संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग: 9 अंतरण पर लगाई कौन सी शर्त शून्य होगी

Shadab Salim

9 Aug 2021 3:54 AM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग: 9 अंतरण पर लगाई कौन सी शर्त शून्य होगी

    संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 10 और धारा 11 अंतरण पर लगाई कुछ शर्तों को शून्य करार देती है। इस आलेख के अंतर्गत इस अधिनियम की धारा 10 और 11 से संबंधित महत्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश डाला जा रहा है। इससे पूर्व के आलेख में इस अधिनियम की धारा 9 जो मौखिक अंतरण के संबंध में उल्लेख कर रही है पर चर्चा की गई थी। कुछ शर्ते ऐसी होती हैं जो किसी अंतरण में अधिरोपित कर दी जाती हैं तो उन शर्तों को शून्य समझा जाता है तथा इस अधिनियम के अंतर्गत उन शर्तों को स्पष्ट रूप से शून्य करार दिया गया है।

    अन्य अंतरण को रोकने वाली शर्त (धारा-10)-

    संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 10 स्पष्ट रूप से यह उल्लेख करती है कि कोई भी ऐसी शर्त जो भविष्य में संपत्ति के अंतरण को रोकती है वे शून्य मानी जाती है। किसी भी अंतरण में यदि इस प्रकार की मर्यादा अधिरोपित की जाती है तो उस मर्यादा को शून्य माना जाएगा। यह धारा सीमित अंतरण को प्रतिबंधित करती है तथा उसी से संबंधित विषय को उल्लेखित कर रही है।

    यदि सम्पत्ति किसी अन्तरिती के पक्ष में अन्तरित की गयी हो और अन्तरण पर यह शर्त लगायी गयी हो कि अन्तरिती अपने हित का पुनः अन्तरण नहीं करेगा और अध्यारोपित शर्त ऐसी हो जिससे अन्तरण पर पूर्णरूपेण प्रतिबन्ध लगाया गया हो, वहाँ पट्टे द्वारा किये गए अन्तरण को छोड़कर लगायी गयी शर्त या मर्यादा शून्य होगी।

    अन्तरण का अधिकार सम्पत्ति के सुखद उपयोग से अभिन्न एवं उसका अनुषंगी अधिकार होता है। अतः सम्पत्ति के अन्तरण पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने वाली शर्त शून्य होगी। इसके अन्तर्गत केवल शर्त शून्य घोषित की गयी है।

    अन्तरण वैध एवं प्रभावकारी रहता है। सम्पत्ति के अन्तरण पर पूर्ण या आत्यन्तिक प्रतिबन्ध, उसके स्वतंत्र और मुक्त अन्तरण को प्रतिबन्धित करता है और इस प्रकार का प्रतिबन्ध शाश्वतता को जन्म देता है जिसे विधि घृणा की दृष्टि से देखती है।

    यह धारा तब प्रभावी होती है जब निम्नलिखित शर्तें पूर्ण हो जाएं-

    (1) कोई सम्पत्ति किसी शर्त अथवा मर्यादा के अधीन अन्तरित की गयी हो-

    (2) इस प्रकार अध्यारोपित शर्त या मर्यादा अन्तरिती या उसके अधीन सम्पत्ति की माँग करने वाले किसी व्यक्ति के अन्तरण के अधिकार को पूर्णरूपेण प्रतिबन्धित करती हो।

    1)- किसी शर्त अथवा मर्यादा के अधीन सम्पत्ति का अन्तरण-

    इस धारा में वर्णित सिद्धान्त के लागू होने के लिए प्रथम आवश्यक तत्व यह है कि सम्पत्ति एक अन्तरिती के पक्ष में अन्तरित की गयी हो और अन्तरण करते समय यह शर्त या मर्यादा लगायी गयी हो कि अन्तरिती उक्त सम्पत्ति को अन्तरित नहीं कर सकेगा अध्यारोपित शर्त पाश्चिक शर्त होनी चाहिए जिसका उल्लेख अधिनियम की धारा 31 में किया गया है।

    इस तथ्य का निर्धारण करने के लिए, कि सम्पत्ति का अन्तरण किसी ऐसी शर्त के अध्यधीन है जो अन्तरितों को पुनः अन्तरित करने से प्रतिबन्धित करती है; अन्तरण विलेख की शर्तों को सम्यक् रूप से ध्यान में रखा जाना चाहिए।

    उदाहरण- 'अ' जो एक सम्पत्ति का पूर्ण स्वामी है, उक्त सम्पत्ति में अपने पक्ष में अन्तरण को शक्ति से रहित आजीवन हित सृष्ट करते हुए, अवशिष्ट हित ब' के पक्ष में अन्तरित कर देता है। इस अन्तरण में 'ब' के पक्ष में सृष्ट हित पर कोई प्रतिबन्ध या शर्त नहीं समझी जाएगी। अतः इस धारा में वर्णित सिद्धान्त भी नहीं लागू होगा।

    एक वाद में 'अ' ने अपने मकान को ब के पक्ष में दान द्वारा अन्तरित किया। अन्तरण इस शर्त के साथ किया गया कि यदि 'ब' 'अ' की पत्नी के जीवनकाल में सम्पत्ति को बेचना चाहेगा तो वह उसे 3000 पौण्ड में खरीदने में सक्षम होगी। मकान का बाजार में मूल्य लगभग 15000 पौण्ड था। यह अभिनिर्णीत हुआ कि ऐसा करार सशर्त है तथा आत्यन्तिक प्रकृति का है। इसी प्रकार 'अ' ने एक खेत, 'ब' के पक्ष में इस शर्त के साथ अन्तरित किया कि यदि 'ब', कभी इसे बेचना चाहेगा, तो वह उसे 'स' को ही बेचेगा। ऐसा अन्तरण सशर्त होगा और शर्त शून्य होगी।

    2. अन्तरिती को पुनः अन्तरित करने से पूर्णरूपेण अवरुद्ध करती हो-

    अन्तरिती के अधिकार पर लगाया गया प्रतिबन्ध आत्यन्तिक अथवा आंशिक प्रकृति का हो सकता है, परन्तु यह धारा केवल उन अवरोधों को प्रभावित करती है जो आत्यन्तिक प्रकृति के होते हैं। यदि अध्यारोपित प्रतिरोध आंशिक प्रकृति का है तो इस धारा में वर्णित सिद्धान्त लागू नहीं होगा सम्पत्ति के अन्तरण पर लगाया गया आत्यन्तिक प्रकृति का अवरोध या प्रतिबन्ध स्वामित्व पर प्रतिरोध के तुल्य माना जाता है।

    एक इंग्लिश विधिशास्त्री का मत है कि-

    "यदि कोई अन्तरण इस शर्त पर किया जाता है अन्तरिती (स्वामी) इसे किसी भी रूप में अन्तरित नहीं कर सकेगा तो ऐसी शर्त शून्य होगी, क्योंकि जब कोई व्यक्ति किसी सम्पत्ति का स्वामी बन जाता है तो वह विधि के अन्तर्गत उसे किसी भी व्यक्ति के पक्ष में अन्तरित करने में सक्षम हो जाता है क्योंकि यदि ऐसी शर्त उपयुक्त मान ली जाए तो अन्तरित करने की उस समस्त शक्ति से वंचित हो जाएगा जो विधि के अन्तर्गत उसे प्राप्त है, जो विवेक के विरुद्ध होगी और इस प्रकार वह शून्य होगी। इस धारा में वर्णित सिद्धान्त केवल उस दशा में लागू होता है जबकि अन्तरण पर आत्यन्तिक प्रतिबन्ध लगा हो। इस तथ्य का निर्धारण करने के लिए कि अन्तरण पर लगाया गया प्रतिबन्ध आत्यन्तिक है अथवा आंशिक अन्तरण के स्वत्व को देखना होगा न उसके प्रकार को। इन रि मैक्लों के वाद में कहा गया था कि 'टेस्ट यह है कि क्या शर्त अन्तरण की सम्पूर्ण शक्ति को सारवान रूप में समाप्त कर देगी। यह एक तत्व का विषय है, प्रकृति का नहीं।"

    यदि शर्त अन्तरण की समस्त शक्ति को समाप्त नहीं करती है, चाहे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में, तो ऐसी शर्त वैध होगी। अन्तरण को प्रतिबन्धित करने के अनेक तरीके हो सकते हैं, जैसे अन्तरण व्यक्ति विशेष को न किया जाए या एक व्यक्ति तक न किया जाए या विशिष्ट प्रकार का अन्तरण न किया जाए, इत्यादि।

    इस प्रकार की शर्तें अवैध नहीं होंगी।

    मोहम्मद रजा बनाम अब्बास बन्दी बो के बाद में प्रिवी कौंसिल ने यह मत अभिव्यक्त किया था कि,

    'यदि अन्तरितों के पक्ष में किया गया अन्तरण इस शर्त के साथ किया गया हो कि वह किसी अजनबी व्यक्ति के पक्ष में सम्पत्ति का अन्तरण नहीं करेगा, या परिवार से बाहर के किसी सदस्य के पक्ष में नहीं करेगा तो ऐसी शर्त शून्य नहीं होगी।'

    इसी प्रकार यदि 'अ' अपनी सम्पत्ति 'ब' के पक्ष में इस शर्त के साथ अन्तरित करता है कि यदि 'ब' अन्तरित करना चाहेगा तो वह केवल टुकड़ों में हो अन्तरित कर सकेगा, सम्पूर्ण सम्पत्ति नहीं। ऐसी शर्त वैध होगी। इस प्रकार की शर्त अन्तरण पर पूर्ण प्रतिबन्ध नहीं लगाती है।

    किन्तु यदि अ' अपनी सम्पत्ति इस शर्त के साथ 'ब' के पक्ष में अन्तरित करता है कि अन् करने से पूर्व 'अ' को सहमति प्राप्त करेगा। ऐसी शर्त शून्य होगी क्योंकि 'अ' अपनी सहमति न प्रदान कर अन्तरण को पूर्णरूपेण रोक सकता है। ऐसी शर्त सारवान रूप में शून्य होगी।

    अपवाद- इस धारा में वर्णित सिद्धान्त के निम्नलिखित दो अपवाद हैं-

    (1) पट्टा - यदि सम्पत्ति का अन्तरण पट्टे के रूप में किया गया हो और यह शर्त लगायी गयी हो कि पट्टाधारी सम्पत्ति का उपपट्टा सुष्ट नहीं कर सकेगा या किसी के पक्ष में हस्तांतरित नहीं करेगा तो ऐसी शर्त वैध होगी, क्योंकि इस प्रकार की सम्पत्ति में पट्टाकर्ता का भी हित बना रहता है।

    पट्टे के मामले में निम्नलिखित दो प्रकार के प्रतिबन्ध हो सकेंगे-

    (1) पट्टाधारी पट्टे का आंशिक या पूर्ण अन्तरण कभी नहीं करेगा।

    (2) पट्टाधारी पट्टे का अन्तरण पट्टाकर्ता को पूर्व अनुमति के बिना नहीं करेगा।

    यदि लगायी गयी शर्त का पट्टाधारी उल्लंघन करता है तो पट्टाकर्ता को यह अधिकार होगा कि वह पट्टा समाप्त कर दे और सम्पत्ति को पुनः अपने कब्जे में ले ले। पट्टे के मामले में यह आवश्यक होता है कि शर्त पट्टाकर्ता के लाभ के लिए लगायी जाए।

    ( 2 ) विवाहिता स्त्री- किसी विवाहिता स्त्री (जो न हिन्दू, मुसलमान या बुद्धिष्ट हो) के पक्ष में किया गया सम्पत्ति का अन्तरण सशर्त हो सकेगा और शर्त के अन्तर्गत उस स्त्री के अन्तरण को शक्ति को पूर्णरूपेण प्रतिबन्धित किया जा सकेगा। ऐसी स्त्री जिस अवधि तक सम्पत्ति को धारण करेगी वह सम्पत्ति अन्तरित करने के अधिकार से वंचित रहेगी और ऐसी शर्त विरुद्ध नहीं मानी जाएगी। दि मैरेड वोमेन्स प्रापर्टी 1874 की धारा 8 जैसा कि सन् 1929 के अधिनियम 21 द्वारा संशोधित है उपबन्धित करती है कि विवाहिता स्त्री के विरुद्ध पारित डिक्री उसकी सम्पत्ति के विरुद्ध निष्पादित नहीं हो सकेगी जिसका अन्तरण करने का अधिकार उसके वैवाहिक जीवनकाल के दौरान प्रतिबन्धित था।

    धारा 11-

    यह धारा उपबन्धित करती है कि आत्यन्तिकतः सृष्ट हित के उपभोग पर प्रतिबन्ध लगाने वाली शर्त शून्य होगी और अन्तरिती उस सम्पत्ति का उपभोग करने या उसे व्ययनित करने के लिए इस प्रकार स्वतंत्र होगा मानो कि शर्त लगायी ही नहीं गयी थी।

    यह धारा तथा धारा 10, इस सिद्धान्त पर आधारित है कि आत्यन्तिकतः सृष्ट हित के विरुद्ध लगायी गयी शर्त शून्य होती है। इस धारा में वर्णित सिद्धान्त, धारा 10 में वर्णित सिद्धान्त से इस प्रकार भिन्न है कि धारा 10 के अन्तर्गत अन्तरण के विरुद्ध शर्त लगायी जाती है, अर्थात् सीमित हित धारक अन्तरिती अपने हित को अलग करने या व्ययनित करने से आत्यन्तिकतः अवरोधित रहता है, जबकि इस धारा के अन्तर्गत सम्पत्ति में सृष्ट हित आत्यन्तिक रहता है और अन्तरिती के ऊपर प्रतिबन्ध लगा रहता है कि वह सम्पति अन्तरित नहीं कर सकेगा या वह अन्तरक द्वारा विहित रीति से सम्पत्ति का उपभोग कर सकेगा।

    आत्यन्तिकतः सृष्ट हित के उपभोग पर लगायी गयी शर्त ऐसे हित के विरुद्ध मानी जाती है। अतः यह शून्य होगी। किन्तु यदि सृष्ट हित सीमित है जैसे पट्टे द्वारा सृष्ट हित, तो ऐसी शर्त वैध होगी उदाहरणार्थ, 'अ' अपना मकान 'ब' को इस शर्त के साथ बेचता है कि वह उक्त मकान में स्वयं रहेगा।

    वह किसी अन्य प्रयोजन हेतु मकान का प्रयोग नहीं करेगा तो यह शर्त शून्य होगी। 'ब' मकान को अपनी इच्छानुसार किसी भी वैध प्रयोजन हेतु उपयोग में ला सकेगा। किन्तु यदि 'अ अपना मकान एक विधवा को उसके भरण-पोषण हेतु प्रदान करता है और यह अन्तरण विधवा के जीवनकाल के लिए इस शर्त के साथ होता है कि वह मकान परिसर में लगे पेड़ों को न तो काटेगी और न ही मकान को कोई क्षति पहुँचायेगी तो इस प्रकार आरोपित शर्त वैध होगी क्योंकि विधवा का हित सम्पत्ति में आत्यन्तिक नहीं है। यह हित केवल सीमित हित है।

    इस धारा में वर्णित सिद्धान्त निम्नलिखित परिस्थितियों के पूर्ण होने पर लागू होता-

    1. अन्तरण द्वारा अन्तरितों के पक्ष में आत्यन्तिक हित सृष्ट किया गया हो।

    2. अन्तरण इस शर्त के साथ किया गया हो कि अन्तरित सम्पत्ति का उपयोग या व्ययन अन्तरक द्वारा विहित रीति से होगा।

    यदि उपरोक्त दो शर्तें विद्यमान हो तो अध्यारोपित शर्त या परिसीमा शून्य तथा अन्तरिती सम्पत्ति को इस प्रकार प्राप्त करने, उपभोग करने तथा व्ययनित करने के लिए स्वतंत्र रहेगा जैसे उस पर कोई शर्त ही आरोपित न को गयी हो।

    1)- सृष्ट हित आत्यन्तिक हो- इस धारा में वर्णित सिद्धान्त के लागू होने के लिए यह आवश्यक है कि सृष्ट हित आत्यन्तिक हो। यदि सृष्ट हित केवल सौमित प्रकार का है जैसे पट्टे द्वारा सृष्ट हित, तो यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा। अन्तरक द्वारा अन्तरित आत्यन्तिक हित अन्तरितों में पूर्ण हित सृष्ट करता है जो असीमित होता है तथा किसी शर्त से प्रभावित नहीं होता है। अतः उपभोग तथा व्ययन के सम्बन्ध में आरोपित कोई भी शतं शून्य होगी। यदि कोई सहभागी सम्पत्ति में अपना हित किसी दूसरे सहभागी को बेचता है जो शर्त से अपने को बाध्य करता है कि वह न तो सम्पत्ति का किराया लेगा और न ही बँटवारे की माँग करेगा, न तो सम्पत्ति को व्ययनित करेगा और न ही उस पर कोई प्रभार आरोपित करेगा और यदि इसमें से कोई भी कार्य वह करेगा तो विक्रय निरस्त समझा जाएगा। ऐसी शर्त सम्पत्ति विषयक हित के प्रतिकूल है अतः शर्त, इस धारा के अन्तर्गत शून्य जहाँ बंटवारे के करार में यह उल्लिखित हो कि विवादित सम्पत्ति का उपभोग 'स' को करने को अधिकारिता होगी, किन्तु यह 'द' के जीवनकाल में विक्रय या किसी अन्य संव्यवहार द्वारा उसे व्यपनित करने के लिए सक्षम नहीं होगी या तथा उसकी मृत्यु के उपरान्त वह सम्पत्ति उसके चार भाइयों में बराबर-बराबर वितरित हो जाएगी तो इस संव्यवहार द्वारा 'स' के पक्ष में सृष्ट हित केवल जीवनकालिक हित होगा। अतः उसके अधिकारों पर अध्यारोपित शर्त अन्तरण के प्रतिकूल नहीं होगी और इस धारा में वर्णित सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगी।

    2)- अन्तरित हित अन्तरक द्वारा विहित रीति से उपयोजित होगा या प्रयोग में लाया जाएगा–" सम्पत्ति के उपभोग" पदावलि के अन्तर्गत अनेक प्रकार के हित अन्तर्विष्ट हैं जैसे अन्तरण का अधिकार बँटवारे अधिकार, उपभोग का अधिकार, भुगतान का अधिकार इत्यादि अन्तरण का अधिकार एक अत्यधिक महत्वपूर्ण अधिकार है। अतः इस अधिकार पर लगाया जाने वाला प्रतिबन्ध उपभोग के अधिकार पर प्रतिबन्ध माना जाता है। अतः यह वैध नहीं होगा। जहाँ सम्पत्ति दान के रूप में अन्तरित की गयी हो और यह प्रतिबन्ध लगाया गया हो कि यदि दानग्रहोता सम्पत्ति में निवास नहीं करेगा तो अन्तरण प्रतिसंहरित हो जाएगा तो ऐसी शर्त सम्पत्ति के उपभोग पर प्रतिबन्ध के तुल्य और शून्य होगी। इसी प्रकार यदि सम्पत्ति अनेक व्यक्तियों के लिए संयुक्त रूप में अन्तरित की गयी हो और इस शर्त के साथ अन्तरित को गयो हो कि वे उसका विभाजन या तो कभी नहीं करेंगे अथवा एक अवधि के पश्चात् करेंगे तो ऐसी शर्त शून्य होगी।

    जहाँ सम्पत्ति का विक्रय द्वारा अन्तरण किया गया हो और विक्रेता ने यह शर्त लगायी हो कि क्रेता सम्पत्ति से उद्भूत आय का एक अंश प्रतिवर्ष विक्रेता को देता रहेगा, तो ऐसी शर्त उपभोग के अधिकार पर प्रतिबन्ध के तुल्य होगी और इस धारा के अन्तर्गत शून्य होगी।

    डिक्री तथा पंचाट में दिया गया निर्देश-'सम्पत्ति अन्तरण' शब्द के अन्तर्गत न्यायालय द्वारा प्रदत्त डिक्री या विवाचक द्वारा दिये गये पंचाट को सम्मिलित नहीं किया गया है। अतः यदि न्यायालय की डिक्री द्वारा किसी व्यक्ति के पक्ष में कोई हित आत्यन्तिकः सृष्ट किया गया है और उसी डिक्री में कोई प्रतिबन्ध भी लगाया गया है तो ऐसा प्रतिबन्ध इस धारा के अन्तर्गत प्रभावी नहीं होगा।

    किन्तु वह सूत्र जिस पर इस धारा में वर्णित सिद्धान्त आधारित है, लागू होगा तथा डिक्री में आरोपित अनुचित शर्त प्रभावी नहीं होगी। दूसरे शब्दों में शर्त शून्य होगी। इसी प्रकार का सिद्धान्त वहाँ भी लागू होगा जहाँ कि किसी विवाचन द्वारा आत्यन्तिक हित सृष्ट किया गया हो और सम्पति के उपभोग तथा अन्तरण पर प्रतिबन्ध लगाया गया हो

    अपवाद- इस धारा में वर्णित सिद्धान्त का एक अपवाद भी है। अपवाद यह है कि यदि प्रतिबन्ध तथा निर्देश अन्तरक को किसी अन्य सम्पत्ति के लाभप्रद उपभोग के लिए लगाया गया है तो यह प्रतिबन्ध प्रभावकारी होगा। उदाहरणस्वरूप 'अ' एक मकान तथा उसके इर्द-गिर्द को भूमि का स्वामी था।

    उसने संलग्न भूमि 'ब' को इस शर्त के साथ बेच दिया कि वह मकान से संलग्न भूमि के एक अंश को निर्माण से मुक्त रखेगा जिससे 'अ' के मकान को पर्याप्त प्रकाश तथा हवा प्राप्त होती रहेगी। यह शर्त 'अ' के मकान के लाभप्रद उपभोग के लिए लगायो गयी थी। अतः शर्त वैध होगी, परन्तु यह आवश्यक है कि इस आशय की शर्त अन्तरण विलेख में उल्लिखित हो।

    इस सन्दर्भ में यह ध्यान देना आवश्यक है कि लगायी गयी शर्त अन्तरक की किसी अन्य सम्पत्ति के लाभप्रद उपभोग हेतु लगायी गयी हो। यदि शर्त लगाने का प्रयोजन केवल किसी असुविधा का निवारण करना हो तो शर्त वैध नहीं मानी जाएगी।

    उमा शंकर अग्रवाल (मृतक) एव अन्य बनाम दौलत राम साहू के वाद में एक दुकान को इस शर्त के साथ बेचा गया कि क्रेता उस दुकान में न तो बेसमेन्ट का निर्माण करने के लिए प्राधिकृत होगा और न ही कोई अन्य पक्का निर्माण | क्रेता द्वारा निर्माण किए जाने पर विक्रेता ने उसे न्यायालय में चुनौती दी।

    न्यायालय ने विचारण के दौरान यह पाया कि निर्माण कार्य पर लगाया गया प्रतिबन्ध विक्रेता की किसी अन्य सम्पत्ति के लाभप्रद उपभोग हेतु नहीं था। विक्रेता की तरफ से केवल यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि कथित निर्माण से उसे (विक्रेता को) कतिपय असुविधा हो सकती थी।

    इन तथ्यों के आधार पर न्यायालय ने शर्त को अवैध माना एवं यह अभिनिर्णीत किया कि क्रेता अपनी सम्पत्ति का उपभोग इस प्रकार करने का हकदार है मानों अन्तरण विलेख में ऐसी कोई शर्त थी ही नहीं।

    यह अपवाद टल्क बनाम मार्क्स के वाद उल्लिखित सिद्धान्त पर आधारित है। इस वाद में यह अभिनिर्णीत हुआ था कि यदि अन्तरक अपनी संलग्न भूमि के लाभप्रद उपभोग के लिए अन्तरिती के पक्ष में अन्तरित सम्पत्ति पर प्रतिबन्ध लगाता है तो ऐसी शर्त वैध होगी।

    शर्त केवल अचल सम्पत्ति के सम्बन्ध में लागू होती है। यह सिद्धान्त अमूर्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में लागू नहीं होगा। यह अपवाद उन अन्तरणों के सम्बन्ध में नहीं लागू होगा जो आत्यन्तिक प्रकृति के नहीं हैं।

    अन्तरिती अपने अधिकार को प्रतिफल के बदले भी सीमित कर सकेगा यदि वह चाहे तो ऐसा प्रतिबन्ध शून्य नहीं होगा, किन्तु यह आवश्यक है कि शर्त वैध हो ।

    धारा 12-

    अन्तरण के समय अन्तरकर्ता, यदि चाहे तो अन्तरण पर पाश्चिक शर्त आरोपित कर सकता है। ऐसी शर्त के आरोपित किये जाने से निहित हित समाप्त हो जाएगा यदि शर्त के अनुसार कार्य न हुआ।

    यह धारा इस सिद्धान्त का एक अपवाद प्रस्तुत करती है। यह धारा प्रतिपादित करती है कि यदि अन्तरिती को सम्पत्ति में आत्यन्तिक अधिकार और स्वामित्व दिया जा रहा हो और यह शर्त लगायी जा रही हो कि यदि वह दिवालिया हो जाएगा या घोषित कर दिया जाएगा तो सम्पत्ति अन्तरक के पास वापस चली जाएगी, तो ऐसी शर्त शून्य होगी और अन्तरण वैध होगा ।

    इसी प्रकार यदि आत्यन्तिक अन्तरण पर यह शर्त लगायी गयी हो कि अन्तरिती द्वारा अन्तरण या खर्च किये जाने की दशा में अन्तरिती के समस्त अधिकार समाप्त हो जाएंगे तो शर्त शून्य होगी और अन्तरण वैध होगा।

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