संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग: 15 संपत्ति अंतरण अधिनियम के धारा 27 से लेकर 34 तक के महत्वपूर्ण प्रावधानों पर व्याख्या

Shadab Salim

11 Aug 2021 4:46 AM GMT

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 भाग: 15 संपत्ति अंतरण अधिनियम के धारा 27 से लेकर 34 तक के महत्वपूर्ण प्रावधानों पर व्याख्या

    संपत्ति अंतरण अधिनियम अंतर्गत लगभग तो सभी धाराएं महत्वपूर्ण है। कुछ धाराएं महत्वपूर्ण होने के साथ छोटी भी हैं पर इस अधिनियम में उनका उनका स्थान बड़ी धाराओं के समक्ष ही है। इस आलेख के अंतर्गत संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 27 से लेकर 34 तक की व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है। पिछले आलेख के अंतर्गत पूर्ववर्ती शर्त और पुरोभाव्य शर्त की पूर्ति पर टीका किया गया था।

    धारा 27:-

    इस धारा का उद्देश्य अन्तरक के आशय को तब प्रभावी बनाना है जबकि पूर्विक हित विफल हो गया हो। इसे इंग्लिश कानून के अन्तर्गत त्वरिताप्ति का सिद्धान्त (Doctrine of Acceleration) कहा जाता है, क्योंकि पूर्विक हित के विफल होने के पश्चात् यह तुरन्त उत्तरवर्ती अन्तरिती में निहित हो जाता है। दूसरे शब्दों में उत्तरवर्ती अन्तरिती का हित समय से पहले अस्तित्व में आ जाता है।

    उदाहरणार्थ अ ने ब को 500 रुपया इस शर्त पर अन्तरित किए कि अ की मृत्यु के तीन महीने के भीतर ही ब निर्दिष्ट पट्टा कर देगा। यदि पट्टा न किया गया तो 500 रुपया स को मिलेंगे अ की ही जिन्दगी में ब मर जाता है। स के पक्ष में किया गया अन्तरण तुरन्त प्रवर्तनीय हो जाएगा, यद्यपि ब को निर्दिष्ट शर्त को पूरा करने का मौका ही नहीं मिल सका।

    इस सिद्धान्त के लागू होने के लिए यह आवश्यक है सम्पत्ति का अन्तरण सर्वप्रथम एक व्यक्ति को किया जाए और उसके बाद दूसरे व्यक्ति को किया जाए। पहले व्यक्ति के पक्ष में किया गया अन्तरण वैध होना चाहिए। यदि वह वैध नहीं हो तो उत्तरवर्ती अन्तरण भी अवैध हो जाएगा। शर्तें ऐसी नहीं होनी चाहिए जिसका अनुपालन असम्भव हो।

    जब पूर्विक हित असफल हो जाता है तब उत्तरवर्ती हित प्रभावी होता है। पूर्विक हित पक्षकारों द्वारा निर्धारित या भिन्न रीति से विफल हो सकता है और उसके विफल होते हो उत्तरवर्ती हित प्रभावी हो जाएगा मानों कोई पूर्व हित अन्तरण की तारीख से ही न रहा हो।

    अखोमनी बनाम नीलमनी के वाद में अन्तरक की पत्नी गर्भवती थी। उसने यह निर्देश दिया कि उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति सम्भावित पुत्र को मिलेगी और यदि पुत्री पैदा होती है तो उसे भरण पोषण का अधिकार प्राप्त होगा। उसने यह भी निर्देश किया कि यदि पुत्र की मृत्यु अवयस्कता के दौरान हो जाती है तो सम्पत्ति एक अन्य व्यक्ति को मिल जाएगी। पुत्री के जन्म पर न्यायालय ने अभिनित किया कि पुत्र के पक्ष में सृजित हित विफल हो गया है। अतः सम्पत्ति अन्य व्यक्ति के पक्ष में सृष्ट हो जाएगी।

    दुर्गा प्रसाद बनाम रघुनन्दन लाल के वाद में अ ने अपने अवयस्क पुत्र के पक्ष में वसीयत किया और यह उपबन्धित किया कि यदि वयस्क होने से पहले उसकी मृत्यु हो जाती है तो सम्पत्ति विधवा को उसके जीवनकाल के लिए और तत्पश्चात् पुत्रियों को मिल जाएगी। यह अभिनिर्णत हुआ कि पुत्र की अवयस्कता के दौरान विधवा की मृत्यु से पुत्रियाँ सम्पत्ति से वंचित नहीं होंगी। अपितु पूर्विक हित के विफल होने की दशा में समय से पूर्व हित प्राप्त करेंगी।

    अपवाद- यह सिद्धान्त उन मामलों में लागू नहीं होगा जिनमें अन्तरक का आशय स्पष्ट हो कि पूर्विक अन्तरण के किसी विशेष ढंग से विफल होने की दशा में हो उत्तरवर्ती अन्तरण प्रभावी होगा। उस दशा में यदि पूर्विक अन्तरण विनिर्दिष्ट रीति से विफल नहीं होता है तो उत्तरवर्ती अन्तरण प्रभावी नहीं होगा।

    अ ने अपनी सम्पत्ति को अपनी पत्नी के पक्ष में अन्तरित किया और यह निर्देश दिया कि यदि पत्नी उसके जीवनकाल में ही मृत हो जाए तो उसको दिया गया हित ब को अन्तरित हो जाएगा। अतएव उसकी पत्नी और उसकी दोनों की मृत्यु एक साथ ऐसी स्थिति में होती है जिसमें यह सिद्ध करना असम्भव हो जाता है कि पत्नी की मृत्यु अ से पहले हुई थी। ब के पक्ष में किया गया हित प्रभावी नहीं होगा।

    धारा 28:-

    सम्पत्ति अन्तरण से किसी व्यक्ति के पक्ष में कोई हित इस अधियोजित (Superadded) शर्त के साथ दिया जा सके कि यदि कोई विनिर्दिष्ट अनिश्चित घटना घटे तो सम्पत्ति किसी अन्य व्यक्ति को अंतरण हो जाएगी अथवा दे दी जाएगी।

    उदाहरणार्थ यदि अ 1000 रुपये व के लिए इस शर्त के साथ अन्तरित करता है कि यदि वह अन्तरण की तिथि से 3 वर्ष के भीतर अमेरिका नहीं जाता है तो सम्पत्ति 'स' को दे दी जाएगी। यदि ब कथित समय के अन्दर अमेरिका जाने में विफल रहता है तो 1000 रुपये स के पास चले जाएंगे। 'स' के पक्ष में किया गया अन्तरण 'परतर' अन्तरण कहा जाता है तथा पूर्विक हित जो ब के पक्ष में किया गया था के विफल होने की दशा में ही प्रभावी होता है।

    एक वाद में पटना उच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए कहा था-

    'धारा 28 द्वारा सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम एक ऐसे मामले के सम्बन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करता है जिसमें किसी विनिर्दिष्ट अनिश्चित घटना के घटित होने की दशा में सम्पत्ति दूसरे अन्तरितों को चली जाती है। इसके विपरीत धारा 31 उस मामले के सम्बन्ध में प्रावधान प्रस्तुत करती है जिसमें प्रथम अन्तरितों का हित किसी विनिर्दिष्ट अनिश्चित घटना के घटित होने पर समाप्त हो जाता है और इस प्रकार समाप्त हुआ हित पुनः अन्तरक में निहित हो जाता है।'

    अभ्यारोपित शर्त प्रथम अन्तरण के लिए उत्तरवर्ती शर्त के रूप में कार्य करती है तथा द्वितीय अन्तरण के लिए पूर्विक शर्त के रूप में कार्य करती है।

    उमेश चन्दर बनाम जहूर फातिमा के वाद में अ नामक एक व्यक्ति ने कुछ सम्पत्ति अपनी दूसरी पत्नी के नाम में अन्तरित किया और उसके पश्चात् उसके पुत्र को किन्तु यदि उसका अपना कोई पुत्र नहीं होगा तो प्रथम पत्नी के पुत्रों को यह अभिनिर्णीत हुआ कि प्रथम पत्नी के पुत्रों की सम्पत्ति में निहित हित प्राप्त हुआ था जो द्वितीय पत्नी के पुत्र के पैदा होने पर समाप्त हो जाएगा।

    जहाँ दान विलेख में यह उपबन्धित है कि किसी व्यक्ति के पक्ष में सृष्ट हित एक विनिर्दिष्ट अनिश्चित घटना के घटित होने की दशा में दूसरे व्यक्ति को अंतरित हो जाएगा, वहाँ प्रथम अन्तरित सम्पत्ति में केवल आजीवन हित प्राप्त होता है तथा आत्यन्तिक हित दूसरे व्यक्ति को विनिर्दिष्ट अनिश्चित घटना के घटित होने पर प्राप्त होगा। पर यदि घटना का घटित होना असम्भव हो गया है तो आजीवन हित, आत्यन्तिक हित में परिवर्तित हो जाएगा और परतर अन्तरण प्रभावी नहीं होगा।

    एक वाद में अ नामक एक व्यक्ति ने अपनी सम्पत्ति अपनी पत्नी के पक्ष में अन्तरण करने की शक्ति के साथ अन्तरित किया और यह उपबन्धित किया कि 'यदि विधवा की मृत्यु के समय उसका कोई दत्तक पुत्र नहीं रहेगा या ऐसे दत्तक पुत्र की पत्नी या पुत्र जीवित नहीं रहेगा तो उसकी मृत्यु के पश्चात् अवशिष्ट सम्पत्ति हमारे उत्तराधिकारियों को, जो तत्समय जीवित होंगे, हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, दे दी जाएगी।

    इन तथ्यों के आधार पर न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि परतर अन्तरण प्रभावी नहीं होगा। किन्तु यदि यह उपबन्धित किया गया हो कि पत्नी को आत्यन्तिक हित सम्पत्ति में प्रदान किया गया है और उसकी मृत्यु के समय उसकी कोई सन्तान नहीं होगी तो सम्पत्ति भाइयों को दे दी जाएगी, तो उत्तरवर्ती हित प्रभावी होगा।

    सृष्ट हित किसी अन्य व्यक्ति को अंतरित हो जाएगा- इस सिद्धान्त के लागू होने के लिए आवश्यक नहीं है कि प्रथम अन्तरिती के पक्ष में सृजित हित आत्यन्तिक हो। उसके पक्ष सृष्ट आजीवन या समाश्रित हित भी उतना ही प्रभावी होगा जितना कि आत्यन्तिक हित।

    यदि कोई सम्पत्ति दान द्वारा अन्तरित की गयी हो और यह कहा गया हो कि दान निश्चित व्यक्ति या व्यक्तियों के पक्ष में ही प्रभावी होगा, ऐसी स्थिति में यह आवश्यक नहीं होगा कि परतर अन्तरिती या अन्तरितियों का उनके नाम से उल्लेख हो। किन्तु यह आवश्यक होगा कि उनका उल्लेख इस प्रकार से हो जिससे उनका निर्धारण हो सके।

    अधियोजित शर्त के साथ - इस सिद्धान्त की यह भी एक आवश्यक शर्त है कि अधियोजित शर्त अन्तरण की ही एक शर्त हो और उसी समय अधियोजित की गयी हो जिस समय अन्तरण हुआ था। अन्तरक, अन्तरण के उपरान्त ऐसी शर्त अधियोजित कर निहित हित को नष्ट नहीं कर सकता है।

    एक वाद में एक दान विलेख तथा एक समझौता विलेख, जिसके अन्तर्गत दाता किसी विनिर्दिष्ट अनिश्चित घटना के घटित होने पर दान को प्रतिसंहरित करने के लिए प्राधिकृत था, एक ही दिन किन्तु दो अलग-अलग दस्तावेजों के रूप में निष्पादित किए गए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्णीत किया कि दोनों दस्तावेज एक ही संव्यवहार के अंश हैं तथा उन्हें एक साथ पढ़ा जाना चाहिए।

    धारा 29:-

    विधि का यह एक मान्य सिद्धान्त है कि सम्पत्ति में हित यथाशीघ्र किसी व्यक्ति में निहित हो तथा पहले से निहित हित नष्ट न होने पाए। अतः ऐसी कोई शर्त जो निहित हित को नष्ट करने के प्रभाव से युक्त है, उसका यथावत अनुपालन होना आवश्यक है। 'अ' 'ब' को 500 रुपये इस शर्त के साथ देता है कि वे रुपये उसे तब देय होंगे जब वह बालिग हो जाए या विवाह कर ले ।

    यदि नाबालिग रहने के दौरान उसकी मृत्यु हो जाती है या वह 'स' की अनुमति के बिना विवाह कर लेता है तो वे 500 रुपये 'घ' को दे दिए जाएंगे। 'ब' 17 वर्ष की आयु में ही 'स' की अनुमति के बिना विवाह कर लेता है। 'घ' के पक्ष में किया गया अन्तरण प्रभावी हो जाएगा।

    अक्षरशः या यथावत अनुपालन - यह धारा उपबन्धित करती है कि उत्तरभाव्य शर्त या पाश्चिक शर्त जिसका प्रभाव निहित हित को समाप्त करना है, का अनुपालन अक्षरश: पर यथावत होना आवश्यक है। शर्त का अक्षरशः पालन होने पर ही निहित हित समाप्त होगा। यदि उत्तरभाव्य शर्त में कोई अनिश्चितता है या वह सुस्पष्ट नहीं है तो ऐसी स्थिति का लाभ निहित हितधारी को मिलेगा।

    एक वाद में एक व्यक्ति को एक मकान इस शर्त के साथ दान द्वारा दिया गया कि यदि वह मकान में निवास नहीं करेगा तो मकान दूसरे व्यक्ति की सम्पत्ति हो जाएगा। इन तथ्यों के आधार पर प्रिवी काँसिल ने अभिनिर्णीत किया कि निवास' शब्द से यह अभिप्रेत नहीं है कि अन्तरिती निरन्तर उस मकान में निवास करे। समय-समय पर मकान में निवास पर्याप्त होगा 'निवास' के प्रयोजन हेतु।

    अतः दूसरा व्यक्ति मकान की माँग करने में सक्षम नहीं होगा पार्ट्रिज बनाम पार्ट्रिज के वाद में 'एक मकान का दान एक नाबालिग के पक्ष में इस शर्त के साथ किया गया कि यदि वह मकान में निवास करने से मना करता है अथवा उपेक्षा करता है तो मकान 'ब' की सम्पत्ति हो जाएगा।

    यह अभिनिर्णीत हुआ कि एक नाबालिग व्यक्ति मकान में रहने से न तो मना कर सकता और न ही उपेक्षा कर सकता है यदि वे लोग जो उसकी विधिक अभिरक्षा के लिए उत्तरदायी हैं यह न चाहें कि नाबालिक शर्त के अनुसार कार्य करे। यह अभिनिर्णीत हुआ कि उसकी अवयस्कता की अवधि के दौरान शर्त प्रभावी नहीं होगी।

    अन्य उदाहरण :-

    (i) 'अ' ने 'ब' के पक्ष में एक सम्पत्ति उसके जीवनकाल के लिए इस शर्त के साथ अन्तरित को कि यदि वह उस सम्पत्ति का उपयोग यथाविहित से भिन्न रीति से करेगा तो उसका हित सम्पत्ति से समाप्त हो जाएगा। 'ब' ने शर्त का उल्लंघन किया। 'ब' का अधिकार सम्पत्ति से समाप्त हो जाएगा। उत्तरवर्ती शर्त का यथावत अनुपालन समझा जाएगा।

    (ii) अ ने अपनी सम्पत्ति दो विधवाओं 'ब' तथा 'स' को इस शर्त के साथ दी कि यदि उनमें से कोई भी पैतृक निवास में नहीं रहेगी तो उसका अंश जब्त हो जाएगा। ब ने पैतृक निवास त्याग दिया ब का अंश जब्त हो जाएगा।

    शर्त अनुपालन का असम्भव होना- यदि अभ्यारोपित शर्त धारा 28 अवधि के लिए है और उसका अनुपालन असम्भव हो जाता है किन्तु ऐसा उस व्यक्ति की किसी उल्लिखित किसी त्रुटि या गलती के कारण नहीं हुआ है जिसे उसे पूर्ण करना था, तो शर्त हो जाएगी और उत्तरवर्ती अन्तरण प्रभावी नहीं होगा। पूर्विक अन्तरितो का हित सम्पत्ति में आत्यन्तिक रहेगा। इसी प्रकार यदि असम्भाव्यता किसी दैवीय कृत्य के कारण होती है तो भी उत्तरवर्ती अन्तरण शून्य होगा।

    शर्त का ज्ञान आवश्यक नहीं— शर्त के अनुपालन के सम्बन्ध में यह एक साधारण नियम है कि अन्तरिती इस आधार पर शर्त के अनुपालन से अपने आप को मुक्त नहीं कर सकता है कि उसे शर्त का ज्ञान नहीं था अथवा वह शर्त के विषय में अनभिज्ञ था।

    एक विद्वान का मत है कि-

    'अन्तरिती का यह तर्क कि अन्तरक ने बीमारी के कारण या उपेक्षा के कारण अथवा अनभिज्ञतावश शर्त के विषय में उसे सूचित नहीं किया था, वह शर्त के अनुपालन के अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकेगा। किन्तु यदि शर्त का अनुपालन किसी भय अथवा उत्पीड़न के कारण नहीं हुआ था तो इससे अन्तरण जब्त नहीं होगा।

    एक से अधिक शर्तों का अनुपालन- यदि उत्तरवर्ती अन्तरण एक से अधिक शर्तों पर आधारित है तथा वे शर्तें वैकल्पिक नहीं हैं, तो सभी शर्तों का यथावत अनुपालन होना आवश्यक होगा, तभी उत्तरवर्ती अन्तरण प्रभावी हो सकेगा।

    यदि एक सम्पत्ति अ को इस शर्त के साथ अन्तरित की गयी थी कि यदि उसकी मृत्यु बालिग होने से पूर्व सन्तान रहित हो जाती है तो सम्पत्ति ब को दे दी जाएगी। 'ब' के पक्ष में इस प्रकार किया गया अन्तरण प्रभावी नहीं होगा यदि अ की मृत्यु बालिग होने के बाद किन्तु सन्तान रहित होती है।

    उत्तरवर्ती शर्त का असम्भव होना- यदि उत्तरवर्ती शर्त असम्भव हो जाती हैं या लोक नीति के विरुद्ध है अथवा अनैतिक है तो पूर्विक हित निहित ही रहेगा और उत्तरवर्ती शर्त इस अनपेक्षित रहेगी जैसे कोई शर्त लगायी ही नहीं गयी था।

    धारा 30:-

    यह धारा परतर व्ययन की अवैधता के पूर्विक अन्तरण पर प्रभाव का उल्लेख करती है तथा यह उपबन्धित करती है कि यदि परतर (उत्तरवर्ती) व्ययन विधिमान्य नहीं है पूर्विक अन्तरण प्रभावित नहीं होगा। उत्तरवर्ती व्ययन कई कारणों से अवैध हो सकता है जैसे, जिस शर्त पर यह आधारित है वह अवैध हो, अस्पष्ट हो, जिसका अनुपालन किया जाना असम्भव हो, लोक नीति के विरुद्ध हो, इत्यादि ।

    यदि कोई खेत ब को इस शर्त के साथ अन्तरित किया गया हो कि यदि वह अन्तरण की तिथि से तीन महीने की अवधि के अन्दर अ के खलिहान में आग लगाने में विफल रहता है तो खेत 'स' के पास चला जाएगा। 'स' के पक्ष में किया जाने वाला अन्तरण अवैध है। यह अन्तरण 'ब' के पक्ष में हुए अन्तरण को प्रभावित नहीं करेगा।

    एक खेत अ को उसके जीवनकाल के लिए इस शर्त पर अन्तरित किया गया कि यदि वह एक घण्टे में 100 मील नहीं चलेगा तो खेत स के पास चला जाएगा। शर्त अवैध है क्योंकि उसका अनुपालन असम्भव है। शर्त का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। खेत अपने पास रखने का अधिकारी होगा।

    यदि आरोपित शर्त मूलतः वैध थी पर बाद में कतिपय कारणों से उसका अनुपालन असम्भव हो गया हो तो भी पूर्विक अन्तरण प्रभावित नहीं होगा। वह आत्यन्तिक और शर्त रहित हो जाएगा। यदि किसी वस्तु के सम्बन्ध में बीमा पालिसी ली गयी थी एवं उक्त पॉलिसी बैंक के पास गिरवी रख दी गयी थी।

    बैंक से ऋण प्राप्त करने हेतु तो जैसे ही उन पॉलिसियों के विरुद्ध न्यायालय द्वारा डिक्री पारित होगी बैंक बीमा कम्पनी से सीधे ही धनराशि प्राप्त कर सकेगा। बैंक के लिए यह आवश्यक नहीं होगा कि बीमें की रकम प्राप्त करने हेतु वाद संस्थित करे। बैंक के लिए इतना ही पर्यात होगा कि न्यायालय ने डिक्री उस व्यक्ति के पक्ष में पारित की था जिसने बीमा पॉलिसी ली थी तथा बीमा कंपनी के विरुद्ध पारित किया था।

    धारा 31:-

    यह धारा उन अन्तरणों से सम्बन्धित है जिनमें उत्तरवर्ती या पाश्चिक शर्ते लगी होती हैं। ऐसी शर्तें सम्पत्ति के अन्तरिती में निहित होने में कोई बाधा या कठिनाई नहीं उत्पन्न करती हैं, परन्तु निहित हित सम्पूर्ण नहीं होता है। अन्तरिती उन शर्तों का अनुपालन करने के दायित्वाधीन रहता है और यदि शर्त का अक्षरश: अनुपालन न किया जाए तो अन्तरिती का हित सम्पत्ति से स्वतः समप्त हो जाएगा और सम्पत्ति अन्तरक के पास वापस चली जाएगी।

    यह धारा, धारा 28 के समान है किन्तु दोनों के बीच यह अन्तर है कि इस धारा के अन्तर्गत अन्तरितो का हित समाप्त होने के पश्चात् सम्पत्ति वापस अन्तरक के पास चली जाती है जबकि धारा 28 के अन्तर्गत वह दूसरे अन्तरिती के पास चली जाती है।

    यह धारा, इसी अधिनियम की धारा 12 के उपबन्धों के अध्यधीन है। अतः कोई भी पाश्चिक या उत्तरवर्ती शर्त जो दिवालियापन अथवा प्रयासित अन्तरण पर आधारित है, निहित हित को समाप्त कर सकेगी।

    उदाहरण:-

    (i) 'अ' अपनी सम्पत्ति अपनी पुत्री 'ब' को इस शर्त पर दान देता है कि यदि उसकी मृत्यु बिना किसी सन्तान के होती है तो सम्पत्ति पुनः अन्तरक में निहित हो जाएगी। यदि 'ब' की मृत्यु सन्तान विहीन होती है तो 'अ' सम्पत्ति पाने का अधिकारी होगा।

    (ii) 'अ' ने अपने मकान का दान इस शर्त के साथ 'ब' को किया कि दानग्रहीता दाता के कुछ ऋणों का भुगतान करे तथा जब वह जीवित रहे, वह उसकी देख-भाल भी करे। यह अभिनिर्णीत हुआ कि दाता दान का प्रतिसंहरण करने के लिए सक्षम होगा यदि दानग्रहीता दोनों शर्तों का अनुपालन करने में विफल रहता है।

    उत्तरवर्ती शर्त के लिए यह आवश्यक है कि यह सुनिश्चित तथा स्पष्ट हो। यदि पट्टा विलेख में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि यदि पट्टाधारी पट्टादाता को स्पष्ट तथा लिखित अनुमति के बिना उस सम्पत्ति पर कोई अन्य व्यापारिक अथवा विनिर्माण प्रक्रिया आरम्भ करेगा तो पट्टा समाप्त हो जाएगा।

    ऐसी शर्त स्पष्ट और सुनिश्चित नहीं है। अन्तरिती इससे बाध्य नहीं होगा। इस धारा के उपबन्ध ऐसे अन्तरणों पर लागू होते हैं जिसमें सम्पत्ति में हित उत्तरवर्ती या पाश्चिक शर्तों के साथ सृजित किये जाते हैं। यह प्रावधान, अन्तरण हेतु उत्तरवर्ती शर्त से युक्त संविदा पर लागू नहीं होता।

    एक वाद में विक्रय विलेख में तथ्यों का उल्लेख इस प्रकार था-

    "मैं सम्पत्ति X आप को बेचूँगा। मैंने प्रतिफल इस प्रकार प्राप्त किया है मेरे पास रुपये 29,0720 जमा है जिनका भुगतान मेरे ऋण दाताओं को होना है, तथा बकाया रुपये, 1,9271 मात्र मैंने नकद प्राप्त कर लिए है। आप को मेरे साथ ऋणदाताओं के पास चलना होगा। मैं उनसे निवेदन करूंगा कि वे भुगतान कुछ कम कर दें और आप उन्हें इस आधार पर भुगतान कर दें।अवशिष्ट बची राशि आप मुझे प्रदान कर दें। यदि उपरोक्त रीति से आप ऋणदाताओं का भुगतान 30 दिसम्बर 1925 तक नहीं कर देते हैं तो विलेख रद्द समझा जाएगा।

    इन तथ्यों के आधार पर प्रिवी कौंसिल ने यह अभिनिर्णीत किया कि विक्रय संविदा तथा अन्तरण की प्रक्रिया दोनों एक ही विलेख में वर्णित थी तथा अध्यारोपित शर्त विक्रय संविदा की अभिन्न शर्त होगी न कि अन्तरण की। न्यायालय ने यह भी अभिनिर्णीत किया कि ऐसे मामलों में उसे अनुतोष प्रदान करने का पूर्ण अधिकार होगा।

    क्या वैध शर्त प्रवर्तित की जानी आवश्यक है- इस धारा के अन्तर्गत वैध शर्त तो आरोपित की जा सकती है किन्तु न्यायालय के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उस शर्त को वह प्रवर्तित करे।

    फोफम बनाम ब्रामफील्ड के वाद में लार्ड चान्सलर ने अभिप्रेक्षित किया था कि,

    "उत्तरवर्ती शर्त के सम्बन्ध में यह ध्यान देना आवश्यक है कि जब किसी वाद में न्यायालय यह महसूस करे कि वह उस पक्षकार को शर्त का अनुपालन न किये जाने के कारण समुचित रूप में क्षतिपूर्ति प्रदान कर सकता है तो यह अवधारित किया जाना चाहिए कि वह शर्त क्षतिपूर्ति पर आधारित थी। किन्तु यदि क्षतिपूर्ति से पक्षकार को समुचित अनुतोष नहीं प्रदान किया जा सकता है दो उसे मुक्त कर देना अन्तरात्मा के विरुद्ध होगा।"

    इस विकल्प को भारत में भी अभिस्वीकृति प्रदान की गयी है।

    उत्तरवर्ती शर्त की विशेषताएं - अन्य शर्तों की भाँति उत्तरवर्ती शर्त का भी वैध होना आवश्यक है। इस न तो विधि द्वारा निषिद्ध होना चाहिए और न ही अप्रवर्तनीय यह लोक नीति के विरुद्ध नहीं होनी चाहिए। ऐसी शर्त दण्डस्वरूप होती है जो निहित हित को नष्ट कर देती है और सम्पत्ति को पुनः अन्तरक में निहित कर देती है। इनका अक्षरशः अनुपालन होना आवश्यक है। इन शर्तों के अवैध होने की स्थिति में अन्तरण की वैधता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। अन्तरण वैध होगा यद्यपि उत्तरवर्ती शर्त अवैध होगी।

    यदि इस प्रकार की शर्त के अनुपालन हेतु कोई समय निर्धारित नहीं किया गया है तो शर्त उस समय भंग समझी जाएगी जब उसका पूर्ण होना स्थायी रूप से अथवा अनिश्चितकाल के लिए असम्भव बना दिया गया हो। यदि इस हेतु कोई समय निर्धारित था, और शर्त की अपूर्णता से लाभ उठाने वाले व्यक्ति ने कपटपूर्वक व्यवधान उत्पन्न किया था को शर्त के अनुपालन के लिए आवश्यक अतिरिक्त समय दिया जाएगा।

    धारा 32:-

    धारा 32 इसी अधिनियम की धारा 30 में वर्णित सिद्धान्त के समरूप सिद्धान्त प्रस्तुत करती है। जिस तरह धारा 30 के अन्तर्गत पाश्चिक शून्य अन्तरण, पूर्विक अन्तरण को प्रभावित नहीं करता है उसी प्रकार इस धारा के अन्तर्गत यदि उत्तरवर्ती शर्त शून्य है तो वह उस अन्तरण को प्रभावित नहीं कर पायेंगी जिस पर वह लगायी गयी है। प्रभावपूर्ण होने के लिए यह आवश्यक है कि शर्त वैध हो । ऐसी शर्त जो पूर्ववर्ती शर्त के रूप में अवैध होती है, पाश्चिक शर्त के रूप में भी अवैध होगी।

    'अ', 'ब' को एक जमीन इस शर्त के साथ अन्तरित करता है कि यदि वह एक वर्ष की अवधि के अन्दर 'स' के लकड़ी के ढेर में आग नहीं लगायेगा तो उसका हित सम्पत्ति से समाप्त हो जाएगा। यह शर्त अवैध है। अतः 'ब' का हित प्रभावित नहीं होगा। वह एक वर्ष की अवधि के बाद भी सम्पत्ति धारण करने का अधिकारी होगा।

    यदि शर्त यह लगायी गयी है कि वह अपना धर्म छोड़कर कोई अन्य धर्म स्वीकार नहीं करेगा तो ऐसी शर्त वैध होगी

    धारा 33:-

    यह धारा उत्तरवर्ती शर्त के सम्बद्ध है परन्तु जिसे पूरा किये जाने के लिए कोई समय विनिर्दिष्ट नहीं है। यह धारा प्रतिपादित करती है कि :-

    (1) यदि शर्त का पूरा करना असम्भव हो गया है तो शर्त शून्य हो जाएगी।

    (2) यदि शर्त का पूरा किया जाना स्थायी रूप से निलम्बित कर दिया गया हो तो शर्त शून्य हो जाएगी।

    (3) यदि शर्त का पूरा किया जाना अनिश्चित काल के लिए निलम्बित कर दिया गया है तो शर्त शून्य हो जाएगी।

    एक वाद में एक व्यक्ति को जमीन इस शर्त के साथ अन्तरित की गयी कि वह उस पर बगीचा लगाएगा। किन्तु बगीचा लगाने के लिए कोई समय विनिर्दिष्ट नहीं किया गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि शर्त को तब तक खण्डित हुआ नहीं समझा जाएगा जब तक कि अन्तरितो ने स्थायी रूप या अनिश्चितकाल के लिए बगीचा लगाना असम्भव न कर दिया हो।

    एक अन्य वाद में एक व्यक्ति ने अपनी सम्पत्ति को अपनी पुत्री के पुत्र को इस शर्त के साथ अन्तरित किया कि वह अन्तरक की विधवा की मृत्यु के उपरान्त पैतृक मकान में निवास करेगा। बाद में पुत्री ने विधवा के साथ मिलकर मकान बेच दिया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि पुत्र सम्पत्ति से वंचित हो गया है, क्योंकि उसने स्वयं के कृत्य द्वारा मकान में अपने आवास को असम्भव बना दिया।

    इस धारा के समानान्तर व्यवस्था इण्डियन सक्सेशन एक्ट की धारा 136 में दी गयी है। इसी से मिलती-जुलती व्यवस्था भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 34 में भी दी गयी है। एक दान 'अ' को इस शर्त पर किया जाता है कि यदि वह वायुसेना में भर्ती नहीं होता है तो वह दान 'ब' को मिल जाएगा।

    वायु सेना में कब तक भर्ती होना है इसकी अवधि नहीं निर्धारित है। 'अ' संयासी हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में वायु सेना में भर्ती होने की शर्त असम्भव हो जाएगी या स्थायी रूप से निलम्बित या अनिश्चितकाल के लिए अवश्य निलम्बित हो जाएगी।

    धारा 34:-

    इस धारा में उल्लिखित सिद्धान्त निम्नलिखित दो सूत्रों पर आधारित है -

    (1) कपट अथवा धोखाधड़ी से किसी व्यक्ति को लाभ नहीं मिलना चाहिए

    ( 2 ) कोई भी व्यक्ति अपनी ही त्रुटियों का लाभ नहीं उठा सकता ।

    इसके अन्तर्गत निम्नलिखित दो प्रकार के मामले आते हैं :-

    (1) जहाँ अन्तरण की शर्त गठित करने वाले किसी कार्य के अनुपालन के लिए कोई समय विनिर्दिष्ट किया गया हो और उस शर्त की पूर्ति उस व्यक्ति के कपट द्वारा निवारित कर दी गयी हो जिसे शर्त को अपूर्ति से सीधे फायदा होता है।

    (2) जहाँ ऐसे कार्य की पूर्ति के लिए कोई समय न विनिर्दिष्ट किया गया हो, और उस शर्त का पूर्ण किया जाना उस व्यक्ति के कपट द्वारा असम्भव बना दिया गया हो जिसे शर्त की आपूर्ति से लाभ पहुंचता हो या अनिश्चित समय से मुल्तवी कर दिया गया हो।

    प्रथम स्थिति में, शर्त के अनुपालन हेतु इतना अतिरिक्त समय दिया जाएगा जितना ऐसे कपट द्वारा किये गये बिलम्ब की प्रतिपूर्ति के लिए अपेक्षित होगा। दूसरी स्थिति में यह समझा जाएगा कि शर्त पूरी कर दी गयी है। 'अ' ने एक सामान्य अन्तरण द्वारा परिवार के प्रत्येक सदस्य को सम्पत्ति में एक अंश दिया।

    स्त्री अंशधारियों पर यह शर्त लगायी गयी थी कि उन्हें अपना हित बनाये रखने के लिए किसी धार्मिक स्थल में एक माह व्यतीत करना होना अन्यथा उनका अंश जब्त हो जाएगा। 'स' जो एक स्त्री सदस्य थी के रिस्तेदार 'ब' ने कपट कर उसे एक महीने तीर्थ स्थल से बाहर रखा इस धारा के अन्तर्गत स को लाभ मिलेगा और उसका अंश जब्त नहीं होगा।

    अज्ञान इत्यादि का प्रभाव- इस धारा के अन्तर्गत केवल कपट की दशा में संरक्षण प्राप्त है। अज्ञान, बीमारी, उदासीन इत्यादि की स्थिति में संरक्षण नहीं मिलेगा।

    इस धारा में वर्णित सिद्धान्त लागू नहीं होगा

    (1) यदि वह कपट से भिन्न स्वतंत्र रूप से सम्पत्ति पाने के लिए प्राधिकृत है।

    (2) जहाँ किसी अन्य व्यक्ति का अधिकार प्रभावित हो रहा हो।

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