संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 33: संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत भार क्या होता है (धारा 100)

Shadab Salim

20 Aug 2021 5:23 AM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 33: संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत भार क्या होता है (धारा 100)

    संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 100 भार की परिभाषा प्रस्तुत करती है भार और बंधक में अंतर होता है। भार का संबंध किसी संपत्ति के ऋण से होता है। जब कभी किसी संपत्ति पर कोई ऋण होता है तब कुछ संपत्ति को भार रखने वाली संपत्ति कहा जाता है तथा ऐसी परिस्थिति में संपत्ति का अंतरण नहीं किया जा सकता है।

    यह धारा इसी प्रकार के भार का प्रावधान करती हैं तथा संबंधित नियमों को प्रस्तुत करती है। इस आलेख में धारा 100 से संबंधित नियमों को प्रस्तुत किया गया है और उससे संबंधित न्याय निर्णय भी प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

    भार- (100)

    व्यावहारिक प्रयोजनों के लिए भार को बन्धक की एक प्रजाति माना जाता है फिर भी दोनों के बीच एक महत्वपूर्ण अन्तर है। बन्धक के अन्तर्गत सम्पत्ति का अन्तरण होता है जो मोचनाधिकार के अध्यधीन होता है। इसके विपरीत भार में सम्पत्ति का अन्तरण नहीं होता है। इसमें भारधारक को कथित सम्पत्ति में ऋण के भुगतान के लिए प्रतिभूति के रूप में कतिपय अधिकार प्राप्त होते हैं।

    फिशर ने कहा है-

    "भार एक प्रतिभूति है जिसके द्वारा वास्तविक या वैयक्तित सम्पत्ति विनियोजित की जाती हैं ऋण अथवा अन्य आभारों के उन्मोचन के लिए पर जो हस्तान्तरित नहीं होती है। ऋणदाता को एक आत्यन्तिक अथवा विशिष्ट सम्पत्ति प्रतिभूति को विषयवस्तु में और न ही कब्जा का कोई अधिकार, होता है अपितु ऋण का भुगतान न होने की दशा में न्यायिक प्रक्रिया द्वारा उसकी वसूली का मात्र एक अधिकार।"

    भारत के उच्चतम न्यायालय ने के० मुधुस्वामी गाउण्डर बनाम एन० पलानीयप्पा गाउण्डर के वाद में सुस्पष्ट किया है कि एक उल्लिखित सम्पत्ति में से भुगतान करने के लिए भार एक बन्धन या आधार है।

    धारा 100 उपबन्धित करती है कि जहाँ एक व्यक्ति की अचल सम्पत्ति पक्षकारों के कार्य द्वारा या विधि की क्रिया द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति को धन के संदाय के लिये प्रतिभूति बन जाती है और संव्यवहार बन्धक की कोटि में नहीं आता है वहाँ यह कहा जाता है पश्चात् कथित व्यक्ति का उस सम्पत्ति पर भार है।

    धारा 100 के अनुसार भार के निम्नलिखित तत्व हैं-

    1. एक व्यक्ति की अचल या स्थावर सम्पत्ति दूसरे व्यक्ति के धन के भुगतान के लिए प्रतिभूति हो ।

    2. सम्पत्ति प्रतिभूति हो ।

    (क) पक्षकारों के कृत्य द्वारा या

    (ख) विधि के प्रवर्तन द्वारा।

    3. संव्यवहार बंधक को कोटि में न आता हो।

    1)- प्रतिभूति की विधि - प्रतिभूति के सृजन हेतु शब्दों के किसी विशिष्ट प्रकार का अस्तित्व में लाया जाना आवश्यक नहीं है जो कुछ भी आवश्यक है वह मात्र इतनी है कि ऋण के भुगतान के लिए एक विशिष्ट सम्पत्ति को प्रतिभूति के रूप में देने के लिए सुस्पष्ट आशय अभिव्यक्त होना चाहिए।

    नाथू लाल बनाम दुर्गादास के वाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अभिनिणात किया कि :-

    "भार में, भार के अध्यधीन सम्पत्ति के हित का अन्तरण नहीं होता है एवं परिस्थितियों से उद्भूत होता है कि कतिपय सम्पत्ति चल या स्थावर, या ऐसी सम्पत्ति में कोई हित दर्शित किया जाता है निश्चितता के साथ एक (निधि) फण्ड के रूप में जिसमें से किसी दावे की पूर्ति की जाएगी या उसे सन्तुष्ट किया जाएगा। इस प्रकार दर्शित फण्ड दावे के लिए प्रतिभूति होता है।"

    परन्तु जहाँ सम्पत्ति प्रतिभूति के रूप में आशयित नहीं है वहाँ न तो बन्धक का सृजन होगा और न हो भार का एक अचल सम्पत्ति को असंदिग्ध शर्त के रूप में प्रतिभूति बनाया जाना चाहिए।" इस प्रश्न का उत्तर कि किसी दस्तावेज के फलस्वरूप भार का सृजन हुआ है अथवा नहीं, दस्तावेज में प्रयुक्त शब्दों से परिलक्षित पक्षकारों की मंशा से स्पष्ट होता है कि दस्तावेज में उल्लिखित सम्पत्ति किसी रकम की अदायगी हेतु प्रतिभूति होगी अथवा नहीं।

    यदि दस्तावेज का सम्पूर्ण रूप में अध्ययन करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है एवं सुसंगत खण्ड जिस पर पक्षकार अपने संव्यवहार को आश्रित मानते हैं तो सहज ढंग से यह स्वीकार किया जा सकता है कि भार का सृजन हुआ है। अतः एक दस्तावेज जिसके अध्यधीन कोई धनराशि किसी सम्पत्ति से उद्धृत लाभ में से देय है, तो ऐसे संव्यवहार से भार का सृजन होगा।

    यदि क एक सम्पत्ति का विक्रय ख को करता है और विक्रय विलेख में निम्नलिखित का उल्लेख है-

    "कथित विक्रेता, मुझे 25 रु० वार्षिक मालिकाना, सहमत है, का भुगतान करेगा।" जिसका भुगतान करने के लिए वह इन तथ्यों के आधार पर यह अभिनित हुआ कि इस संव्यवहार में प्रयुक्त शब्द भार का सृजन करने हेतु पर्याप्त हैं।

    नेशनल प्राविंशियल एण्ड यूनियन बैंक ऑफ इंग्लॅण्ड बनाम चार्ली के वाद में न्यायधीश ने कहा था कि :-

    "मैं ऐसा मानता हूँ कि इसमें सन्देह नहीं हो सकता है कि जब मूल्य हेतु एक संव्यवहार में दोनों पक्षकार यह आशय प्रकट करते हैं कि सम्पत्ति, वर्तमान या भावी ऋण के भुगतान के लिए प्रतिभूति के रूप में उपलब्ध करायी जाएगी तो ऐसी स्थिति में भार का सृजन होगा, भले ही वर्तमान विधिक अधिकार जिसकी प्रकल्पना को गयी थी का प्रवर्तन किसी भावी तिथि को ही किया जा सकेगा, और अगर, ऋणदाता को सम्पत्ति पर विधिक अधिकार प्राप्त नहीं होता है, आत्यन्तिक अथवा विशिष्ट या कब्जा हेतु कोई विधिक अधिकार, अपितु न्यायालय के आदेश द्वारा उपलब्ध करायी गयी प्रतिभूति को प्राप्त करने का अधिकार यदि ये शर्तें विद्यमान हैं, तो मैं मानता हूँ कि वहाँ भार है। किन्तु यदि, इसके विपरीत पक्षकारों का आशय यह नहीं है कि उपलब्ध करायी गयी प्रतिभूति को धारण करने का अधिकार हो, अपितु मात्र यह कि भविष्य में एक अधिकार करार द्वारा जैसे अनुज्ञप्ति माल को जब्त करने का अधिकार है, यहाँ पर भार का सृजन नहीं होगा।"

    विल्लंगम सम्पत्ति पर एक भार होता है। फलतः यदि सम्पत्ति के विक्रय हेतु एक करार ज्ञापन तैयार किया जाता है और इस करार ज्ञापन के फलस्वरूप सम्पत्ति पर कोई भार या विल्लंगम अधिरोपित नहीं किया जाता है तो यह भार नहीं होगा।

    इसी प्रकार यदि अग्रिम भुगतान के रूप में एक धनराशि प्राप्त की जाती है तो वह विल्लंगम के तुल्य नहीं होगा, इस लिए भार नहीं होगा भार के सृजन हेतु धारा 100 में उल्लिखित शर्तों का पूर्ण होना आवश्यक है। यदि किसी चल सम्पत्ति के हाइपोथिकेशन (आडमान) पर ऋण दिया गया है तो हाइपोथिकेशन चल सम्पत्ति पर भार होगा, न कि सम्पत्ति का अन्तरण इस पर स्टाम्प लगाया जाना आवश्यक नहीं।

    सम्पत्ति का अन्तरण- धारा 100 के अन्तर्गत सम्पत्ति का अन्तरण से अभिप्रेत है समस्त सम्पत्ति का अन्तरण न कि सम्पत्ति में के किसी स्वत्व का अन्तरण या सम्पत्ति पर किसी हित का अन्तरण जैसे कि बन्धक, पट्टा इत्यादि।

    भार का क्या प्रमाणीकरण अपेक्षित है : सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो भार का सृजन करने वाले विलेख का साक्षियों द्वारा प्रमाणीकरण की अपेक्षा करता हो।

    उच्चतम न्यायालय ने एम० एल० अब्दुल जब्बार साहिब बनाम एम० वी० वेंकट शास्त्री के वाद में यह कहा है कि एक प्रतिभूति बाण्ड का साक्षियों द्वारा प्रमाणीकृत होना अपेक्षित नहीं है। और इसे यदि सम्यक् रूप से पंजीकृत कराया जा चुका है तो यह वैध है एवं प्रवृत्त होगा।

    भावी सम्पत्ति पर भार-

    भार एक ऐसी सम्पत्ति पर भी सृजित किया जा सकता है जो अस्तित्व में भविष्य को किसी तिथि को आयेगी। जब सम्पत्ति अस्तित्व में आ जाएगी तब इसे प्रवर्तित किया जा सकेगा तथा इसे उस भार पर वरीयता प्राप्त होगी जो सम्पत्ति के अस्तित्व में आने की तिथि के पश्चात् सृजित होगा। पूर्ववर्ती सृजित भार तब तक अस्तित्ववान रहेगा जबकि वह निर्वाचित नहीं हो जाता है।

    2)- कौन प्रतिभूति सृजित कर सकता है –

    किसी ऋण के भुगतान के लिए कोई सम्पत्ति प्रतिभूति का रूप लेती है

    (क) पक्षकारों के कृत्य द्वारा अथवा

    (ख) विधि के प्रवर्तन द्वारा।

    (क) पक्षकारों के कृत्य द्वारा प्रतिभूति का सृजन -

    पक्षकारों के कृत्य द्वारा भार के सृजन के लिए किसी तकनीकी या किसी विशिष्ट प्रकार को अभिव्यक्ति की आवश्यकता नहीं होती है। इस निमित जो कुछ भी अपेक्षित है वह मात्र यह है कि धन के भुगतान के लिए एक विशिष्ट सम्पत्ति को प्रतिभूति के रूप में देने का सुस्पष्ट आशय अभिव्यक्त हो।

    यह भी आवश्यक है कि प्रतिभूति प्रवर्तनीय हो चाहे प्रतिभूति की विषयवस्तु स्थावर सम्पत्ति हो या चल सम्पत्ति भार का सृजन साधारणतया समझौता द्वारा या वसीयत द्वारा किया जाता है। भार मौखिक रूप में सृजित किया जा सकेगा।

    किन्तु यदि दस्तावेज के माध्यम से सृजित किया जाता है तो दस्तावेज का पंजीकृत होना आवश्यक होगा। भार के सृजन हेतु पक्षकारों का सक्षम होना उसी प्रकार आवश्यक होगा जिस प्रकार किसी संविदा हेतु उनका सक्षम होना आवश्यक होता है।

    जहाँ सम्पत्ति श्वसुर द्वारा उस समय क्रय की गयी थी जब भार सृजित करने वाले का पति अवयस्क था और इस बात का कोई साक्ष्य नहीं था कि पति ने सम्पत्ति क्रय करने हेतु किसी प्रकार का अंशदान किया था अथवा उस पर निर्माण हेतु किसी प्रकार कोई सहयोग किया था, ऐसो सम्पत्ति पर पत्नी द्वारा भार का सृजन वैध नहीं होगा। पत्नी अपने पति से भरण-पोषण प्राप्त करने हेतु ऐसी सम्पत्ति पर सृजन दावा नहीं कर सकेगी।

    जहाँ विभाजन विलेख में यह सहमति व्यक्त की गयी हो कि सामान्य पारिवारिक ऋण के भुगतान के लिए प्रत्येक अंश धारक आनुपातिक रूप में अभिदाय करेगा और यदि कोई अंश धारक इसमें विफल रहता है तो उसका अंश इस निमित्त दायी होगा, ऐसी व्यवस्था, विफल अंशधारक के अंश पर भार का सृजन करेगी उस अंश धारक के पक्ष में जिसने अपने अंश से अधिक का भुगतान किया है।।

    जिस सम्पत्ति पर भार का सृजन होना है उस सम्पत्ति का अभिनिश्चित होना आवश्यक है। अन्यथा अनिश्चितता के आधार पर भार शून्य होगा।

    पर यदि भार का सृजन न्यायालय की डिक्री द्वारा होता है जो इस प्रकार अभिव्यक्त है "निर्णीत ऋणी की समस्त सम्पत्तियाँ, चल एवं अचल दोनों।" इस प्रकार भार का सृजन वैध है।"

    यदि दस्तावेज के माध्यम से भार का सृजन किसी अचल सम्पत्ति पर किया जा रहा है तो दस्तावेज ऐसे होना चाहिए जिससे उसके निष्पादन के तुरन्त बाद भार का सृजन हो जाए। किसी भावी तिथि से भार का सृजन नहीं होना चाहिए, क्योंकि धारा 100 में भार से अभिप्रेत है दस्तावेज के निष्पादन के तुरन्त पश्चात् भार का सृजन, भार न कि सृजन मात्र की सम्भावना के किसी भावी समाश्रितता पर भार का सृजन नहीं होता एक इकरारनामा जिसमें केवल यह कहा गया हो कि यदि भत्ता भविष्य में बकाये के रूप में विद्यमान हो जाता है तो उसको उपाप्ति हेतु सम्पत्ति का विक्रय किया जा सकेगा, तो इससे भार का सृजन नहीं होगा। महत्वपूर्ण यह है कि भार का सृजन किसी वर्तमान या भावी सम्पत्ति पर हो सकेगा। यह भार समाश्रित तथा प्लवमान (Floating) भी हो सकेगा।

    प्लवमान भार- प्लवमान भार सृजित करने के पीछे यह मंशा होती है कि किसी क्रियाशील प्रतिष्ठान को उसके साधारण अनुक्रम में अपना कारोबार जारी रखने में सहायता मिले जिसका प्रभाव यह होता है कि कारोबार में निरन्तर होने वाले उतार-चढ़ाव अर्थात् परिवर्तनों के लिए सम्पदा को दायी ठहराया जा सके तथा कोई ऐसी घटना घटित हो अथवा बन्धकदार द्वारा कोई ऐसा कार्य निष्पादित हो जो भार के रूप में प्रकट हो।

    साधारण रूप में यह कहा जा सकता है कि भार किसी एक कृत्य से सम्बद्ध होता है जबकि प्लवमान भार कार्यों की श्रृंखला से सम्बद्ध होता है और उस श्रृंखला में यदि कोई घटना घटित होती है तो भार वहाँ पर ठहर जाता है तथा साधारण भार का रूप ले लेता है। प्लवमान भार वर्तमान में विद्यमान एक अधिकार है किन्तु प्रतिभूति भावो घटना के घटित होने पर पूर्ण हो जाती है।

    एक प्लवमान भार प्रदक्षिणापथ की तरह है एवं सचल है तथा उस सम्पत्ति जो प्रभावित किए जाने के लिए आशयित है, के साथ प्लवमान (गतिशील) रहता है। यह निश्चित भार में परिवर्तित हो जाता है जब समाश्रितता अस्तित्व में आ जाती है और भार स्थायी रूप धारण कर लेता है।

    (ख) विधि के प्रवर्तन द्वारा सृजित भार विधि के प्रवर्तन द्वारा भार का सृजन विधिक दायित्व या बाध्यता के परिणामस्वरूप होता है न कि पक्षकारों की किसी इच्छा के फलस्वरूप। उदाहरण स्वरूप एक हिन्दू विधवा का अपने मृतक पति की सम्पत्ति से भरण-पोषण पाने का अधिकार भार है, यदि भरण-पोषण की रकम मृतक पति की सम्पत्ति से देय घोषित की गयी है। इसके विपरीत एक मुस्लिम विधवा का अपने मृतक पति की सम्पत्ति से मेहर की माँग करना भार नहीं है। यह एक साधारण ऋण होता है।

    सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 के अन्तर्गत विधि के प्रवर्तन द्वारा भार का सृजन निम्नलिखित प्रकरणों में होता है-

    1. धारा 55 (4) (ख) यदि विक्रेता को करार के अनुसार निर्धारित धनराशि का भुगतान नहीं हुआ हो।

    2. धारा 55 (6) (ख) के अन्तर्गत क्रेता को क्रय हेतु अग्रिम भुगतान के रूप में दी गयी धनराशि पर भार।

    पी० पी० रामकृष्णन बनाम पी० प्रभाकरन के वाद में प्रतिवादी ने अपनी सम्पत्ति प्रतिवादी को रु० 1,25,000/- मात्र में बेचने का करार किया। इस करार के तहत वादी ने प्रतिवादी को रु० 1,00,000/- मात्र का भुगतान अग्रिम प्रतिफल के रूप में कर दिया, पर प्रतिवादी ने करार के अनुसार सम्पत्ति का अन्तरण वादी के पक्ष में नहीं किया।

    यह भी साक्ष्यों के माध्यम से पाया गया कि वादी ने सम्पत्ति का कब्जा लेने से कभी माना नहीं किया था। यह माना गया कि वादी द्वारा दिया गया अग्रिम प्रतिफल विवादित सम्पत्ति पर भार है तथा प्रतिवादी से वादी उक्त रकम को प्राप्त करने का अधिकारी है।

    3. धारा 73 के अन्तर्गत बन्धकदार को प्राप्त भार।

    4. धारा 39 किसी अचल सम्पत्ति, जिसमें किसी अन्य व्यक्ति को भरण-पोषण अभिवर्द्धन या विवाह के लिए उपबन्ध किया गया हो।

    5. धारा 51 के अन्तर्गत दोषपूर्ण स्वामित्व वाले व्यक्ति द्वारा ऐसी सम्पत्ति पर को गयी अभिवृद्धियों पर बंधकदार का भार होता है।

    6. धारा 82 के अन्तर्गत अभिदाय के मामलों में भी भार का सृजन होता है।

    विधि के प्रवर्तन द्वारा सृजित भार के आधार-

    साधारणतया भार का सृजन पक्षकारों के बीच हुए करार के फलस्वरूप ही होता है पर देश में प्रचलित विधियाँ भी विभिन्न परिस्थितियों में दायित्वों का सृजन करती हैं और जब दायित्वारोपी अपने दायित्व का निर्वहन नहीं करता है या उसमें विफल रहता है तब भार का सृजन होता है, क्योंकि विधिक दायित्व का अनुपालन नहीं हो पाया था।

    जैसे विक्रय संव्यवहार पूर्ण होने पर सम्पत्ति का कब्जा प्रदान करने में विफल रहना, ऐसी स्थिति में अग्रिम भुगतान वापस लौटाने का दायित्व होता है। इसी प्रकार क्रेता द्वारा विक्रेता को सम्पति का मूल्य अदा करने का दायित्व होता है। कतिपय दायित्य साधारण जीवन में इतने महत्वपूर्ण होते हैं कि इनके लिए स्पष्ट करार करना वांछनीय नहीं माना गया है।

    कतिपय परिस्थितियों में यह भी माना जाता है कि इस प्रकार के भार के सृजन हेतु पक्षकारों ने सहमति दे दी है अतः सम्पत्ति के किसी भाग को विनिर्दिष्ट दावे की सन्तुष्टि के लिए उत्तरदायी बनाया जा सकेगा।

    कभी-कभी न्याय दिलाने हेतु साम्या के आधार पर भी इस प्रकार भार का सृजन न्यायालय द्वारा किया जाता है जिससे पीड़ित पक्षकार को न्याय मिल सके विशेषकर उन परिस्थितियों में जबकि पक्षकारों ने अपने हितों की रक्षा स्पष्ट करार द्वारा ने कर लिया हो।

    विधि के प्रवर्तन द्वारा सृजित भार की विशेषताएं- इसको दो प्रमुख विशेषताएँ हैं

    (1) यह पक्षकारों की इच्छा पर निर्भर नहीं करता है।

    (2) इस प्रकार के भार के सृजन हेतु रजिस्ट्री की आवश्यकता नहीं होती। विविध मामले साधारणतया भार का सृजन पक्षकारों के बीच हुए करार अथवा विधि के प्रवर्तन द्वारा होता है। किन्तु कई बार इसका सृजन इनसे भिन्न प्रक्रिया द्वारा भी होता है जैसे न्यायालय की डिक्री अथवा पंचों के निर्णय इत्यादि। ऐसे मामलों में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन्हें किस कोटि में रखा जाए। यदि इनके स्वरूप का गम्भीरता से अध्ययन किया जाए तो यह कहने में सन्देह नहीं होगा कि ये विधि के प्रवर्तन द्वारा सृजित भार को कोटि में आएंगे न्यायालय की डिक्री विधिक प्रक्रिया के अनुपालन के फलस्वरूप अस्तित्व में आती है एवं न्यायालय की सम्पूर्ण कार्यवाही विधिक होती है। अतः डिक्री के फलस्वरूप सृजित भार इसी श्रेणी में आयेगा। इसी प्रकार पंच निर्णय के फलस्वरूप सृजित भार विधि के प्रवर्तन से सृजित भार की कोटि में आयेगा क्योंकि पंच निर्णय भी समाज द्वारा स्वीकृत एक विशिष्ट प्रक्रिया का ही परिणाम है। कतिपय मामलों में यह भी निर्णत हुआ कि है कि पंच निर्णय द्वारा सृजित भार इस धारा के अन्तर्गत शासित नहीं होती है अतः निष्पादन में उसे प्रवर्तित किया जा सकता है।

    भार से मिलते हुए अन्य संव्यवहार जो वास्तविक रूप में भार नहीं हैं इसके अन्तर्गत निम्नलिखित मामले आते हैं-

    (1) सह भागीदार- किसी सहभागीदार ने यदि सह खातेदार के हिस्से पर देय मालगुजारी या किसी अन्य राजस्व का भुगतान कर दिया है तो इसी तथ्य मात्र से उसे अन्य सहखातेदार के भाग पर भार नहीं दिया जा सकता है।

    (2) सामान्य महाजन- यदि कोई व्यक्ति सामान्य महाजन की स्थिति में है अर्थात् किसी व्यक्ति को रकम उधार दिया हो तथा एक स्वतंत्र व्यवहार के रूप में यदि ऋणों को कोई चल या अचल सम्पत्ति महाजन के कब्जे में आ गई हो तो किसी भी भारतीय व्यवस्था के अन्तर्गत महाजन को उस सम्पत्ति पर कोई भी भार नहीं प्राप्त हो सकता

    (3) बन्धक के लिए करार या अवैध बन्धक न तो बन्धक कहा जा सकता है और न ही धारा 108 के अन्तर्गत भार की सृष्टि करता है।

    संव्यवहार बन्धक की कोटि में नहीं आता-

    (भार एवं बंधक में अंतर)

    भार के सृजन के लिए यह आवश्यक है कि संव्यवहार बंधक के तुल्य न हो। यह इसलिए आवश्यक है क्योंकि बन्धक में सम्पत्ति का अन्तरण होता है, जबकि भार में सम्पत्ति का अन्तरण नहीं होता है अथवा न ही किसी अधिकार का सृजन होता है। भार एवं बन्धक में विभेद है पर दोनों के बीच विभेद करना सहज नहीं होता है।

    भार एवं बन्धक के बीच निम्नलिखित भेद हैं-

    (1) बन्धक में एक विशिष्ट अचल सम्पत्ति में हित का अन्तरण होता है; भार में किसी हित का अन्तरण नहीं होता है, यद्यपि सम्पत्ति ऋण के भुगतान के लिए प्रतिभूति बनायी जाती है।

    (2) बन्धक केवल पक्षकारों के कृत्य से सृजित होता है, विधि के प्रवर्तन द्वारा नहीं। भार पक्षकारों के कृत्य द्वारा एवं विधि के प्रवर्तन दोनों ही द्वारा सृजित होता है।

    (3) एक बन्धक समस्त पाश्चिक अन्तरितियों को प्रभावित करता है पर भार बिना नोटिस के नहीं प्रभावित करता है।

    (4) भार प्रवर्तनीय हो सकेगा मात्र न्यायालय द्वारा सम्पत्ति के विक्रय से, जबकि एक बन्धक प्रवर्तनीय हो सकेगा सम्पत्ति अन्तरण की धारा 67, 68 एवं 69 के अन्तर्गत अर्थात् धनराशि एवं विक्रय के प्रयोजनार्थ पुरोबन्ध हेतु वाद संस्थित करे।

    (5) बन्धक की तुलना में भार एक व्यापक "शब्द" है। प्रत्येक बन्धक एक भार है पर प्रत्येक भार, बन्धक नहीं।

    (6) 12 वर्ष की कालावधि के भीतर भार को प्रवर्तनीय बनाया जा सकेगा परन्तु सादा बन्धक को छोड़कर, जिसे 12 वर्ष में प्रवर्तनीय बनाया जा सकेगा, अन्य समस्त प्रकार के बन्धक 30 वर्ष को कालावधि में प्रवर्तनीय हो सकेंगे।

    उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स जे० एण्ड के० (बाम्बे) प्रा० लि० बनाम मेसर्स न्यू कैंसर हिन्द स्पिनिंग एवं बीविंग के लि० के मामले में निम्नलिखित शब्दों में अभिमत व्यक्त किया है 'भार एवं बन्धक में विभेद सुस्पष्ट है, जब कि भार में सम्पत्ति में के हित का अन्तरण नहीं होता है और न ही किसी अन्य हित का, अपितु इसमें एक विशिष्ट सम्पत्ति में या उसमें से निहित में से भुगतान का अधिकार मात्र सृजित होता है।

    भार के सृजन हेतु किसी विशिष्ट प्रकार के शब्दों की आवश्यकता नहीं होती तथा जो कुछ भी आवश्यक है वह केवल इतना ही है कि धन के वर्तमान में संदाय हेतु किसी सम्पत्ति को प्रतिभूति बनाने को सुस्पष्ट मंशा अभिव्यक्त हो।"

    किशनलाल बनाम गंगाराम के वाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंगित किया है कि एक बन्धक "जस इन रेम" अर्थात् पूर्ण अधिकार प्रदान करता है जबकि भार मात्र "जस एड रेम"" अर्थात अपूर्ण अधिकार प्रदान करता है क्योंकि इसमें कब्जा नहीं प्रदान किया जाता है। एक बन्धक सभी पाश्चिक अन्तरितियों के विरुद्ध प्रभावी होता है जबकि भार केवल उन अन्तरितियों के विरुद्ध प्रभावी होता है जो भार की सूचना के साथ सम्पत्ति प्राप्त करते हैं।

    (7) हित का अन्तरण बन्धक में किसी सम्पत्ति में के हित विशेष का अन्तरण बन्धककर्ता द्वारा बन्धकदार को किया जाता है। इसके विपरीत भार में किसी भी हित का अन्तरण नहीं होता है। भार किसी कर्ज या ऋण की अदायगी की गारण्टी मात्र होता है।

    (8) सृजन- बन्धक का सृजन केवल पक्षकारों के कृत्य द्वारा होता है जबकि भार का सृजन पक्षकारों के कृत्य अथवा विधि के प्रवर्तन दोनों द्वारा होता है।

    (9) प्रवर्तन - बन्धक का प्रवर्तन नोटिस द्वारा प्रभावित नहीं होता है अर्थात् सभी पाश्चिक अन्तरिती बन्धक से प्रभावित होते हैं चाहे उन्होंने बन्धक सम्पत्ति को बन्धक की सूचना के अथवा बिना सूचना के प्राप्त किया हो। पर भार में यह तभी प्रभावी होगा जब सम्पत्ति भार की सूचना के साथ प्राप्त की गयी हो। दूसरे शब्दों में निष्कपट एवं सप्रतिफल अन्तरितों के विरुद्ध भार प्रवर्तित नहीं होगा।

    (10) औपचारिकताएं- यदि भार का सृजन पक्षकारों के कृत्य से हो रहा है तो यह संव्यवहार तभी वैध होगा जब पंजीकृत विलेख द्वारा भार सृजन की प्रक्रिया पूर्ण की गयी हो विधि द्वारा सृजित भार में रजिस्ट्री आवश्यक नहीं है। बन्धक के संव्यवहार में रजिस्ट्री के साथ ही अन्य अनेक औपचारिकताएं पूर्ण करनी होती हैं जैसे कब्जा प्रदान करना भोग बन्धक के प्रकरण में एवं सशर्त विक्रय द्वारा बन्धक में अनुप्रमाणन इत्यादि।

    (11) दायित्व बन्धककर्ता सम्पत्ति का बन्धक करने के लिए अर्ह होना चाहिए अर्थात् सम्पत्ति का बन्धक करने का अधिकार बन्धककर्ता में निहित होना चाहिए एवं बन्धक की जाने वाली सम्पत्ति अन्तरणीय होनी चाहिए। भार में इन तथ्यों पर बल नहीं दिया गया है।

    (12) अवधि - बन्धक एक निश्चित अवधि के लिए किया जाता है। भार एक निश्चित अवधि के लिए अथवा शाश्वत हो सकता है। बन्धक में मोचन सदैव निहित है जबकि भार में नहीं।

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