संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 20: त्रुटियुक्त हकों के अधीन सद्भावना से धारकों द्वारा किए गए सुधार (धारा 51)

Shadab Salim

13 Aug 2021 10:51 AM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 20: त्रुटियुक्त हकों के अधीन सद्भावना से धारकों द्वारा किए गए सुधार (धारा 51)

    संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 51 त्रुटि युक्त हकों के अधीन सद्भावना से किए जाने वाले सुधार कार्यों के संबंध में उल्लेख करती है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 51 से संबंधित प्रावधानों पर सारगर्भित टिप्पणी की जा रही है।

    यह धारा का मूल लक्ष्य यह है कि यदि किसी व्यक्ति को कोई संपत्ति अंतरित की जाती है और वह संपत्ति का स्वयं को आत्यंतिक स्वामी मानकर उसमें कोई बढ़ोतरी करता है या उसमें कोई सुधार करता है और इस प्रकार के सुधार में वह कोई खर्च करता है तब वह खर्चे का प्रतिकर पाने का अधिकारी होता है।

    इस आलेख के अंतर्गत इस पर विस्तार से चर्चा की जा रही है। इससे पूर्व के आलेख में इस अधिनियम से संबंधित धारा 43 जो कि अप्राधिकृत व्यक्ति द्वारा अंतरण से संबंधित है पर विस्तार पूर्वक टिप्पणी की गई है।

    इस धारा से संबंधित सिद्धान्त–

    सम्पत्ति विधि का यह एक सामान्य सिद्धान्त है कि जो कुछ भी भूमि से सम्बद्ध किया जाता है या भूमि से जोड़ा जाता है, वह भूमि का अंश बन जाता है और वह उसी प्रकार नियंत्रित होता है जिस प्रकार भूमि स्वयं नियंत्रित होती है। (Quicquid plantature solo sole Cedit)।

    इस सिद्धान्त को सर्वप्रथम रोमन विधि के अन्तर्गत मान्यता दी गयी और बाद में इंग्लिश कामन लॉ द्वारा, पर इस नियम के अपवाद भी हैं। ऐसा ही एक अपवाद इस धारा में उल्लिखित है। यदि त्रुटिपूर्ण हित वाला व्यक्ति भूमि पर सद्भाव में सुधार करता है तो उसे विधि का संरक्षण मिलेगा।

    इस धारा में वर्णित सिद्धान्त वस्तुतः इस अपवाद तथा ब्राइट बनाम बायड के वाद में उल्लिखित साम्या के सिद्धान्त कि 'कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के खर्च पर अपने आप को समृद्ध नहीं बना सकता', पर आधारित है। यदि कोई व्यक्ति अपने आपको किसी सम्पत्ति का वास्तवित धारक समझकर सद्भाव में उस पर सुधार करता है जिससे सम्पत्ति का मूल्य बढ़ गया है तो जो व्यक्ति उस व्यय से लाभ उठाता है वह उस व्यय को प्रतिवादी को वापस लौटाने के दायित्वाधीन होगा जो प्रतिवादी द्वारा किया गया था।

    इस धारा का क्षेत्र विस्तार-

    इस धारा का क्षेत्र विस्तार सीमित है। यह केवल उन मामलों में लागू होता है जिसमें अन्तरितों को यह पूर्ण विश्वास हो कि वह सम्पत्ति (भूमि) का आत्यन्तिक (Absolute) स्वामी है और इस विश्वास के अन्तर्गत सद्भाव में भूमि पर सुधार किया हो। स्पष्ट है कि इस धारा के सिद्धान्त केवल उन मामलों में लागू होंगे जिनमें अन्तरितों के पक्ष में आत्यन्तिक हित अन्तरित किया गया हो।

    यदि उसके पक्ष में बन्धक या पट्टे द्वारा सम्पत्ति अन्तरित की गयी थी तो यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा, क्योंकि इन दोनों ही प्रकार के अन्तरणों में अन्तरिती को सीमित हित प्राप्त होता है। इसी प्रकार अन्तरिती यह जानते हुए कि सम्पत्ति पर उसका आत्यन्तिक अधिकार नहीं है, केवल सीमित अधिकार है, यदि सुधार में धन व्यय करता है तो वह इस धारा का लाभ पाने का अधिकारी नहीं होगा। ऐसा व्यक्ति जिसके पक्ष में केवल विक्रय की संविदा हुई है या जो अतिचारी है या समनुदेशिती (एसाइनी) है, इस धारा का लाभ नहीं ले सकेगा।

    इस सिद्धान्त के लागू होने के लिए निम्नलिखित शर्तें आवश्यक हैं जो इसके महत्वपूर्ण तत्व माने जाते हैं-

    (1) सुधारक अचल सम्पत्ति का अन्तरिती हो।

    (2) उसने सद्भाव में यह विश्वास करते हुए सुधार किया हो कि वह सम्पत्ति कावआत्यन्तिक अन्तरिती है।

    (3) वह सम्पत्ति पर बेहतर हित रखने वाले किसी व्यक्ति द्वारा बेदखल किया गया हो।

    (1) सुधारक अचल सम्पत्ति का अन्तरिती हो- इस सिद्धान्त के अन्तर्गत प्रदत्त संरक्षण की मांग करने के लिए यह आवश्यक है कि मांगकर्ता यह सिद्ध करे कि वह उस सम्पत्ति का अन्तरिती है और सम्पत्ति अचल प्रकृति की है। उसके पक्ष में अन्तरण आवश्यक औपचारिकताओं के साथ किया गया हो, भले ही उसे दिया गया हित त्रुटिपूर्ण हो ऐसा व्यक्ति जिसके पक्ष में अन्तरण नहीं हुआ है जैसे अतिक्रमणकर्ता को इस सिद्धान्त का लाभ नहीं मिलेगा। इसी प्रकार यदि सम्पत्ति केवल चल प्रकृति की है तो भी यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा। वसीयत के अधीन सम्पत्ति पाने वाला व्यक्ति को इसका लाभ नहीं मिलेगा। पर ऐसा अन्तरिती जिसने किसी नाबालिग के वास्तविक संरक्षक से सम्पत्ति प्राप्त किया हो, हिन्दू संयुक्त परिवार के कर्ता से प्राप्त किया हो, आजीवन धारक तथा उत्तराधिकारी से प्राप्त किया हो, इस सिद्धान्त का लाभ पा सकेगा।

    (2) सुधार सद्भाव में किया गया हो- दूसरा तत्व यह है कि अन्तरितों ने भूमि (सम्पत्ति) पर सुधार किया हो और यह सुधार सद्भाव में यह जानते हुए किया गया हो कि वह सम्पत्ति का आत्यन्तिक अधिकारी है।

    सुधार - सुधार या संशोधन अन्तरिती द्वारा किया जाना चाहिए। सुधार से आशय है कोई भी ऐसा कार्य जिससे सम्पत्ति के मूल्य में वृद्धि होती हो । सामान्यतया यह स्थायी प्रकृति का होना चाहिए।

    निम्नलिखित कार्य सुधार की कोटि में नहीं माने जाते हैं-

    (1) कृषि के साधारण क्रियाकलाप जैसे खाद डालना, भूमि को समतल करना आदि।

    (2) मकान में सामान्य मरम्मत।

    (3) मकान में सीढ़ी लगाना

    (4) पुराने मकान में कुछ नया निर्माण करना इत्यादि।

    इसके विपरीत निम्नलिखित कार्यों को सुधार माना गया है-

    (1) आवास गृह का निर्माण, फार्म हाउस का निर्माण इत्यादि।

    (2) टैंक, स्रोत, नालियां तथा अन्य संरचनाएं जो गृह तथा कृषि कार्यों हेतु जलाशय के रूप में उपयोग में लाये जा सकें।

    (3) सिंचाई हेतु भूमि की तैयारी।

    (4) एक फसली भूमि को अनेक फसली भूमि में परिवर्तित करने के उपाय, इत्यादि।

    (5) भूमि को उपजाऊ बनाने हेतु क्रिया करना, बाढ़ से सुरक्षा के उपाय, इत्यादि।

    (6) भूमि को साफ करना, उसे कृषि हेतु उपयोगी बनाना।

    (7) उपरोक्त में से किसी का पुनर्निर्माण, उनमें संशोधन या परिवर्तन।

    (8) फलदार, रबर तथा अन्य उपयोगी वृक्षों का लगाना तथा उनकी देखभाल करना।

    सद्भाव - " किसी कार्य को सद्भाव में किया गया समझा जाएगा जबकि वह इमानदारी पूर्वक किया गया हो, चाहे वह उपेक्षापूर्वक किया गया हो अथवा नहीं। केवल यह कहना कि अन्तरिती ने सद्भाव में सम्पत्ति प्राप्त कर उस पर सुधार किया था पर्याांस नहीं होगा, पर यह सिद्ध करना आवश्यक नहीं है कि उसने हित के सम्बन्ध में सूचना प्राप्त करने हेतु सभी आवश्यक कदम उठाया था। यदि अन्तरिती ने सद्भाव का आश्रय लिया है तो उसके आचरण तथा मामले की परिस्थितियों से यह निष्कर्ष निकाला जाएगा कि उसने सद्भाव में कार्य किया था अथवा नहीं।

    आगरा बैंक बनाम बेरी के वाद में यह अभिनिर्णीत हुआ कि यदि अन्तरिती अन्तरक के हित के विषय में छानबीन नहीं करता है और उसके पास इसका कोई सन्तोषजनक स्पष्टीकरण नहीं है, तो यह समझा जाएगा कि उसने सद्भाव में कार्य नहीं किया था। यदि अन्तरिती ने केवल इस विश्वास से कि सम्पत्ति उसे मिल जाएगी, उस पर सुधार किया था तो उसे सद्भावयुक्त अन्तरिती नहीं माना जाएगा।

    इसी प्रकार यदि सम्पत्ति से सम्बन्धित वाद के लम्बन के दौरान उस पर सुधार किया जाता है तो वह सद्भावयुक्त कार्य नहीं होगा। पर दुर्गों जी राव बनाम फकीर साहिब के मामले में एक नाबालिग की माँ ने उसकी सम्पत्ति अन्तरिती को बेचा और उसे उसने इस विश्वास से कि, माँ सम्पत्ति बेचने के लिए प्राधिकृत है, खरीद लिया।

    नाबालिग जब बालिग हुआ तो उसने अन्तरिती को सम्पत्ति से निष्काषित कर दिया। यह निर्णीत हुआ कि अन्तरिती सुधार के लिए क्षतिपूर्ति पाने का हकदार है, क्योंकि उसने सद्भाव में सुधार किया था।

    (3) बेहतर हित धारक व्यक्ति द्वारा सम्पत्ति से बेदखली- यह तीसरा महत्वपूर्ण तत्व है। सुधार के लिए क्षतिपूर्ति पाने का अन्तरिती तभी अधिकारी होगा जब वह सम्पत्ति से एक ऐसे व्यक्ति द्वारा बेदखल किया गया हो जिसे सम्पत्ति में उससे (अन्तरिती से) बेहतर हित प्राप्त है। दूसरे शब्दों में इसके दो घटक हैं

    (क) बेदखलकर्ता अन्तरिती से बेहतर हित धारक हो, और

    (ख) यह अन्तरितो को वस्तुतः बेदखल करे।

    बेदखल अन्तरिती के अधिकार तथा प्रतिकर की मात्रा बेदखल किया गया अन्तरिती बेदखलकर्ता से अपेक्षा कर सकेगा कि वह यह तो

    (1) अभिवृद्धि के मूल्य को प्राकलित (गणना) कराये और उसे अन्तरिती को दिलाये या प्रतिभूत कराने, या

    (2) उस हित को, जो उस सम्पत्ति में उसे हो, ऐसी अभिवृद्धि के मूल्य को दृष्टि में लाये बिना अन्तरिती को तत्काल बाजार भाव पर बेच दे। दोनों विकल्पों में चुनाव करने का अधिकार बेदखलकर्ता का है, न तो अन्तरिती का और न ही न्यायालय का है।

    अन्तरिती के अन्तरिती का मुआवजा (प्रतिकर) प्राप्त करने का अधिकार भगवत दयाल बनाम राम रतन के मामले में प्रिवी कॉसिल ने सुस्पष्ट किया है कि-

    अन्तरितों का अन्तरिती यदि बेदखल किया जा रहा है तो उसे भी मुआवजा मिलेगा यदि उसने सम्पत्ति पर सुधार किया है। इस मत की पुनः अभिव्यक्ति प्रिवी कौंसिल ने नारायण स्वामी बनाम राम अय्यर के वाद में भी की है। इससे यह सुस्पष्ट है कि न केवल मूल अन्तरिती अपितु उसका अन्तरिती भी मुआवजा पाने का अधिकारी है।

    खड़ी फसल के सम्बन्ध में अधिकार- यदि अन्तरिती ने भूमि पर फसल बो रखी थी और अन्तरण के समय फसल खड़ी थी, तो वह बेदखल किये जाने पर निम्नलिखित सुविधाओं का अधिकारी होगा-

    (क) फसल प्राप्त करने का।

    (ख) उक्त क्षेत्र में मुक्त रूप से आने-जाने तथा फसल को इकट्ठा करने और ले जाने का।

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