृ०) द्वारा विधिक प्रतिनिधि एवं अन्य को भी संज्ञान में रखा।

    एक डॉ० एस० आर० बावा मकान नं० 169 खण्ड 11 क, चण्डीगढ़ के स्वामी थे। इस मकान के सम्बन्ध में संविदा के विशिष्ट अनुपालन हेतु दो वाद संस्थित किए गये। एक वाद वर्तमान अपीलार्थी द्वारा तथा दूसरा संजीव शर्मा नामक व्यक्ति द्वारा क्रमश: 20-11-1995 तथा 1-2-1996 को संस्थित (दायर) किए गए।

    कालान्तर में डॉ० बाबा एवं संजीव शर्मा के बीच एक सम्पत्ति डिक्री 19-2-2003 को पारित की गयी जिसके अनुसरण में डॉ० बावा ने पुनीत अहलूवालिया नामक व्यक्ति जो संजीव शर्मा का नामिनी था, के पक्ष में एक विक्रय विलेख निष्पादित किया।

    इन तथ्यों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया कि संजीव शर्मा यथा पुनीत अहलूवालिया के पक्ष में किया गया द्वितीय विक्रय लम्बित वाद के सिद्धान्त से प्रभावित होगा। संजीव शर्मा एवं पुनीत अहलूवालिया के सन्दर्भ में यह समझा जाएगा कि उन्हें वर्तमान अपीलार्थी एवं डॉ० बावा के बीच लम्बित वाद की सूचना थी. इसके बावजूद भी उन्होंने द्वितीय विक्रय को प्रभावी कराया।

    अतः उनके पक्ष में हुआ विक्रय न्यायालय के निर्णय के अध्यधीन होगा। उन्हें सम्पत्ति में वैध अधिकार नहीं प्राप्त होगा। न्यायालय ने यह भी अभिप्रेक्षित किया कि सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 को धारा 52 तथा विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 19 के अन्तर्गत के आलोक में विक्रय विलेख का अपना स्वयं का प्रभाव होगा।

    यदि बन्धक सम्पत्ति के मोचन हेतु वाद संस्थित किया गया है तथा वाद लम्बित है, विचाराधीन है, उसी समय बन्धकदार बन्धक सम्पत्ति की किसी अन्य व्यक्ति को बेच देता है और कालान्तर में उक्त वाद का निर्णय बन्धककर्ता के पक्ष में होता है तो सम्पत्ति का विक्रय अवैध माना जाएगा एवं प्रभावहीन होगा।

    यदि वाद लम्बे अन्तराल के उपरान्त निर्णीत होता है तो न्यायालय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए विक्रेता को आदेश कर सकेगा कि प्रतिफल की रकम क्रेता को वापस कर दी जाए अन्यथा क्रेता के साथ अन्याय होगा, बशर्तें क्रेता ने युक्तियुक्त सावधानी बरतते हुए उक्त सम्पत्ति को क्रय किया रहा हो।

    2)- सक्षम न्यायालय- दूसरा आवश्यक तत्व यह है कि वाद अथवा कार्यवाही एक ऐसे न्यायालय में संस्थित हो जो उस पर विचारण करने के लिए सक्षम है। यदि न्यायालय सक्षम न्यायालय नहीं है तो इसके द्वारा दिया गया निर्णय शून्य होगा।

    उच्च न्यायालय, लेटर पेटेण्ट के अन्तर्गत ऐसी भूमि के सम्बन्ध में विचारण करने के लिए सक्षम है जो अंशतः उसके क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आती है और अंशत: उससे बाहर है, किन्तु यह आवश्यक है कि न्यायालय से इस आशय की पूर्वानुमति प्राप्त कर ली गयी हो। जहाँ तक कनिष्ठ न्यायालयों का प्रश्न है उनके क्षेत्राधिकार परिभाषित हैं और सीमित है।

    सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 15 अपेक्षा करती है कि वाद सक्षम अधिकारिता वाले कनिष्ठ न्यायालय में संस्थित किया जाना चाहिए, किन्तु यदि ऐसा न कर ज्येष्ठ न्यायालय में वाद संस्थित कर दिया जाता है तो यह केवल एक अनियमितता होगा क्योंकि ज्येष्ठ न्यायालय उस क्षेत्राधिकार से युक्त होते हैं जिनका प्रयोग केवल कनिष्ठ न्यायालयों द्वारा होता है।

    इस सिद्धान्त के प्रवर्तन के लिए आवश्यक है कि न्यायालय भारत में स्थित हो, अथवा भारत के बाहर, भारत सरकार द्वारा स्थापित हो। यह भी आवश्यक है कि न्यायालय वाद की प्रकृति के दृष्टिकोण से भी सक्षम न्यायालय हो।

    3)- वाद अथवा कार्यवाही दुरभिसंधिपूर्ण न हो- तीसरा आवश्यक तत्व यह है कि संस्थित वाद या कार्यवाही दुरभिसंधिपूर्ण न हो। कोई कार्यवाही तब दुरभिसंधिपूर्ण मानी जाती है जब पक्षकारों का आशय विवाद द्वारा किसी अधिकार को सुनिश्चित कराना न हो।

    उनके बीच में एक गोपनीय समझौता रहता है कि कोई भी पक्षकार विवाद के समापन की दिशा में कोई कदम नहीं उठायेगा तथा यदि इस कालावधि में सम्पत्ति किसी भी एक पक्षकार द्वारा अन्तरित हो जाती है तो उससे प्राप्त लाभ वे आपस में बांट लेंगे।

    अतः यदि अ और ब आपस में गुप्त रूप से यह समझौता करें कि ब, अ के विरुद्ध सम्पत्ति को लेकर वाद संस्थित करेगा तथा अ अपना दावा सारवान रूप में नहीं प्रस्तुत करेगा और वाद के लम्बन के दौरान वह उक्त सम्पत्ति को बेच देगा तथा क्रेता से प्राप्त धनराशि वे आपस में बाँट लेंगे तो ऐसा विवाद दुरभिसंधिपूर्ण होगा और क्रेता सम्पत्ति पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करेगा।

    सम्पत्ति में उसका हित न्यायालय के निर्णय के अध्यधीन नहीं होगा। दुरभिसंधिपूर्ण विवाद तथा कपटपूर्ण विवाद एक दूसरे के पर्याप्त निकट समझे जाते हैं, किन्तु दोनों में महत्वपूर्ण अन्तर है जिसका वर्णन उच्चतम न्यायालय ने नागूबाई अम्मल बनाम बी० शाम राव के बाद में इस प्रकार किया है-

    "दुरभिसंधिपूर्ण कार्यवाही में प्रस्तुत किया गया दावा मिथ्या होता है। विवाद अवास्तविक होता है तथा इसके तहत पारित डिक्री न्यायिक निर्णय का केवल दिखावा मात्र होती है जिसका लाभ पक्षकार उठाते हैं और उनका उद्देश्य एक तीसरे पक्षकार के हितों को क्षति पहुँचाना होता है। कपटपूर्ण कार्यवाही में प्रस्तुत किया गया दावा असत्य तो होता है, किन्तु वाद का एक पक्षकार कपट का प्रयोग करते हुए न्यायालय का निर्णय अपने पक्ष में प्राप्त करता है। विवाद, प्रतिपक्षी के हितों को क्षति पहुंचाने के उद्देश्य से प्रारम्भ किया जाता है न कि किसी गुप्त समझौते के अन्तर्गत दुरभिसंधिपूर्ण कार्यवाही, वस्तुतः एक दिखावा मात्र होती है, जबकि कपटपूर्ण कार्यवाही वास्तविक तथा गम्भीर होती है।"

    गौरीदत्त बनाम शेख सुकर मोहम्मद के वाद में एक हिन्दू पत्नी ने अपने पति के विरुद्ध एक मिथ्या भरण-पोषण का वाद संस्थित किया। वाद के लम्बन के दौरान पति ने विवादित सम्पत्ति बेच दी।

    इस अन्तरण के पश्चात् पत्नी के पक्ष में न्यायालय ने अन्तरित सम्पत्ति पर एक प्रभार कायम किया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि अन्तरिती इस प्रभार से बाध्य नहीं होगा क्योंकि पत्नी द्वारा पति के विरुद्ध संस्थित वाद केवल दुरभिसंधिपूर्ण था।

    4)- सम्पत्ति विषयक अधिकार विवादित हो- चौथा तत्व यह है कि विवादित सम्पत्ति में अचल सम्पत्ति की प्रकृति का कोई अधिकार प्रत्यक्षतः और विशिष्टतः विवादित हो। प्रतिपक्षी के विरुद्ध वैयक्तिक उपचार के लिए संस्थित वाद इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होता है।

    उदाहरणस्वरूप सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 34, नियम 6 के अन्तर्गत साधारण धन आज्ञप्ति के लिए संस्थित कार्यवाही अथवा मध्यवर्ती लाभ के लिए संस्थित कार्यवाही किराये के लिए कार्यवाही इत्यादि के लम्बन के दौरान प्रतिपक्षी द्वारा अपनी सम्पत्ति का अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा।

    संविदा भंग अथवा अपकृत्य के लिए क्षतिपूर्ति हेतु संस्थित वाद अचल सम्पत्ति विषयक अधिकार नहीं माना जाता है। अत: ऐसे वाद के लम्बन के दौरान सम्पत्ति का अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा।

    इस तत्व से यह सुस्पष्ट है कि विवादित सम्पत्ति स्पष्टतः और विशिष्टतः विवाद में संलग्न होनी चाहिए। सम्पत्ति का इस प्रकार उल्लेख होना चाहिए जिससे यह सुस्पष्ट हो जाए कि अन्तरित सम्पत्ति वही है जिसको लेकर विवाद न्यायालय के विचाराधीन है।

    अतः विशिष्ट अनुपालन हेतु संस्थित वाद के लम्बन के दौरान उक्त सम्पत्ति का अन्तरण, न्यास विलेख के निरसन (Cancellation) तथा न्यास विलेख में उल्लिखित अचल सम्पत्ति के पुनस्थापन हेतु संस्थित वाद के लम्बन के दौरान किसी अचल सम्पत्ति के विभाजन हेतु संस्थित वाद के लम्बन के दौरान, तथा हकशुफा के अधिकार के सम्बन्ध में लम्बित वाद के दौरान उक्त सम्पत्ति का अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा।

    भरण-पोषण के लिए संस्थित वाद मूलतः वैयक्तिक प्रकृति का होता है। किन्तु यदि वाद में स्पष्टतः यह माँग की गयी हो कि भरण-पोषण की राशि किसी विशिष्ट अचल सम्पत्ति पर प्रभार के रूप में सूष्ट की जाए और न्यायालय इस आशय की आज्ञप्ति प्रदान कर दे तो वाद में उल्लिखित सम्पत्ति का वाद के लम्बन के दौरान अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा।

    बन्धक के सम्बन्ध में यह सिद्धान्त लागू होगा किन्तु एक ऐसा वाद जो बन्धक सम्पत्ति से सम्बन्धित है और उसमें निश्चित धनराशि के भुगतान के लिए डिक्री पारित होती है, तो ऐसी सम्पत्ति का अन्तरण डिक्री के निष्पादित न होने तक इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा, क्योंकि ऐसी स्थिति में सम्पत्ति विशिष्टतः और स्पष्टत: विवादित नहीं मानी जाएगी। इस अधिनियम की धारा 82 के अन्तर्गत अंशदान हेतु संस्थित वाद के दौरान बन्धक सम्पत्ति का अन्तरण लम्बित वाद के सिद्धान्त से प्रभावित होगा।

    यदि किसी सम्पत्ति के प्रशासन हेतु वाद लम्बित हो और ऐसी सम्पत्ति का अन्तरण निष्पादक या प्रशासक द्वारा वाद के लम्बन के दौरान कर दिया जाए तो यह अन्तरण इस सिद्धान्त द्वारा प्रभावित नहीं होगा, क्योंकि ऐसे वाद में सम्पत्ति के सामान्य प्रशासन का प्रश्न अन्तर्निहित होता है, किन्तु यदि ऐसे वाद में किसी विशिष्ट सम्पत्ति का निश्चिततापूर्वक उल्लेख किया गया हो, तो सम्पत्ति का अन्तरण लम्बित वाद के सिद्धान्त से प्रभावित होगा।

    5)- सम्पत्ति अन्तरित या अन्यथा व्ययनित की गयी हो- यह पांचवा तत्व प्रतिपादित करता है कि इस सिद्धान्त के प्रवर्तन के लिए विवादित सम्पत्ति का अन्तरित होना या अन्यथा व्ययनित होना आवश्यक है। पदावति अन्तरित होने से आशय है विक्रय, बन्धक, पट्टा या विनिमय द्वारा अन्तरण।

    पदावलि अन्यथा व्ययनित होने से आशय है बंटवारा, दुरभिसंधिपूर्ण डिक्री, विक्रय हेतु संविदा, समझौता इत्यादि। सम्पत्ति का अन्तरण या अन्यथा व्ययन विवाद के किसी पक्षकार द्वारा होना चाहिए।

    यदि पक्षकार से भिन्न कोई अन्य व्यक्ति सम्पत्ति अन्तरित करता है तो ऐसा अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा, भले हो अन्तरण के पश्चात् यह विवाद का पक्षकार बना दिया गया हो वाद के लम्बन के दौरान अस्तित्व में आए अन्तरिती को विशिष्ट पालन हेतु संस्थित वाद में पक्षकार बनाया जा सकता है।

    6)- यह छठा और अंतिम महत्वपूर्ण तत्व है। इसके द्वारा विवाद के किसी अन्य पक्षकार का हित प्रभावित हो - वाद के लम्बन के दौरान, विवादित सम्पत्ति का अन्तरण स्वयमेव शून्य नहीं होता है। इससे केवल विवाद के किसी अन्य पक्षकार का हित प्रभावित होता है। दूसरे शब्दों में यह सिद्धान्त केवल उन अन्तरणों या व्ययनों पर लागू होता है जो वाद या कार्यवाही में प्रतिपादित अधिकारों के प्रतिकूल हो ।

    यदि अन्तरण द्वारा केवल अन्तरक के अधिकार प्रभावित होते हैं तो यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा, किन्तु यदि प्रतिपक्षी का अधिकार प्रभावित होता है तो यह सिद्धान्त लागू होगा। यह सिद्धान्त उन व्यक्तियों के बीच लागू नहीं होगा जो विवाद के एक पक्षकार थे और जिनके बीच न्याय निर्णय हेतु कोई विवाद नहीं था।

    एकपक्षीय निर्णीत वाद- अब यह पूर्णरूपेण सुनिश्चित हो चुका है कि कपट तथा दुरभिसंधि के अभाव में, एकपक्षीय निर्णीत वाद, इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा।

    समझौता या सम्मति आज्ञप्ति- यदि किसी वाद में समझौता या सम्मति के आधार पर डिक्री पारित होती है तो ऐसी आज्ञप्ति इस सिद्धान्त के प्रवर्तन में किसी प्रकार की बाधा नहीं उत्पन्न करती है जहाँ किसी समझौते में कतिपय सम्पत्ति का उल्लेख किया गया था, किन्तु समझौता डिक्री पारित करते समय न्यायालय ने उसमें कतिपय अन्य सम्पत्तियों का उल्लेख कर दिया था और किसी भी पक्षकार ने इसका विरोध नहीं किया तो ये सम्पत्तियाँ भी इस सिद्धान्त से प्रभावित होगी जो मूल समझौता विलेख में सम्मिलित नहीं थीं, किन्तु न्यायालय के आदेश में सम्मिलित कर ली गयी थीं।

    अनैच्छिक अन्तरण प्रारम्भ में यह माना जाता था कि लम्बित वाद का सिद्धान्त अनैच्छिक अन्तरणों पर नहीं लागू होगा। पर अब यह पूर्णरूपेण सुनिश्चित हो गया है कि यह सिद्धान्त केवल ऐच्छिक अन्तरणों पर नहीं लागू होता है, अनैच्छिक अन्तरणों पर भी लागू होता है, जैसे नीलामी द्वारा सम्पत्ति क्रय करना इस सिद्धान्त की पुष्टि उच्चतम न्यायालय ने सुरेंद्र नाथ सिन्हा बनाम कृष्ण कुमार नाग के वाद में की है। इस मत की पुनरावृत्ति जयराम मुदालियर बनाम अय्यास्वामी के वाद में हुई है।

    सिद्धान्त का प्रभाव यह धारा केवल यह उल्लिखित करती है कि वाद के लम्बन के दौरान विवादित सम्पत्ति अन्तरित या व्ययनित नहीं की जा सकेगी। इससे यह स्पष्ट है कि इस सिद्धान्त का मात्र यह प्रभाव है कि अन्तरिती ऐसी सम्पत्ति को न्यायालय के आदेश के अन्तर्गत प्राप्त करेगा।"

    नागूबाई अम्मल बनाम बी० शामराक के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया था कि धारा 52 का प्रभाव लम्बित वाद के दौरान सम्पत्ति के अन्तरण को पूर्णरूपेण समाप्त करना नहीं है।

    अपितु इसे निर्णय में प्रतिपादित आदेश के अध्यधीन करना है। जहाँ तक अन्तरक और अन्तरितों का प्रश्न हैं, उनके बीच अन्तरण पूर्णतः वैध होता है और अन्तरण के फलस्वरूप अन्तरिती में हित निहित हो जाता है।

    किन्तु यह स्थिति यदि न्यायालय के निर्णय के विरोध में हैं तो वह प्रभाव शून्य होगी। वाद के लम्बन के दौरान सम्पत्ति न्यायालय के आदेश के अन्तर्गत इस सिद्धान्त के प्रभाव से मुक्त अन्तरित हो सकेगी। इस प्रयोजन हेतु उसी न्यायालय की अनुमति वैध होगी जिसमें वाद लम्बित है।।

    वाद के लम्बन के दौरान वाद सम्पत्ति का अन्तरिती स्वतंत्र रूप में उक्त सम्पत्ति में कोई हित धारण नहीं करता है। उसका अधिकार उसके अन्तरक के अधिकार पर निर्भर करता है। यदि न्यायालय अन्तरक के अधिकार को मान्यता देता है तो अन्तरितों का अधिकार पूर्ण हो जाएगा।

    अन्यथा उसका हित सम्पत्ति से समाप्त हो जाएगा। ऐसे अन्तरिती को वाद का पक्षकार बनाया जाना आवश्यक नहीं है। ऐसे अन्तरिती को वाद का पक्षकार बनाने से वाद का क्षेत्र विस्तृत हो जाएगा। तथा 'विवादों का यथा शीघ्र समापन होना चाहिए' सिद्धान्त का भी उल्लंघन होगा

    अन्तरिती, लम्बित वाद न्यायालय से यह अनुरोध नहीं कर सकेगा कि न्यायालय उसकी स्थिति का न्यायनिर्णयन एक वाद की तरह करेगा और न ही ऐसा अन्तरिती न्यायालय के निर्णय की वैधता पर प्रश्नचिह्न लगा सकता है केवल इस आधार पर कि न्यायालय ने उसे सुने जाने का अवसर नहीं प्रदान किया।

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