संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग: 16 निर्वाचन का सिद्धांत क्या है

Shadab Salim

11 Aug 2021 10:05 AM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग: 16 निर्वाचन का सिद्धांत क्या है

    संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 35 निर्वाचन के सिद्धांत के संबंध में उल्लेख कर रही है। इस अधिनियम के अंतर्गत निर्वाचन क्या होता है और धारा 35 का उद्देश्य क्या है इन सभी जानकारियों से संबंधित यह आलेख है।

    इस आलेख के अंतर्गत संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 35 पर टीका प्रस्तुत किया जा रहा है तथा उसकी सारगर्भित व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है। इससे पूर्व के आलेख में संपत्ति अंतरण अधिनियम की कुछ धाराओं की व्याख्या प्रस्तुत की गई थी। इस अधिनियम की धारा 35 महत्वपूर्ण धाराओं में से एक धारा है।

    निर्वाचन का सिद्धांत- (धारा 35)

    संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 35 निर्वाचन कब आवश्यक है उल्लेख कर रही है। जैसा कि इसके नाम से ही यह प्रतीत होता है की किसी चीज के निर्वाचन के संबंध में उल्लेख किया जा रहा है अर्थात कोई विषय ऐसा है जहां चयन या चुनाव पर उल्लेख किया जा रहा है। इस धारा के अंतर्गत कुछ दृष्टांत प्रस्तुत किए गए हैं जिनके माध्यम से इस धारा के उद्देश्य को बताए जाने का प्रयास किया गया है।

    इस धारा में प्रस्तुत किए गए निर्वाचन का अर्थ है कि कोई भी व्यक्ति एक ही समय में एक ही विषय पर सभी प्रकार के अधिकारों को अर्जित नहीं कर सकता अर्थात व्यक्ति को किसी एक अधिकार का चयन करना होगा उसका चुनाव करना होगा।

    निर्वाचन के सिद्धान्त को, संक्षेप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है :-

    'जो कोई भी किसी विलेख या वसीयत के अन्तर्गत कोई फायदा प्राप्त करता है उससे अपेक्षित है कि वह विलेख के समस्त तत्वों को स्वीकार करे, उसके समस्त प्रावधानों के अनुरूप आचरण करें तथा उसके प्रतिकूल सभी अधिकारों का त्याग करें।"

    संक्षेप में कहा जा सकता है कि निर्वाचन का सिद्धान्त तब लागू होगा जब दो प्रतिकूल अधिकार हों और यह मंशा व्यक्त की गयी हो कि दोनों अधिकार एक व्यक्ति के लिए नहीं हैं।

    निर्वाचन का सिद्धान्त निम्नलिखित सूत्रों पर आधारित है :-

    (i) जब कोई व्यक्ति किसी विधिक विलेख के द्वारा सम्पत्ति अन्तरित करने को प्रव्यंजना करता है, तो यह माना जाएगा कि उसकी मंशा थी कि जो कुछ भी विलेख में उल्लिखित है उसे पूर्णरूपेण क्रियान्वित किया जाए।

    (ii) किसी भी व्यक्ति को एक ही संव्यवहार को स्वीकार करने और अस्वीकार करने की अनुमति नहीं होगी।

    (iii) जो व्यक्ति किसी संव्यवहार द्वारा लाभ प्राप्त करता है उसे उस संव्यवहार के अधीन अधिरोपित भार का भी वहन करना होगा।

    निर्वाचन के सिद्धान्त की व्याख्या लाई हेथलें ने कूपर बनाम कूपर के प्रकरण में इस प्रकार की है:-

    'मुख्य सिद्धान्त को लेकर कभी विवाद नहीं था कि जो भी व्यक्ति किसी वसीयत के तहत या किसी अन्य विलेख के अन्तर्गत कोई फायदा लेता है उस पर यह दायित्व होता है कि वह उस विलेख को पूर्णतः क्रियान्वित करे, और यदि यह पाया जाता है कि विलेख द्वारा किसी ऐसी चीज को अन्तरित करने की प्रव्यंजना की गयी है जो दाता अथवा अन्तरक की शक्ति से परे था, किन्तु जिसे उस व्यक्ति को सम्मति से जिसे उसी विलेख के तहत फायदा मिल रहा है प्रभावी बनाया जा सकता है तो विधि उक्त व्यक्ति पर दायित्व अधिरोपित करेगा कि वह सम्पूर्ण विलेख को पूर्णरूपेण क्रियान्वित करे।'

    इस धारा में वर्णित सिद्धान्त के प्रतिपादन में उपरोक्त निर्णय का अत्यधिक महत्व है। यह एक साम्या का सिद्धान्त है जिसे भारत में विधिक स्तर प्रदान किया गया है। इस धारा में कुल 10 पैराग्राफ हैं जिनमें इससे सम्बन्धित अनेक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।

    (1) प्रथम पैराग्राफ में इस सिद्धान्त के आवश्यक अवयवों का उल्लेख है जो निम्नलिखित अवयव हैं :-

    (क) अन्तरण द्वारा अन्तरक एक ऐसी सम्पत्ति किसी दूसरे व्यक्ति के पक्ष में अन्तरित करने की प्रव्यंजना करे जिसे अन्तरित करने का उसे अधिकार न हो।

    (ख) उसी संव्यवहार के भाग रूप वह फायदा उस व्यक्ति को दे जिसको सम्पत्ति यह किसी दूसरे व्यक्ति को अन्तरित करने की प्रव्यंजना करता है।

    (ग) ऐसा सम्पत्ति स्वामी निर्वाचन करे कि वह ऐसे अन्तरण को या तो स्वीकार करेगा या अस्वीकार करेगा।

    (घ) अन्तरण से विसम्मति व्यक्त करने की स्थिति में उसके पक्ष में अन्तरित फायदा अन्तरक या उसके प्रतिनिधि को इस प्रकार प्रवर्तित हो जाएगा मानो वह व्ययनित ही नहीं हुआ था।

    (क) अन्तरक, अन्तरित करने के लिए प्राधिकृत न हो इस सिद्धान्त के प्रवर्तन के लिए यह आवश्यक है कि अन्तरक एक ऐसी सम्पत्ति अन्तरित करने की प्रव्यंजना करे जिसे अन्तरित करने के अधिकार उसके पास न हो। यदि सम्पति ऐसी है जिसे अन्तरित करने का अधिकार अन्तरक के पास है, तो उस सम्पत्ति का अन्तरण निर्वाचन के सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा।

    उदाहरणस्वरूप, अ, ब की सम्पत्ति स को प्रदान करे और उसी संव्यवहार द्वारा अपनी सम्पत्ति व को उसके एवज में प्रदान करे तो ब को अपनी उस सम्पत्ति जो स को दी गयी है तथा अ को उस सम्पत्ति के बीच चुनाव करना होगा जो उसे उसको उस सम्पत्ति के बदले दी गयी है।

    पैडबरी बनाम क्लार्की के बाद में अ को एक मकान के एक अंश में हित प्राप्त था, किन्तु उसने सम्पूर्ण कमान व के पक्ष में अन्तरित कर दिया तथा मकान के दूसरे अंश के हित धारक के पक्ष में एक लाभ अन्तरित कर दिया। मकान के दूसरे अंशधारक को निर्वाचन के दायित्व के अध्यधीन माना गया।

    इस सिद्धान्त के प्रवर्तन के लिए अन्तरक को स्पष्टतः यह कहना आवश्यक नहीं है कि, सम्पत्ति स्वामी निर्वाचन करने के दायित्वाधीन है। इस दायित्व का निर्धारण परिस्थितियों से किया जाता है। निर्वाचन का सिद्धान्त लागू होगा चाहे अन्तरक यह विश्वास करता हो या न करता हो कि जिसका अन्तरण करने की वह प्रव्यंजना करता है, स्वयं उसकी अपनी सम्पति है।

    (ख) उसी संव्यवहार के भाग रूप फायदा प्रदत्त करें दूसरा अवयव यह है कि अन्तरक, उसी संव्यवहार के भाग रूप कोई फायदा उस स्वामी को प्रदान करे जिसकी सम्पत्ति वह दूसरे व्यक्ति को अन्तरित करता है। यदि फायदा तथा दायित्व या प्रभार के स्त्रोत अलग-अलग हैं तो सम्पत्ति स्वामी निर्वाचन के दायित्व के अध्यधीन नहीं होगा।

    रमैय्यार बनाम महालक्ष्मी के वाद में एक हिन्दू विधवा ने अपनी शक्ति से अधिक अचल सम्पत्ति दान विलेख द्वारा अन्तरित किया। बाद में उसने वसीयत विलेख द्वारा अपने उत्तरभोगी के पक्ष में कुछ सम्पत्ति अन्तरित किया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि वसीयत के अन्तर्गत सम्पत्ति प्राप्त करने के कारण उत्तरभोगी विधवा द्वारा दान के रूप में किए गये हस्तान्तरण को मना करने से प्रतिषिद्ध नहीं होगा क्योंकि दान और वसीयत अलग-अलग संव्यवहार है।

    किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि फायदा और दायित्व एक ही अन्तरण विलेख द्वारा सृष्ट किए गये हों। यदि अलग-अलग विलेखों में वर्णित होने के बावजूद ये एक संव्यवहार के अंश हैं तो यह सिद्धान्त लागू होगा। किन्तु सिद्धान्त के प्रवर्तन के लिए सबसे आवश्यक तत्व यह है कि अन्तरक स्वामी कोई फायदा प्रदान करे।

    यदि वह फायदा प्रदान कर रहा है तो निर्वाचन का दायित्व उत्पन्न नहीं होगा। पैरा 1 के अन्त में दिए गये दृष्टान्त से स्पष्ट है यदि अन्तरक द्वारा सम्पत्ति स्वामी के पक्ष में अन्तरित सम्पत्ति का मूल्य उस सम्पत्ति के मूल्य से अधिक है जो किसी दूसरे व्यक्ति या निराश अन्तरिती के पक्ष में अन्तरित की गयी है तो यह समझा जाएगा कि अन्तरक ने सम्पत्ति स्वामी को लाभ प्रदान किया है। वस्तुतः फायदा प्रदान करना निर्वाचन के सिद्धान्त की एक महत्वपूर्ण शर्त है।

    उदाहरण के लिए अ ब की सम्पत्ति स को देता है और अपनी सम्पत्ति ब को यदि अ को सम्पत्ति का मूल्य ब की सम्पत्ति से कम या उसके बराबर है तो यह नहीं समझा जाएगा कि उसने फायद नहीं प्रदान किया है। किन्तु यदि अ की सम्पत्ति का मूल्य ब की सम्पत्ति से अधिक है तो यह समझा जाएगा कि अन्तरण के फलस्वरूप फायदा प्रदान किया गया है।

    (ग) सम्पत्ति स्वामी निर्वाचन करें तीसरा अवयव यह है कि सम्पत्ति स्वामी अपनी सम्पति और अन्तरक द्वारा दी गयी सम्पत्ति के बीच चुनाव करें कि वह अपनी ही सम्पत्ति अपने पास रखेगा या अन्तरक द्वारा दी गयी सम्पत्ति स्वीकार करेगा। यदि यह यह निर्णय लेता है कि वह अपनी ही सम्पत्ति अपने पास रखेगा वो अन्तरक द्वारा दी गयी सम्पत्ति अन्तरक या उसके वारिसों को वापस हो जाएगी किन्तु निर्वाचन द्वारा यदि यह अन्तरक द्वारा प्रदत्त लाभ को स्वीकार कर लेता है तो उसकी अपनी सम्पत्ति उस व्यक्ति को मिल जाएगी जिसके पक्ष में वह आशयित थी। निर्वाचन के विकल्प का प्रयोग न केवल वास्तविक स्वामी करने में सक्षम है, अपितु ऐसे व्यक्ति भी जो निहित हित धारक समाश्रित हित धारक उत्तरभोगी इत्यादि की श्रेणी में आते हैं।

    इसका प्रयोग करने में सक्षम विकल्प के प्रयोग के बन्ध में निम्नलिखित तत्व महत्वपूर्ण हैं:-

    (1) यदि अन्तरक को फायदा परत व्युत्पन्न होता है पैरा तीन प्रतिपादित करता है कि यदि संव्यवहार के अधीन सम्पत्ति स्वामी सीधा फायदा नहीं लेता है, अपितु फायदा उसके परत व्युत्पन्न होता है तो यह निर्वाचन करने के दायित्वाधीन नहीं होगा। उदाहरण के लिए यदि सम्पत्ति x स को उसके जीवनकाल के लिए दी गयी हो तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके एक मात्र पुत्र 'द' को और अ उस सम्पत्ति को ब को अन्तरित कर दे और स को 1000 रुपये तथा विकल्प का प्रयोग करने से पहले ही स को मृत्यु हो जाए और उसका पुत्र द स के प्रशासक के रूप में विकल्प का प्रयोग करते हुए यह निर्णय से कि वह 1000 रुपये स्वीकार करेगा तो वह सम्पत्ति X को ब पक्ष में छोड़ने के दायित्वाधीन होगा। किन्तु चूँकि वह सम्पत्ति पिता की मृत्यु पर आत्यन्तिक रूप में उसे मिलने वाली थी अतः अपने व्यक्तिगत हैसियत का प्रयोग करते हुए यह सम्पत्ति को अपने पास रोकने के लिए सक्षम होगा 1000 रुपये तथा सम्पत्ति X 'द' के पास क्रमशः परतर और प्रत्यक्ष रूपों में आते हैं। अत: यह दोनों को हो पाने का हकदार होगा। निर्वाचन का सिद्धान्त जैसी स्थिति में वस्तुतः प्रवर्तित ही नहीं होता है।

    (ii) एक हैसियत में फायदा, दूसरी हंसियत में विसम्मति सम्पत्ति स्वामी संव्यवहार के अधीन एक हैसियत से फायदा लेते हुए किसी अन्य हैसियत में उससे विसम्मत हो सकेगा। उदाहरण के लिए एक सम्पत्ति X." अ' को उसके जीवनकाल के लिए और उसकी मृत्यु के पश्चात् ब को दी गयी है। अ उस सम्पत्ति को द के पक्ष में अन्तरित करता है और ब को 2000 रुपये तथा ब के पुत्र को 1000 रुपये देता है। ब की निर्वसीयती मृत्यु हो जाती है और स सम्पत्ति का प्रशासक बन जाता है। इस हैसियत से यह सम्पत्ति में धारण करना चुनता है। वह 2000 रुपये पाने का अधिकारी नहीं होगा। किन्तु 1000 रुपये जो इसे अलग से दिए गये थे, उन्हें धारण करने का अधिकारी होगा। इस विसम्मति से यह 1000 रुपयों से वंचित नहीं होगा।

    उप-कमिश्नर बनाम राम स्वरूप के वाद में एक व्यक्ति को न्यासी के रूप में विन्यास (Endowment) के तहत एक सम्पत्ति प्राप्त हुई। उसने एक अन्य सम्पत्ति के लिए, स्वामी की हैसियत से विन्यास के विरुद्ध दाया प्रस्तुत किया। यह अभिनित हुआ कि वह ऐसा कर सकेगा। निर्वाचन का सिद्धान्त लागू नहीं होगा।

    (ग) विकल्पधारी अपनी विसम्मति व्यक्त करें-चौथा अवयव यह प्रतिपादित करता है कि विकल्पधारी यदि अन्तरण के पक्ष में अपने विकल्प का प्रयोग करता है तो वह लाभ या फायदा पाने का अधिकारी होगा। किन्तु यदि वह अन्तरण से अपनी विसम्मति व्यक्त करता है तो वह फायदे से वंचित हो जाएगा और इस प्रकार व्यक्त फायदा अन्तरक अथवा उसके प्रतिनिधि को वापस लौट जाएगा।

    मानों वह व्ययनित ही नहीं हुआ था किन्तु :

    (1) जहाँ कि अन्तरण अनुग्राहिक है और अन्तरक निर्वाचन किए जाने से पहले मर गया। या नवीन अन्तरण करने के लिए अन्यथा असमर्थ हो गया है; और

    (ii) उन सब दशाओं में, जिनमें अन्तरण प्रतिफलार्थ है।

    निराश अन्तरितों को प्रतिफल की रकम या उस सम्पत्ति के जिसे उसको अन्तरित किये जाने का प्रयत्न किया गया था, मूल्य को चुका देने के भार के अध्यधीन अन्तरक का प्रतिनिधि अथवा वह स्वयं होगा।

    इस भार के अन्तर्गत निहित सिद्धान्त की व्याख्या सर जार्ज जेसेल ने इस प्रकार की है-

    साम्या न्यायालय ऐसे मामलों में निराश अन्तरितों के लिए बिना कोई व्यवस्था किए प्रदत्त फायदा को वापस लौटने की अनुमति नहीं देगा। यदि विकल्पधारी के कृत्य के फलस्वरूप निराश अन्तरिती अन्तरण के अन्तर्गत सम्पत्ति नहीं प्राप्त कर सका तो अन्तरक या उसका प्रतिनिधि उसे निराश न होने देने के भार से युक्त होगा।'

    उदाहरण के लिए सुल्तानपुर का खेत ग को सम्पत्ति है और उसका मूल्य 800 रुपये है। 'क' उसे दान को लिखत द्वारा ख को अन्तरित करने की प्रव्यंजना करता है और उसी लिखत द्वारा 'ग' को 1000 रुपये देता है। ग खेत को अपने पास रखना निर्वाचित करता है। 1000 रुपये 'क' को वापस हो जाएंगे।

    किन्तु यदि के निर्वाचन से पहले मृत हो जाता है और अन्तरण अनुग्राहिक है तो उसका प्रतिनिधि 1000 रुपये में से 800 रुपये ख को देगा। यदि अन्तरण प्रतिफलार्थ था तो क अथवा उसका प्रतिनिधि 1000 रुपये में से 800 रुपये ख को देगा।

    अपवाद — जहाँ उस सम्पत्ति के स्वामी को, जिसे किसी अन्य व्यक्ति के पक्ष में अन्तरित करने की प्रव्यंजना की गयी है, कोई विशिष्ट लाभ देने की इच्छा व्यक्त की गयी है और ऐसा लाभ उसी सम्पत्ति के एवज में दिया जाना अभिव्यक्त है, यहाँ यदि ऐसा स्वामी यह निर्णय लेता है कि वह अपनी ही सम्पत्ति अपने पास रखेगा और अन्तरक द्वारा दी गयी सम्पति ग्रहण नहीं करेगा तो वह उसी संव्यवहार प्रदत्त किसी अन्य लाभ को त्यागने के लिए आबद्ध नहीं होगा। अपनी विसम्मति व्यक्त करने के कारण सम्पत्ति स्वामी केवल विशिष्ट फायदे से वंचित होगा न कि अन्य फायदों से।

    उदाहरण:

    (6) अ अपनी तीन सम्पत्तियों x y तथा z 'ब' को एक ही संव्यवहार द्वारा अन्तरित करता है तथा 'ब' की सम्पत्ति P. स को देता है। अन्तरण विलेख में यह उल्लिखित है कि सम्पत्ति x सम्पत्ति P के एवज में दी जा रही है। यदि व सम्पत्ति P को हो धारण किये रहना स्वीकारता है तो वह केवल सम्पत्ति नहीं पायेगा। शेष दोनों सम्पत्तियों y तथा z को अपनी विसम्मति व्यक्त करने के बावजूद भी पाने का अधिकारी होगा।

    (ii) वैवाहिक समझौते के तहत, यदि अ की पत्नी उसकी मृत्यु के समय जीवित रहती है, तो वह सम्पत्ति x तो आजीवन प्रयोग करने के लिए सक्षम होगी। अ, सम्पत्ति x को अपने बेटे को दे देता है और इसके एवज में अपनी पत्नी को 200 रुपये वार्षिकी देता है जब तक वह जीवित रहेगी। इसके अतिरिक्त वह अपनी पत्नी को 1000 रुपये वसीयत के रूप में देता है। उसकी पत्नी यह निर्णय लेती है कि वह उसी सम्पत्ति को लेगी जो उसे वैवाहिक समझौते के अन्तर्गत मिलने वाली थी। इस निर्णय के फलस्वरूप वह 200 रुपये वार्षिकी पाने की हकदार नहीं होगी। किन्तु वसीयत के रूप में प्राप्त 1000 रुपये को पाने की हकदार होगी।

    निर्वाचन का सिद्धान्त इस अवधारणा पर आधारित है कि अन्तरक की इच्छा थी कि संव्यवहार को पूर्णरूपेण क्रियान्वित किया जाए। उसके एक अंश को उसी के दूसरे अंश के विरोधाभास में स्वीकार न किया जाए। यह सामान्य अवधारणा तब लागू नहीं होगी जब अन्तरक ने स्वतः ही यह स्पष्ट कर दिया हो कि अन्तरित सम्पत्तियों में से विशिष्ट सम्पत्ति उस सम्पत्ति के एवज में है जो दूसरे व्यक्ति को अन्तरित होनी है। यह समझा जाएगा कि विसम्मति की स्थिति में केवल विशिष्ट सम्पत्ति ही अन्तरक अथवा उसके प्रतिनिधियों के पास वापस लौटेगी।

    निर्वाचन की प्रक्रिया - इस धारा का पैरा 6 उपबन्धित करता है कि जिस व्यक्ति को फायदा प्रदत्त किया गया है, उस व्यक्ति द्वारा प्रतिग्रहण की अन्तरण की पुष्टि के लिए उसके द्वारा किया निर्वाचन गठित करता है, यदि वह निर्वाचन करने के अपने कर्तव्य को जानता हो और उन परिस्थितियों को जानता हो जो निर्वाचन करने में किसी युक्तिमान मनुष्य के निर्णय पर प्रभाव डालती है, अथवा उन परिस्थितियों की जाँच करने का अधित्य मन कर देता है। इस उपबन्ध से यह सुस्पष्ट है कि यह प्रक्रिया एक सोच-समझ कर की जाने वाली प्रक्रिया है क्योंकि इसमें दो परस्पर विरोधों परिस्थितियों के बीच निर्वाचन करना होता है।

    यदि विकल्पधारी व्यक्ति अपनी मंशा स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करता है तो यह अन्तिम एवं निश्चायक होगा, किन्तु यदि वह ऐसा नहीं करता है, केवल प्रदत्त लाभ को स्वीकार कर लेता है, तो यह निष्कर्ष निकाला जाएगा कि उसने विकल्प का प्रयोग अन्तरण के पक्ष में किया है; बशर्ते :

    (i) उसे निर्वाचन करने के अपने कर्तव्य का बोध रहा हो, तथा

    (ii) उन परिस्थितियों को जानता रहा हो जो निर्वाचन करने में किसी युक्तिमान मनुष्य के निर्णय पर प्रभाव डालती है, अथवा

    (iii) वह उन परिस्थितियों की जाँच करने से इन्कार कर देता है।

    तथ्यों के सम्पूर्ण ज्ञान के तहत किया गया निर्वाचन अन्तिम एवं बाध्यकारी होता है। इसके विपरीत ऐसे ज्ञान के बिना किया गया निर्वाचन विकल्पधारी अथवा उसके प्रतिनिधियों द्वारा प्रतिसंहरित हो सकेगा। सादिक हुसैन बनाम हाशिम अली के बाद में एक मुस्लिम पुरुष ने अपनी पत्नी के पक्ष में उसके महर के भुगतान हेतु एक न्यास सृष्ट किया।

    इस सम्पत्ति के सम्बन्ध में उठे विवाद को लेकर कांसिल ने यह मत व्यक्त किया कि 'यदि स्त्री को इस न्यास के प्रयोजन एवं तथ्यों के विषय में कुछ नहीं बताया गया था तो उसके द्वारा किया निर्वाचन, जिसके तहत उसने अपने तथा अपने बच्चों के लिए की गयी व्यवस्था को महर के एवज में स्वीकार किया नहीं होगा।' उस पर बाध्यकारी होगा।

    अ सुल्तानपुर खुर्द का मालिक था और उसे सुल्तानपुर बुजुर्ग में आजीवन हित प्राप्त था। अ की मृत्यु के पश्चात् उसके बेटे क को सुल्तानपुर बुजुर्ग का पूर्ण स्वामी होना था। अ सुल्तानपुर खुर्द क को देता है तथा सुल्तानपुर बुजुर्ग स को क को सुल्तानपुर बुजुर्ग में के अपने हित की सूचना नहीं थी और उसने ख को इस सम्पत्ति को ले लेने की अनुमति दे दी और स्वयं सुलतानपुर खुर्द ले लिया। 'क' को ख के पक्ष में सुल्तानपुर बुजुर्ग के लिए सम्मति दिया हुआ नहीं माना जाएगा।

    निर्वाचन की अवधारणा-

    जहाँ प्रत्यक्ष निर्वाचन नहीं होता है वहाँ निर्वाचन की अवधारण की जाती है। इस धारा के अन्तर्गत निम्नलिखित स्थिति में इस तथ्य को अवधारणा की जाएगी :-

    (i) दो वर्ष के उपभोग द्वारा पैराग्राफ 7 उपबन्धित करता है कि यदि वह व्यक्ति जिसे फायदा प्रदत्त किया गया है, विसम्मति व्यक्त करने के लिए कोई कार्य किए बिना, दो वर्ष तक सम्पत्ति का उपभोग कर लेता है तो यह समझा जाएगा कि उसने अन्तरण के पक्ष में निर्वाचन कर लिया है। दो वर्ष की यह कालावधि प्रसिद्ध इंग्लिश बाद क्राफ्टी बनाम ब्रॅम्बुल' से ली गयी है। इस पैरा के अन्तर्गत की जाने वाली अवधारणा विखण्डनीय है और प्रतिकूल साक्ष्य द्वारा इसे रद्द किया जा सकेगा

    (ii) सामान्य स्थिति में परिवर्तन द्वारा पैराग्राफ 8 उपबन्धित करता है कि यदि विकल्पधारी सम्पत्ति लेने के पश्चात् उसे इस प्रकार प्रयोग में लाता है कि हितबद्ध व्यक्तियों को उसी दशा में रखना असम्भव हो गया है जिसमें वे होते यदि वह कार्य न किया गया होता तो यह निष्कर्ष निकाला जाएगा कि उसने अपने विकल्प का प्रयोग अन्तरण के पक्ष में किया है।

    उदाहरण के लिए क, ख को एक सम्पत्ति अन्तरित करता है जिसका ग हकदार है और उस संव्यवहार के भाग रूप 'ग' को कोयले की एक खान देता है। ग खान को कब्जे में लेता है और उसे निःशेष कर देता है। तद्वारा उसने ख को सम्पत्ति के अन्तरण की पुष्टि कर दी है।

    पैरा 7 तथा 8 में यह अन्तर है कि पैरा 7 में निष्कर्ष अनिवार्य है जबकि पैरा 8 में यह अनिवार्य नहीं है।

    निर्वाचन की अवधि- पैराग्राफ 9 उपबन्धित करता है कि यदि विकल्पधारी अन्तरण की तिथि से एक वर्ष के भीतर अन्तरण को पुष्टि करने का या उससे विसम्मति का अपना आशय अन्तरक या उसके प्रतिनिधि को नहीं बता देता है, तो अन्तरक या उसका प्रतिनिधि उस कालावधि के अवसान पर उससे यह अपेक्षा कर सकेगा कि वह निर्वाचन करे और यदि वह ऐसी अपेक्षा की प्राप्ति के पश्चात् युक्तियुक्त समय के भीतर उसका पालन नहीं करता तो यह समझा जाएगा कि उसने अन्तरण की पुष्टि करने का निर्वाचन कर लिया है। युक्तियुक्त कालावधि किसी भी दशा में अवशिष्ट एक वर्ष से अधिक की नहीं हो सकेगी।

    निर्योग्यता से प्रभावित व्यक्ति द्वारा निर्वाचन - अन्तिम पैरा यह उपबन्धित करता है कि यदि 1 निर्वाचन के दायित्व से युक्त किसी निर्योग्यता से प्रभावित है, तो निर्वाचन उस समय तक मुल्तवी रहेगा जब तक उस निर्योग्यता का अन्त नहीं हो जाता या जब तक निर्वाचन किसी सक्षम प्राधिकारी द्वारा नहीं किया जाता।

    अपवाद - निम्नलिखित मामलों में निर्वाचन का सिद्धान्त लागू होगा :

    (i) स्वतंत्र हित स्वतंत्र अन्तरण।

    (ii) विपरीत उद्देश्य।

    (iii) सरकारी अनुदान।

    (iv) निर्वाचन असम्भव हो।

    (v) अन्तरण विलेख में निर्वाचन के प्रतिकूल व्यवस्था हो।

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