संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग: 17 भूमि के उपयोग पर निर्बंधन लगाने वाली बाध्यता का बोझ (धारा 40)

Shadab Salim

12 Aug 2021 4:54 AM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग: 17 भूमि के उपयोग पर निर्बंधन लगाने वाली बाध्यता का बोझ (धारा 40)

    संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 40 भूमि के उपयोग पर निर्बंधन लगाने वाली बाध्यता के बोझ के संबंध में उल्लेख करती है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 40 से संबंधित सभी महत्वपूर्ण बातों को प्रस्तुत किया जा रहा है।

    धारा 40 ऐसी धारा है जो संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत संविदा में होने वाली चूक को भी स्पष्ट कर रही है और यह भी तथ्य प्रस्तुत कर रही है कि केवल संविदा के पक्षकारों एवं आश्रित पर ही संविदा बाध्यकारी होती है और इसी के साथ नकारात्मक शर्त या निर्बन्धात्मक संविदाएं किसी भी पक्षकार के विपरित प्रवर्तित हो सकती है।

    इससे पूर्व के आलेख में संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 35 में प्रविष्ट निर्वाचन के सिद्धांत के संबंध में जानकारियां प्रस्तुत की गई थी।

    धारा 40-

    'ख' को सुल्तानपुर बेचने की संविदा 'क' करता है। संविदा के प्रवर्तन में होते हुए भी वह सुल्तानपुर 'ग' को जिसे संविदा को सूचना है, बेच देता है। 'ख' संविदा को 'ग' के विरुद्ध उसी विस्तार तक प्रवर्तित करा सकेगा जिस तक वह 'क' के विरुद्ध प्रवर्तित करा सकता है।

    इस धारा में हेउड बनाम अंसविक बिल्डिंग सोसाइटी नामक वाद में प्रतिपादित सिद्धान्त को मान्यता दी गयी है। इसके अन्तर्गत स्वीकारात्मक संविदाओं को अन्तरक से सम्पत्ति खरीदने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध प्रवर्तित नहीं किया जा सकेगा। केवल नकारात्मक शर्तें ही इस सिद्धान्त से प्रभावित होती हैं।

    सामान्य नियम यह है कि व्यक्तिगत संविदाएं भले ही सम्पत्ति से सम्बद्ध हों, केवल संविदा के पक्षकारों एवं उनके आश्रितों पर ही बाध्यकारी होती हैं। साधारण तौर पर व्यक्तिगत संविदाएं द्वितीय अन्तरिती को जिसके पक्ष में सम्पत्ति अन्तरित की जा चुकी है, बाध्य नहीं करती है।

    इसी अधिनियम की धारा 11 इस धारा के समानान्तर सिद्धान्त प्रतिपादित करती है और दोनों धाराओं को साथ-साथ पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि सकारात्मक शर्तें स्वयं में शून्य नहीं होती हैं इनको मान्यता अन्तरक और अन्तरितों के बीच होती है। इसके विपरीत नकारात्मक शर्त या निबन्धात्मक संविदाएं किसी भी पक्षकार के विपरीत प्रवर्तित हो सकती हैं।

    इस धारा का पैरा 2 और 3 क्रमश: अनुतोष अधिनियम की धारा 27 (ख) में दिये गये सिद्धान्त के समानान्तर व्यवस्था प्रतिपादित करते हैं। भारतीय न्यास अधिनियम, 1882 की धारा 91 में भी इस प्रकार का प्रावधान प्रस्तुत किया गया है।

    प्रसंविदा (Covenant)- प्रसंविदा से आशय है अन्तरण दस्तावेज में उल्लिखित कोई शर्त जिसके अन्तर्गत अन्तरितो कोई कार्य करने या न करने की प्रतिज्ञा करता है।

    प्रसंविदा दो प्रकार की होती है-

    (1) सकारात्मक:

    (2) नकारात्मक या निर्बन्धात्मक।

    सकारात्मक प्रसंविदा वह होती है जिसमें अन्तरिती कोई कार्य करने की प्रतिज्ञा करता है और नकारात्मक या निबन्धात्मक प्रसंविदा वह है जिसमें वह कोई कार्य न करने या कार्य से विरत रहने की प्रतिज्ञा करता है।

    अचल सम्पत्ति के सम्बन्ध में की जाने वाली प्रतिज्ञाएं सम्मति से सम्बद्ध रहती हैं और भूमि था सम्पत्ति के साथ-साथ चलती रहती है। जैसे यदि क्रमिक भूस्वामी या पट्टाधारी भूमि से उत्पन्न होने वाले प्रसाभों को पाने का हकदार है अथवा प्रभारों से बाध्य है तो यह समझा जाएगा कि ये प्रसंविदाएं भूमि के साथ चलने वाली हैं।

    पट्टाधारी द्वारा की गयी प्रतिज्ञा कि वह मकान को मरम्मत करता रहेगा, मकान के साथ सदैव संलग्न रहेगी और जिस किसी भी व्यक्ति को वह पट्टाधारी सम्पत्ति अन्तरित करेगा, यह इस शर्त से बाध्य होगा।

    यह धारा दो खण्डों में विभक्त है- प्रथम पैरा में उल्लिखित अधिकार अन्तरण से पूर्व उत्पन्न होता है तथा सम्पत्ति के स्वामित्व की पूर्व अवधारणा करता है। द्वितीय पैरा में उल्लिखित अधिकार भी अन्तरण से पूर्व उत्पन्न होता है किन्तु इसमें स्वामित्व की पूर्व अवधारणा नहीं होती है।

    यह पूर्णतया व्यक्तिगत अधिकार होता है तथा संविदा के फलस्वरूप उत्पन्न होता है किन्तु जिस व्यक्ति के पक्ष में यह अधिकार उत्पन्न होता है उसका किसी सम्पत्ति का स्वामी होना आवश्यक नहीं है। यह अधिकार यद्यपि व्यक्तिगत होता है, किन्तु इसे किसी अचल सम्पत्ति के स्वामित्व से सम्बद्ध होना चाहिए।

    प्रथम पैरा- इस पैरा के निम्नलिखित तत्व हैं-

    (1) अपनी निजी सम्पत्ति के अधिक लाभप्रद उपभोग के लिए:

    (2) अचल सम्पत्ति में से किसी हित पर अनाश्रित; या

    (3) सुखाधिकार।

    (4) उपभोग किये जाने पर अवरोध लगा दे।

    (1) लाभप्रद उपभोग- प्रथम पैरा तब लागू होता है जबकि दूसरी सम्पत्ति के स्वामी के पक्ष में किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा किसी अन्य सम्पत्ति में के हित के उपभोग पर प्रतिबन्ध लगाने का अधिकार हो और ऐसा अधिकार अपनी सम्पत्ति के लाभप्रद उपभोग के लिए मिला हो। इससे स्पष्ट है कि जिस सम्पत्ति के लाभप्रद उपभोग के लिए प्रसंविदा की गयी है उसमें संश्रुती (covenantee) स्वयं का हित होना चाहिए। यदि उसका स्वयं का हित सम्पत्ति में नहीं है, तो प्रसंविदा केवल वैयक्तिक प्रसंविदा होगी और संश्रावक (Covenantor) के अन्तरितों के विरुद्ध प्रवर्तनीय नहीं होगी।

    (2) अचल सम्पत्ति में के किसी हित पर अनाश्रित- यह सिद्धान्त उन अधिकारों के प्रवर्तन पर लागू नहीं होता है जो सम्पत्ति में किसी हित के तुल्य होते हैं। उदाहरणार्थ प्रभार (Charge) का प्रवर्तन इस नियम से नियंत्रित नहीं होता है। प्रसंविदा को सम्पत्ति में के किसी अधिकार पर अनाश्रित होना होगा।

    ( 3 ) सुखाधिकार—यह सिद्धान्त उन अधिकारों के सम्बन्ध में भी नहीं लागू होता है जो सुखाधिकार के तुल्य हैं।' अ' तीन दुकानों का स्वामी था। उसने एक दुकान 'ब' के पक्ष में अन्तरित कर दिया तथा दोनों के बीच यह संविदा हुई कि न तो 'अ' और न ही 'ब' दुकान के सामने बारजी बनायेगा। बाद में 'अ' ने एक और दुकान 'स' के पक्ष में अन्तरित कर दी जिसने दुकान लेते ही बारजा बनाना प्रारम्भ कर दिया। 'ब' ने 'स' को ऐसा करने से रोकने के लिए वाद दायर किया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि विक्रय विलेख के अन्तर्गत 'ब' को प्राप्त अधिकार एक सुखाधिकार है अत: धारा 40 में वर्णित सिद्धान्त नहीं लागू होगा।

    (4) उपभोग किये जाने पर अवरोध लगा दें- चूंकि यह सिद्धान्त नकारात्मक या निबन्धात्मक प्रसंविदा से संबन्धित है। अत: अधिकार उपभाग को प्रतिबन्धित करने वाला होना चाहिए। उदाहरणार्थ, किसी विशिष्ट घटना के घटित होने पर एक विशिष्ट धनराशि अदा करने हेतु संविदा, इस पैरा के अन्तर्गत अपेक्षित प्रसंविदा नहीं होगी। इसी प्रकार क्रेता द्वारा विक्रेता के साथ यह संविदा कि वह एक विशिष्ट धनराशि प्रतिवर्ष उसे अदा करेगा, इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा।

    इस प्रश्न का निर्धारण करने हेतु कि प्रसंविदा निबन्धात्मक है अथवा नहीं, संव्यवहार के स्वत्य पर ध्यान देना होगा न कि केवल इस तथ्य पर कि 'नहीं' शब्द का प्रयोग हुआ है या नहीं।' यदि 'नहीं' शब्द का प्रयोग न होने के बावजूद भी सारवान रूप में संव्यवहार निबन्धात्मक है। तो इस पैरा में उल्लिखित सिद्धान्त लागू होगा।

    पैरा दो- पैरा दो ऐसे संव्यवहार से सम्बद्ध है जिसमें एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के साथ हुई संविदा से उत्पन्न प्रभार के प्रलाभों को पाने का हकदार है और यह प्रलाभ अचल सम्पत्ति स्वामित्व से सम्बद्ध है, किन्तु जो सुखाधिकार नहीं है। उदाहरणार्थ यदि 'अ' 'ब' के साथ हुई किसी संविदा से उत्पन्न प्रभार के किसी प्रलाभ का अधिकारी है यदि वह हित 'ब' की अचल सम्पत्ति के स्वामित्व से सम्बद्ध है, किन्तु जो उसमें हित या सुखाधिकार के तुल्य नहीं है।

    कोई प्रभार सम्पत्ति के स्वामित्व से सम्बद्ध है अथवा नहीं, इस तथ्य का निर्धारण करने हेतु यह देखा जाता है कि क्या प्रभार केवल तब क्रियान्वित किया जाना आशयित या अपेक्षित था जबकि वह सम्पत्ति का स्वामी था अथवा स्वतंत्र रूप से क्रियान्वित किया जाना अपेक्षित था। यदि स्वामित्व के दौरान क्रियान्वित किया जाना आशयित था तो सम्बद्ध होगा और यदि नहीं तो सम्बद्ध नहीं होगा। यदि, अ अपनी सम्पत्ति 'स' के पक्ष में विक्रय करने की संविदा करता है तो यह संविदा केवल तभी क्रियान्वित हो सकेगी जबकि वह सम्पत्ति का स्वामी हो। ऐसा प्रभार अचल सम्पत्ति के स्वामित्व से सम्बद्ध माना जाएगा।

    (5) सुखाधिकार के पुनः क्रय हेतु संविदा - यह संविदा अचल सम्पत्ति (भूमि) से सम्बद्ध नहीं होती है। यह पूर्णतया व्यक्तिगत प्रसंविदा होती है। अतः यह भूमि के साथ चलने वाली प्रसंविदा नहीं होगी

    भरण-पोषण भुगतान हेतु संविदा भरण- पोषण भुगतान हेतु की गयी संविदा किसी अच सम्पत्ति पर प्रभार के रूप में हो सकती है। ऐसा प्रभार इस धारा द्वारा नियंत्रित नहीं होता है बल्कि इस अधिनियम की धारा 100 द्वारा नियंत्रित होता है। यह संविदा उक्त धारा में वर्णित सिद्धान्त से भित्र स्वामित्व से भी सम्बद्ध हो सकती है और उस दशा में इस धारा के पैरा दो में वर्णित सिद्धान्त लागू होगा। उदाहरणार्थ यदि 'अ' अपनी सम्पत्ति को दान के रूप में 'ब' को अन्तरित करता है तथा 'ब' प्रतिज्ञा करता है कि वह उस सम्पत्ति से होने वाली आय से 40 रुपये प्रतिमाह 'स' को देता रहेगा। यह संविदा स्वामित्व से सम्बद्ध मानी जाएगी।

    हकशुफा हेतु संविदा- हकशुफा हेतु अधिकार संविदा से जनित अधिकार होता है, यह इस पैरा से नियंत्रित होगा।

    बन्धक के रूप में सम्पत्ति अन्तरित करने की संविदा- यह अचल सम्पत्ति से सम्बद्ध है। अत: इस पैरा के अन्तर्गत आती है। यही स्थिति पट्टा प्रदान करने की संविदा की भी है। दूसरे की भूमि का राजस्व या ऋण अदा करने की संविदा- ऐसी संविदा भूमि से सम्बद्ध नहीं कही जा सकती है और इस पैरा के अन्तर्गत प्रवर्तनीय नहीं होगी।

    सूचनाधारी अन्तरिती- इस धारा में वर्णित सिद्धान्त प्रतिफलार्थ अन्तरिती के विरुद्ध प्रवर्तनीय हो सकेगा जब यह कहा जा सके कि अन्तरिती को ऐसे प्रभार या अधिकार की सूचना थी। यह सिद्ध करने का दायित्व कि उसने प्रतिफल के बदले और बिना ऐसे प्रभार की सूचना के सम्पत्ति प्राप्त किया था, अन्तरिती पर होगा।

    प्रथम सद्भावयुक्त अन्तरिती से सम्पत्ति लेने वाला अन्तरिती- यदि प्रथम अन्तरिती सदभावयुक्त था और उसने पूर्ववर्ती किसी प्रभार की सूचना के बिना सम्पत्ति प्राप्त किया था तो ऐसे व्यक्ति से सम्पत्ति प्राप्त करने वाला अन्तरिती इस नियम से प्रभावित नहीं होगा।

    अन्तरण-सम्पति का अन्तरण उचित प्रकार से होना चाहिए। जहाँ पंजीकृत दस्तावेज की आवश्यकता है वहाँ अन्तरण पंजीकृत होना चाहिए, किन्तु पंजीकरण अधिनियम की धारा 47 के अन्तर्गत पंजीकृत दस्तावेज उसके निष्पादन की तिथि से लागू होता है। अत: दस्तावेज के निष्पादन के बाद परन्तु उसके पंजीकरण के पूर्व प्राप्त हुई सूचना, इस धारा के अन्तर्गत अन्तरिती को प्रदत्त संरक्षण को प्रभावित नहीं करेगी।

    प्रसंविदाएं तथा शाश्वतता के विरुद्ध नियम-शाश्वतता के विरुद्ध नियम भूमि के साथ चलने वाली प्रसंविदाओं पर लागू नहीं होता है।

    इंग्लिश विधि के अन्तर्गत निर्बन्धात्मक प्रसंविदाएं- संविदाजन्य प्रभार पक्षकारों के लिए व्यक्तिगत होते हैं। ऐसे प्रभार आंग्ल विधि के अन्तर्गत निबन्धात्मक प्रसंविदा के नाम से जाने जाते हैं।

    इस नियम के दो अपवाद हैं-

    (1) पट्टा और भूमि में संलग्न प्रभार। ये दोनों ही प्रभार अन्तरणीय हैं। भूमि से संलग्न प्रसंविदाएं इंग्लिश विधि के अन्तर्गत दो वर्गों में विभक्त हैं। वे संविदाएं जो प्रलाभ युक्त हैं, अन्तरणीय हैं और इनका लाभ अन्तरिती उठा सकता है। वे संविदाएं जो प्रभार युक्त हैं उन्हें अनन्तरणीय माना गया है और वे अन्तरिती पर बाध्यकारी नहीं होती हैं।

    इस आशय की पुष्टि सर्वप्रथम आस्टरबेरी बनाम दि कार्पोरेशन ऑफ ओल्ढम के वाद में की गयी थी।

    लार्ड लिण्डले ने अभिप्रेक्षित किया था-

    "ऐसी प्रसंविदा जो भूमि पर प्रभार आरोपित करती है, भूमि के साथ केवल तब चल सकती है जबकि प्रसंविदा सुखाधिकार के अनुदान के तुल्य हो अथवा भाटक, प्रभार या भूमि में किसी हित के तुल्य हो।

    उपरोक्त वाद में भूस्वामी ने अपनी सम्पत्ति का एक अंश, जो अवशिष्ट सम्पत्ति से संलग्न थी, न्यासियों को सुपुर्द कर दिया था तथा न्यासियों ने यह प्रतिज्ञा की कि वे उस भूमि पर से होकर जाने वाली सड़क की मरम्मत करेंगे तथा उसे अच्छी दशा में रखेंगे। भूमि स्वामी ने बाद में अपनी अवशिष्ट सम्पत्ति वादी को तथा न्यासी ने न्यास सम्पत्ति को प्रतिवादी को बेच दिया। प्रश्न यह था कि क्या यादी, प्रतिवादी के विरुद्ध अपनी सम्पत्ति के सम्बन्ध में अधिकार प्रवर्तित करा सकेगा।

    प्रारम्भ में भूमि से संलग्न प्रसंविदा प्रसंविदाकार के अन्तरितों के विरुद्ध केवल पट्टे के मामलों में में प्रवर्तनीय थी। किन्तु टल्क प्रकरण में यह अभिनित हुआ कि साम्या के अन्तर्गत पट्टाकर्ता अथवा दाता द्वारा रोकी गयी सम्पत्ति के प्रलाभ हेतु आरोपित निबन्धात्मक प्रसंविदा ऐसे क्रेता पर बाध्यकारी होगी जिसे क्रय के समय सूचना थी। दूसरे शब्दों में विवक्षित रूप से यह अभिनिर्णीत हुआ कि भूमि के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगाने वाली प्रसंविदा भूमि के साथ-साथ चलती

    इस वाद में 'य' नामक एक व्यक्ति ने 'स' से कुछ भूमि खरीदी और यह प्रसंविदा की कि वह उक्त भूमि पर गृह निर्माण नहीं करेगा। उसने यह भी प्रतिज्ञा की कि यह भूमि को अच्छी हालत में रखेगा जिससे समीपस्थ मकानों को इसका लाभ मिलता रहे। वे मकान विक्रेता के थे। बाद में 'य' ने जमीन को 'ग' के हाथों बेच दिया और उसने उस पर मकान बनाना प्रारम्भ कर दिया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि 'ग' को मकान बनाने से रोका जाएगा।

    इस वाद में निर्णय इस आधार पर दिया गया था कि उसे पूर्व संव्यवहार की सूचना थी। इस निर्णय के उपरान्त यह प्रश्न उठा कि क्या ऐसा प्रतिबन्ध केवल निबन्धात्मक प्रसंविदाओं पर लागू होगा अथवा सकारात्मक प्रसंविदाओं पर भी किन्तु हेवर्ड बनाम ब्रन्सविक पर्मानेन्ट बिल्डिंग सोसाइटी के वाद में यह अभिनिर्णीत हुआ कि ऐसा प्रतिबन्ध केवल निबन्धात्मक प्रसंविदाओं के मामले में ही लागू होगा। सकारात्मक प्रसंविदाओं पर नहीं लागू होगा।

    इंग्लिश कामन लॉ तथा साम्य विधि में इस सिद्धान्त को लेकर यह भेद है कि कामन लॉ के अन्तर्गत प्रसंविदाकार का अन्तरिती बाध्य होगा चाहे उसे प्रसंविदा की सूचना रही हो या न रही हो। किन्तु साम्या के अन्तर्गत वह केवल तब बाध्य होगा जब उसे प्रसंविदा की सूचना रही हो, या वह प्रतिफल रहित अन्तरिती हो।

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