भारत में "राजद्रोह" कानून को अलविदा कहने का समय

LiveLaw News Network

15 July 2022 5:12 AM GMT

  • भारत में राजद्रोह कानून को अलविदा कहने का समय

    - निशिकांत प्रसाद

    एसजी वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ, 2022 के मामले में सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124 ए के तहत "राजद्रोह" के 152 वर्षीय औपनिवेशिक युग के दंडात्मक प्रावधान को प्रभावी ढंग से निलंबित कर दिया। मामले की सुनवाई के दौरान भारत सरकार ने अपने हलफनामे में कहा कि उसने आईपीसी की धारा 124ए के तहत राजद्रोह के प्रावधानों की फिर से जांच और पुनर्विचार करने का फैसला किया है।

    सरकार द्वारा यह भी कहा गया कि एक बार पुनर्विचार हो जाने के पश्चात सर्वोच्च न्यायालय चाहे तो इसकी संवैधानिकता कि जांच कर सकता है, लेकिन न्यायालय का विचार था कि जब तक सरकार द्वारा इस कानून पर पुनर्विचार किया जा रहा है तब तक इसका उपयोग करना अनुचित होगाI इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों (केंद्र और राज्यों दोनों के स्तर पर) से कहा कि जब तक मामला विचाराधीन है राजद्रोह के मामले में कोई भी प्राथमिकी दर्ज नहीं करना होगा साथ ही न्यायालय ने सरकारों को धारा 124 ए के तहत लगाए गए आरोप से उत्पन्न "सभी लंबित परीक्षण, अपील और कार्यवाही" को "स्थगित" रखने का भी निर्देश दिया।

    उत्पत्ति और विकास

    17 वीं शताब्दी के इंग्लैंड में राजद्रोह कानून बनाए गए थे, जब सांसदों का मानना था कि सरकार की केवल अच्छी राय ही जीवित रहनी चाहिए, क्योंकि बुरी राय सरकार और राजशाही के लिए हानिकारक थी। कानून मूल रूप से 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार-राजनेता थॉमस मैकाले द्वारा तैयार किया गया था, लेकिन जब 1860 में आईपीसी अधिनियमित किया गया था, तब इसे बेवजह हटा दिया गया था।

    धारा 124 ए को 1870 में एक संशोधन द्वारा डाला गया था जब सरकार ने महसूस किया कि स्वतंत्रता सेनानियों के विचारों को दबाना आवश्यक था, जो उसके खिलाफ हो रहे थे ।

    धारा 124ए राजद्रोह को एक अपराध के रूप में परिभाषित करती है जिसके अनुसार,

    "जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा. या दृश्यरूपण द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा, या पैदा करने का प्रयत्न करेगा या अप्रीति प्रदीप्त करेगा, या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करेगा, वह "[आजीवन कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा |" धारा 124ए में राजद्रोह के अंतर्गत भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति मौखिक, लिखित (शब्दों द्वारा), संकेतों या दृश्य रूप में घृणा या अवमानना या उत्तेजना पैदा करने के प्रयत्न को भी शामिल किया जाता है। विद्रोह में वैमनस्य और शत्रुता की सभी भावनाएँ शामिल होती हैं। हालाँकि इस खंड के तहत घृणा या अवमानना फैलाने की कोशिश किये बिना की गई टिप्पणियों को अपराध की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता है।

    राजद्रोह कानून का दुरुपयोग

    अंग्रेजों ने इस राजद्रोह कानून का इस्तेमाल प्रमुख रूप से असंतुष्टों के दमन और महात्मा गांधी व बाल गंगाधर तिलक जैसे स्वतंत्रता सेनानियों, जो औपनिवेशिक सरकार की नीतियों के विरोधी थे, उन्हें जबरन गिरफ्त़ार करने के लिए किया थाI

    स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, इस उपनिवेशिक कानून के सबसे मुखर विरोधी रहे के.एम. मुंशी ने इस कठोर कानून पर अपनी राय रखते हुए साफ़-साफ़ कहा कि ऐसे कानून भारत के लोकतंत्र के ऊपर बहुत बड़ा ख़तरा हैI उनके अनुसार, "असर में, किसी भी लोकतंत्र की सफ़लता का राज़ ही उसकी सरकार की आलोचना में हैI हालांकि, तमाम कोशिशों के बावजूद यह कानून तब से लेकर अब तक बना हुआ हैI

    राजद्रोह कानून की सबसे बड़ी ख़ामी है कि, ये काफी ख़राब और कमज़ोर तरीके से परिभाषित की गई है. इसमें उल्लेख किये गये शब्द, "घृणा या अवमानना में लाना" या "असंतोष भड़काने की कोशिश" को अपनी सुविधानुसार कई तरीकों से परिभाषित किया जा सकता है, और इसी स्थिति का फ़ायदा उठाकर सरकार या पुलिस, उन बेगुनाह़ नागरिकों को परेशान करती है जो कि सरकार या उसका विरोध करते हैंI

    हमारे सामने इसके कई सारे उदाहरण हैं जैसे नागरिक संशोधन कानून के विरोध-प्रदर्शन में शामिल 25 लोगों, हाथरस गैंग रैप के बाद विरोध प्रदर्शन कर रहे 22 लोगों और पुलवामा हमले के बाद 27 अलग-अलग लोगों के ऊपर राजद्रोह कानून के तहत आरोप दर्ज किये गए हैंI एक मामले में जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि "ऐसे किसी भी विचार की अभिव्यक्ति, जो कि सरकार के विचारों से असहमत और अलग हो, उसे राजद्रोह नहीं कहा जा सकता हैI"

    उसी तरह से, दिशा रवि के खिलाफ़ दायर आरोप को ख़ारिज करते हुए हाई-कोर्ट ने कहा कि सरकार महज़ इसलिए किसी भी नागरिक को यूं ही गिरफ्तार नहीं कर सकती है क्योंकि वे राज्य अथवा सरकार की नीतियों से सहमत नहीं थे और "राजद्रोह का अपराध सिर्फ़ इस बिनां पर किसी के ख़िलाफ़ इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है कि, उस व्यक्ति ने सरकार के अहम् को ठेस पहुंचाई हैI जब राजद्रोह कानून के आधार पर किसी पत्रकार या व्यक्ति को अपनी बात रखने से रोक जाता है तो इससे कहीं ना कहीं हमारा लोकतंत्र ही कमजोर हो रहा होता हैI

    ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और आयरलैंड जैसे कई देशों ने हाल के दिनों में या तो देशद्रोह पर कानूनों को या तो कमजोर कर दिया है या पूरी तरह से हटा दिया है। यूनाइटेड किंगडम में भी, जो भारतीय कानून का आधार था, कोरोनर्स एंड जस्टिस एक्ट, 2009 द्वारा राजद्रोह को समाप्त कर दिया गया है। भारत में, कई निजी सदस्य बिल राजद्रोह पर पेश किए गए हैं और उनमें से अधिकांश सुधार का सुझाव देते हैं न कि निरसन। यहां तक कि विधि आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिए राजद्रोह को अनिवार्य माना है।

    लेकिन मेरे विचार से केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य, 1962 के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए स्पष्ट दिशा-निर्देशों के बाद भी धारा 124ए का व्यापक रूप से दुरुपयोग किया जाता रहा है, अत: अब समय आ गया है कि इंग्लैंड की तरह इस धारा को भारत से भी समाप्त कर देना चाहिए, और जहां तक देश की अखंडता का संबंध है, आईपीसी और गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम 2019 (Unlawful Activities Prevention Act 2019) में ऐसे प्रावधान हैं जो "सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने" या "हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को उखाड़ फेंकने" को दंडित करते हैं। ये राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिए पर्याप्त हैं।

    अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या सरकार स्वयं यह कदम उठाती है या एक बार फिर यहां सर्वोच्च न्यायालय को आगे आना पड़ता हैI

    लेखक- इंस्टीट्यूट आफ लीगल स्टडीज, रांची यूनिवर्सिटी, रांचीl (झारखंड) में सहायक अध्यापक हैं

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