संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 29: पुर्विक बंधकदार का मुल्तवी होना (धारा 78)

Shadab Salim

18 Aug 2021 5:12 AM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 29: पुर्विक बंधकदार का मुल्तवी होना (धारा 78)

    संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 29 के अंतर्गत एक संपत्ति को अनेक व्यक्तियों के पास बंधक रखने के परिणामस्वरूप नियमों का उल्लेख किया गया है। किसी भी संपत्ति को एक से अधिक व्यक्तियों के समक्ष भी बंधक रखा जा सकता है तथा उन पर ऋण लिया जा सकता है।

    ऐसी परिस्थितियां होती है कि एक से अधिक व्यक्तियों के पास कोई संपत्ति बंधक रखी गई है उसका बंधक के अंतर्गत अंतरण किया गया है तब इस धारा की सहायता ली जाती है।

    इस आलेख के अंतर्गत संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा- 29 से संबंधित समस्त प्रावधानों पर चर्चा की जा रही है तथा उससे संबंधित न्याय निर्णय प्रस्तुत किए जा रहे हैं। इससे पूर्व के आलेख में बंधकदार के अधिकार और कर्तव्यों का उल्लेख किया गया था उससे संबंधित जानकारियों हेतु इससे पूर्व के आलेख का अध्ययन किया जा सकता है।

    इस धारा संबंधित मामलों में विभिन्न बन्धकदारों की वरीयता काल की दृष्टि से निर्धारित की जाती है। इस धारा को अधिनियम में दिए गए इस उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है।

    उदाहरणस्वरूप-

    यदि सम्पत्ति X सर्वप्रथम क को, फिर ख को, फिर ग को तत्पश्चात् घ के पास बन्धक के रूप में अन्तरित की जाती है तो क्रमशः ख ग एवं घ क्रमशः पाश्चिक बन्धकदार कहलाएंगे। जबकि क ख की तुलना में पूर्विक बन्धकदार, ख ग की तुलना में पूर्विक बन्धकदार एवं ग घ के सापेक्ष पूर्विक बन्धकदार कहलाएगा क, ख के सापेक्ष पूर्विक बन्धकदार तथा ख, क के सापेक्ष पाश्चिक बन्धकदार कहलाएगा। इसी प्रकार ख, ग के सापेक्ष पूर्विक बन्धकदार तथा ग, ख के सापेक्ष पाश्चिक बन्धकदार ग, घ, के सापेक्ष पूर्विक बन्धकदार एवं घ, ग के सापेक्ष पाश्चिक बन्धकदार कहलाएगा।

    कई बन्धकदारों के अस्तित्व में बने रहने से इस बात की सम्भावना बनी रहती है कि कोई न कोई बन्धकदार ऋण की अदायगी में चूक कर सकता है और यदि ऐसी चूक होती है तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि बन्धकदार के पक्ष में किस प्रकार का हित सृजित होगा! धारा 78 इसी प्रश्न का समाधान प्रस्तुत करती है जिसे पूर्विकता का सिद्धान्त कहा जाता है।

    साधारण रूप में कहा जा सकता है कि जिस क्रम में बन्धक का सृजन हुआ है उसी क्रम में उसका भुगतान भी होगा। पूर्विक बन्धकदार को उपेक्षा कर पाश्चिक बन्धकदार का भुगतान पहले नहीं होगा।

    धारा 78 उपबन्धित करती है कि जहाँ किसी पूर्विक बन्धकदार के ऊपर, मिथ्याव्यपदेशन या घोर उपेक्षा से कोई अन्य व्यक्ति बन्धक सम्पत्ति की प्रतिभूति पर धन उधार देने के लिए उत्प्रेरित हुआ है, वहाँ वह पूर्विक बन्धकदार उस पाश्चिक बन्धकदार के मुकाबले में मुल्तवी हो जाएगा।

    उदाहरण के लिए, यदि क ने अपना मकान ख को 5,000 रुपये में बन्धक रखा। क ने पुनः उसी मकान को ग के पक्ष में 8,000 रुपये में बन्धक रखा जिसमें ख ने क का साथ दिया था। यह कहकर कि सम्पत्ति प्रभार मुक्त है।

    या ख बन्धक सम्पत्ति के सम्बन्ध में होने वाले संव्यवहार के प्रति उदासीन रहा हो, जैसे बन्धकदार होते हुए भी ख ने कभी यह जानने का प्रयास नहीं किया हो कि उसकी प्रतिभूति के के हाथों में सुरक्षित है या नहीं, तो ख की प्रतिभूति को ग के ऊपर वरीयता नहीं दी जाएगी यद्यपि कालक्रम में ख को वह मकान प्रतिभूति के रूप में पहले प्राप्त हुआ था, ग को बाद में किन्तु ख के आचरण के कारण, जिसके फलस्वरूप ग के पक्ष में उसी मकान को पुनः बन्धक रखना सम्भव हो सका, ख की प्राथमिकता को समाप्त कर देगा और यह प्राथमिकता ग को प्राप्त हो जाएगी। ग जिसके पक्ष में बाद में बन्धक का सृजन हुआ था, पाश्चिक बन्धकदार होते हुए भी भुगतान की दृष्टि से पूर्विक बन्धकदार हो जाएगा।

    पूर्विकता का सिद्धान्त केवल निम्नलिखित तीन परिस्थितियों में लागू होता है:-

    1. जबकि पूर्विक बन्धकदार के कपट के पाश्चिक बन्धक का सृजन हुआ हो-

    कपट से अभिप्रेत है एक ऐसा कार्य जो दूसरे व्यक्ति को धोखा देने के आशय से किया जाता है। कपट को परिभाषा संविदा अधिनियम की धारा 17 में दी गयी हैं। इसमें बेईमानीपूर्ण आशय आवश्यक है। इसमें ऐसे तथ्य प्रकट किए जाते हैं जो असत्य होते हैं और सत्य तथ्यों को छिपाया जाता है। सत्य तथ्य का सक्रिय छिपाय, विशेषकर तब जब बोलना आवश्यक हो या बोलने का कर्तव्य हो, कपट है। उदाहरणस्वरूप यदि बन्धकदार अपने पक्ष में हुए बन्धक के तथ्य को छिपाता है, यह जानते हुए कि सम्पत्ति का बन्धक बन्धककर्ता, दूसरे व्यक्ति के पक्ष में कर रहा है एवं ऋण प्राप्त कर रहा है, पूर्विक बन्धकदार, पूर्विकता का दावा नहीं कर सकता है। इस प्रावधान के लागू होने के लिए यह आवश्यक है पूर्विक बन्धकदार के विरुद्ध कपट का आरोप है एवं साबित किया गया हो।

    2. जबकि पूर्विक बन्धकदार के मिथ्या व्यपदेशन के कारण पाश्चिक बन्धक का सृजन हुआ हो-

    मिथ्या व्यपदेशन से अभिप्रेत है मिथ्या कथन जो किसी बेईमानीपूर्ण आशय से रहित हो। मिथ्या व्यपदेशित व्यक्ति न केवल कथन पर विश्वास करता है, अपितु उन कार्यों पर भी विश्वास करता है जो उस कथन को अग्रसारित करते हैं। इसमें कार्यलोप (ommission) का महत्वपूर्ण स्थान होता है। भूल को मिथ्या व्यपदेशन के दायरे में रखा जाता है। रमन चेट्टी बनाम स्टील ब्रदर्सी के वाद में यह अभिनिर्णीत किया गया था कि, जो आज भी सुसंगत है, जहाँ पूर्व बन्धकदार ने द्वितीय बन्धकदार का एक लेख देखा जिसमें यह प्रकट किया गया था कि कथित सम्पत्ति भारमुक्त हैं, किन्तु वह मौन रहता है और अन्य व्यक्ति को देखता है जो उसी सम्पत्ति पर ऋण दे रहा है। पूर्व बन्धकदार का मौन रहना मिथ्या व्यपदेशन है तथा वह पूर्विकता का दावा इस प्रावधान के अन्तर्गत नहीं कर सकेगा। ऐसे मामलों में पूर्विक बन्धक का ज्ञान या आशय, यह महत्वपूर्ण परीक्षण नहीं है, अपितु यह है कि क्या उसके द्वारा किया गया प्रतिनिधान है जिस पर विश्वास कर दूसरे बन्धकदार ने अपनी स्थिति में परिवर्तन किया तथा द्वितीय बन्धक अस्तित्व में आया।

    3. जहाँ कि पूर्विक बन्धकदार की घोर उपेक्षा के कारण बन्धक का सृजन हुआ हो-

    सिविल मामलों में साधारण उपेक्षा, जो बेईमानीपूर्ण आशय से रहित हो, दण्डनीय नहीं है। वह निर्दोषिता का ही प्रतीक है। पर यदि उपेक्षा गम्भीर प्रकृति की हो, या ऐसी हो कि उस पर विश्वास न किया जा सके या यह विश्वास न हो सके कि सामान्य प्रज्ञा से युक्त व्यक्ति ऐसी भूल करेगा, ऐसी भूल "घोर उपेक्षा है। और इसे 'कपट' के तुल्य माना जाता है। पूर्व बन्धकदार द्वारा ऐसी भूल जो बन्धककर्ता को पुनः सम्पत्ति के सम्बन्ध में संव्यवहार करने में समर्थ बनाती हो इस कारण कि वह भारग्रस्त नहीं है, एक साधारण उपेक्षा नहीं है। यह एक बड़ी त्रुटि या उपेक्षा है। यदि पूर्विक बन्धकदार की ऐसी त्रुटि या उपेक्षा के फलस्वरूप सम्पत्ति का अन्तरण बन्धककर्ता द्वारा एक दूसरे बन्धकदार के पक्ष में कर दिया जाता है तो पूर्विक बन्धकदार को 'पूर्विकता' के सिद्धान्त का लाभ नहीं मिलेगा तथा पाश्चिक बन्धकदार को पूर्विक बन्धकदार पर वरीयता दी जाएगी।

    लायड्स बैंक लि० बनाम पी० ई० गजदार एण्ड कं० के वाद में एक व्यक्ति, जिसने अपनी सम्पत्ति का स्वत्व विलेख एक बैंक के पास जमा किया और ऋण के रूप में बैंक से रकम प्राप्त किया, स्वत्व विलेख के निक्षेप द्वारा बन्धक का सृजन किया हुआ माना जाएगा जिसमें केवल रकम की वापसी / भुगतान के लिए ऋणी की सम्पत्ति के स्वत्व विलेख का कब्जा बन्धकदार के पास रहेगा।

    इस संव्यवहार के कुछ समय पश्चात् ही बन्धककर्ता ने बन्धकग्रहीता से कहा उसे वापस कर दे जिससे वह उसे आशयित क्रेता को दिखा सके। उसने यह भी कहा कि केवल इस वह स्वत्व विलेख सम्पत्ति को बेचने के बाद ही वह बैंक का ऋण अदा कर सकेगा। इस प्रकार के मामलों में साधारण व्यवस्था यह है कि आशयित क्रेता स्वत्व विलेखों का कब्जा रखने वाले ऋणदाता के पास जाता है।

    और इसका निरीक्षण करके स्वत्व की पुष्टि करता है। बन्धकदार किसी को भी स्वत्व विलेख उपलब्ध नहीं कराता है, हस्तान्तरित नहीं करता है पर इस प्रकरण में बैंक ने ऐसा किया था जिसके फलस्वरूप कथित दस्तावेज दूसरे बैंक के पास बन्धक के रूप में जमा किए जा सकें। विवादित प्रश्न यह था कि सम्पत्ति के विक्रय की दशा में किसे प्राथमिकता मिलेगी।

    न्यायालय ने निर्णय दिया कि पूर्विक बैंक घोर उपेक्षा का दोषी था स्वत्व विलेखों का हस्तान्तरण बन्धककर्ता को करने के कारण जिसके फलस्वरूप उसने दूसरे बैंक को दस्तावेज हस्तान्तरित किया और दूसरे बैंक को अवसर दिया कि वह अग्रिम धन दे। अतः यह अभिनिर्णीत हुआ कि इस धारा के अन्तर्गत पाश्चिक बन्धकदार पूर्विक बन्धकदार के ऊपर प्राथमिकता पाएगा।

    स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया बनाम केरल फाइनेंशियल कार्पोरेशन के वाद में स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया एक पूर्विक बन्धकदार स्वत्व विलेख के निक्षेप द्वारा था बन्धक सम्पत्ति में 75 सेंट्स की एक सम्पत्ति भी थी जो कुंबलबंगो नामक गाँव में स्थित थी। केरल फाइनेंशियल कार्पोरेशन ने तत्पश्चात् पंजीकृत बन्धक के द्वारा, जिसमें उक्त सम्पत्ति भी सम्मिलित थी, के आधार पर रकम का भुगतान किया।

    कार्पोरेशन ने रकम अदा करने से पूर्व बैंक को पत्र लिखा कि वह कार्पोरेशन को कथित ग्राहक की सम्पत्तियों के बारे में उन अधिकारों की सूचना दे, जो बैंक उनमें धारण कर रहा है। बैंक ने कार्पोरेशन को स्वत्व विलेख के निक्षेप द्वारा बन्धक की सूचना तो दी परन्तु बन्धक विलेख को दिखाने में विफल रहा।

    कार्पोरेशन भी विफल रहा अपने किसी कर्मचारी द्वारा उक्त दस्तावेजों का निरीक्षण कराने में, अतः कार्पोरेशन को उक्त 75 सेंट्स भूमि की वास्तविक स्थिति का पता नहीं चल पाया। इन तथ्यों के आधार पर न्यायालय को यह सुनिश्चित करना था कि बन्धक के सम्बन्ध में बैंक की स्थिति क्या होगी। क्या उसकी पूर्विकता बनी रहेगी।

    केरल उच्च न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया :-

    "बन्धकों की पूर्विकता उनके क्रमशः सृजन की तिथि पर निर्भर करता है, इस तथ्य को ध्यान में रखे बगैर कि वे पंजीकृत बन्धक हैं या साम्यिक बन्धक जो भी काल क्रम में प्रथम होगा उसकी पूर्विकता बनी रहेगी।

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