संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग: 8 मौखिक अंतरण क्या होता है

Shadab Salim

7 Aug 2021 1:03 PM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग: 8 मौखिक अंतरण क्या होता है

    संपत्ति अंतरण अधिनियम 1882 की धारा 9 मौखिक अंतरण के संबंध में उल्लेख कर रही है। यह धारा उपबंधित करती है कि उस दशा में जिसमें विधि द्वारा कोई लेख अभिव्यक्त रूप से अपेक्षित नहीं है संपत्ति का अंतरण लिखे बिना किया जा सकता है।

    इस आलेख के अंतर्गत धारा 9 से संबंधित प्रमुख बातों का उल्लेख किया जा रहा जो मौखिक अंतरण पर प्रकाश डालती है। इससे पूर्व के आलेख में संपत्ति अंतरण के पश्चात होने वाले प्रभाव पर उल्लेख किया गया था जो कि इस अधिनियम की धारा 8 से संबंधित है।

    मौखिक अंतरण कानून का यह नियम है कि इसके अंतर्गत वह प्रत्येक काम स्वीकार हैं जिसके खिलाफ कोई प्रतिबंध न लगाया गया है। यदि किसी संव्यवहार के संबंध में लिखित कानून द्वारा अपेक्षित नहीं है तो उसे मौखिक रूप से क्रियान्वित किया जा सकता है।

    लिखित का मुख्य उद्देश पक्षकारों के बीच हुए करारों को सुरक्षा प्रदान करना है। पक्षकारों के आशय को उन्हीं के शब्दों से सुरक्षित किया जाता अर्थात एक लिखित पक्षकारों के उस समय के आशय का प्रारूप होता है, आशय की प्रतिमा होती है।

    व्यक्ति के विचार परिस्थितियों और समय के हिसाब से बदलते रहते है परंतु एक संव्यवहार कुछ परिस्थितियों में तथा कुछ विचारों के होते हुए उत्पन्न होता है इसलिए किसी भी संव्यवहार को लिखित में होना महत्वपूर्ण माना जाता है जिससे संव्यवहार का आशय प्रतीत हो जाए तथा किसी भी समय में उस संव्यवहार को बदला नहीं जा सके।

    इस अधिनियम के अंतर्गत लिखित तथा मौखिक दोनों ही प्रकार के अंतरण विधिमान्य है।

    कुछ निम्नलिखित मामलों में अंतरण केवल लिखित रूप में ही हो सकता है जिनका इस आलेख में उल्लेख किया जा रहा है-

    1. मूर्त स्थावर सम्पत्ति का अन्तरण-

    यदि सम्पत्ति का मूल्य 100 रुपये या इससे अधिक है या उत्तरभोगी अधिकार या अन्य अमूर्त वस्तुओं का अन्तरण, उनका मूल्य चाहे कुछ भी क्यों न हो।

    2. साधारण बन्धक-

    बन्धक धन की मात्रा चाहे जो भी हो तथा अन्य बन्धक (विलेख के निक्षेप द्वारा बन्धक को छोड़कर) में यदि प्रतिभूत धन 100 रुपये या अधिक है।

    3. अचल सम्पत्ति का पट्टा-

    यदि वह वर्षानुवर्षी है या एक वर्ष से अधिक की अवधि का है या वार्षिक किराया संरक्षित करता है।

    4. अचल सम्पत्ति का विनिमय-

    यदि सम्पत्ति का मूल्य 100 रुपये या इससे अधिक है।

    5. अचल सम्पत्ति का दान।

    6. अनुयोज्य दावे का अन्तरण।

    निम्नलिखित अन्तरण मौखिक या लिखित किसी भी रूप में किये जा सकते हैं, यह अंतरण ऐच्छिक है।

    (1) मूर्त अचल सम्पत्ति का अन्तरण यदि सम्पत्ति का मूल्य 100 रुपये से कम है।

    (2) हक विलेख के निक्षेप द्वारा किया गया बन्धक तथा साधारण बन्धक को छोड़कर अन्य सभी प्रकार के बन्धक यदि प्रतिभूत धनराशि 100 रुपये से कम है।

    (3) अचल सम्पत्ति का पट्टा जो वर्षानुवर्षी प्रकृति का न हो या एक वर्ष से कम अवधि का हो या जो वार्षिक भाटक संरक्षित न करता हो।

    (4) अचल सम्पत्ति का विनिमय यदि वस्तु का मूल्य 100 रुपये से कम है।

    (5) चल सम्पत्ति का दान।

    जहाँ अधिनियम के अन्तर्गत लिखित तथा पंजीकृत दस्तावेज अपेक्षित है अन्तरण किसी अन्य ढंग से प्रभावी नहीं बनाया जा सकेगा, किन्तु जहाँ ऐसी कोई अपेक्षा नहीं की गयी, अन्तरण मौखिक रूप से किया जा सकेगा और वैध होगा।

    ऐसे संव्यवहार जो वस्तुतः अन्तरण की कोटि में नहीं आते हैं जैसे संयुक्त सम्पत्ति का विभाजन, पारिवारिक समझौता, भोजन, भरण-पोषण हेतु जीवनकाल के लिए सम्पत्ति का परिदान अभ्यर्पण तथा प्रमोटर द्वारा अधीनस्थ को मुक्त किया जाना इत्यादि मौखिक रूप में किये जा सकेंगे।

    इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया बनाम बंगाम नेशनल बैंक के बाद में मुख्य न्यायाधीश रैन्किन ने प्रेक्षित किया था कि बंटवारा मोचन, इत्यादि प्रक्रियाएँ साधारणतया अन्तरण की कोटि में आती हैं, किन्तु जहाँ तक सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम का प्रश्न है, इन्हें अन्तरण नहीं माना जाता है। सम्पत्ति का परित्याग मौखिक रूप से किया जा सकेगा, लिखित को आवश्यकता नहीं होगी। सुखाधिकार इस अधिनियम के अन्तर्गत मौखिक रूप से सृष्ट किया जा सकेगा, क्योंकि इससे हित का अन्तरण नहीं होता है।

    किसी हिन्दू प्रतिमा के पक्ष में किया जाने वाला दान, एक जीवित व्यक्ति के पक्ष में किया गया दान नहीं माना जाता है। अतः इस अधिनियम के अन्तर्गत ऐसा दान अन्तरण नहीं होगा। इस प्रकार का दान लिखित या मौखिक किसी भी रूप में किया जा सकेगा।

    इसी प्रकार मुस्लिम विधि के अन्तर्गत वक्फ के रूप में सम्पत्ति का अन्तरण मौखिक रूप में किया जा सकेगा पारिवारिक समझौता के सम्बन्ध में इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिप्रेक्षित किया था।

    पारिवारिक समझौता विशिष्ट साम्या द्वारा जो अपने आप में विशिष्ट है और जो प्रभावी बनाये जाते हैं यदि निष्ठापूर्वक सृजित किए हों।

    न्यायालय ने केरर आन फ्राड से निम्नलिखित उद्धृत करते हुए प्रेक्षित किया कि-

    "अजनबियों के बीच साधारण समझौता के मामले में लागू होने वाले सिद्धान्त समान रूप में, यहाँ लागू होते हैं जहाँ समझौता पारिवारिक व्यवस्था की प्रकृति का हो। पारिवारिक व्यवस्था या समझौता विशिष्ट साम्या द्वारा जो अपने आप में विशिष्ट होते हैं. शासित होते हैं और प्रभावी बनाये जाएंगे यदि निष्ठापूर्वक बनाये गये हों। यद्यपि वे समझौता के रूप में आशयित न हों, अपितु समस्त पक्षकारों से एक त्रुटि के रूप में प्रारम्भ हुए हों. इनका सृजन भूल में हुआ हो या तथ्यों की अज्ञानता से कि वस्तुत: उनके अधिकार क्या थे या उन बिन्दुओं के जिन पर वस्तुतः उनके अधिकार आधारित थे।"

    हाल्सबरीज लाज ऑफ इंग्लैण्ड, भाग 17 तीसरा संस्करण पृष्ठ 215-216 के अनुसार "एक पारिवारिक समझौता परिवार के सदस्यों के बीच हो एक करार है, जो आशक्ति होते हैं साधारणतया एवं युक्तियुक्तत: परिवार के सदस्यों के लाभ हेतु सन्देहयुक्त या विवादित अधिकारों के समझौता द्वारा या पारिवारिक सम्पत्ति के संरक्षण द्वारा या परिवार की शान्ति एवं सुरक्षा हेतु वादों को धारा इसके सम्मान की यह व्यवस्था अन्तर्निहित हो सकती है संव्यवहार के लम्बे अन्तरात से परन्तु यह अधिक है। सामान्य करार को एक विलेख में अभिलिखित करना या प्रभावी बनाना जिसे उति "पारिवारिक व्यवस्था" नाम देकर प्रकट किया जाता है।

    पारिवारिक व्यवस्था उन सिद्धान्तों से विनियमित होती है जो अजनबियों के बीच संव्यवहारों में लागू नहीं होती है। न्यायालय पारिवारिक व्यवस्था के अन्तर्गत पक्षकारों के अधिकारों का अभिनिश्चयन करते समय या ऐसी व्यवस्था रद्द करने के हेतु दावों का निर्धारण करते समय विचार करता है कि विषय के व्यापक सन्दर्भ में परिवार के हित में क्या सर्वाधिक आवश्यक है एवं उन प्रतिफलों पर भी विचार करते हैं जो उन व्यक्तियों के बीच संव्यवहारों को निर्धारित करने में जो एक ही परिवार के सदस्य नहीं हैं विचार में नहीं रखा जाएगा।

    विषय जो उसी प्रकार के संव्यवहारों की वैधता के लिए घातक हो सकते हैं अजनबियों के बीच पारिवारिक व्यवस्थाओं के बाध्यकारी प्रभाव हेतु आपत्तियों नहीं है।" पारिवारिक व्यवस्था से सम्बन्धित नियमों को अभिनिश्चित किया गया एवं निम्नलिखित में संक्षिप्त रूप में लिपिबद्ध कर दिया गया है।

    1. पारिवारिक समझौता सद्भावपूर्ण होना चाहिए एवं उचित एवं साम्यिक् विधि में परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच सम्पत्तियों के विभाजन या आबंटन द्वारा विरोधी दावों को सुलझाना होना चाहिए।

    2. कथित समझौता स्वैच्छिक होना चाहिए एवं कपट, प्रपोड़न या असम्यक् प्रभाव से उत्प्रेरित नहीं होना चाहिए।

    3. पारिवारिक व्यवस्था मौखिक भी हो सकेगी और उस स्थिति में पंजीकरण आवश्यक नहीं होगा।

    4. यह पर्याप्त रूप में स्थापित है कि पंजीकरण आवश्यक होगा यदि पारिवारिक समझौता या व्यवस्था की शर्तें लिखित रूप में अभिव्यक्त की गयी हैं। यहाँ भी उस दस्तावेज जिसमें पारिवारिक समझौते की शर्तें एवं प्रस्तुति उल्लिखित है एवं उस दस्तावेज जिसमें पारिवारिक समझौता के पश्चात् तैयार किया गया समाधान विवरण उल्लिखित है जो या तो रिकार्ड या न्यायालय के सूचनार्थ जिससे आवश्यक परिवर्तन किया जा सके के बीच विभेद किया जाना चाहिए।

    ऐसे मामलों में समाधान विवरण, स्वयं में अचल सम्पत्ति में न कोई अधिकार सृजित करता है और न ही समाप्त करता है। अतः समाधान विवरण का पंजीकृत होना आवश्यक नहीं है।

    5. सदस्य, जो पारिवारिक व्यवस्था के पक्षकार हो सकेंगे, उनका उस सम्पत्ति में जो पक्षकारों द्वारा समाधान के प्रयोजनों हेतु स्वीकार की जाती है, किसी प्रकार का कतिपय स्वत्व, दावा हित यहाँ तक कि सम्भावित दावा भी होना आवश्यक होगा।

    यहाँ तक कि यदि समझौते का एक पक्षकार के पास किसी प्रकार का स्वत्व नहीं है किन्तु व्यवस्था के अन्तर्गत, दूसरा पक्षकार अपने सभी दावों या स्वत्वों का परित्याग कर देता है, ऐसे व्यक्ति के पक्ष में एवं उसे एकमात्र स्वामी के रूप में स्वीकार कर लेता है, तो पूर्ववर्ती स्वत्व की परिकल्पना की जानी चाहिए एवं पारिवारिक समझौता को मान्यता दी जाएगी एवं न्यायालय को इसे स्वीकृत प्रदान करने में कोई कठिनाई नहीं होगी।

    6. यहाँ तक कि विद्यमान या सम्भावित सद्भावपूर्ण विवाद, जिसमें विधिक दावे अन्तनिशित नहीं भी हो सकते हैं, सद्भावपूर्ण पारिवारिक समझौते द्वारा सुलझाये जा सकते हैं उचित एवं साम्पिक रूप में एवं ऐसी पारिवारिक व्यवस्था समझौते के पक्षकारों पर अन्तिम एवं बाध्यकारी होगी।

    अतः एक समझौता या पारिवारिक व्यवस्थान या निपटारा इस अवधारणा पर आधारित है कि पक्षकारों में व्यवस्थान विषयक सम्पत्ति में एक प्रकार का पूर्विक हित या स्वत्व विद्यमान रहता है एवं करार स्वीकार करता है एवं परिभाषित करता है कि वह स्वत्व या हित क्या है, प्रत्येक पक्षकार सम्पत्ति पर सिवाय उस अंश को छोड़कर जो उसके हिस्से में आता है अपने अन्य दावों का परित्याग कर देता है तथा अन्यों के दावों को मान्यता देता है, क्योंकि पूर्व में उन लोगों ने उसके लिए अभिकथन किया था जो उन्हें आवंटित किया जाता है।

    इसीलिए ऐसे प्रकरणों में एक व्यक्ति से. जिसमें स्वत्य निहित होता है, से दूसरे व्यक्ति को, जो इसे ग्रहण करता है पारिवारिक व्यवस्थापन के अन्तर्गत स्वत्व प्रदत्त होने के लिए अन्तरण की आवश्यकता नहीं होती है।

    यह अभिकल्पित किया जाता है कि व्यवस्थापन के अन्तर्गत सम्पत्ति प्राप्त करने वाले व्यक्ति में जिसे स्वत्व की माँग की थी, स्वत्व उसमें सदैव विद्यमान था सम्पत्ति के उस अंश के सम्बन्ध में जो उस पक्षकार के हिस्से में आया है। अतः अन्तरण आवश्यक नहीं है।

    इस वाद में किदार सन्स इण्डस्ट्रीज (प्रा०) लि० एक प्राइवेट कम्पनी थी जिसके अधिकांश शेयर धारण करने वाले सदस्य नन्दा परिवार के सदस्य थे कतिपय शेयरों को छोड़कर जो उनके सम्बन्धियों एवं मित्रों द्वारा धारण किए जा रहे थे।

    हंसा इण्डस्ट्रीज (प्रा०) लि० एवं एक अन्य कम्पनी थी जिसका नियंत्रण नन्दा परिवार के एक सदस्य श्री एन० एन० नंदा के हाथ में था जो उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपीलार्थी सं० 2 के रूप में विद्यमान थे। नन्दा परिवार में विवाद इसलिए खड़ा हुआ क्योंकि आय का प्रमुख स्रोत, किदार सन्स (प्रा०) लिं० जो कि मेसर्स थाइसेन स्थल यूनियन ऑफ जर्मनी की अभिकर्ता थी से अर्जित आय एवं अपीलार्थी सं० 2 द्वारा जो हंसा (इण्डस्ट्रीज (प्रा०) लि० का स्वामी था द्वारा अपने पक्ष में एकल अभिकरण कथित जर्मन कम्पनी से प्राप्त कर अपने तीन अन्य भाइयों एवं माँ को अभिकरण के प्रलाभों से वंचित कर देना हंसा इण्डस्ट्रीज (प्रा०) लि० द्वारा अभिकरण ग्रहण करने के पश्चात् मेसर्स धाइसेन स्थल यूनियन ऑफ जर्मनी ने किदार सन्स (प्रा०) लि० को नोटिस दिया कि उनके पक्ष में सृजित अभिकरण 30 जून, 1988 के प्रभाव से समाप्त किया जाता है।

    तत्पश्चात् हंसा इण्डस्ट्रीज (प्रा०) लि० एवं एन० एन० नन्दा ने किदार सन्स (प्रा०) लि० के विघटन हेतु वाद संस्थित किया इस आधार पर कि किदार सन्स (प्रा०) लि० के पक्ष में सृजित अभिकरण समाप्त हो गया है एवं उसके आय के स्रोत समाप्त हो गये हैं।

    तदनन्तर पक्षकारों ने परिवार की प्रतिष्ठा बचाने हेतु आपस में एक पारिवारिक समझौता किया। इन परिस्थितियों में न्यायालय के समक्ष यह बिन्दु विचारणीय था कि क्या व्यावहारिक असुविधाओं एवं वैमनस्यपूर्ण आपसी सम्बन्धों के कारण ऐसा करार या समझौता विवाद के पक्षकारों पर आबद्धकारी होगा?

    सम्यक् विचारोपरान्त उच्चतम न्यायालय ने यह मत अभिव्यक्त किया कि,

    "जहाँ समझौते के प्रखण्ड सुस्पष्ट हो साफ हो. उन्हें प्रभावी बनाया जाना चाहिए क्योंकि ऐसे प्रखण्ड के सम्बन्ध में कोई यह नहीं कह सकता है कि वह कपट से प्रभावित है या अवैध है या किसी सांविधिक उपबन्ध का उल्लंघन करता हुआ है या लोक नीति के विरुद्ध है या अननुपालन की संभाव्यता के सिद्धान्त से प्रभावित है। आपसी विवाद को सुलझाने हेतु पक्षकारों के द्वारा सद्भाव में किया गया समझौता था तथा पक्षकार विवाद के समस्त तथ्यों से अवगत थे जब उन्होंने समझौता किया अपनी आँखें खुली रखते हुए अतीत के अपने अनुभवों से भलीभांति अवगत होते हुए उन्होंने विवादग्रस्त सम्पत्ति में अपने अंश के लिए सहमति दी। समझौता करार में उल्लिखित सुसंगत प्रखण्ड किसी भी कारण से प्रदूषित नहीं हुआ है जो न्यायालय को प्रेरित करे कि वह समझौता विलेख में उल्लिखित प्रखण्ड को प्रभावी न बनाये। व्यवहारिक असुविधा विषयक प्रश्न से प्रतिपक्षी को उस समय प्रभावित होना चाहिए था जब उन्होंने समझौता करार किया। समझौता के क्रियान्वयन को अवस्था में वे समझौता विलेख में वर्णित प्रसंविदा जिसे उन्होंने सत्यनिष्ठापूर्वक अपनी सम्पत्ति से समझौता करार में उल्लिखित किया था से विरत नहीं हो सकते हैं। एक ही आवास में निवास करने में व्यवाहारिक असुविधा जबकि उनके अंश अलग-अलग है, मनमुटाव एवं वैमनस्य की दुर्भाग्यशाली पृष्ठभूमि में तर्क संगत नहीं है।

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