Transfer Of Property में लीज का अंतरण
Shadab Salim
17 Feb 2025 4:19 AM

लीज़ का सम्व्यवहार एक ऐसा संव्यवहार है जिसमें अन्तरण आंशिक होता है, आत्यंतिक नहीं। दूसरे शब्दों में सम्पत्ति पर अन्तरक एवं अन्तरिती दोनों का हो अधिकार होता है। दोनों में फर्क यह होता है कि सम्पत्ति का भौतिक कब्जा अन्तरितों के पास होता है जबकि स्वामित्वाधिकार अन्तरक के पास ही रहता है। सम्पत्ति का उपभोग, लीज़ की अवधि के दौरान अन्तरिती या लीज़ग्रहीता करता है जबकि अन्तरक अथवा लीज़कर्ता तद् कालावधि में लीज़ के उपयोग के अधिकार से वंचित रहता है।
इस प्रकार के संव्यवहार के लिए इंग्लिश विधि में डिमाइस' शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिसका अभिप्राय होता है आंशिक अन्तरण विशेषकर लीज़ द्वारा किया गया अन्तरण। भारत में 'डिमाइस' शब्द का प्रयोग सम्पति अन्तरण अधिनियम में नहीं किया गया था, फिर भी अन्तरणकर्ताओं द्वारा इसका प्रयोग लीज़ के निमित्त ही किया जाता है। 'डिमाइस' शब्द लॅटिन भाषा के 'डेमिट्टो' शब्द से बना है जिसका अभिप्राय है कोई भी अन्तरण जिसमें सम्पत्ति से सम्बन्धित आंशिक अधिकार एक दूसरे व्यक्ति को प्रदान किया गया हो। किन्तु कालान्तर में इस शब्द का प्रयोग लीज़ तक ही सीमित रह गया।
लीज़ की स्थिति सुस्पष्ट करते हुए कहा गया है- बैरमजी भाय (प्रा०) लि० बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के वाद में अभिप्रेक्षित किया था कि :-
एक लीज़ अभिकल्पित करता है एक 'डिमाइस' की अथवा एक भूमि के उपभोग का अधिकार एक कालावधि के लिए या शाश्वतकाल के लिए किसी कीमत के, जो दे दी गयी हो या जिसे देने का वचन दिया गया हो अथवा धन या फसल के अंश या सेवा या किसी अन्य मूल्यवान वस्तु के, जो कालावधीय रूप से या विनिर्दिष्ट अवसरों पर अन्तरितों द्वारा अन्तरक को देय हो।'
यदि संव्यवहार में स्वामित्व का अन्तरण होता है चाहे प्रतिबन्ध के साथ अथवा बिना प्रतिबन्ध के तो, संव्यवहार, लीज़ का संव्यवहार नहीं होगा। धारा 105 में प्रयुक्त पदावलि सम्पत्ति का उपभोग करने के अधिकार का ऐसा अन्तरण" यह दर्शित करती है कि स्वामित्व के समस्त अधिकारों का पट्टे के संव्यवहार में अन्तरण नहीं होता है, यदि धारा 105 में प्रयुक्त पदावलि को धारा 54 में प्रयुक्त पदावलि से तुलना की जाए तो यह स्थिति और भी सुस्पष्ट हो जाती है। धारा 54 में प्रयुक्त पदावति "कीमत के बदले में स्वामित्व का अन्तरण" स्पष्टतः स्वामित्व के अन्तरण की प्रकल्पना करती है।
गिरधारी सिंह बनाम मेघलाल पाण्डेय के वाद में लार्ड शा ने अभिप्रेक्षित किया था-
"लीज़ का आवश्यक गुण है कि इसकी विषयवस्तु एक होती है जिसका उपभोग एवं धारणाधिकार एक व्यक्ति के पास होता है जबकि उसका स्वत्व (कार्पस) दूसरे के पास होता है तथा अपनी प्रकृति एवं उपभोग के कारण वह अदृश्य नहीं होता है।"
नाई बाबू बनाम लाला राम नारायण के वाद में लैण्ड लार्ड ने टेनेन्ट की बेदखली हेतु वाद संस्थित किया। वाद का अन्त एक समझौते के रूप में हुआ जिसमें टेनेन्ट सम्पत्तिमुक्त करने के लिए सहमत हो गया, पर दोनों के बीच यह सहमति भी बनी कि टेनेण्ट एक भाग में आने वाले पांच वर्षों तक निवास कर सकेगा। पाँच वर्ष की अवधि के समापन पर लैण्ड लार्ड ने उक्त हिस्से का कब्जा प्राप्त करने हेतु विधिक कार्यवाही प्रारम्भ की जिसका विरोध टेनेन्ट ने किया। विवादित बिन्दु यह था कि क्या टेनेन्ट उक्त भाग का लीज़दार है।
समस्त परिस्थितियों का अवलोकन करने के पश्चात् कोर्ट ने निर्णय दिया कि इस प्रकरण में किसी अंश के सम्बन्ध में लीज़ सृजित करने का कोई आशय नहीं था। अतः डिक्री के पंजीकरण का कोई प्रश्न नहीं है। लीज़ग्रहीता समझौते के अन्तर्गत सम्पत्ति का कब्जा सौंपने के दायित्वाधीन है।
लीज़ एक लोकलक्षी अधिकार का सृजन करता है। लीज़ग्रहीता का यह अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (च) के अर्थ के अन्तर्गत सम्पत्ति का अधिकार है। सूचना के के बावजूद भी यह अधिकार सम्पूर्ण विश्व के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण अच्छा अधिकार है तथा लीज़कर्ता के पाश्चिक अन्तरण के बाद भी यह प्रभावित नहीं होता है। जो सम्पत्ति लीज़ग्रहीता को अन्तरित की। जाती है वह 'लीजहोल्ट' 'लीज़ सम्पत्ति' कहलाती है तथा यह लीज़कर्ता में अवशिष्ट अधिकार, 'उत्तरभोग' कहलाता है।
यदि लीज़ का सृजन शाश्वतता के लिये है तो भी 'उत्तरभोग' का अधिकार लीज़कर्ता में रहता है। केलीदास अहोरी बनाम मनमोहिनी दास के वाद में सर लारेंस जेनकिन्स ने कहा कि "एक व्यक्ति जो भूमि का स्वामी है शाश्वतता के लिए भूमि का लीज़ प्रदान करता है। वह अपने सम्पत्ति हितों में से एक अधीनस्थ हित पृथक् करता है और अपने हितों का सर्वनाश नहीं करता है।
यह निष्कर्ष निकाला जाता है "लीज़" शब्द के प्रयोग के कारण जिसमें अन्तर्निहित होता है कि लीज़कर्ता में अभी भी एक हित अवशिष्ट है। लीज़ से पूर्व स्वामी को अधिकार था सम्पति (भूमि) के कब्जे के उपभोग का तथा लीज़ द्वारा वह लीज़ की अवधि के दौरान अपने आपको इस अधिकार के उपभोग से वंचित कर लेता है। पर लीज़ के अवसान से वह अवरोध समाप्त हो जाता है और तब कुछ भी ऐसा नहीं रहता है जो उसे उसके उपभोग के अधिकार से वंचित कर सके जिससे वह लीज़ के कारण वंचित हुआ था।"
लीज़ जनित सम्पत्ति में लीज़कर्ता एवं लीज़ग्रहीता दोनों का हो हित उत्तराधिकार में प्राप्त होने वाला हित है और उनका हित उनको मृत्यु के पश्चात् उनके वारिसों में, निष्पादकों में एवं उत्तरदान ग्राहियों में निहित हो जाता है।
यदि लीज़ जनित हित सरकार में निहित हो जाता है, तो न तो मूल लीज़कर्ता और न ही उसके उत्तराधिकारी अन्तरिती सहित, यदि कोई हो। सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने हेतु वाद संस्थित कर सकेगा और यदि बाद संस्थित करता है तो वह पोषणीय नहीं होगा।
कोई व्यक्ति को किसी लीजहोल्ड में अंश प्राप्त करता है समनुदेशन द्वारा या उत्तराधिकार द्वारा वह सम्पूर्ण सम्पत्ति में सह-टेनेन्ट बन जाएगा और जहाँ तक उसके एवं लीज़कर्ता के बीच का सम्बन्ध है, वह एक लीज़ग्रहीता ही होगा, वह लीज़कर्ता के सापेक्ष, पृथक् हित धारण नहीं कर सकेगा। प्रत्येक लीज़ग्रहीता लीज़कर्ता के प्रति सम्पूर्ण मूल्य के लिए उत्तरदायी है तथा समस्त प्रसंविदाओं के लिए जो भूमि से सम्बद्ध है।
'डिमाइण्ड प्रेमिसेस' पदावलि क्या एकान्तिक या अनन्य कब्जा का प्रतीक है-
संव्यवहार के पक्षकारों के बीच लीज़कर्ता एवं लीज़ग्रहीता का सम्बन्ध स्थापित करने के लिए एकान्तिक कब्जा एकमात्र परीक्षण नहीं है। यह बिन्दु सुप्रीम कोर्ट ने डेल्टा इण्टर नेशनल लि० बनाम श्याम सुन्दर गनेरी वाला' के वाद में सुस्पष्ट कर दिया है। फिर भी लीज़ के निर्धारण में एकान्तिक कब्जा का महत्वपूर्ण स्थान है। इस सन्दर्भ में लार्ड डेन्माण्ट ने निम्नलिखित अभिप्रेक्षण किया है-
"पद 'लीज़', मेरे अनुसार अनन्य धारणाधिकार स्थापित करता है। शब्द 'डिमाइस' प्रथम दृष्टया अकेले ही लीज़ की स्थापना करने के लिए पर्याप्त है। मैं उस दूरी तक नहीं जाऊँगा यह कहने के लिए कि जहाँ 'डिमाइस' शब्द का प्रयोग लीज़ में या करार में किया गया है, इसके ऐसा प्रयोग से उत्पन्न उपधारणा को विस्थापित करने के लिए कोई साक्ष्य स्वीकार्य नहीं होगा परन्तु यह शब्द, प्रथम दृष्टया आत्यन्तिक कब्जा स्थापित करेगा।"
उपरोक्त अभिप्रेक्षण से स्पष्ट है कि यदि लीज़ विलेख या लीज़ हेतु करार विलेख में "डिमाइज्ड प्रेमिसेस" पद का प्रयोग हुआ है तो यह उपधारणा की जा सकेगी कि लीज़ग्रहीता को आत्यन्तिक कब्जा प्रदान किया गया है। पर यह उपधारणा विखण्डनीय है और विखण्डन का भार उस व्यक्ति पर होता है जो इस विधिक स्थिति का खण्डन करता है।
ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि लीज़कर्ता एवं लीज़ग्रहीता का सम्बन्ध संविदा से उत्पन्न होता है इसमें अन्तरण भी अन्तर्निहित है। इसी 'अन्तरण' को दर्शाने के लिए 'डिमाइस' शब्द का प्रयोग किया जाता है। पर दस्तावेज में इस शब्द का या किसी अन्य शब्द का प्रयोग आवश्यक नहीं है, परन्तु यह आवश्यक है कि विलेख से यह सुस्पष्ट हो कि पक्षकारों में से एक अपने आप को कब्जा से वंचित करता है तथा दूसरा एक निर्धारित समय के लिए कब्जा प्राप्त करता है तो तुरन्त या भविष्य में, ऐसी स्थिति में संव्यवहार लीज़ होगा। ऐसा तब भी होगा चाहे संव्यवहार साधारण रूप में हो चाहे प्रसंविदा के रूप में या करार के रूप में या लीज़ पर देने के लिए प्रस्ताव के रूप में या लेने के लिए प्रस्ताव के रूप में जो पत्र व्यवहार से प्रकट हो।"
उपरोक्त के आधार पर यह कहा जा सकता है कि "डिमाइन्ड प्रेमिसेस" पद प्रयुक्त किए जाने से यह उपधारणा बनती है कि अनन्य कब्जा प्रदान किया गया है अतः लीज़ का सृजन हुआ है, यह उपधारणा एक कमजोर उपधारणा है तथा तत्प्रतिकूल साक्ष्य प्रस्तुत कर इसका विखण्डन किया जा सकेगा। साक्ष्य का निर्धारण दस्तावेज में उल्लिखित तथ्यों एवं तत्समय विद्यमान परिस्थितियों से होगा, साथ ही साथ कथित पद को विरचना उस सन्दर्भ में की जाएगी जिसमें इसका प्रयोग किया गया था।