संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग: 7 अंतरण करने के लिए सक्षम पक्षकार और अंतरण का प्रभाव

Shadab Salim

4 Aug 2021 3:19 PM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग: 7 अंतरण करने के लिए सक्षम पक्षकार और अंतरण का प्रभाव

    संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 से संबंधित प्रस्तुत किए जा रहे आलेखों में अब तक किन संपत्तियों को अंतरित किया जा सकता है जो कि इस अधिनियम की धारा 6 से संबंधित है का अध्ययन किया जा चुका है। इस आलेख के अंतर्गत इस अधिनियम की धारा 7 जो कि अंतरण करने के लिए सक्षम पक्षकारों का उल्लेख कर रही है तथा धारा 8 जो कि अंतरण के प्रभाव का उल्लेख कर रही है का अध्ययन किया जा रहा है।

    अंतरण करने के लिए सक्षम व्यक्ति-

    संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 7 अंतरण करने के लिए सक्षम व्यक्तियों का उल्लेख कर रही है। इस धारा के अनुसार संविदा करने के लिए सक्षम व्यक्ति अंतरण कर सकता है अन्तरिती संपत्ति का हकदार व्यक्ति उसका अंतरण कर सकता है।

    इस धारा के अध्ययन से यह तथ्य साबित होता है कि अंतरण करने के लिए सक्षम व्यक्ति को मानने के लिए दो शर्तों का पालन होना आवश्यक है- पहली शर्त है संविदा करने के लिए सक्षम होना तथा दूसरी शर्त है किसी संपत्ति को अंतरण करने का हकदार होना।

    संविदा करने के लिए सक्षम होना-

    यदि संविदा करने के लिए सक्षम व्यक्ति के संदर्भ में बात की जाए तो इसके लिए भारतीय संविदा अधिनियम 1872 का अध्ययन करना होगा जहां संविधान करने के लिए सक्षम व्यक्तियों का उल्लेख किया गया है।

    संविदा अधिनियम के अनुसार निम्न व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम नहीं है इन व्यक्तियों के अलावा कोई भी व्यक्ति संविदा कर सकता है, इनका उल्लेख नीचे किया जा रहा है-

    अप्राप्त वय- अप्राप्तवय वह व्यक्ति है जो भारतीय वयस्कता अधिनियम, 1875 के अन्तर्गत 18 वर्ष की आयु पूरी न कर चुका हो, किन्तु ऐसे व्यक्ति का यदि न्यायालय द्वारा कोई संरक्षक नियुक्त किया गया है या उसको सम्पत्ति का अधीक्षण फोर्ट ऑफ पार्ट्स द्वारा अपने हाथ में ले लिया गया है तो 21 वर्ष की आयु पूरी करने पर यह व्यक्ति वयस्क होगा।

    (1 ) अस्वस्थ चित्त का व्यक्ति ऐसा व्यक्ति जो उस संविदा की प्रकृति को समझने में अक्षम है जिसका वह भागीदार बना है या संविदा के प्रभाव को समझने में अक्षम है, अस्वस्य चित्त का समझा जाएगा। एक अस्वस्थ चित्त या उन्मत्त व्यक्ति द्वारा किया गया करार शून्य होता है। अतः उसके द्वारा किया गया सम्पत्ति अन्तरण भी शून्य होगा। किन्तु यदि अन्तरण करते समय वह व्यक्ति उन्मत नहीं था, तो अन्तरण वैध होगा क्योंकि इस अवधि में की गयी संविदा वैध होती है।

    (2) संविदा करने में अनर्ह- यदि कोई व्यक्ति किसी तत्समय प्रवृत्त विधि जिसके वह अध्यधीन है, द्वारा संविदा करने से अयोग्य घोषित कर दिया गया है तो ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया अन्तरण शून्य होगा। उदाहरणस्वरूप ऐसा व्यक्ति जिसकी सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वाड्स के अन्तर्गत नियंत्रित की जा रही है वह व्यक्ति ऐसी सम्पत्ति को अन्तरित करने के लिए सक्षम नहीं माना जाएगा ऐसा निर्णीत ऋण जिसको सम्पत्ति ऋण के भुगतान हेतु जिलाधीश द्वारा बेची जा रही हो उस सम्पत्ति को स्वयं बेचने में वह सक्षम नहीं होगा और यदि वह उस सम्पत्ति को अन्तरित करता है।

    (3) अंतरण का हकदार होना- सम्पत्ति का हकदार हो अथवा अन्तरित करने के लिए प्राधिकृत हो। आवश्यक यह है कि अन्तरक उस सम्पति का हकदार हो और यदि सम्पत्ति किसी अन्य व्यकि को है तो यह उस व्यक्ति द्वारा उसे अन्तरित करने के लिए प्राधिकृत हो वह व्यक्ति जो सम्पत्ति के लिए प्राधिकृत नहीं है, जैसे अतिचारक के द्वारा किया गया अन्तरण शून्य होगा जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे की सम्पत्ति अन्तरित करने की प्रव्यंजना करता है तो उसे यह सिद्ध करना होगा कि उसे सम्पति अन्तरित करने का अधिकार है और यह अधिकार उसे अभिकर्ता के रूप में या स्वामी के संरक्षक के रूप में या न्यासी इत्यादि के रूप में प्राप्त हुआ है। अन्तरक द्वारा अन्तरित किये जाने वाले अधिकार की सीमा इस तथ्य पर निर्भर करती है कि वह किस सीमा तक अपना अधिकार अन्तरित करने के लिए प्राधिकृत था यदि उपरोक्त शर्तें पूर्ण हो जाती है तो अन्तरक सम्पूर्ण रूप से या अंशतः तथा आत्यन्तिकतः सशर्त सम्पत्ति को अन्तरित करने में सक्षम होगा। यह धारा ऐसे व्यक्तियों के पक्ष में किये जाने वाले अन्तरणों को प्रभावित नहीं करती है जो संविदा करने के लिए सक्षम नहीं है। अवयस्क के पक्ष में किये जाने वाले विक्रय या बन्धक बंध है किन्तु ऐसे व्यक्ति के पक्ष में किया गया पट्टा वैध नहीं होगा क्योंकि पट्टा के अन्तर्गत प्रभार आरोपित किया जाता है और अवयस्क से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि यह प्रभार का वहन करे।

    अंतरण का प्रभाव-

    संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 8 अंतरण के प्रभाव के संबंध में उल्लेख कर रही है। इस धारा का अर्थ यह है कि अंतरण के पश्चात किन चीजों का जन्म होता है तथा संपत्ति के संबंध में क्या प्रभाव उत्पन्न होते हैं अर्थात यहां अंतरण के बाद की अवस्था का उल्लेख किया जा रहा है।

    यह धारा उपबन्धित करती है कि जब तक कि कोई भिन्न आशय व्यक्त न हो या आवश्यक रूप से विवक्षित न हो सम्पत्ति का अन्तरण अन्तरितों के पक्ष में तत्काल हो उस समस्त हित का अन्तरण कर देता है।

    (1) अन्तरक तत्काल उस सम्पत्ति में संक्रमित (अन्तरित) करने की स्थिति में था।

    (2) अन्तरक तत्काल उस सम्पत्ति के विधिक प्रसंगतियों में अन्तरित करने की स्थिति में था।

    सिद्धान्त यह है कि यदि शर्त रहित अन्तरण किया गया है तो अन्तरितों को सम्पत्ति में यह सब कुछ प्राप्त हो जाएगा, जो अन्तरक उस समय देने की स्थिति में होता है। ज्योति प्रसाद सिंह बनाम सदन के बाद में यह मत व्यक्त किया गया था कि इस धारा का उद्देश्य यह सुस्पष्ट करना है कि एक विशिष्ट वर्ग की सम्पत्ति को कौन-कौन सी विधिक प्रसंगतियों हैं जो अन्तरण के समय अन्तरित होंगी।

    उसका उद्देश्य उन शब्दों को सुनिश्चित करना नहीं हैं जिनके माध्यम से किसी विशिष्ट प्रकार की सम्पत्ति अन्तरित की जा सकेगी। यह भी अभिव्यक्त किया गया कि यह धारा विवाचन के सिद्धान्त का निरूपण करती है।

    विधिक प्रसंगतियाँ विधिक प्रासंगित एक ऐसी वस्तु है जो किसी वस्तु पर निर्भर हो या उससे सम्बद्ध हो या उसका अनुकरण करता हो तथा जो अति महत्वपूर्ण हो। उदाहरणार्थ भाटक उत्तरभांग एक प्रसंगति है।

    यह साधारणतया सम्पत्ति के फायदे के लिए होती है। हकशुफा का अधिकार तथा स्वत्व विलेख के परिदान का अधिकार सम्पत्ति की प्रसंगतियाँ हैं। इस प्रश्न का निर्धारण करने हेतु कि कोई वस्तुतः किसी सम्पत्ति को प्रसंगित है या नहीं इस बात को मद्देनजर रखना चाहिए कि क्या वह वस्तु उस सम्पत्ति के स्थायी और लाभकर उपभोग के लिए आवश्यक है या नहीं। यदि आवश्यक है तो विधिक प्रसंगति होगा।

    यदि सम्पत्ति पट्टा के रूप में अन्तरित की जाती है और अन्तरितो पट्टागृहीता या उपपट्टा गृहीता के अधिकारों पर इस प्रकार प्रतिबन्ध लगाया जाता जिससे कि वह पट्टाजनित सम्पत्ति का पूर्णरूपेण उपयोग करने से वंचित हो जाता है तो ऐसा पट्टा विलेख अन्तरण के रूप में प्रभावी होता हुआ नहीं माना जा सकेगा। अतएव अन्तरित पट्टाग्रहीता या उपपट्टाग्रहीता पट्टा के अन्तर्गत जनित दायित्वों से आबद्ध नहीं होगा।

    इस प्रकरण में एक शाश्वत उपपट्टे की प्रकृति को लेकर विवाद उठा था। एक शाश्वत उपपट्टा 20-2-1981 को भारत के राष्ट्रपति (पट्टाकर्ता के रूप में) मोहन को-आपरेटिव इण्डस्ट्रियल इस्टे लि० (पट्टाग्रहीता के रूप में) एवं मेसर्स शशांक स्टील इण्डस्ट्रीज लि० (उपपट्टाग्रहीता के रूप में) एक औद्योगिक भू-खण्ड को लेकर सृजित हुआ था।

    उपपट्टाग्रहीता को भू-खण्ड अनेकों शर्तों के अध्यधीन जैसे उसे भूखण्ड को या उसके किसी अंश को बेचने, हस्तान्तरित करने, समनुदेशित करने का अधिकार किसी ऐसे व्यक्ति के पक्ष में नहीं होगा जो मोहन को-आपरेटिव इण्डस्ट्रियल सोसाइटी का सदस्य न हो।

    ऐसे अन्तरण के लिए पट्टाकर्ता की पूर्व अनुमति आवश्यक होगी जो अनुमति वह देने से इन्कार भी कर सकेगा। इसके साथ ही साथ पट्टाकर्ता को यह भी अधिकार था कि वह उक्त सम्पत्ति के मूल्य में होने वाली वृद्धि के एक भाग की माँग कर सकेगा।

    इन तथ्यों के आधार पर उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इस प्रकार सृजित उपपट्टा अन्तरण का प्रतीक नहीं है। इसमें उपपट्टा ग्रहीता को कोई अधिकार विशेषकर स्वामित्व का अधिकार नहीं प्राप्त होगा। न्यायालय ने इसे केवल 'लेटिंग' का संव्यवहार माना।

    कई बार अन्तरण इस प्रकार से किया जाता है कि यह सुनिश्चित करना कठिन होता है कि संव्यवहार को प्रकृति क्या है। जैसे कि अन्तरक ने संव्यवहार में ऐसे शब्दों का प्रयोग या ऐसी भाषा का प्रयोग किया हो जिससे यह सुनिश्चित नहीं हो पा रहा हो कि वह संव्यवहार दान का है या वसीयत का।

    ऐसी स्थिति में हमें उनके वास्तविक स्वरूप को सुनिश्चित करना होता प्रयुक्त शब्दों में अलग होकर पक्षकारों की मंशा का निर्धारण सम्पूर्ण संव्यवहार को तथा संव्यवहार की विशिष्टताओं को ध्यान में रख कर करना होता है। यह एक स्थापित सिद्धान्त है कि वसीयत, वसीयतकर्ता के जीवनकाल में प्रतिसंहरणीय होती है।

    वसीयत तभी प्रभावी होती है एवं शक्ति प्राप्त करती है जब वसीयतकर्ता की मृत्यु हो जाए। दूसरे शब्दों में वसीयत तभी प्रभावी होती है तथा वसीयतो के पक्ष में हित स्पष्ट करती है जब वसीयकर्ता की मृत्यु हो जाए। इसके पूर्व वसीयत निष्प्रभावी रहती है। इससे मात्र भविष्य में हित सृजन होने की संभावना रहती है।

    इसके विपरीत दान में तुरन्त हित का सृजन हो जाता है और अन्तरिती (आदाता) को सम्पत्ति में हित प्राप्त हो जाता है यदि दान से सम्बन्धित समस्त शर्तों को पूर्ण कर दिया गया है। वसीयत में वसीयती के हित में कोई अधिकार सृजित करने की मंशा वसीयतकर्ता के जीवनकाल में नहीं होती है, जबकि दान में तुरन्त हित सृजित हो जाता है।

    अन्तरक के जीवित या जीवित न होने का कोई प्रभाव नहीं होता है। पक्षकारों द्वारा संव्यवहार को क्या नाम दिया गया है, अपने आप में निर्णायक नहीं होता है।

    यदि अन्तरण की विषयवस्तु कारोबार, व्यापार वाणिज्य आदि में उपयोग में लाये जाने हेतु आशयित है तो ऐसे अन्तरण में कारोबार को प्रभावकारिता के सिद्धान्त को करार या संविदा की शर्तों में देखा जाता है जिससे कि अपेक्षित परिणाम पाया जा सके। कारोबार या व्यापार प्रभावकारिता से अभिप्रेत है आशयित परिणाम उत्पन्न करने की शक्ति।

    परन्तु कारोबार प्रभावकारिता "का सिद्धान्त" केवल तभी लागू होता है जब संविदा की शर्तों में इसके (कारोबार प्रभावकारिता) के विवक्षित होने की बात कही जाती है तथा यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि करार करते समय दोनों पक्षकारों ने इसके होने की बात को अभिव्यक्त किया था।

    संलग्न सुखाधिकार- भूमि के एक अंश तथा मकान के अन्तरण पर अन्तरिती को वे सभी सुखाधिकार प्राप्त होंगे जो उस भूमि तथा मकान को अन्तरण से पूर्व उसके लाभप्रद उपभोग के लिए प्राप्त था। पदावलि 'संलग्न सुखाधिकार' उन सुखाधिकारों की ओर इंगित करती है जो अन्तरण से पूर्व उस सम्पत्ति के लाभप्रद उपभोग के लिए उपलब्ध थे।

    उदाहरणार्थ, 'अ' के पास भूमि का एक खण्ड था जिसके लिए 'ब' की भूमि पर रास्ते का अधिकार प्राप्त था।'अ' अपनी भूमि को 20 वर्ष के लिए 'स' को पट्टे पर देता है। सुखाधिकार स में निहित होगा और तब तक निहित रहेगा जब तक कि पट्टा की अवधि जारी रहेगी।

    इसी प्रकार किसी खेत का खरीददार उस तालाब या जलाशय से उसकी सिंचाई करने के लिए प्राधिकृत होगा जिससे पूर्व स्वामी खेत की सिंचाई कर रहा था।

    यह उन सुखाधिकारों की ओर इंगित नहीं करता है जो अन्तरण के फलस्वरूप पहली बार सृष्ट होते हैं। किन्तु जब किसी मकान का विक्रय किया जा रहा हो और इस आशय का कोई स्पट करार पक्षकारों के बीच न हुआ हो तो यह भूमि जिस पर मकान बना हुआ है, मकान के साथ अन्तरित नहीं मानी जाएगी, क्योंकि इस धारा में केवल सुखाधिकार के अन्तरण का उल्लेख है भूमि के स्वत्व का नहीं।

    अन्तरण से सम्पत्ति दस्तावेज का निर्वाचन मुख्यतया दस्तावेज में उल्लिखित शर्तों एवं दशाओं के आधार पर किया जाना चाहिए। यह भी अति आवश्यक है कि दस्तावेज की विरचना करते समय न्यायालय किसी भी ऐसे शब्द को उसमें प्रयुक्त नहीं करेगा जिसे दस्तावेज के लेखक ने दस्तावेज में प्रयुक्त न किया हो।

    सम्पत्ति का किराया तथा प्रलाभ- अन्तरण के पश्चात भूमि से उद्भूत होने वाली आय का अन्य प्रलाभ प्रासंगति माने जाएंगे। भूमि के अन्तरण पर अन्तरितों को अन्तरक के ये सभी हित जो उसे किराये या प्रलाभ के रूप में प्राप्त थे, अन्तरित हो जाएंगे बशर्ते कि इस आशय के विपरीत कोई संविदा न हो। अन्तरण से पूर्व उद्भूत आय तथा प्रलाभ अन्तरित नहीं होते हैं, क्योंकि वे अन्तरण की विषयवस्तु होते हैं।

    इस अधिनियम की धारा 55 खण्ड (6) तथा (9) विशिष्टतः यह उद्घोषित करती है कि क्रेता में जब स्वामित्व निहित होगा तो वह भाटकों तथा प्रलाभों को पाने का हकदार होगा अतः स्वामित्व के क्रेता में निहित होने के पूर्व उपरोक्त वस्तुओं का विक्रेता धारण करने का अधिकारी होगा यदि विक्रेता स्वामित्व का परिदान होने के पश्चात् भी सम्पत्ति को अपने पास धारण किये रहता है तो क्रेता विक्रेता से धारण तथा उपभोग के लिए प्रतिकर की माँग कर खनिज भूमि के सतह का स्वामी साधारणतया उन सभी वस्तुओं का भी स्वामी होता है जो सह के नौबे भूमि में विद्यमान होती है।

    यदि ऐसा भूस्वामी अपनी सम्पत्ति अन्तरित करता है तो अन्तरिती को भूमि में विद्यमान खनिज के सम्बन्ध में भी अधिकार प्राप्त होगा, यदि अन्तरक ने इसके प्रतिकूल आशय का करार न किया हो राजा आनन्द बनाम उत्तर प्रदेश राज्यों के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनित किया था कि भूमि के सतह का स्वामी प्रथम दृष्टया के नीचे विद्यमान सभी वस्तुओं का भी स्वामी होता है और सतह के अन्तरण के साथ हो भूमिगत खनिज के सम्बन्ध में भी अधिकार अन्तरित हो जाता है जब तक कि अभिव्यक्त या विवक्षित तत्प्रतिकूल आशय न हो।

    यद्यपि मद्रास उच्च न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि कृषि भूमि का किरायेदार जमीन के उपभोग के लिए उसकी खुदायी कर सकेगा किन्तु खुदायी में निकली वस्तुओं को अपने उपभोग के लिए नहीं।

    भूबद्ध वस्तुएँ पदावलि भूबद्ध वस्तुएँ' के अन्तर्गत ये वस्तुएँ सम्मिलित हैं जिनकी जड़ें जमीन में धँसी हाँ जैसे-वृक्ष, झाड़ियों इत्यादि।

    नाव जमीन में धँसी हो जैसे-मकान, भवन इत्यादि और इस प्रकार धंसी वस्तुओं से सम्बद्ध वस्तुएँ जैसे-दरवाजे, खिड़कियाँ इत्यादि। भूमि से सम्बद्ध वस्तुएँ भूमि का अंश मानी जाती हैं और अन्तरण की दशा में स्वतः अन्तरितो के पास चली जाती हैं। इन्हें अन्तरित करने के लिए किसी प्रत्यक्ष या परोक्ष भिन्न संविदा की आवश्यकता नहीं होती है।

    अतः यदि कोई भूमि पट्टे के रूप में अन्तरित की जाती है तो पट्टाधारी उस भूमि में लगे पेड़ों तथा झाड़ियों का उपभोग करने के लिए प्राधिकृत होगा। इसी प्रकार जमीन के अंतरण पर अन्तरिती उस जमीन में बने मकान का उपभोग करने के लिए प्राधिकृत होगा, यदि कोई विपरीत संविदा न हो।

    किन्तु ऐसी वस्तुएँ जो जमीन में धंसी वस्तुओं से सम्बद्ध नहीं हैं, अपने ही वजन से जमीन पर टिकी है ऐसी वस्तुएँ केवल चल होंगी और भूमि के अन्तरण पर अन्तरिती उन्हें नहीं प्राप्त कर सकेगा।

    यदि कोई मशीनरी भूमि से सम्बद्ध है और विपरीत आशय न हो तो अन्तरण की दशा में भूमि के साथ मशीन के बल अंश भी अन्तरित हो जाएंगे। अन्तरण के सम्बन्ध में सामान्य नियम यह है कि सहायक वस्तु को अलग कर मुख्य वस्तु को नष्ट नहीं किया जा सकता।

    ऋण-यदि अन्तरित वस्तु कोई ऋण या अनुयोग्य दावा है, तो ऐसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में दो गयी प्रतिभूति विधिक प्रसंगति के रूप में अन्तरणीय होगी यह इस सिद्धान्त पर आधारित है कि प्रत्येक मुख्य वस्तु अपनी प्रसंगतियों को अपनी ओर आकर्षित करती है।

    यदि प्रतिभूत ऋण के सम्बन्ध में न्यायालय से डिक्री प्राप्त कर ली गयी है और तब ऐसे ॠण या अनुयोज्य दावे को अन्तरित किया जाता है तो प्रतिभूतियाँ डिक्री के साथ क्रेता को नहीं प्राप्त होंगी। किन्तु यदि पंजीकृत अन्तरण विलेख स्पष्ट रूप से अन्तरक के इस आशय को अभिव्यक्त करता हो कि ऋण डिक्री के साथ प्रतिभूतियाँ भी अन्तरित होंगी तो प्रतिभूतियाँ भी अन्तरित समझी जाएगी।

    एक वचन पत्र वस्तुतः ऋण के भुगतान हेतु प्रतिभूति नहीं है, यद्यपि साधारणतया इसे इसी रूप में वर्णित किया जाता है। अतः यदि कोई बन्धक को ऋण के एक अंश के सम्बन्ध में वचन पत्र धारण किये हुए है और बन्धक को अन्तरित करने के बाद भी उसे धारण किये रहता है, ऐसा बन्धक को, मोचन हेतु दायर किये गये वाद के लम्बन के दौरान ऐसी प्रतिभूति के आधार पर वाद दायर करने के प्रतिषिद्ध रहेगा।

    किन्तु एक सद्भावपूर्ण पृष्ठांकिती जिसने प्रतिफल देकर बन्धक की सूचना के बिना इसे प्राप्त किया हो, उसके आधार पर प्रतिभूति को प्राप्त करने का हकदार होगा जहाँ तक वाद के लम्बन के दौरान ऋण के अन्तरण का प्रश्न है, जुगल किशोर बनाम रा काटन के० लि के बाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि ऐसे अन्तरण के साथ सम्भावित डिक्री नहीं अन्तरित होती है।

    ब्याज- ब्याज सदैव मूलधन का सहायक है। ब्याज के सिलसिले में अन्तरिती का अधिकार उसी दिन से प्रारम्भ हो जाता है जिस दिन सम्पत्ति उसके पक्ष में अन्तरित होती है। शेयर, प्रतिभूति तथा वचन-पत्र, हो जायेगा। यदि ऋण की कालावधि समाप्त हो चुकी हैं तो इस पर ब्याज नहीं प्रदान किया जाएगा, क्योंकि जब मूलधन ही प्रतिबन्धित हो चुका है तो ब्याज स्वतः ही प्रतिबन्धित हो जाएगा।

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