संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 24: स्थावर संपत्ति के विक्रय के विषय में (धारा 54)

Shadab Salim

14 Aug 2021 4:50 AM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 24: स्थावर संपत्ति के विक्रय के विषय में (धारा 54)

    संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 54 अचल संपत्ति के विक्रय के संबंध में प्रावधान प्रस्तुत करती है। इस धारा के अंतर्गत विक्रय की परिभाषा भी प्रस्तुत की गई है, अंतरण का ढंग भी बताया गया है और विक्रय संविदा के संबंध में भी उल्लेख किया गया है।

    अचल संपत्ति का विक्रय इस अधिनियम की इस धारा के अंतर्गत ही अधिशासी होता है तथा चल संपत्तियों का विक्रय वस्तु विक्रय अधिनियम के अंतर्गत अधिशासी होता है। इससे पूर्व के आलेख में संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 53 (क) जोकि भागिक पालन के संबंध में प्रावधान करती है का उल्लेख किया गया था। धारा 53 (क) का अध्ययन करने हेतु इससे पूर्व के आलेख को देखा जा सकता है।

    यह धारा अचल सम्पत्ति के विक्रय द्वारा अन्तरण के सम्बन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करती है। यह धारा 6 पैराग्राफ में विभक्त है तथा तीन विषयों से सम्बद्ध है-

    (1) विक्रय को परिभाषा:-

    (2) अन्तरण का ढंग:-

    (3) विक्रय संविदा:-

    चल सम्पत्तियों तथा वस्तुओं का विक्रय पूर्णरूपेण इसके क्षेत्राधिकार से परे हैं। इनका अन्तर माल विक्रय अधिनियम, 1929 द्वारा नियंत्रित होता है। परिभाषा - इस परिभाषा के अनुसार विक्रय मूल्य के बदले स्वामित्व का अन्तरण है। सम्पत्ति में अन्तरण के सभी अधिकार आत्यन्तिक रूप में अन्तरिती में निहित हो जाते हैं।

    इसके विपरीत, बन्धक तथा पट्टा में अन्तरक के सभी हित आत्यन्तिक रूप में अन्तरिती में निहित नहीं होते हैं। दोनों ही प्रक्रियाओं में केवल सीमित हित अन्तरित होता है।

    उपरोक्त परिभाषा के अनुसार विक्रय के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं-

    (1) पक्षकार:-

    (2) विषयवस्तुः-

    (3) प्रतिफल:-

    (4) हस्तान्तरण:-

    (1) पक्षकार - विक्रय हेतु दो पक्षकारों की आवश्यकता होती है। वह व्यक्ति जो सम्पत्ति में हित हस्तान्तरित करता है, विक्रेता कहा जाता है तथा जो व्यक्ति हस्तान्तरण द्वारा हित प्राप्त करता है क्रेता कहा जाता है। विक्रेता के लिए आवश्यक है कि यह सम्पत्ति अन्तरित करने की अर्हता से युक्त हो। अर्हता के प्रयोजनार्थ दो तथ्यों पर ध्यान दिया जाता है—

    (1) यह संविदा करने के लिए सक्षम हो तथा

    (2) उसे सम्पत्ति में अन्तरणीय हित प्राप्त हो या यह हित प्राप्त व्यक्ति द्वारा प्राधिकृत हो। इसी प्रकार क्रेता के लिए भी आवश्यक है कि वह क्रय करने की अर्हता रखता हो। उसे धारा 6 (ज) (iii) से प्रभावित नहीं होना चाहिए। कोई व्यक्ति जो न्यायाधीश, विधि व्यवसायी या न्यायालय से सम्बन्धित अधिकारी की हैसियत से कार्यरत है, अधिनियम की धारा 136 के अन्तर्गत अनुयोज्य दावा का क्रय नहीं कर सकेगा।

    इसी प्रकार आदेश 2 नियम 73 सिविल प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत, ऐसे व्यक्तियों और अधिकारियों द्वारा ऐसी सम्पत्ति के क्रय करने पर प्रतिबन्ध लगाया गया है जो सम्पत्ति के विक्रय में किसी प्रकार की भूमिका निभाते हैं। अवयस्क व्यक्ति सम्पत्ति क्रय करने के लिए सक्षम है। उसके पक्ष में किया गया विक्रय वैध होगा।

    विक्रय के प्रकरण में यह आवश्यक होता है कि विक्रेता सम्पत्ति का अन्तरण करने के लिए सक्षम हो। एक वाद में पति ने सम्पत्ति क्रय के माध्यम से सम्पत्ति प्राप्त किया तथा कुछ समय पश्चात् ही उसकी मृत्यु हो गयी।

    पति की मृत्यु के पश्चात् पत्नी ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया तथा एक ईसाई स्त्री होने के कारण एवं अपने मृतक पति का उत्तराधिकारी होने के कारण उसने उक्त सम्पत्ति का विक्रय कर दिया। इस प्रकरण में विवादित प्रश्न यह था कि क्या विधवा को सम्पत्ति अन्तरित करने का अधिकार था एवं क्या क्रेता को सम्पत्ति में वैध हित प्राप्त होगा।

    मामले के तथ्यों के आधार पर मद्रास उच्च न्यायालय ने यह अभिनिणाँत किया कि विधवा द्वारा निष्पादित विक्रय विलेख वैध है तथा क्रेता को सम्पत्ति में वास्तविक हित प्राप्त होगा। पति की मृत्यु एवं पति की सम्पत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त करने के उपरान्त विधवा द्वारा इस्लाम धर्म स्वीकार करने के फलस्वरूप उसका हित सम्पत्ति से समाप्त नहीं होगा विक्रय के समय विधवा सम्पत्ति की सद्भावयुक्त धारक थी अतः क्रेता को वैध हित प्राप्त होगा।

    विक्रय के पक्षकार पूर्णरूपेण अजनबी हो सकते हैं, या जान पहचान के हो सकते हैं अथवा वैश्वासिक सम्बन्धों में हो सकते हैं। जब विक्रेता एवं क्रेता के बीच वैश्वासिक सम्बन्ध होता है तो विक्रय के सम्बन्ध में सन्देह उत्पन्न होना एक सहज जिज्ञासा है।

    यदि विक्रय के पक्षकारों के बीच वैश्वासिक सम्बन्ध है तो लाभार्थी (क्रेता) को यह साबित करना होगा कि संव्यवहार हेतु उसके द्वारा क्रेता पर असम्यक् प्रभाव नहीं डाला गया था। जब तक लाभार्थी यह साबित नहीं कर देता है कि विक्रय सन्देह से परे नहीं माना जाएगा।

    विक्रय की वैधता के लिए सबूत प्रस्तुत करने का भार विक्रेता पर नहीं होता है। यदि विक्रता इस आशय का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाता है कि उसने इस संव्यवहार हेतु किसी प्रकार के असम्यक् प्रभाव का प्रयोग नहीं किया था तो विक्रय को वैध नहीं माना जा सकेगा

    (2) विषयवस्तु – इस अधिनियम के अन्तर्गत केवल अचल सम्पत्ति का विक्रय हो सकेगा। अतः अचल भौतिक वस्तुएं जैसे, भूमि, भवन तथा भूमि से स्थायी रूप से संयोजित वस्तुएं के ही अन्तरित की जा सकेंगी, किन्तु यह आवश्यक है कि विक्रय की जाने वाली वस्तु अन्तरणीय हो। यदि उसके अन्तरणीयता पर किसी विधि द्वारा, जैसे भूविधि, वैयक्तिक विधि, सिविल प्रक्रिया संहिता या सम्पत्ति अन्तरण विधि इत्यादि, प्रतिबन्ध लगा दिया गया है तो अन्तरणीय वस्तु होने के बावजूद भी उसका अन्तरण नहीं हो सकेगा।

    इस धारा के अन्तर्गत न केवल भौतिक अचल सम्पत्ति का अन्तरण हो सकेगा, अपितु अभौतिक वस्तु का भी अन्तरण हो सकेगा। जैसे पट्टे का अधिकार, बन्धक ऋण, तालाब से मछली पकड़ने का अधिकार। किन्तु अनुशति और सुखाधिकार का विक्रय नहीं हो सकेगा। क्योंकि ये सम्पत्तियां इस अधिनियम के अन्तर्गत अनन्तरणीय घोषित की गयी है।

    विजय कुमार शर्मा बनाम देवेश बिहारी सक्सेना के प्रकरण में विक्रय एवं पट्टा के बीच विभेद करने का प्रयास किया गया है। विक्रय के मामले में सम्पत्ति के स्वामित्व का अन्तरण होता है जबकि पट्टा के मामले में केवल सम्पत्ति के उपभोग के अधिकार का अन्तरण होता है। पट्टे में सम्पत्ति के स्वामित्व का अन्तरण नहीं होता है।

    यदि संव्यवहार के पक्षकारों ने अपने आपको विक्रेता एवं क्रेता के रूप में वर्णित किया है विक्रय हेतु करार करते समय तथा सम्पत्ति का स्वामित्व रु० 100,000/- विक्रय प्रतिफल के एवज में अन्तरित कर दिया जाता है तथा इस तथ्य की स्वीकारोक्ति बाद पत्र में की जाती है जिसे प्रतिवादी द्वारा अपने अभिकथन में नकारा भी नहीं जाता है। तथा इस संव्यवहार को पक्षकारों के बीच निष्पादित किया जाता है तो संव्यवहार विक्रय का संव्यवहार होगा न कि पट्टा का संव्यवहार।

    नंगसाई नामक एक स्त्री 33.56 एकड़ भूमि की स्वामिनी थी। उसकी मृत्यु के समय उसका पुत्र बिसराम जीवित था, जिसकी मृत्यु भी कुछ ही समय पश्चात् हो गयी। बिसराम की मृत्यु के समय उसकी पत्नी ज्योति बाई जीवित थी। तत्समय प्रचलित हिन्दू विधि के अनुसार ज्योति बाई मात्र ही विवादग्रस्त सम्पत्ति का स्वामिनी हो सकती थी जिसे वह पुरुष उत्तराधिकारी के प्रलाभ के लिए धारण कर सकती थी।

    ज्योति बाई ने 29.33 एकड़ भूमि एवं एक मकान के सन्दर्भ में विक्रय विलेख प्रतिवादी जीव राखन के पक्ष में निष्पादित किया। यह अन्तरण भी हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अस्तित्व में आने से पूर्ण हुआ। विसहिन बाई पुत्री नंगसाई ने एक सिविल वाद संस्थित किया कथित अन्तरण को शून्य एवं अवैध घोषित कराने हेतु इस आधार पर कि अन्तरण प्रतिफलरहित था अथवा विधिक आवश्यकता के लिए नहीं था।

    इस वाद की परिणति एक समझौते में हुई जिसके अन्तर्गत ज्योति बाई ने लगभग 25.33 एकड़ भूमि का एक दान विलेख किशन लाल पौत्र चिसहिन बाई, जो तत्समय केवल नाबालिग था, के पक्ष में निष्पादित कर दिया। अवशिष्ट भूमि, समझौते की शर्तों के अनुसार, ज्योति बाई को दे दी गयी और ज्योति बाई ने उक्त भूमि को वर्तमान प्रतिवादी को बेच दिया। किशन लाल की मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नी गंगोत्री बाई एवं उसको पुत्री शकुन्तला बाई ने एक साथ जीव राखन लाल के कब्जे में विद्यमान भूमि एवं मकान को वापस प्राप्त करने हेतु वाद संस्थित किया।

    उच्च न्यायालय ने अभिनित किया कि चूँकि पक्षकारों के बीच हुए पारिवारिक समझौता जिसके अध्यधीन मृतका की विधवा ने मृतक की पुत्री के पौत्र के पक्ष में दान विलेख निष्पादित किया, समझौता डिक्री पारित की गयी थी अतः वादी/अपिलार्थी प्रकल्पित प्रत्यावर्ती के रूप में न केवल पारिवारिक समझौता का अनुसमर्थन किया था अपितु उसके अध्यधीन लाभ को प्राप्त किया था।

    उन्होंने न केवल दान विलेख के अन्तर्गत प्राप्त सम्पत्ति उपभोग किया था अपितु उसका अन्तरण भी किया था। अतः अब ये मृतक को विधवा द्वारा निष्पादित विक्रय विलेख को चुनौती नहीं दे सकते।

    एक भोग बन्धक की निरन्तरता के दौरान उक्त सम्पत्ति के किसी भाग का विक्रय सम्पर्क प्रतिफल के लिए मौखिक रूप में हो सकता है। मौखिक विक्रय अवैध नहीं होगा यदि अचल सम्पत्ति के मौखिक अन्तरण पर विधि द्वारा कोई प्रतिबन्ध न लगाया गया हो। समान्यता अचल कृषि भूमि के अन्तरण पर प्रतिबन्ध लगाए जाते हैं न कि आवासीय भवनों पर।

    ( 3 ) प्रतिफल-

    विक्रय के मामले में प्रतिफल को मूल्य अथवा कीमत के नाम से सम्बोधित किया जाता है। विक्रय संविदा के अस्तित्व में आने के लिए प्रतिफल अति आवश्यक है। मूल्य का भुगतान सदैव पैसे या मुद्रा के रूप में होता है, किन्तु कभी-कभी मूल्य के साथ वस्तु या सम्पत्ति भी दी जाती है।

    ऐसी स्थिति में सदैव यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रतिफल मूलतः मुद्रा है अथवा सम्पत्ति यदि प्रतिफल मुद्रा है और सम्पत्ति केवल प्रतिफल को पूर्ण करने हेतु दी जाती है तो संव्यवहार विक्रय होगा, किन्तु यदि प्रतिफल मुद्रा न होकर सम्पत्ति है तो यह संव्यवहार विक्रय नहीं होगा, आदान-प्रदान या विनिमय होगा।

    यदि किसी व्यक्ति को मूल्य अथवा कीमत दी जाती है और वह व्यक्ति बदले में स्वयं कार्य करता है तो संव्यवहार विक्रय नहीं होगा। सेवा संविदा होगी। यदि एक मुसलमान महर के भुगतान हेतु अपनी पत्नी को मुद्रा देता है तो ऐसा भुगतान विक्रय को कोटि में नहीं आयेगा इसी प्रकार भरण-पोषण के भुगतान हेतु सम्पत्ति का अन्तरण विक्रय नहीं होगा।

    प्रतिफल का भुगतान निम्नलिखित में से किसी भी प्रकार किया जा सकेगा-

    (1) सम्पूर्ण प्रतिफल का भुगतान तुरन्त कर दिया जाए या

    (ii) प्रतिफल भुगतान का केवल वादा किया जाए या

    (iii) प्रतिफल का आंशिक भुगतान कर दिया जाए तथा अवशिष्ट के भुगतान हेतु वादा किया जाए।

    विक्रय हेतु यह आवश्यक नहीं है कि सम्पूर्ण मूल्य का अग्रिम भुगतान कर दिया गया हो। केवल यह आवश्यक है कि अन्तरण से पूर्व इसे सुनिश्चित कर लिया गया हो और यदि नहीं तो यह सुनिश्चित कर लिया गया हो कि इसका निर्धारण किस प्रकार किया जाएगा।

    प्रत्येक विक्रय में मूल्य एक आवश्यक तत्व है। अतः यदि इसका निर्धारण नहीं हुआ है और न ही इसके निर्धारण की प्रक्रिया सुनिश्चित की गयी है, तो संविदा अपूर्णता के कारण शून्य होगी और प्रवर्तनीय नहीं होगी, किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि संविदा प्रथम दृष्टया मूल्य का निर्धारण करे। संविदा मूल्य के निर्धारण का ढंग सुनिश्चित कर सकती है या उचित मूल्य के लिए प्रावधान प्रस्तुत कर सकती है।

    उपरोक्त से स्पष्ट है कि विक्रय के मूल्य का भुगतान आवश्यक नहीं है। विक्रेता से क्रेता में स्वामित्व अन्तरित हो जाता है भले हो मूल्य का भुगतान न हुआ हो। यदि एक बार यह सिद्ध हो है कि पक्षकारों का आशय स्वामित्व हस्तान्तरित करना था तो क्रेता कब्जा प्राप्त करने लिए सक्षम हो जाता है विक्रेता कब्जा देने से मना नहीं कर सकेगा, यदि कब्जा न देने के सम्बन्ध में कोई समझौता नहीं हुआ है।

    अदत्त विक्रेता केवल इस आधार पर कब्जा देने से मना नहीं कर सकता कि मूल्य का भुगतान नहीं किया गया है। मूल्य का भुगतान न होने मात्र से विक्रय विलेख मिथ्या नहीं हो जाता, यद्यपि कभी-कभी ऐसी स्थिति इस तथ्य का साक्ष्य होती है कि पक्षकारों का आशय संव्यवहार को प्रभावी बनाना नहीं था। मूल्य का भुगतान न होने की दशा में विक्रेता केवल मूल्य के लिए वाद चला सकता है, कब्जा देने से मना नहीं कर सकता।

    (4) अन्तरण-

    चौथा आवश्यक तत्व है कि विक्रेता द्वारा क्रेता की सम्पत्ति आत्यन्तिक रूप में अन्तरित कर दी जाए। अन्तरण इस अधिनियम की धारा 5 में वर्णित प्रकृति का होना चाहिए। अन्तरण विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार, जैसे हस्ताक्षर, अनुप्रमाणन, पंजीकरण इत्यादि में होना चाहिए। अन्तरण की विधा सम्पत्ति अनुसरण हेतु यह धारा दो विधाओं का उल्लेख करती है। ये विधाएँ सम्पत्ति की प्रकृति को ध्यान में रखकर निर्धारित की गयी हैं।

    ये विधाएँ हैं-

    (i) पंजीकृत लिखत द्वारा।

    (ii) केवल कब्जे के परिदान द्वारा।

    (1) पंजीकृत लिखत- निम्नलिखित मामलों में केवल पंजीकृत लिखत द्वारा ही वैध अन्तरण हो सकेगा:

    (क) एक सौ या इससे अधिक रुपये के मूल्य की अचल भौतिक सम्पत्ति या

    (ख) किसी मूल्य का उत्तर भोगी अधिकार या

    (ग) किसी भी मूल्य का अभौतिक अधिकार

    (2) कब्जे का परिदान यदि अन्तरित की जाने वाली अचल सम्पत्ति का मूल्य सौ रुपये से कम है तो पंजीकृत लिखत की आवश्यकता नहीं होगी अन्तरण केवल कब्जे के परिदान द्वारा ही हो जाएगा। दूसरे शब्दों में ऐसे मामलों में पंजीकरण ऐच्छिक होता है।

    कब्जे का परिदान तब माना जाएगा जब विक्रेता, क्रेता या उसके द्वारा प्राधिकृत किसी अन्य व्यक्ति के हाथों सम्पत्ति सौंप दे। परिदान वास्तविक या प्रलक्षित हो सकेगा। यदि सम्पत्ति किरायेदार के कब्जे में हैं, तो कब्जे के परिदान हेतु यह आवश्यक नहीं होगा कि किरायादार सम्पत्ति क्रेता को भौतिक रूप में सौंप दे।

    क्रेता के अधिकार की स्वीकारोक्ति ही पर्याप्त होगी। भूमि का कब्जा उस पर जाकर दिया जा सकता है, किन्तु सम्पूर्ण भूमि पर घूमना आवश्यक नहीं होगा इसी प्रकार मकान का कब्जा चाभियाँ सौंपकर दिया जा सकता है

    यदि विक्रय की विषयवस्तु का मूल्य एक सौ रुपये से अधिक है तो ऐसी वस्तु का विक्रय पंजीकृत विक्रय विलेख के द्वारा ही हो सकेगा जिससे क्रेता को सम्पूर्ण स्वत्व प्राप्त हो सके। यह आवश्यक नहीं है कि विक्रय विलेख निष्पादन अनुप्रमाणन करने वाले साक्षियों के समक्ष हो। विक्रेता का हस्ताक्षर अथवा उसके अंगूठे का निशान एक ऐसे व्यक्ति के साक्ष्य से साबित हो सकेगा जो विक्रेता के हस्ताक्षर अथवा उसके अंगूठे के निशान से परिचित हो।

    यह प्रश्न तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब विक्रेता ने अपने हस्ताक्षर अथवा अंगूठे के निशान को इन्कार किया हो, परन्तु साक्षियों ने इससे इन्कार न किया हो।

    पट्टे के संव्यवहार के सृजन के लिए आवश्यक है कि सम्पत्ति का अन्तरण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को, जो अन्तरक से भिन्न हो के पक्ष में किया जाए। यदि सम्पत्ति का अन्तरण सम्पत्ति के स्वामी द्वारा एक ऐसे प्रतिष्ठान के पक्ष में किया जा रहा है जिसका कि वह एकमात्र स्वामी है तो ऐसे प्रतिष्ठान के पक्ष में किया गया अन्तरण अर्थहीन होगा और यह संव्यवहार अन्तरण के तुल्य नहीं होगा। अन्तरण के लिए यह आवश्यक है कि संव्यवहार द्वारा सम्पत्ति एक ऐसे व्यक्ति को दी जाए जिसे पहले से उसमें कोई हित न प्राप्त हो।

    यदि क्रेता पहले से ही सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त किये हुए है तो कब्जे का परिदान आवश्यक नहीं होगा, किन्तु यदि सम्पत्ति का मूल्य सौ रुपये से अधिक है तो पंजीकृत लिखत आवश्यक होगा।

    पंजीकरण के अभाव में क्रेता धारा 53 के अन्तर्गत अपने कब्जे को बचाये रख सकेगा। यदि उत्तरभोगी अधिकार अथवा अभौतिक सम्पत्ति का अन्तरण हो रहा है तो पंजीकृत लिखत आवश्यक होगा सम्पत्ति का मूल्य चाहे कुछ भी क्यों न हो।

    कुछ राज्यों में मूल्य का कोई महत्व नहीं है अपितु हर अचल संपत्ति को पंजीकरण करना आवश्यक है। पंजीकृत लिखत द्वारा की जा सकेगी।

    विक्रय कब पूर्ण होता है?— विक्रय साधारणतया लिखत के पंजीकृत होते ही पूर्ण हो जाता है। दाखिल खारिज की प्रक्रिया इसके लिए आवश्यक नहीं होती है, किन्तु यदि सम्पत्ति का अन्तरण नहीं हुआ है तथा एक सक्षम न्यायालय ने विशिष्ट अनुपालन हेतु डिक्री पारित कर दिया है, तो विक्रय विशिष्ट अनुपालन के उपरान्त ही पूर्ण होगा। मूल्य का भुगतान नहीं किया गया है अथवा निर्धारित मूल्य पर्याप्त नहीं है इत्यादि तथ्य विक्रय की पूर्णता को प्रभावित नहीं करते हैं।

    उत्तर प्रदेश में यदि अचल सम्पत्ति का अन्तरण विक्रय के द्वारा किया जा रहा हो और सम्पत्ति का मूल्य रु० 100/- से कम है तो ऐसे विक्रय का पंजीकरण आवश्यक नहीं है। ऐसी सम्पत्ति का विक्रय उस समय पूर्ण माना जाएगा जब सम्पत्ति का कब्जा हस्तगत कर दिया जाए एवं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में यह प्रमाणित हो जाए कि अन्तरिती ने सम्पत्ति का कब्जा ग्रहण कर लिया है।

    किन्तु यदि सम्पत्ति का मूल्य रु० 100/- से अधिक है तो उसका पंजीकरण होना आवश्यक होगा विक्रय पूर्ण होने के लिए। विक्रय का अपंजीकृत विलेख, भले हो निष्पादित हो, विक्रय पूर्ण करने के लिए। सक्षम एवं पर्याप्त नहीं होगा।

    जब विक्रेता ने सम्पत्ति के स्वामित्व से अपने आप को विरत कर लिया हो, उसे सम्पत्ति का प्रतिफल प्राप्त हो चुका हो अन्तरण की अन्य औपचारिकताएँ पूर्ण हो चुकी हों तो यह माना जाएगा कि क्रेता सम्पत्ति का अनन्य स्वामी हो गया है। उसे अपनी सम्पत्ति को धारण करने एवं विधित: उसका उपयोग एवं उपभोग करने का अधिकार है।

    ऐसी स्थिति में विक्रेता को यह अधिकार नहीं होगा कि वह विक्रय को निरस्त करने हेतु एक विलेख निष्पादित कर दे और उसे रजिस्ट्रीकृत करा दे। एक वैध एवं निष्पादन विक्रय का निरस्तीकरण केवल विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 को धारा 31 के अन्तर्गत न्यायालय द्वारा पारित डिक्री द्वारा ही सम्भव है।

    मेसर्स लतीफ एस्टेट लाइन इण्डिया लि० बनाम श्रीमती हदीजा अम्मल एवं अन्य' के बाद में 'अ' ने एक जमीन 'ब' से एक पंजीकृत विक्रय विलेख द्वारा क्रय किया। 'अ' ने सम्पत्ति प्राप्त करने हेतु सम्पूर्ण प्रतिफल 'ब' को अदा किया तथा 'ब' से सम्पत्ति का कब्जा भी प्राप्त कर लिया। कुछ समय पश्चात् 'ब' ने एक निरस्तीकरण विलेख द्वारा विक्रय को निरस्त करना चाहा और इस निमित्त उसने निरस्तीकरण विलेख का रजिस्ट्रीकरण भी करा लिया।

    'अ' ने 'ब' के इस कृत्य को चुनौती दिया तथा न्यायालय ने 'अ' के तर्क को स्वीकार करते हुए यह सुस्पष्ट किया कि एक वैध विक्रय, जिसकी सभी आवश्यकताएं पूर्ण हो चुकी हैं निरस्तीकरण विलेख द्वारा निरस्त नहीं किया जा सकता है। इस हेतु विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 31 के अन्तर्गत न्यायालय की डिक्री आवश्यक होगी।

    मौखिक विक्रय सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 54 में उल्लिखित उपबन्ध विक्रय द्वारा अन्तरण के सम्बन्ध में केवल विधियों का उल्लेख करता है। प्रथम, रजिस्ट्रीकृत विलेख द्वारा एवं द्वितीय, कब्जा के परिदान द्वारा फलतः यदि कोई व्यक्ति मौखिक विक्रय के आधार पर कब्जा प्राप्त करना चाहता है तो उसे धारा 54 का लाभ नहीं प्राप्त होगा।

    यदि वह कब्जा प्राप्त करने हेतु यदि व्यादेश या घोषणात्मक वाद संस्थित करता है तो भी उसे कोई उपचार नहीं प्राप्त होगा भले ही कुछ ऐसे साक्ष्य हों जो यह दर्शाते हैं कि वादी के पास सम्पत्ति का कब्जा था।

    अतः मात्र टाइटिल की घोषणा हेतु वाद मौखिक विक्रय के आधार पर पोषणीय नहीं है इस बाद में वादी का कथन था कि उसने मैखिक विक्रय द्वारा सम्पत्ति क्रय की सम्पत्ति के विधिक स्वामी से अतः उसे सम्पत्ति का कब्जा मिलना चाहिए, जिसे न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया।

    विक्रय तथा विक्रय संविदा- अचल सम्पत्ति की विक्रय संविदा यह संविदा है कि उस अचल सम्पत्ति का विक्रय पक्षकारों के बीच तय हुए निबन्धनों पर होगा। करार, किसी भी संविदा की अग्रिम प्रक्रिया होती है।

    पक्षकारों के बीच यह करार कि सम्पत्ति भविष्य की किसी तिथि को उन शर्तों पर, जो उनके बीच तय हो, अन्तरित की जाएगी, विक्रय संविदा कही जाएगी। विक्रय संविदा, क्रेता के पक्ष में किसी भी प्रकार का हित सृष्ट नहीं करती है और न ही सम्पत्ति पर किसी प्रकार का प्रभार।

    अधिनियम की धारा 40 के अन्तर्गत:-

    (क) संविदा की सूचना के साथ प्रतिफल के बदले सम्पत्ति क्रय करने वाले अन्तरिती, तथा

    (ख) संविदा की सूचना सहित या रहित आनुग्रहिक अन्तरिती के विरुद्ध वाद चल सकेगा। पर यदि क्रेता स्वयं संविदा के अनुसरण में सम्पत्ति का कब्जा धारण किये हुए है, तो यह धारा 53 क के अन्तर्गत अपने कब्जे को बनाये रख सकेगा। विक्रय संविदा केवल एक लिखत है जो दूसरा लिखत प्राप्त करने के सम्बन्ध में अधिकार सृष्ट करती है। विक्रय संविदा का पंजीकृत होना आवश्यक नहीं है। परन्तु विक्रय हेतु करार, जो संविदा के भागिक पालन में सम्पत्ति का कब्जा परिदत करने के साथ हो धारा 5 के अर्थ के अन्तर्गत हस्तान्तरण की प्रकृति का होता है। ऐसे करार के फलस्वरूप सृजित अधिकार का आवश्यक रूप में रजिस्ट्रीकरण होना चाहिए तभी वह रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 की धारा 17 (1क) के अन्तर्गत होगा

    भाटक क्रय करार (Hire purchase agreement) - विक्रय, भाटक क्रय करार से भिन्न होता है। विक्रय में क्रेता तुरन्त सम्पत्ति का स्वामी बन जाता है, किन्तु भाटक क्रय करार में ऐसा नहीं होता। भाटक के रूप में सम्पत्ति ग्रहण करने वाले के पास यह विकल्प रहता है कि यदि वह चाहे तो सम्पत्ति क्रय कर ले या वापस लौटा दे विकल्प का प्रयोग न करने की स्थिति में वह सम्पत्ति का स्वामी बन पाएगा भले ही सम्पत्ति का कब्जा उसके पास हो।

    विक्रय तथा भाटक क्रय करार में अन्तर न्यायमूर्ति वान्छू ने के० एल० जौहर एण्ड कं० बनाम डिप्टी कमर्शियल टैक्स आफिसर के बाद में निम्नलिखित शब्दों में वक्त किया है :

    "विक्रय में सम्पत्ति मूल्य के बदले हस्तान्तरित होती है। मूल्य का भुगतान एकमुश्त हो सकता है अथवा किस्तों में इसके विपरीत भाटक क्रय करार के दो तत्व होते हैं-

    (1) क्रेता, सम्पत्ति को किराया भुगतान के अध्यधीन प्राप्त करता है जो मूल्य का एक किस्त होती है

    (2) किराया, जो मूल्य का एक किस्त होता है। मूल्य के रूप में परिणित हो जाता है जब इच्छुक क्रेता सम्पत्ति क्रय करने के अपने विकल्प का प्रयोग करता है।"

    दोनों के बीच अन्तर को बम्बई उच्च न्यायालय ने भी टेल्को लि० बनाम भारत माइनिंग कारपोरेशन के वाद में निम्नलिखित ढंग से प्रस्तुत किया है :-

    "भाटक क्रय करार के दो तत्व होते हैं-(i) स्वामी क्रेता को निर्धारित शर्तों पर सम्पत्ति धारण करने की सम्मति देता है तथा (ii) क्रेता सभी किस्तों के भुगतान द्वारा सम्पत्ति क्रय करने का विकल्प रखता है, लेकिन जब तक सभी किस्तों का भुगतान नहीं हो जाता है, सम्पत्ति क्रय नहीं की जा सकेगी क्योंकि भाटक पर सम्पत्ति धारण करने वाला व्यक्ति उसे क्रय करने के दायित्वाधीन नहीं होता है। क्रेता के पास उसे स्वीकार करने या अस्वीकार करने का विकल्प रहता है।"

    उदाहरण—'अ' अपना मकान 'ब' को इस करार के अन्तर्गत अन्तरित करता है कि 'ब', 'अ' को नियतकालिक रूप में किराये का भुगतान करता रहेगा और करार की अवधि के दौरान किसी भी समय मूल्य अदा कर उसे क्रय कर सकेगा। दोनों के बीच यह भी करार हुआ था कि 'अ', 'ब' में किसी भी समय अपना मकान वापस ले सकेगा, और 'ब' जब कि मकान उसके कब्जे में हैं य करने के लिए बाध्य नहीं होगा। यह संव्यवहार क्रय करने के विकल्प के साथ भाटक क्रय करार है। एक वाद में प्रत्यर्थी विवादग्रस्त सम्पत्ति का स्वामी था। उसने वर्तमान अपीलार्थी के साथ एक संविदा 7-10-1969 को किया, लिखित विलेख के माध्यम से जिसे स्थावर सम्पत्ति के सशर्त विक्रय विलेख" की संज्ञा दी गयी। सम्पत्ति महाराष्ट्र प्रान्त के कोल्हापुर कस्बे के नगरीय क्षेत्र में विद्यमान थी।

    अन्तरण की शर्तें निम्नलिखित रूप में उल्लिखित थी :-

    1. सम्पत्ति का विक्रय पाँच साल की अवधि के लिए किया जा रहा है तथा सम्पत्ति का कब्जा क्रेता को दिया जाता रहा है। रु० 500/- की रकम मेरे द्वारा प्रतिफल के रूप में प्राप्त कर ली गयी है तथा उक्त प्राप्ति के सम्बन्ध में मुझे कोई क्षोभ नहीं है।

    2. अन्तरिती कथित सम्पत्ति के कब्जे का उपभोग करने के लिए प्राधिकृत है तब तक की अवधि के लिए तथा सम्पत्ति को अपने नाम में हस्तान्तरित कराने तथा उसके सम्बन्ध में म्यूनिसिपल निर्धारणों का जमा कर सकेगा।

    3. उपरोक्त कथित रकम रु० 500/- का भुगतान यदि उपरोक्त कथित कालावधि के समापन तक अथवा उससे पूर्व कर दिया जाता है तो सम्पत्ति स्वामी को पुनः वापस कर दी जाएगी तथा अन्तरिती अन्तर 'क' के पक्ष में एक विक्रय विलेख हमारे बीच हुई संविदा के अनुसार निष्पादित करेगा।

    4. उपरोक्त वर्णित अवधि के समापन के पश्चात् उसके पूर्व भी किसी समय यदि विक्रय विलेख में उल्लिखित धनराशि रु० 500/- मात्र वापस कर दी जाती है, तो उक्त रकम को स्वीकार करने के उपरान्त कथित सम्पत्ति का कब्जा अन्तरक के पक्ष में हस्तान्तरित कर दिया जाएगा तथा अन्तरक के पक्ष में विक्रय विलेख निष्पादितकर दिया जाएगा। यह हमारे बीच में सहमति है।"

    अन्तरक ने अन्तरिती को कथित रकम रु० 500/- वापस करने का प्रस्ताव किया, किन्तु अन्तरिती ने उक्त रकम स्वीकार नहीं किया इस आधार पर कि उसे (अन्तरिती को) सम्पत्ति में आत्यन्तिक हित प्राप्त हो चुका है। इस स्थिति में अन्तरक ने बन्धक के मोचन हेतु वाद संस्थित किया। न्यायालय के समक्ष विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या संव्यवहार सशर्त विक्रय करने के विकल्प के साथ था अथवा सशर्त बन्धक था।

    संव्यवहार के तथ्यों एवं परिस्थितियों का अवलोकन करने के उपरान्त उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनित किया कि संव्यवहार सशर्त विक्रय का संव्यवहार नहीं है। यह एक बन्धक है। उच्चतम न्यायालय ने सुस्पष्ट किया कि इस प्रश्न का उत्तर न केवल विलेख में प्रयुक्त भाषा पर निर्भर करेगा अपितु उन परिस्थितियों पर भी निर्भर करेगा जिनमें संव्यवहार हुआ था।

    न्यायालय ने कहा कि जो तुच्छ रकम प्रतिफल रूप में दी गयी थी, उस रकम पर सम्पत्ति विक्रय नहीं हो सकेगा। आगे न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि जब सम्पत्ति का आत्यन्तिक अन्तरण किया जाता है तो वह किसी अवधि तक के लिए सीमित नहीं होता है।

    अन्तरण विलेख से यह सुस्पष्ट था कि अन्तरिती केवल पाँच वर्ष को अवधि तक ही सम्पत्ति धारण कर सकता था तथा अन्तरक कथित रकम का भुगतान कर न केवल पाँच वर्ष की अवधि पर प्राप्त कर सकता था, अपितु वह पाँच वर्ष से पूर्व को रकम का भुगतान कर सम्पत्ति वापस प्राप्त कर सकता था।

    रुपये 500/- को रकम प्राप्त करने पर अन्तरिती अन्तरक के पक्ष अन्तरण विलेख निष्पादित करने के दायित्वाधीन भी था । अतः यह संव्यवहार सशर्त बन्धक का संव्यवहार माना गया न कि सशर्त विक्रय का संव्यवहार।

    न्यायालय ने सुस्पष्ट किया कि निःसन्देह दस्तावेज को सशर्त विक्रय के विलेख के रूप में प्रस्तुत किया गया था किन्तु यह विनिश्चायक साक्ष्य नहीं था। ऐसे मामलों में संव्यवहार के पीछे निहित मंशा का निर्धारण करना आवश्यक होता है।

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