संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 23: भागिक पालन {धारा 53 (क)}

Shadab Salim

15 Aug 2021 1:30 PM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग 23: भागिक पालन {धारा 53 (क)}

    संपत्ति अंतरण अधिनियम 1882 की धारा 53 (क) भागिक पालन के संबंध में उल्लेख कर रहे हैं यह धारा संपत्ति अंतरण अधिनियम में सन 1929 में जोड़ी गई है तथा इस अधिनियम के महत्वपूर्ण कारणों में से एक धारा है।

    भागिक पालन धारा 53 (क) का उद्देश्य किसी ऐसे अन्तरिती के हितों को संरक्षण प्रदान करना है जिसने किसी संव्यवहार में सद्भावनापूर्वक हिस्सा लिया हो, पर अन्तरणकर्ता ने सामान्य व्यवस्था के किसी तकनीकी तत्व का बहाना लेकर उसे परेशान करने या सम्पत्ति न देने की योजना बना रखी हो।

    धारा 53 क के गर्भ में स्थित सिद्धान्त का विकास साम्या न्यायालय द्वारा किया गया है और इसका उद्भव इंग्लैण्ड के स्टेट्यूट ऑफ फ्राड से हुआ है। इस विधान में यह व्यवस्था की गयी थी कि भूमि जैसी सम्पत्ति का अन्तरण केवल तब मान्य होगा जब अन्तरण लिखित एवं अनुप्रमाणित दस्तावेज द्वारा किया गया हो।

    इस आलेख के अंतर्गत इस धारा से संबंधित प्रावधानों पर सार्वजनिक टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है इससे पूर्व के आलेख में कपटपूर्ण अंतरण के संबंध में उल्लेख किया गया था जो कि धारा 53 से संबंधित है।

    मैडिसन बनाम एल्डरसन के वाद में यह निर्णय हुआ कि किसी विधान को कपट के लिए हथियार के रूप में प्रयोग में नहीं लाया जा सकेगा। यह भागिक पालन के सम्बन्ध में पहला महत्वपूर्ण निर्णय था।

    वस्तुतः भागिक पालन के सिद्धान्त का वर्तमान स्वरूप सर्वप्रथम चॅम्प्रोनियर बनाम लॅम्बट के मामले में निर्धारित हुआ। इस वाद में साम्या न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि भागिक पालन के सिद्धान्त का वास्तविक आधार यह है कि यदि किसी व्यक्ति ने किसी दूसरे व्यक्ति के साथ कोई करार किया है और इसके आधार पर उसने दूसरे व्यक्ति को कोई कार्य करने की अनुमति प्रदान की है तो यह माना जाएगा कि उसने स्वयं अपने विरुद्ध एक साम्या का सृजन कर दिया है जिससे उसे इस बात की अनुमति नहीं होगी कि वह विधिक प्रक्रिया की अपूर्णता का बहाना बनाकर उस करार का विरोध कर सके जिसका वह स्वयं एक पक्षकार था।

    धारा 53 (क) का क्षेत्राधिकार-

    यह धारा इस देश में भागिक पालन के इंग्लिश विधि के सिद्धान्त को केवल आंशिक रूप में ग्रहण करती है। इस धारा में इंग्लिश विधि द्वारा उल्लिखित इस सिद्धान्त का भारत में प्रयोग नहीं होता है। यह एक ऐसे अनभिज्ञ अन्तरितो को संरक्षण प्रदान करती है जिसने सम्पत्ति का कब्जा तो ले लिया हो, पर वह दस्तावेज जिसके आधार पर कब्जा लिया गया है, प्रभावी बनाने योग्य नहीं है या जिसे पंजीकरण के अभाव में सिद्ध नहीं किया जा सकता और अन्तरिती ने सम्पत्ति के संवर्धन में धन व्यय किया हो। इस सिद्धान्त का उद्देश्य सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम तथा पंजीकरण अधिनियम के उपबन्धों को लचीला बनाकर उन्हें अधिक प्रभावशाली बनाना है और साथ ही अन्तरितों के हितों को संरक्षण भी प्रदान करना है।"

    धारा 53 (क) कब्जा धारक अन्तरितों के पक्ष में हित का अन्तरण नहीं करती है। यह केवल अन्तरक पर संविधिक वर्जना अधिरोपित करती है।

    भागिक पालन का सिद्धान्त प्रारम्भ में इस अधिनियम में सम्मिलित नहीं किया गया था। सन् 1929 के संशोधन अधिनियम द्वारा इसे इस अधिनियम में समाविष्ट किया गया, पर 1929 से पहले भी भागिक पालन के सिद्धान्त को इस देश में महत्व दिया था।

    भागिक पालन के सिद्धान्त को इस अधिनियम में सम्मिलित किये जाने के पूर्व से ही इसकी व्याख्या को लेकर दो अलग-अलग विचार धाराएं पैदा हो गयी थीं। पहली विचारधारा के अनुसार भागिक पालन का सिद्धान्त इस देश में लागू नहीं होगा, क्योंकि इससे सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 54 प्रभावित होती थी।

    इसके साथ ही साथ इसी अधिनियम की धारा 59 तथा 107 भी प्रभावित हो रही थी। दूसरी विचारधारा के अनुसार यह सिद्धान्त इस देश में लागू होगा भले ही इससे कुछ धाराओं पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा हो। इस विरोधाभाष को सर्वप्रथम प्रिवी कौंसिल के समक्ष मोहम्मद मूसा बनाम अधोर कुमार गांगुली के वाद में रखा गया।

    इस मामले में प्रिवी कॉसिल ने अभिनित किया कि यह सिद्धान्त भारत में लागू होगा, पर कालान्तर में आरिफ बनाम यदुनाथ के वाद में प्रिवी कौंसिल ने यह मत व्यक्त किया कि भागिक पालन का सिद्धान्त इस देश में लागू नहीं होगा।

    इस मत को पुनः अभिव्यक्ति हुई मिया पीर बक्श बनाम सरदार मोहम्मद ताहिर के वाद में यह दोनों ही निर्णय सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम में सन् 1929 के संशोधन के बाद दिये गये थे किन्तु संशोधन के पूर्व के विधि के आधार पर संशोधन के फलस्वरूप प्रिवी कौंसिल द्वारा व्यक्त दो भिन्न मतों के कारण उत्पन्न संकट की स्थिति समाप्त हो गयी है और संशोधन द्वारा मोहम्मद मूसा बनाम अघोर कुमार गांगुली के वाद में व्यक्त मत को मान्यता दी गयी।

    इस धारा के निम्नलिखित तत्व हैं जो यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं-

    (1) किसी अचल सम्पत्ति के प्रतिफलार्थ अन्तरण हेतु संविदा।

    (2) लिखित तथा अन्तरक द्वारा या उसके बदले हस्ताक्षरित संविदा।

    (3) दस्तावेज से अन्तरण के लिए आवश्यक शर्तें युक्तियुक्त निश्चय के साथ अभिनिश्चित की जा सकें।

    (4) अन्तरिती ने अन्तरण की विषयवस्तु का कब्जा ले लिया हो या यदि पहले से ही कब्जा लिए हुए है तो उस कब्जे को बनाये रखे।

    (5) अन्तरिती संविदा के अग्रसरण में कोई कार्य कर चुका हो।

    (6) वह संविदा के अपने भाग का पालन कर चुका हो या पालन करने के लिए रजामन्द हो।

    यदि उपरोक्त शर्तें विद्यमान हैं तो अन्तरक या उसके अधीन दावा करने वाला कोई अन्य व्यक्ति अन्तरिती या उसके अधीन दावा करने वाले किसी व्यक्ति से सम्पत्ति की मांग नहीं कर सकेगा। वह अपने अधिकार को प्रवर्तित कराने से विवर्जित होगा। किन्तु यह विवर्जना उन अधिकारों पर लागू नहीं होगी जिसके लिए स्पष्टतः संविदा में अन्यथा वर्णित है।

    1. अन्तरण की संविदा- इस सिद्धान्त का प्रथम तत्व यह है कि किसी अचल सम्पत्ति के अन्तरण हेतु संविदा हो। अन्तरण प्रतिफलार्थ हो। इससे यह स्पष्ट है कि दान के सम्बन्ध में यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा, क्योंकि दान प्रतिफल रहित अन्तरण है। इसके अतिरिक्त दान में कोई संविदा नहीं होती है। अन्तरित सम्पत्ति को स्वीकृति एवं पंजीकरण अन्तरण हेतु पर्याप्त होता है। इसके विपरीत, विक्रय, बन्धक तथा पट्टा ऐसे अन्तरण हैं जिनमें संविदा और प्रतिफल दोनों होते हैं। अतः यदि सम्पत्ति पट्टे द्वारा अन्तरित की गयी हो और दस्तावेज अपंजीकृत हो तो इस सिद्धान्त का लाभ अन्तरितों को मिलेगा। इसी प्रकार यदि सम्पत्ति बन्धक द्वारा अन्तरित की गयी हो तो यह भी सिद्धान्त लागू होगा है।

    यह सिद्धान्त वहाँ भी लागू होगा जहाँ कोई पत्नी अपने महर के भुगतान हेतु कोई अचल सम्पत्ति धारण किये हुए हो यदि किसी व्यक्ति को सम्पत्ति में सीमित या आंशिक हित प्राप्त है तथा हितदाता ने अपनी आय को सम्पत्ति से अलग नहीं किया है, तो ऐसी प्रक्रिया अन्तरण की संविदा नहीं मानी जाएगी।

    उदाहरण के लिए यदि स्वामी किसी व्यक्ति को जमीन से खनिज खोदने का अधिकार देता है और स्वयं उसे धारण किये रहता है तो ऐसी प्रक्रिया अन्तरण नहीं होगी। इस धारा में संविदा की कोई विशेष प्रक्रिया या औपचारिकता नहीं निर्धारित की गयी है। इतना ही पर्याप्त होगा कि इससे संविदा की शर्त और तथ्य स्पष्ट तथा समझने योग्य हो।

    यदि पक्षकारों के बीच हुआ विक्रय की संविदा किसी कारण से अप्रवर्तनीय है तथा क्रेता के आचरण से यह प्रतीत होता है कि वह संविदा के अपने पक्ष को पूर्ण करने इच्छुक नहीं है तो ऐसे क्रेता को धारा 53क का लाभ नहीं प्राप्त होगा।

    2. लिखित एवं हस्ताक्षरित दूसरा आवश्यक तत्व यह है कि संविदा लिखित एवं हस्ताक्षरित हो। लिखित दस्तावेज पर अन्तरक या उसके प्रतिनिधि के हस्ताक्षर होने चाहिए। केवल मौखिक करार पर्याप्त नहीं है। औपचारिक करार की आवश्यकता नहीं होती है, किन्तु यह आवश्यक है कि इससे संविदा की शर्तें सुस्पष्ट हों। पद 'लिखित' के अन्तर्गत पद हस्ताक्षरित नहीं आता है दोनों पृथक् कृत्य हैं। करार पर अन्तरक या उसके द्वारा प्राधिकृत किसी अन्य व्यक्ति के हस्ताक्षर होने चाहिए किसी अजनबी, जिसका अन्तरक से सम्बन्ध न हो या जिसका कार्य अन्तरक पर बाध्यकारी न हो, ऐसे व्यक्ति के हस्ताक्षर का कोई प्रभाव नहीं होगा।

    यदि दस्तावेज ऐसा है जिस पर दोनों पक्षकारों के हस्ताक्षर आवश्यक हैं तो केवल अन्तरक के हस्ताक्षर से प्रक्रिया पूर्ण नहीं मानी जाएगी। उदाहरणस्वरूप काबूलियत एक ऐसा दस्तावेज है जिस पर अन्तरक तथा अन्तरितो दोनों के हस्ताक्षर आवश्यक है। यदि केवल अन्तरक ने हस्ताक्षर किया है तो इसका लाभ अन्तरितों को नहीं मिलेगा।

    3. युक्तियुक्त निश्चितता के साथ आवश्यक शर्तें निर्धारित की जा सकें-

    तीसरा तत्व यह है कि संविदा ऐसी हो जिससे अन्तरण की आवश्यक शर्तों को युक्तियुक्त निश्चितता के साथ निर्धारित किया जा सके। यदि संविदा भिन्न प्रकृति का है तो यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा। यह आवश्यक नहीं है कि दस्तावेज से प्रत्येक विवरण, तुच्छ से तुच्छ भी सुस्पष्ट हो इतना हो पर्याप्त होगा कि युक्तियुक्त सावधानी से संविदा की शर्तों का निरूपण किया जा सके।

    एक वाद में पट्टादाता ने 25 वर्ष के लिए अपनी सम्पत्ति का पट्टा अन्तरिती के पक्ष में किया। पट्टा विलेख पर अन्तरक के हस्ताक्षर थे, परन्तु अन्तरितों के नहीं। इस संविदा के अन्तर्गत अन्तरितो ने सम्पत्ति का कब्जा अपने हाथ में ले लिया और पट्टे की शर्तों के अनुसार उस पर कार्य करना प्रारम्भ कर दिया।

    इस संव्यवहार के सम्बन्ध में उठे विवाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया कि यद्यपि संव्यवहार पूर्णरूप से पट्टा नहीं है, किन्तु लिखित दस्तावेज ऐसा है जिससे अन्तरण की शर्तों को युक्तियुक्त निश्चय के साथ निरूपित किया जा सकता है।

    अतः इस धारा का लाभ अन्तरिती को मिलेगा। इसी प्रकार यदि मौखिक करार की शर्तों को इसलिए लिखित रूप में व्यक्त कर दिया गया है कि पक्षकार मौखिक करार की शर्तों में परिवर्तन न कर सकें और लिखित विलेख से संविदा की आवश्यक शर्ते निरूपित की जा सकें, तो इस धारा के उपबन्ध लागू होंगे दाखिल खारिज को प्रक्रिया के समय राजस्व अधिकारियों के समक्ष लिखित रूप में यह स्वीकार करना कि उसने विवादास्पद सम्पत्ति का विक्रय अन्तरितों के पक्ष में किया है, इस धारा को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त न होगा।

    4. अन्तरिती ने सम्पत्ति का कब्जा ले लिया हो अथवा कब्जे को बनाये हो -

    चौथा आवश्यक तत्व यह है कि अन्तरिती ने संविदा के अनुपालन में या तो सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त कर लिया हो या यदि वह पहले से ही सम्पत्ति को धारण किये हुए है तो संविदा के अनुपालन में इसे बनाये रखे।

    एक मामले में सम्पत्ति पहले बन्धक के रूप में अन्तरिती को प्रदान की गयी। बाद में बन्धककर्ता बन्धकी को ही सम्पत्ति बेचने के लिए तैयार हो गया और इस नवीन संविदा के अन्तर्गत अन्तरिती सम्पत्ति को धारण किये रहा। कुछ समय पश्चात् अन्तरिती ने प्रतिफल का भुगतान अन्तरक को कर दिया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि ये तथ्य इस सिद्धान्त के लागू होने के लिए पर्याप्त हैं।

    यह आवश्यक है कि सम्पत्ति का कब्जा संविदा के अनुपालन में लिया गया हो या जारी किया गया हो। यदि यह कब्जा अन्यथा लिया गया या जारी किया गया है जैसे अतिचार के रूप में, तो यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा यह आवश्यक नहीं है कि कब्जा प्राप्त करने के बाद अन्तरिती का कब्जा उस पर बराबर बना रहे। यदि वह कब्जा लेने के बाद उसे खो बैठता है तो भी वह इस सिद्धान्त का लाभ पाने का अधिकारी होगा। कब्जे को पश्चात्वर्ती हानि अन्तरिती के हितों को प्रभावित नहीं करती है।

    इस प्रश्न को लेकर विवाद नहीं है कि अन्तरिती के कब्जे को अन्तरक की सम्पति होनी चाहिए अथवा नहीं। अवध उच्च न्यायालय के मतानुसार अन्तरक को सम्मति इस हेतु आवश्यक नहीं है जबकि आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के अनुसार किसी न किसी प्रकार की सम्मति आवश्यक है। दूसरा मत अधिक व्यावहारिक प्रतीत होता है।

    यदि अन्तरिती पहले से ही सम्पत्ति धारण किये हुए हैं और अन्तरक ऐसे अन्तरिती के ही पक्ष में सम्पत्ति अन्तरित करने की संविदा करता है तो यह आवश्यक न होगा कि पहले उसे सम्पत्ति से विस्थापित किया जाए और पुनः कब्जा प्रदान किया जाए। अन्तरितों के हित की प्रकृति में परिवर्तन मात्र ही पर्याप्त होगा उसके हित को सुरक्षित रखने के लिए। अन्तरिती का कब्जा वास्तविक हो सकता है या परिलक्षित।

    मल्लन्ना बनाम नवीं के वाद में वादी ने पहले अपनी सम्पत्ति भोग बन्धक द्वारा अन्तरितों के पक्ष में अन्तरित किया। बाद में उसी के पक्ष में विक्रय करने का करार किया, किन्तु कुछ समय के पश्चात् उसने बन्धक को विमोचित करने के लिए वाद दायर कर दिया।

    प्रतिवादी ने अपने कब्जे को बनाये रखने हेतु इस सिद्धान्त का आश्रय लिया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि केवल करार के कारण बन्धक समाप्त नहीं हुआ। अतः बन्धककर्ता को विमोचन का अधिकार है। अन्तरिती को इस सिद्धान्त का लाभ नहीं मिलेगा।

    5. संविदा को अग्रसर करने के लिए कोई कार्य कर चुका हो-

    पाँचवाँ आवश्यक तत्व यह है कि संविदा के अग्रसरण में अन्तरितों ने सम्पत्ति का कब्जा लेने के अतिरिक्त भी कोई कार्य किया हो। करार से पूर्व अथवा करार को अस्तित्व में लाने के उद्देश्य से किया गया कोई कार्य संविदा के अग्रसरण में नहीं माना जाता है।

    इसी प्रकार सम्पत्ति का निरीक्षण करना, उसकी नाप जोख करना, उसका मूल्य निर्धारित करने हेतु विशेषज्ञ को नियोजित करना। ऐसे कार्य हैं जिन्हें संविदा के अग्रसरण में नहीं माना जाता है। अन्तरिती द्वारा किया गया कार्य निःसन्देह कथित संविदा से सम्बन्धित होना चाहिए।

    सम्पत्ति पर कब्जा स्थापित करना या उसे कब्जे में लेना इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। किन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि इस प्रक्रिया का साक्ष्य विषयक महत्व बहुत अधिक नहीं है। अन्तरिती द्वारा ऐसा आचरण होना चाहिए जिससे यह सुस्पष्ट हो कि उसने भागिक पालन किया है। यदि सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने के पश्चात् अन्तरिती उसे बचाये रखने, उस पर समुचित क्रिया कलाप करने तथा उसे सुधारने में संलग्न है तो यह कहा जा सकेगा कि उसने भागिक पालन किया।

    सम्पत्ति के बदले प्रतिफल का भुगतान भागिक पालन का कार्य नहीं माना जाता है। पर यदि अन्तरिती पट्टाधारी था और पट्टे की अवधि समाप्त होने के बाद भी कब्जा धारण किये हुए हैं और प्रतिफल का भुगतान पट्टे के नवीकरण हेतु कर रहा है तो उसका कार्य भागिक पालन का कार्य माना जाएगा।

    इसी प्रकार पट्टे की अवधि समाप्त होने के बाद क्रय करने की लिखित संविदा के अन्तर्गत सम्पत्ति को धारण किये रहना, भागिक पालन का कार्य होगा। स्टाम्प पेपर्स खरीदने के लिए अग्रिम धनराशि अदा करना भागिक पालन का कार्य है।

    विलेख के निष्पादन के पश्चात् चाहे वह विक्रय हेतु फरार हो या विक्रय विलेख स्वयं हो, यदि क्रेता वह रकम प्रस्तुत करता (देता) है जो विक्रेता को देय है तो विक्रेता, विक्रय विलेख निष्पादित करने के लिए आबद्ध होगा जब तक कि ऐसा न करने के लिए विधिसम्मत कारण न हो।

    यदि प्रतिफल का भुगतान हो चुका है एवं विक्रेता द्वारा कब्जा प्रदत्त किया जा चुका है तथा विक्रेता ने क्रेता के पक्ष में विक्रय विलेख निष्पादित कर दिया है, तो साधारणतया प्रतिवादी को निर्देश देने का उपचार कि वह विक्रय विलेख को पंजीकृत कराए, केवल विलम्ब या प्रमाद के आधार पर इन्कार नहीं किया जा सकता है ।।

    6. अन्तरिती ने संविदा का अपना अंश पूर्ण कर लिया हो या पूर्ण करने के लिए रजामन्द हो -

    अन्तिम शर्त यह है कि अन्तरिती ने संविदा के अनुपालन में अपना भाग पूर्ण कर लिया हो या पूर्ण करने के लिए रजामन्द हो यदि उसने न तो पूर्ण किया है और न ही पूर्ण करने के लिए रजामन्द है तो उसे इस सिद्धान्त का लाभ नहीं मिलेगा अन्तरिती की मंशा स्पष्ट होनी चाहिए अन्तरिती इस प्रयोजन हेतु तैयार हैं या नहीं इसका निर्धारण उसके आचरण से किया जाता है। इस आशय का उल्लेख अभिवचन में होना आवश्यक नहीं है।"

    रणछोड़ दास छगनमल बनाम देवी जी के वाद में उच्चतम न्यायालय ने इस सिद्धान्त पर विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि "धारा 53 (क) अपेक्षा करती है कि करार के अनुपालन हेतु अन्तरिती सक्रिय रूप से तैयार, एवं इच्छुक हों इस सिद्धान्त का एक घटक यह है कि संविदा के भागिक पालन में अन्तरिती ने सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त कर लिया हो सबसे महत्वपूर्ण तत्व है अन्तरण की संविदा इस नियम के क्रियान्वयन का वास्तवित सिद्धान्त यह है कि अन्तरिती का कार्य किसी संविदा से सम्बद्ध हो और संविदा कथित संविदा हो। भागिक पालन का सिद्धान्त केवल एक सुरक्षात्मक उपाय है। यह अन्तरितों के हितों को अन्तरक के अतिक्रमण से सुरक्षा प्रदान करती है।

    यदि अन्तरिती संविदा के अपने पक्ष को पूरा करने के लिए अपनी इच्छा व्यक्त करता है किन्तु इस आशय की कोई भी द्विपक्षीय संविदा नहीं हुई थी, इसके बावजूद पट्टाकर्ता सम्पत्ति हस्तान्तरित करने को तैयार हुआ एवं सम्पत्ति अन्तरित किया किन्तु कब्जा लेते समय भी अन्तरिती ने रकम का भुगतान नहीं किया तथा कब्जा लेने के बाद भी कोई भुगतान नहीं किया, तो ऐसे अन्तरिती के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि यह संविदा के अपने अंश को पूर्ण करने का इच्छुक था। इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट है कि दोनों के बीच कोई अन्तिम संविदा भी नहीं हुई थी। न्यायालय ने माना कि अन्तरिती संविदा को पूर्ण करने के लिए न तो इच्छुक है और न ही तैयार है। अतः अभिनित किया कि इस प्रकरण में धारा 53 (क) का उपबन्ध लागू नहीं होगा।

    धारा 53 (क) में उल्लिखित सिद्धान्त के प्रवर्तन का प्रश्न एक विचित्र रूप में लक्ष्मी एवं अन्य बनाम करुणथल एवं अन्य के वाद में उत्पन्न हुआ। इस वाद में प्रतिउत्तरदाताओं ने अपनी माता की मृत्यु के उपरान्त, जो वादग्रस्त सम्पत्ति की स्वामिनी थीं, को अपीलार्थी के पति के इस आशय से संदत्त कर दिया कि वह उक्त सम्पत्ति की देखभाल करेगा।

    सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने के छः मास को अवधि के अन्तर्गत ही अन्तरिती ने उक्त सम्पत्ति पर प्रतिकूल दावा प्रस्तुत करने लगा। मिथ्या रूप में वह यही दावा प्रस्तुत करने लगा कि उसने सम्पत्ति का कब्जा विक्रय हेतु करार के अनुसरण में प्राप्त किया है। इससे पूर्व कि उसका दावा सम्पत्ति पर पूर्ण एवं वैध हो उसकी मृत्यु हो गयी।

    तत्पश्चात् उसको पत्नी एवं उत्तराधिकारियों ने सम्पत्ति को अपने कब्जे में ले लिया तथा विधिक स्वामियों को लौटाने से मना कर दिया। फलस्वरूप उक्त सम्पत्ति को प्राप्त करने हेतु विधिक स्वामियों ने वाद संस्थित किया। वर्तमान अपीलार्थी ने अपने कब्जे को बनाये रखने हेतु धारा 53क का सहारा लिया।

    परिस्थितियों का सम्यक् रूप में अध्ययन करने एवं साक्ष्यों के आधार पर न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला कि चूँकि अपीलार्थीगण संविदा के अपने पक्ष को न तो पूर्ण करने हेतु तैयार हैं और न ही इसके लिए इच्छुक हैं अतः धारा 53 (क) में उल्लिखित भागिक पालन के सिद्धान्त का लाभ उन्हें प्राप्त नहीं होगा। उन्हें सम्पत्ति का कब्जा प्रतिउत्तरदाताओं दायित्वाधीन माना गया।

    वापस करने के गिरिजा शंकर बनाम श्रीमती शीला देवी एवं अन्य अपिलार्थी विवादित मकान में किरायेदार था तथा उसने यह वाद प्रस्तुत किया कि विक्रय करार के भागिक पालन के अनुक्रम में उसे विवादित मकान का कब्जा प्राप्त हुआ है, किन्तु वह धारा 53 (क) के प्रभावी होने हेतु आवश्यक शर्तों को पूर्ण करने में विफल रहा।

    वह इस आशय का भी साक्ष्य नहीं प्रस्तुत कर सका कि उसे संविदा के भागिक फालन के अनुक्रम में सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त हुआ था। फलतः अपीलार्थी को इस प्रावधान का लाभ प्राप्त नहीं हुआ। राजपाल एवं अन्य बनाम हरस्वरूप के वाद में पक्षकारों के बीच एक दुकान के विक्रय हेतु करार हुआ।

    करार के अन्तर्गत क्रेता को दुकान का कब्जा प्रदान कर दिया गया तथा उसने प्रतिफल की बकाया रकम भुगतान करने हेतु अपनी इच्छा एवं रजामन्दी अभिव्यक्त किया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि क्रेता धारा 53(क) की सभी शर्तों को पूर्ण करता है अतः उसे इस प्रावधान का लाभ मिलेगा।

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