संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 40: पट्टे का पर्यवसान (पट्टा समाप्त होना) (धारा-111)

Shadab Salim

28 Aug 2021 10:41 AM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 40: पट्टे का पर्यवसान (पट्टा समाप्त होना) (धारा-111)

    संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 111 किसी भी पट्टे के समाप्त होने के आधारों का वर्णन करती है। किसी भी पट्टे का पर्यवसान इन आधारों पर होता है। यह इस अधिनियम की महत्वपूर्ण धाराओं में से एक धारा है इस धारा के अंतर्गत कुल 8 प्रकार के आधार प्रस्तुत किए गए हैं जो किसी पट्टे को समाप्त करने हेतु प्रस्तुत किए गए है।

    जहां रेंट कंट्रोल अधिनियम लागू होता है वहां इस धारा के प्रावधान लागू नहीं होते परंतु फिर भी इस धारा का अत्यधिक महत्व है तथा न्यायालय पट्टे के पर्यवसान के समय इन आधारों पर भी जांच कर सकता है। इस आलेख के अंतर्गत उन सभी आधारों को विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किया जा रहा है।

    धारा 111 में कुल आठ प्रकारों का उल्लेख किया गया है जिनमें से किसी एक द्वारा पट्टे का पर्यवसान हो सकेगा। यब प्रकार पट्टे के पर्यवसान पर अन्तिम व्यवस्था प्रदान करते हैं। रेन्ट कंट्रोल अधिनियम के अन्तर्गत की गयी व्यवस्था इस अधिनियम में दी गयी व्यवस्था के समानान्तर चलती है।

    अतः इस धारा के उपबन्ध उन पर भी नहीं लागू होंगे। विभिन्न राज्यों के रेन्ट कन्ट्रोल अधिनियमों के द्वारा सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 111 में उल्लिखित व्यवस्था को अतिक्रान्त कर दिया गया है। धारा 111 में वर्णित प्रावधान व्यापक है। पर्यवसान के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस धारा में वर्णित घटनाओं के घटित होने से पट्टे का स्वयमेव पर्यवसान नहीं हो जाता है।

    इससे पट्टेदार के लिए खतरा अवश्य उत्पन्न हो जाता है कि उसका पट्टा जब्त हो जाएगा तथा अधिकार पट्टाकर्ता में निहित हो जाएगा, यदि पट्टाकर्ता ऐसा करने का निर्णय लेता है तो परन्तु इसमें कोई ऐसा उपबन्ध नहीं है जो पट्टेदार को सक्षम बनाता हो कि यदि पट्टाकर्ता पट्टा की शर्तों का उल्लंघन करेगा तो वह पट्टे का पर्यवसान कर सकेगा।

    एक निश्चित कालावधि के लिए सृजित किए गये पट्टे का पर्यवसान केवल इस कारण नहीं हो सकेगा क्योंकि पट्टाकर्ता कालावधि के समापन से पूर्व अवैध ढंगों से पट्टा सम्पत्ति पर प्रवेश कर गया था। इस प्रकार प्रवेश से पट्टेदार को अन्य अधिकार प्राप्त होंगे, किन्तु वह पट्टे का पर्यवसान नहीं कर सकेगा।

    अरजिस्ट्रीकृत दस्तावेज का पट्टे के साक्ष्य के रूप में स्वीकार्यता-

    एक अरजिस्ट्रीकृत पट्टा विलेख की स्वीकार्यता का यह एक मान्य सिद्धान्त हैं कि "यदि कोई पट्टा दस्तावेज रजिस्ट्रीकृत न होने के कारण साक्ष्य के में स्वीकार्य नहीं है तो उसमें उल्लिखित सभी शर्तें अस्वीकार्य होंगी जिसमें वह शर्त भी सम्मिलित होगी जिसमें पट्टेदार द्वारा उस पट्टा सृजित करने के लिए पट्टाकर्ता की अनुमति का उल्लेख था। यदि अरजिस्ट्रीकृत पट्टा विलेख में नवीकरण हेतु कोई शर्त थी तो वह भी अमान्य होगी क्योंकि रजिस्ट्रेशन एक्ट की धारा 17 (1) (घ) के अन्तरित रजिस्ट्रीकृत दस्तावेज आवश्यक है साक्ष्य के रूप में स्वीकार किए जाने हेतु।

    एक प्रकरण में एक मकान मालिक ने अपने एक आवासीय परिसर को पट्टेदार से खाली कराने हेतु प्रक्रिया प्रारम्भ किया। उक्त परिसर मकान मालिक एक आभूषण की दुकान खोलने हेतु चाहता था। इस प्रयोजन हेतु उसने दुकान चलाने के अपने अनुभव, वित्तीय सामर्थ्य तथा उक्त कारोबार को प्रारम्भ करने हेतु अपनी इच्छाशक्ति को साबित किया। उच्चतम न्यायालय ने सुस्पष्ट किया कि वादी का मकान खाली कराने हेतु प्रयोजन अस्पष्ट था, अतः यह साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य नहीं है तथा मकान खाली करने हेतु आदेश पारित नहीं हो सकेगा।

    स्थावर सम्पत्ति के पट्टे का पर्यवसान निम्नलिखित में से किसी भी एक के द्वारा हो सकेगा-

    (1) समय बीतने से। {धारा 111 (क)}

    (2) विनिर्दिष्ट घटना के घटने से। {धारा 111 (ख)}

    (3) पट्टाकर्ता के हित की समाप्ति से। {धारा 111 (ग)}

    (4) विलयन से। {धारा 111 (घ)}

    (5) अभिव्यक्त समर्पण से। {धारा 111 (ङ)}

    (6) विवक्षित समर्पण से। {धारा 111 (च)}

    (7) जब्ती से। {धारा 111 (छ)}

    (8) छोड़ने की सूचना से। {धारा 111 (ज)}

    (1) समय बीतने या समय की समाप्ति से [धारा 111(क)] -

    स्थावर सम्पत्ति के पट्टों में समय या कालावधि का महत्वपूर्ण स्थान है। इसके अनुसार ही पट्टे को अवधि, विस्तार, प्रारम्भ को तिथि एवं परिसम्पत्ति की तिथि इत्यादि का निश्चय होता है। यदि पट्टा विलेख में पट्टा की अवधि का विवरण स्पष्ट नहीं है तो उसका निर्धारण पक्षकारों की संविदा के आधार पर होगा, निर्धारित अवधि के लिए किया गया पट्टा अवधि की समाप्ति के साथ ही साथ समाप्त हो जाता है जब तक कि उनका नवीकरण न हो जाए।

    नवीकरण अभिव्यक्त या विवक्षित संविदा के आधार पर हो सकेगा। यदि पट्टा विलेख में ही नवीकरण के उपबन्ध हैं तो पट्टा निर्धारित अवधि के समाप्त होने के बाद भी जारी रहता है या चालू रहता है। यदि पट्टेदार पट्टा अवधि के समापन के पश्चात् भी सम्पत्ति पर काबिज रहता है एवं किराया देने का प्रस्ताव करता है या उसको निविदा करता है तो ऐसा पट्टा इच्छा जनित या यथेच्छ पट्टा हो सकेगा या मर्पणजात पट्टा।

    यदि निर्धारित अवधि का पट्टा समय व्यतीत होने से समाप्त हो रहा है तो इसके अवसान के लिए किसी सूचना की आवश्यकता नहीं होगी। पर यदि पट्टाकर्ता चाहे तो वह नोटिस दे सकेगा। पट्टे के समापन की अन्तिम तिथि को पट्टाकर्ता स्वयं या उसके द्वारा प्राधिकृत कोई अन्य व्यक्ति बिना सूचना के भी सम्पत्ति में प्रवेश कर सकेगा पर यह आवश्यक है कि धारा 116 सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के अन्तर्गत पट्टेदार पट्टा सम्पत्ति का अतिधारण न कर रहा हो। धारा 111 (क) को धारा 116 के साथ पढ़ा जाना चाहिए।

    यदि पट्टाकर्ता ऐसी स्थिति में नोटिस देता है और वह नोटिस त्रुटिपूर्ण है तो भी पट्टाकर्ता सम्पत्ति पाने का अधिकारी होगा। नोटिस के त्रुटिपूर्ण होने मात्र से पट्टाकर्ता का सम्पत्ति का कब्जा पाने का अधिकार समाप्त नहीं हो जाता और न ही उसे वंचित किया जा सकेगा सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने के अधिकार से।

    यदि पट्टे का अवसान पट्टा की अवधि के समाप्त होने के कारण हो रहा है तो पट्टेदार का यह कर्तव्य होगा कि वह पट्टाकर्ता को संदत्त कर दे या उसके प्राधिकारी को पट्टेदार अपने कब्जे को बनाये रखने के लिए धारा 114, सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के अन्तर्गत उपचार की माँग नहीं कर सकेगा। साधारणतया निर्धारित अवधि का पट्टा समय के अवसान के साथ ही समाप्त होता है।

    समय के अवसान से पूर्व बेदखली एवं कब्जा हेतु वाद संस्थित करना काल पूर्व या असामाजिक होगा। फिर भी वाद को रद्द नहीं किया जा सकेगा। परन्तु इसके आधार पर पट्टाकर्ता के अधिकार की उद्घोषणा हो सकेगी तथा पट्टा की अवधि के समापन पर सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने का पट्टाकर्ता का अधिकार और भी अधिक पुख्ता हो जाएगा।

    (2) विनिर्दिष्ट घटना के घटने से - [धारा 111 (ख)]–

    पट्टे के पक्षकारों का यह विकल्प है कि यदि वे चाहें तो पट्टा का अनुबन्धन किसी घटना के घटित होने की शर्त पर आश्रित कर सकते हैं। यदि उल्लिखित घटना घटित हो जाती है तो पट्टे का अवसान हो जाएगा। उदाहरणार्थ क अपनी सम्पत्ति का पट्टा ख को इस शर्त पर करता है कि यदि वह ग से विवाह नहीं करेगा तो पट्टे का अवसान हो जाएगा।

    ख, घ से विवाह कर लेता है। ख के पक्ष में सृजित पट्टा समाप्त हो जाएगा इस खण्ड के अन्तर्गत पट्टे का संव्यवहार किसी भावी घटना पर आधारित रहता है और जैसे ही वह घटना घटित होती है पट्टा का अवसान हो जाता है। यदि पट्टा विलेख में यह उपबन्धित हो कि पट्टा 30 वर्ष की अवधि के लिए सृजित किया जा रहा है यदि पट्टेदार तब तक जीवित रहा। यदि पट्टेदार पट्टा की तिथि से 30 वर्ष तक जीवित रहता है तो पट्टे का अवसान समय की समाप्ति के द्वारा होगा, किन्तु यदि पट्टेदार को मृत्यु पहले ही हो जाती है तो पट्टे का अवसान 30 वर्ष से पूर्व ही हो जाएगा

    यदि पट्टे का सृजन कब्जा बन्धकदार द्वारा किया गया है तो बन्धक के मोचन के साथ ही पट्टे का अवसान हो जाएगा केवल सांविधिक पट्टे को छोड़कर।

    श्रीनाथ के प्रकरण में 99 वर्ष की अवधि के लिए पट्टे का सृजन किया गया था। इस शर्त के साथ कि यदि कम्पनी का स्वेच्छया या अन्यथा विघटन हो जाता है तो पट्टे का पर्यवसान हो जाएगा। कम्पनी का कतिपय कारणों से विघटन हो गया, यह अभिनिर्णीत हुआ कि पट्टे का अवसान नहीं हुआ।

    इसी प्रकार इस शर्त के साथ 40 वर्ष हेतु पट्टा पर सम्पत्ति की दी गयी थी कि पट्टेदार उक्त सम्पत्ति पर नमक के कारोबार के सिवाय कोई अन्य कारोबार नहीं करेगा अन्यथा पट्टा का अवसान हो जाएगा। यह अभिनिर्णीत हुआ कि खण्ड (ख) के अन्तर्गत पट्टा समाप्त नहीं होगा।

    यदि एक मालिक ने अपने सेवक को इस शर्त के साथ आवास पट्टे पर दिया है। कि जब तक वह सेवारत रहेगा पट्टा जारी रहेगा। यदि उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है या वह स्वयं नौकरी से त्यागपत्र दे देता है तो पट्टा समाप्त हो जाएगा। इस प्रकार सृजित पट्टा धारा 111 (ख) से आच्छादित होगा।

    इसी प्रकार यदि पट्टा का सृजन करते समय पट्टाकर्ता ने पट्टेदार से यह अपेक्षा की थी कि वह पट्टा सम्पत्ति के सम्बन्ध में एक विशिष्ट स्थिति बनाये रखेगा, जैसे बीमा की रकम अदा करता रहेगा, विभिन्न करों जैसे जलकर, गृहकर का भुगतान करता रहेगा, सम्पत्ति को उसी स्थिति में बनाये रखेगा जिस स्थिति में सम्पत्ति उसे दी जा रही है और यदि पट्टेदार अधिरोपित तर्कों का उल्लंघन करता है तो पट्टे का पर्यवसान हो जाएगा, पट्टा को समाप्त करने के लिए पर्याप्त आधार होगा यदि शर्त के अनुपालन में पट्टेदार विफल रहता है।

    (3) पट्टाकर्ता के हित या शक्ति की समाप्ति से [धारा 111 (ग)]—

    यदि पट्टा सम्पति से पट्टाकर्ता के हित का पर्यवसान किसी घटना से घटित होने पर होता है या उसका व्ययन करने की शक्ति का विस्तार किसी घटना के घटित होने तक ही है, वहाँ ऐसी घटना के घटित होने से। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि यदि पट्टाकर्ता का पट्टा सम्पत्ति में हित सीमित है तो पट्टाकर्ता के हित के समाप्त होने पर पट्टा का अवसान हो जाएगा।

    यदि पट्टा के सृजन हेतु पति से संव्यवहार किया था तथा पट्टा उसके नाम में किया गया था और कुछ समय पश्चात् पट्टेदार पट्टाधृति पट्टाकर्ता को वापस कर देता है तो पट्टेदार की पत्नी उस सम्पत्ति पर पट्टेदार के रूप में विद्यमान नहीं रह सकेगी। पट्टाधृति पर उसकी उपस्थिति अतिचारी के तुल्य होगी।

    यदि कोई किसी सम्पत्ति का प्रबन्ध पदेन कर रहा है और इस हैसियत से वह सम्पत्ति को पट्टे पर देता है तो वह पट्टा केवल इसलिए समाप्त नहीं होगा कि उसकी पट्टाकर्ता हैसियत एवं अधिकार जो प्रबन्धक के रूप में उसे प्राप्त थे, समाप्त हो गये थे। यदि प्रबन्धक ने सम्यक् रूप में पट्टा का सृजन किया है तो पट्टा उस अवधि तक जारी रहेगा जिसके लिए उसका सृजन हुआ है।

    प्रबन्धक पट्टाकर्ता के हटने से पट्टा पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। बन्धक का मोचन किए जाने के उपरान्त बन्धकी के पट्टेदार को पट्टा सम्पत्ति में बने रहने का अधिकार नहीं है, क्योंकि उसका पट्टाकर्ता सीमित हित धारक था और उसका हित पट्टा सम्पत्ति से समाप्त हो चुका है।

    (4) विलयन [ धारा 111 (घ) ] -

    इस खण्ड के अनुसार उस दशा में, जबकि उस सम्पूर्ण सम्पत्ति में पट्टेदार एवं पट्टाकर्ता के हित एक ही व्यक्ति में एक ही समय एक ही अधिकार के नाते निहित हो जाते हैं, तो पट्टे का अवसान हो जाता है।

    इस खण्ड की विवेचना करने पर प्रतीत होता है कि यह प्रकल्पित करता है कि :-

    (1) पट्टेदार एवं पट्टाकर्ता का हित मिल जाए:

    (2) सम्पूर्ण सम्पत्ति के सम्बन्ध में;

    (3) एक ही समय में

    (4) एक ही व्यक्ति में तथा

    (5) एक ही अधिकार के नाते।

    यह आवश्यक है इस सिद्धान्त के प्रवर्तन के लिए कि पट्टाकर्ता एवं पट्टेदार के सम्पूर्ण हितों का आपस में विलयन हो जाए अर्थात् पट्टेदार का लघु हित पट्टाकर्ता के विशाल हित में डूब जाए। उच्चतम न्यायालय ने विलयन के प्रयोजनार्थ पूर्व में दिए गये निम्नलिखित निर्णयों को अनुमोदित किया है।

    विलयन का सिद्धान्त जिसे इस खण्ड में सांविधिक हैसियत दी गयी है इसी अधिनियम की धारा 109 के साथ पढ़ा जाना चाहिए अकेले नहीं इस खण्ड के अन्तर्गत तब विलयन होगा जबकि सम्पूर्ण पट्टा सम्पत्ति में पट्टेदार एवं पट्टाकर्ता के हित एक ही व्यक्ति में एक ही समय एक ही अधिकार के नाते निहित हो जाते हैं।

    अतः यदि पट्टेदार आसन्न उत्तरभोग के अधिकार प्राप्त कर लेता है पट्टाकर्ता से तथा कोई मध्यवर्ती नहीं होता है तो दोनों हित पट्टेदार में निहित माने जायेंगे और यह विलयन की प्रक्रिया होगी। विलयन एक इच्छा का प्रश्न है तथा परिस्थितियों पर निर्भर करता है तथा न्यायालय विलयन के विरुद्ध अवधारणा करेगा जब यह एक पक्षकार के विरुद्ध प्रभावी हो रहा हो।

    विलयन को साधारणतया परिभाषित किया जाता है एक कम महत्व को वस्तु का अधिक महत्व या बड़ी वस्तु में समाहित हो जाना जिससे कम महत्व को वस्तु तो समाप्त हो जाती है, परन्तु अधिक महत्व की वस्तु में कोई वृद्धि नहीं होती है और यह कहा जाता है कि दोनों हितों का विलयन हो गया है।

    जगत चंदर के प्रकरण में विलयन के अन्तर्निहित सिद्धान्तों को स्पष्ट करते हुए कहा था कि-

    विधि में विलयन परिभाषित हैं एक ऐसी स्थिति के रूप में जहाँ दिर्घ सम्पदा एवं लघु सम्पदा का एकाकार हो जाता है तथा एक ही व्यक्ति में एक ही समय, एक हो अधिकार के नाते बिना किसी मध्यवर्ती सम्पदा के निहित हो जाते हैं। लघु सम्पदा का तुरन्त उन्मूलन हो जाता है या विधि के रूप में यदि कहा जाए तो "विलीन हो जाना" कहा जाएगा। अर्थात् डूब जाना या निमग्न हो जाना।

    अतः यदि कोई व्यक्ति वर्षों से पट्टेदार है तथा सम्पत्ति का उत्तर भोग उस पर अवरोहित हो जाता है या उसके द्वारा क्रय कर लिया जाता है तो कालावधि का उत्तराधिकार में विलयन हो जाएगा।

    साम्या में भी निर्णय वही है जो विधि में है। इस संशोधन के साथ कि विधि में यह अपरिवर्तनीय एवं अनन्य है जबकि साम्या में यह विनियंत्रित को जाती हैं। उस पक्षकार की अभिव्यक्त या विवक्षित मंशा से जिसमें हित या सम्पदा एकीकृत होती है। विलयन इसी सिद्धान्त पर आधारित है कि दो सम्पदाएँ एक वृहत्तर तथा दूसरी लघु न तो एक साथ विद्यमान रह सकती है और न ही उन्हें एक साथ रहना चाहिए। यदि बड़ा हित में लघु सम्पदा साम्या में एवं यथावत विधि में एक साथ डूब जाये अथवा निमग्न हो जाए।

    इस खण्ड में उल्लिखित विलयन का सिद्धान्त वहाँ भी समान रूप में लागू होता है जहाँ विलयन विधि के प्रवर्तन द्वारा होता है।

    विलयन के लिए यह आवश्यक है कि पट्टेदार एवं पट्टाकर्ता के हित एक हो व्यक्ति में, एक ही समय, एक हो अधिकार के नाते निहित हो जाएं। जहाँ पट्टाकर्ता, पट्टेदार का हित क्रय कर लेता है तो पट्टे का समापन हो जाता है क्योंकि पट्टाकर्ता एवं पट्टे का एक हो व्यक्ति एक ही समय में दोनों नहीं हो सकता है किन्तु यदि अनेक पट्टेदारों में से एक पट्टाकर्ता के हित का केवल एक भाग क्रय करता है, तो पट्टे का पर्यवसान नहीं होगा।

    यदि एक संयुक्त परिवार द्वारा एक ही भूमि में दो हित अलग-अलग व्यक्तियों के नाम में धारित किए जा रहे हैं तो यह एक सारवान् स्थिति होगी यह साबित करने में कि पक्षकारों की मंशा दोनों हितों को पृथक्-पृथक् रखने को थी। पट्टाकतां द्वारा पट्टेदार के पक्ष में विक्रय हेतु करार सम्पत्ति में कोई हित सृजित नहीं करता है अतः धारा 111 (घ) के अन्तर्गत पट्टेदारी एवं स्वामित्व का विलयन नहीं होगा।

    (5) अभिव्यक्त अभ्यर्पण [ धारा 111 (ङ) ] -

    अभिव्यक्त अभ्यर्पण द्वारा अर्थात् उस दशा में जबकि पट्टेदार के अधीन अपना हित पारस्परिक करार द्वारा पट्टाकर्ता के प्रति छोड़ देता है, पट्टे का अवसान हो जाता है। एक वैध एवं आबद्धकारी अभ्यर्पण के लिए पट्टा सदैव आवश्यक नहीं है कि पट्टेदार पट्टा सम्पत्ति का कब्जा पट्टाकर्ता को सौंपे।

    कमला बाई बनाम मांगीलाल के वाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा किए गए अभिप्रेक्षण से यह सुस्पष्ट है जो इस प्रकार है:

    'अतः यह स्पष्ट है कि जब पक्षकार पट्टेदारों का अभ्यर्पण करता है तथा उसे एक नवीन व्यवस्था से प्रतिस्थापित करता है तो केवल इसलिए क्योंकि सम्पत्ति का भौतिक कब्जा नहीं सौंपा गया था पट्टे का पर्यवसान नहीं होगा, महत्वपूर्ण नहीं है। प्रकटत वर्तमान प्रकरण में आपसी करार के द्वारा भी पट्टेदारी का समापन हुआ था, तथा पंचाट द्वारा जो कुछ करने का प्रयत्न किया गया वह मात्र एक व्यवस्था की धारण एवं उपभोग हेतु क्षतिपूर्ति के भुगतान के लिए।

    अतः न तो पुरानो पट्टेदारी जारी रहो और न ही नवीन पट्टेदारी का सृजन हुआ। नवीन व्यवस्था का यह प्रतिस्थापन तथा पुरातन का पर्यवसान स्पष्टतः प्रकट करता है कि पट्टेदार ने अपने पट्टाधिकार का अभ्यर्पण कर दिया है। सम्पत्ति का भौतिक कब्जा प्रदान नहीं किया गया है इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकेगा कि अभ्यर्पण द्वारा पट्टे का अवसान नहीं हुआ।

    पट्टा सम्पत्ति का भौतिक कब्जा पट्टेदार द्वारा वापस पट्टाकर्ता पर आसन्न उत्तरभोगी हित धारक को दिया जाता है या नहीं दोनों ही परिस्थितियों में पट्टेदार का हित पट्टा सम्पत्ति से समाप्त हो जाता है। पट्टाकर्ता द्वारा पट्टेदार के कृत्य की स्वीकारोक्ति का वही प्रभाव होता है जो आपसी सहमति से संविदा का होता है।

    अतः पट्टेदार तब तक अभ्यर्पण नहीं कर सकेगा जब तक कि सम्पत्ति में हित उसमें निहित न हो तथा अभ्यर्पण उस व्यक्ति को न हो जिसमें उत्तरभोगी हित निहित हो। पट्टा सम्पत्ति के कब्जे की स्वीकारोक्ति हो, कब्जे का भौतिक रूप में ग्रहण आवश्यक नहीं है, सांकेतिक कब्जे की स्वीकारोक्ति भी पर्याप्त है। यह स्थिति अस्तित्व में आयी या नहीं यह एक तथ्य विषयक प्रश्न है।

    यह खण्ड केवल उन पट्टे के मामले में प्रवर्तित होगा जो अभ्यर्पण की कोटि में आते हैं। यदि एक पट्टे का सृजन एक निश्चित कालावधि के लिए हुआ है तथा पट्टा विलेख में स्पष्टतः प्रतिषेधित करते हुए यह उल्लिखित हैं कि पट्टेदार पट्टा अवधि के समापन से पूर्व उसका अभ्यर्पण नहीं कर सकेगा, तो ऐसी स्थिति में पट्टे का पर्यवसान इस प्रक्रिया द्वारा नहीं हो सकेगा।

    अभ्यर्पण के मामले में संव्यवहार के सार एवं तत्व पर ध्यान देना उपयुक्त होता है। औपचारिक पुनः अन्तरण विलेख की आवश्यकता नहीं होती है इसी प्रकार किसी विशिष्ट प्रकार के शब्दों का प्रयोग भी वैध अभ्यर्पण हेतु आवश्यक नहीं होता है। ऐसे में प्रश्न केवल शुद्ध आशय का होता है। अतः यदि पट्टेदार ने एक राजीनामा यदि निम्नलिखित शब्दों में निष्पादित किया

    "वर्तमान समय तक मैं इस भूमि पर खेती कर रहा था पर जमीन इनामदार की है। इस पर मेरा कोई हक नहीं है और इनामदार इसे किसी भी व्यक्ति को जिस पर वह प्रसन्न हो, खेतो के लिए दे सकेगा।"

    इसे एक वैध अभ्यर्पण माना गया। किन्तु कई वर्षों से किराया का भुगतान न करने मात्र से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकेगा कि समर्पण के आशय के अभाव में पट्टे का अभ्यर्पण हो गया है। इसी प्रकार यदि पट्टे पर दिया गया भवन मरम्मत के बिना विनष्ट हो रहा हो तथा उसका पुनर्निर्माण न हो रहा हो तो यह निश्चयतः इस बात का सबूत नहीं है कि पट्टेदार का आशय उक्त भवन का परित्याग करना है।

    यदि सरकार भूमि अधिग्रहण आदेश के अन्तर्गत सम्पत्ति का कब्जा ले लेती है और यह कब्जा पट्टाकर्ता एवं पट्टेदार दोनों से ले लिया जाता है तो यह अधिग्रहण अभ्यर्पण नहीं होगा। इससे पट्टे का पर्यवसान नहीं होगा। अभ्यर्पण में पट्टाकर्ता एवं पट्टेदार दोनों का इसके लिए सहमत होना आवश्यक होता है तथा पट्टेदार का पट्टा सम्पत्ति में हित पट्टाकर्ता को प्राप्त होता है एवं पट्टाकर्ता का उक्त सम्पत्ति में हित परिपूर्ण हो जाता है।

    यदि पट्टेदार ने पट्टाकर्ता को इस आशय की नोटिस दे दी हो कि अमुक तिथि को वह पट्टा सम्पत्ति पट्टाकर्ता को सौंप देगा पर पट्टाकर्ता उक्त तिथि के बाद भी पट्टेदार को सम्पत्ति में बने रहने देता है, सम्पत्ति का कब्जा नहीं लेता है, तो यह निष्कर्ष निकाला जाएगा कि मूल पट्टा विद्यमान है, वह समाप्त नहीं हुआ है।"

    एक वैध अभ्यर्पण तभी अस्तित्व में आएगा जबकि अभ्यर्पण पट्टाकर्ता एवं पट्टेदार की आपसी सहमति से हो। यदि पट्टेदार अभ्यर्पण की सूचना पट्टाकर्ता को देता है एवं पट्टाकर्ता उस नोटिस को चुपचाप रख लेता है तो यह नहीं माना जाएगा कि पट्टाकर्ता ने अभ्यर्पण हेतु अपनी सहमति दे दी।

    अभ्यर्पण सामान्यतया पट्टाकर्ता के हो पक्ष में होता है किन्तु यदि पट्टा कर्ता ने पट्टा सम्पत्ति का बन्धक कर दिया है साथ ही साथ बन्धकदार को उक्त सम्पत्ति का किराया वसूलने का भी अधिकार अन्तरित कर दिया है एवं पट्टेदार, पट्टा सम्पत्ति पट्टाकर्ता को संदत करता है तो यह अभ्यर्पण वैध नहीं होगा यदि पट्टाकर्ता के पक्ष में अन्तरित करने हेतु बन्धकदार से सहमति नहीं ली गयी है।

    पट्टेदार, बन्धकदार को सम्पत्ति का किराया अदा करने के दायित्वाधीन होगा यदि सम्पत्ति का पट्टा संयुक्त पट्टेदारों के पक्ष में हुआ है तो अभ्यर्पण तभी वैध होगा जब सम्पूर्ण पट्टा सम्पत्ति का सभी संयुक्त पट्टेदारों द्वारा अभ्यर्पण किया गया हो। यद्यपि एक अन्य बाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने प्रतिकूल मत अभिव्यक्त किया है।

    न्यायालय के अनुसार केवल पट्टेदार भी अपने हित का अभ्य कर सकेगा और ऐसा होने पर पट्टाकर्ता उस हिस्से के विभाजन की मांग कर सकेगा कभी-कभी यह भी प्रश्न उठता है कि क्या पट्टेदार पट्टा सम्पत्ति के एक भाग का अभ्यर्पण कर किराये में कमी की मांग कर सकेगा।

    ए० एस० वेंकटास्वामी बनाम एस० राजन के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय में अभिनिर्णीत किया है कि पट्टेदार पट्टा सम्पत्ति के एक अंश का अभ्यर्पण कर, पट्टेदार बना रहे तथा किराया में कमी की मांग करे।

    (6) विवक्षित अभ्यर्पण द्वारा [ धारा 111 (च)] -

    यदि पट्टेदार का पट्टा सम्पत्ति में हित विधि के प्रवर्तन द्वारा समाप्त होता है तथा सम्पत्ति पट्टेदार से वापस ले ली जाती है तो यह स्थिति विवक्षित अभ्यर्पण का परिचायक होगी। विधि के प्रवर्तन से नवीन पट्टे का सृजन हो सकेगा पट्टेदार को पट्टा सम्पत्ति में अपना पट्टा पट्टाकर्ता को वापस करना होगा। यदि पट्टाकतां पट्टा सम्म का नवीन पट्टा भी उसी पढ़ेदार के पक्ष में करता है तो भी पूर्ववत पट्टा का विवक्षित समर्पण हुआ माना जाएगा।

    यदि पट्टेदार पट्टा सम्पत्ति का त्याग कर देता है तथा पट्टाकर्ता उसका कब्जा से लेता है। तो भी विवक्षित अभ्यर्पण माना जाएगा। विवक्षित समर्पण का निष्कर्ष पक्षकारों के आचरण से भी निकाला जा सकेगा।

    पट्टे का समापन धारा 111 (च) के अन्तर्गत विवक्षित अभ्यर्पण द्वारा होता है। विवक्षित अभ्यर्पण मामले के तथ्यों के आधार पर सुनिश्चित किया जा सकता है। इसके लिए सम्पत्ति का कब्जा प्रदत्त होना आवश्यक नहीं है।

    पट्टे के विवक्षित अभ्यर्पण को विनियमित करने वाला सिद्धान्त यह है कि जब एक विषयवस्तु के सम्बन्ध में दो पक्षकारों के बीच कोई सम्बन्ध होता है तथा उसी विषयवस्तु को लेकर एक सम्बन्ध स्थापित होता है और दोनों सम्बन्ध एक साथ अस्तित्व में नहीं रह सकते हैं, क्योंकि दोनों सम्बन्ध परस्पर विरोधी एवं असंगत होते हैं तो पाश्चिक सम्बन्ध को प्रभावी बनाने हेतु यह माना जाएगा कि पूर्ववर्ती सम्बन्ध समाप्त हो गया है।

    पूर्व पट्टे की निरन्तरता के दौरान नवीन पट्टे को संस्वीकृति पूर्व पट्टे के विवक्षित अभ्यर्पण के तुल्य है।

    इसके कारण के सम्बन्ध में पार्क बी० नेलियोस बनाम रोड के वाफ में इस प्रकार अपना मत अभिव्यक्त किया था कि :-

    "यदि एक अवधि का पट्टेदार अपने पट्टेदार से एक नया पट्टा स्वीकार करता है तो उसे यह कहने से रोक दिया जाएगा कि उसके पट्टाकर्ता को नवीन पट्टा सृजित करने का अधिकार नहीं था चूंकि पट्टाकर्ता तब तक ऐसा नहीं कर सकता था जब तक कि पूर्वक पट्टे का अभ्यर्पण न हुआ हो, तो विधि के अनुसार नवीन पट्टे की संस्वीकृति, अपने आप में ही पूर्विक पट्टे का अभ्यर्पण होगा।"

    पूर्ववर्ती सम्बन्ध में केवल परिवर्तन, सुधार अथवा पूर्व सम्बन्ध का नष्ट किया जाना भी स्वयमेव विवक्षित अभ्यर्पण नहीं होगा। इसका निर्धारण नवीन सम्बन्ध की शर्तों से किया जाएगा। पुराने सम्बन्ध के सापेक्ष और तब निष्कर्ष निकाला जाएगा कि पुराना सम्बन्ध विवक्षा द्वारा समाप्त हो गया।

    यदि पट्टाकर्ता पट्टा सम्पत्ति का पुनः पट्टा एक अन्य व्यक्ति के पक्ष में पट्टेदार की सहमति से कर देता है तथा पट्टेदार को निर्देश देता है कि वह सम्पत्ति का कब्जा नवीन पट्टेदार को सौंप दे या अपने उप-पट्टेदारों से कह दे कि ये किराया का भुगतान सीधे पट्टाकर्ता को करें तो यह निष्कर्ष निकाला जाएगा कि पूर्ववर्ती पट्टा का विवक्षित अभ्यर्पण द्वारा अवसान हो गया है।

    टी० के० लठिका बनाम सेठ कर्सनदास के वाद में एक पिता ने अपनी पट्टाजनित सम्पत्ति अपनी ही पुत्री के पक्ष में दान द्वारा अन्तरित कर किया। पुत्री तथा पट्टेदार के बीच एक नया करार हुआ जिसके आधार पर किरायेदार ने किराये में वृद्धि करने का वचन दिया। पुत्री ने दान को तिथि से एक वर्ष के अधिस्थगन कर्ता को प्रतीक्षा किए बिना उक्त भूमि पर निर्माण कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। प्रश्न यह था कि क्या सम्पत्ति विवक्षित अभ्यर्पण द्वारा पुत्री की हो गयी है जिससे वह उस पर निर्माण कार्य करा सके।

    तथ्यों का अवलोकन करने के उपरान्त न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया जो उचित हैं, इस मामले में विवक्षित अभ्यर्पण नहीं है क्योंकि जिन परिस्थितियों के आधार पर विवक्षित अभ्यर्पण का अनुमान लगाया जा रहा है अर्थात् सम्पत्ति का पूर्व में स्वामी कोई और था तथा वर्तमान में कोई और है एवं पूर्व में किराया कम था वर्तमान में किराये में वृद्धि हुई हैं, वे ऐसा निष्कर्ष निकालने पर्याप्त नहीं हैं।

    यदि पट्टा सम्पत्ति के एक अंश मात्र का समर्पण किया गया है तो इसके आधार पर यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाएगा कि सम्पूर्ण पट्टेदारी का विवक्षित समर्पण हो गया है। कृष्ण कुमार बनाम ग्रिन्डलोज बैंक के बाद में पढ़ेदारों ने चार फ्लैट किराये पर लिए थे। उसमें से दो का उन्होंने बाद में अभ्यर्पण कर दिया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि इन दो फ्लैटों के अभ्यर्पण से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जाएगा कि पूर्ववर्ती पट्टेदारी समाप्त हो गयी है और इससे नवीन पट्टेदारी का भी सृजन नहीं हुआ है।

    इन्द्रा शर्मा बनाम गोपाल दास के मामले में पट्टेदार की मृत्यु के उपरान्त उसका टेनेन्सी अधिकार उसके उत्तराधिकारियों को मिला जिन्होंने उक्त अधिकार को सहस्वामी के रूप में धारण किया न कि संयुक्त स्वामी के रूप में अभिधार प्रपत्र में कतिपय उत्तराधिकारियों के नामों का उल्लेख भी नहीं हुआ था और न ही उन लोगों ने इस बात पर जोर दिया कि उनका नाम अभिधार प्रपत्र में सम्मिलित किया जाना चाहिए।

    अभिधार प्रपत्र के विषय में यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकेगा कि उक्त उत्तराधिकारियों का अधिकार समाप्त हो गया है और न ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकेगा कि उनका हित विवक्षित रूप में अभ्यर्पित हो गया है।

    पट्टे के विवक्षित अभ्यर्पण के लिए आवश्यक है कि पट्टेदार का हित पट्टा सम्पत्ति से विधि के प्रवर्तन द्वारा अथवा नवीन पट्टे के सृजन द्वारा समाप्त हो गया हो क्योंकि पूर्विक पट्टा एवं पाश्चिक

    पट्टा एक साथ नहीं रह सकते हैं। अतः यह निष्कर्ष निकाला जाएगा कि पूर्व पट्टे का विवक्षित अभ्यर्पण गया है।

    अतः यदि नवीन पट्टे के सृजन के साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं तो यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकेगा कि मूल पट्टे का विवक्षित अभ्यर्पण हो गया है। मधुबाला बनाम बुधिया के बाद में मृतक पट्टेदार का कोई भी उत्तराधिकारी न्यायालय में अपने पट्टेदारी अधिकार को जताने के लिए उपस्थित नहीं हुआ।

    उत्तराधिकारियों के आवास का भी पट्टाकर्ता द्वारा विशिष्ट उल्लेख नहीं हुआ था और न ही कथित उत्तराधिकारियों में से कोई भी पट्टा सम्पत्ति पर निवास कर रहा था तथा किसी ने भी उक्त सम्पत्ति का किराया भी नहीं अदा किया था। प्रश्न यह था कि क्या उक्त स्थिति, विवक्षित अभ्यर्पण के तुल्य है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि उक्त स्थिति विवक्षित अभ्यर्पण के तुल्य है।

    विवक्षित अभ्यर्पण में यह आवश्यक है कि पट्टेदार पट्टा सम्पत्ति में अपना हित पट्टाकर्ता को सौंप दे तथा पट्टाकर्ता उक्त सम्पत्ति का कब्जा स्वीकार कर ले, धारण कर ले अथवा ग्रहण कर ले। 3 पट्टा की शर्तों में लघु संशोधन विवक्षित अभ्यर्पण का प्रतीक नहीं है जैसे देय किराया आरक्षित करना या किसी अन्य व्यक्ति को देना इत्यादि। इसी प्रकार किराये में वृद्धि से भी विवक्षित समर्पण का सृजन नहीं होगा। किन्तु यदि कोई विशिष्ट परिस्थिति विद्यमान हो जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि नवीन पट्टा अस्तित्व में आ गया है, तो पट्टे का विवक्षित अभ्यर्पण माना जाएगा।

    7. समपहरण द्वारा [ धारा 111 (छ) ] - यह खण्ड उपवन्धित करता है कि -

    समपहरण द्वारा अत्यंत वृहद आधार है। इस आधार पर पट्टे का पर्यवसान इस धारा का अत्यंत महत्वपूर्ण आधार है। इससे संबंधित विषय महत्वपूर्ण और बड़ा है इसलिए इस खंड पर विस्तार से व्याख्या इससे ठीक अगले आलेख भाग 41 में प्रस्तुत की जा रही है।

    (8) छोड़ देने की सूचना [ धारा 111 (ज) ] -

    इस खण्ड के अनुसार पट्टे का करने या पट्टे पर दी गयी सम्पत्ति को छोड़ देने या छोड़ देने के आशय को एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार को सम्यक् रूप से दी गयी सूचना के अवसान पर पट्टे का पर्यवसान हो सकेगा। पट्टे के पर्यवसान का यह सबसे उत्तम तरीका है।

    नोटिस द्वारा पट्टे का पर्यवसान निम्नलिखित परिस्थितियों में सम्भव है-

    (i) मियादी पट्टे:-

    (ii) शाश्वत पट्टे:-

    (iii) वर्षानुवर्षी पट्टे:-

    (iv) मासानुमासी पट्टे:-

    सूचना की अवधि के समापन के साथ ही साथ यदि पट्टेदार सम्पत्ति का कब्जा पट्टाकर्ता को संदत्त नहीं करता है तो उसके विरुद्ध पट्टाकर्ता बेदखली का वाद चला सकेगा।

    निम्नलिखित परिस्थितियों में नोटिस की फोई आवश्यकता नहीं होगी-

    (i) निश्चित अवधि के पट्टे।

    (ii) समनुजाभोगी विवक्षित पट्टे।

    (iii) इच्छा आभोगी पट्टे ।

    सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 106 उपबन्धित करती है कि अनधिक पट्टाँ अर्थात् वर्षानुवर्षी एवं मासानुमासी पट्टों की समाप्ति के लिए सूचना आवश्यक है। जहाँ अवधि निश्चित है तो कोई सूचना अपेक्षित नहीं है क्योंकि ऐसे पट्टे धारा 111 (क) के अन्तर्गत अवधि की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाते हैं।

    स्थायी पट्टों का अन्तरण नहीं होता है अतः नोटिस को कोई उपादेयता ऐसे मामलों में नहीं होती है। वर्षानुवर्षी पट्टे छः मास को सूचना एवं मासानुमासी पट्टे 15 दिन की सूचनोपरान्त समाप्त हो जाते हैं।

    यदि छोड़ देने हेतु नोटिस धारा 111 (ज) के अन्तर्गत दे दी गयी हैं तो धारा 111 (छ) के अन्तर्गत नोटिस का दिया जाना समपहरण के आधार पर आवश्यक नहीं होगा। पर यदि पट्टाकर्ता अपेक्षित नोटिस की तामील धारा 111 (छ) सपठित धारा 114 (क) के अन्तर्गत नहीं करता है तो पट्टे का पर्यवसान नहीं होगा, अपितु पट्टा जारी रहेगा।

    अर्जुन लाल बनाम गिरीश चन्द्र के प्रकरण में पट्टाकर्ता भूस्वामी एवं पट्टेदार के बीच पट्टा सम्पत्ति को पट्टेदार के पक्ष में विक्रय करने हेतु करार इस शर्त पर हुआ कि पट्टेदार विक्रय रकम का भुगतान समान किश्तों में करेगा और यदि वह भुगतान करने में विफल रहता है तो करार निरस्त हो जाएगा। पट्टेदार ने जहां तक कि प्रथम किश्त का भी भुगतान नहीं किया।

    अतः पट्टाकर्ता ने एक मास की नोटिस दिए बिना ही पट्टा सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने हेतु वाद संस्थित कर दिया। पट्टा अभिनिर्णीत हुआ कि करार के निरस्त होने के उपरान्त यह नहीं कहा जा सकेगा कि पट्टेदार अपीलार्थी अपनी मूल स्थिति पर पुनः वापस लौटा अर्थात् वह पट्टेदार बना रहा। अतः पट्टाकर्ता सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के अन्तर्गत ही नोटिस दिए बिना उसकी बेदखली हेतु वाद संस्थित कर सकेगा।

    एक अन्य प्रकरण में एक शेड पट्टे पर दिया गया पर शेड के नीचे की भूमि पट्टे पर नहीं दी गयी। कुछ समय के उपयोग के पश्चात् शेड नष्ट हो गया तथा पट्टेदार ने उसका पुनः निर्माण करा कर उपयोग करने लगा। इस प्रकार के प्रकरण में नोटिस को तामील करना अपेक्षित नहीं है क्योंकि पट्टा की विषय वस्तु नष्ट हो चुकी थी और उसी के साथ ही पट्टे का भी पर्यवसान हो गया था।

    वाद संस्थित करने का पट्टाकर्ता का अधिकार-

    यह अधिकार पट्टाकर्ता का एक महत्वपूर्ण अधिकार है। पट्टेदार को बेदखल करने के लिए पट्टाकर्ता विधि के अनुसार प्राधिकृत है। यह भी वाद संस्थित करने के लिए प्राधिकृत होगा जबकि उसने पट्टेदार के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की थी जब वह उसके संज्ञान में पट्टा सम्पत्ति पर अनधिकृत निर्माण किया। अनधिकृत निर्माण के दौरान मौन रहना या सक्रिय कार्य न करना, पट्टेदार को बेदखल करने हेतु वाद संस्थित करने के उसके अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता है। पट्टाकर्ता का यह कृत्य उसके विरुद्ध (पट्टाकर्ता के) विबन्धन के रूप में प्रभावी नहीं होगा।

    Next Story