अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :5 अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के अपमान से संबंधित अपराध (धारा-3)

Shadab Salim

20 Oct 2021 7:15 AM GMT

  • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :5 अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के अपमान से संबंधित अपराध (धारा-3)

    अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989) के अंतर्गत अधिनियम की धारा 3 अत्यंत विस्तृत धारा है। इस धारा को किसी एक आलेख में समाहित कर पाना अत्यंत दूभर है इस कारण इस धारा से संबंधित चार आलेख प्रस्तुत किए गए हैं। भाग 5 में इस धारा से संबंधित अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति के अपमान से संबंधित अपराधों का वर्णन किया।

    साशय अपमान और आपराधिक अभित्रास पर विधि:-

    जहाँ तक भारतीय दण्ड संहिता की धारा 504 के अधीन आरोप का सम्बन्ध है, पीड़िता को इस आशय/जानकारी के साथ प्रकोपित करना, जिससे कि वह शान्ति भंग कर सके अथवा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 504 में यथा इंगित कोई अन्य अपराध कारित कर सके, का साक्ष्य में अभाव है। जहाँ तक भारतीय दण्ड संहिता की धारा 506 के अधीन आरोप का सम्बन्ध है, न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 506 के भाग 1 और भाग 2 के बीच अन्तर को विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया है।

    संक्षिप्त रूप में कथित भारतीय दण्ड संहिता की धारा 506 के अधीन अपराध बनाने के लिए धारा 503 के आवश्यक तत्वों को साबित किया जाना चाहिए। अभियुक्त का किसी व्यक्ति को यह चेतावनी देने का कृत्य कि उस व्यक्ति को ऐसा कृत्य करना है, जिसे करने के लिए वह विधितः बाध्य न हो अथवा उसे ऐसे कृत्य को, जिसे करने के लिए वह विधितः बाध्य हो, लोप करने के लिए विवश करना उस धमकी के निष्पादन को उपेक्षित करने के रूप में विद्यमान होना दर्शाया जाना चाहिए।

    प्रावधान के पहले भाग में दण्ड जुर्माना सहित अथवा रहित 2 वर्ष तक का हो सकता है। दूसरे भाग में, धमकी की गम्भीरता पर निर्भर रहते हुए दण्ड 7 वर्ष तक का हो सकता है और यदि महिला का सतीत्व भंग किया गया हो, तब यह जुर्माना सहित अथवा रहित 7 वर्ष तक का भी हो सकता है। इसलिए, उपयुक्त साक्ष्य मामले को या तो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 506 के पहले भाग या दूसरे भाग में आने के रूप में वर्गीकृत करेगा।

    दुष्प्रेरक के लिए दण्ड:-

    गुजरात राज्य बनाम नानिया उर्फ राजेन्द्र कुमार गुणवन्तराय राजगोड़, 2018 क्रि० लॉ ज० 4963 : 2019 (1) क्रि० सी० सी० 389 (गुज०) के मामले में कहा गया है जहाँ तक भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 के अधीन आरोप का सम्बन्ध है, साक्षी ने संगत रूप में और बिना किसी लोप, सुधार और अतिशयोक्ति के अभिसाक्ष्य दिया था और इस बात का सामना किया था कि पीड़िता अरुणा तथा धनीबेन के साथ छेड़छाड़ की गयी थी।

    इसलिए, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 के अधीन अपराध बनाता है। संक्षिप्त में अभियुक्त नानियो और भोलियो एक दूसरे की सहायता से अपराध संयुक्त रूप में कारित किए थे, जैसा कि ज्यीरवार साक्ष्य दर्शाता है। इसलिए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 114 भी अपराध बनता है।

    अरोमा एम० फिलेमन बनाम स्टेट आफ राजस्थान, 2013, क्रि० लॉ ज० 1933 (राज०) के मामले में जाति की स्थिति के आधार पर अपमान यह अभिकथित किया गया कि उस विद्यार्थी, जिसे डांटा गया था, की आत्महत्या के लिए स्कूल का प्रधानाचार्य उत्तरदायी था और उसे अपने दुराचरण के लिए विद्यार्थियों की सभा के सामने क्षमायाचना के लिए कहा गया था।

    परिवाद में विद्यार्थी के पिता तथा अन्य परिवार के सदस्यों ने बार-बार अभिकथन किया कि विद्यार्थी को बार-बार अपमानित किया गया था तथा उसे उसके जातिसूचक शब्दों के द्वारा सम्बोधित करते हुए सभा के सामने सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया था। प्रथम सूचना रिपोर्ट में अधिनियम की धारा 3 के अधीन अपराध के आवश्यक तत्व प्रथम दृष्टया विद्यमान थे और उसे अभिखण्डित नहीं किया जा सकता है।

    अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों का अपमान दोनों उपधाराओं का संयुक्त वाचन यह दर्शाता है कि उपधारा (ii) के अधीन अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के सदस्य का अपमान उसके परिसर अथवा पड़ोस में उत्सर्जी पदार्थ, कूड़ा-करकट, लाश अथवा कोई अन्य हानिकारक पदार्थ फेंक करके किया जा सकता है, उत्सर्जी पदार्थ, आदि को फेंकना आवश्यक रूप से अपमानित किये जाने वाले व्यक्ति की उपस्थिति में किया जाना आवश्यक नहीं है, जबकि उपधारा (x) के अधीन अपमान केवल तब कारित किया जा सकता है, यदि वह अभिव्यक्ति "जनता को दृष्टिगोचर किसी स्थान में" को दृष्टि में उपस्थित हो।

    चन्द्र पुजारी बनाम स्टेट आफ कर्नाटक के मामले में कहा गया है कि अपमान का आशय का सबूत स्वीकृत रूप से, याची उस पद से अवगत नहीं था। परिवादी के चैम्बर से संलग्न चपरासी के कथन से यह स्पष्ट है कि उसे उस विशेष दिन पहली बार देखा गया है। यह सत्य है कि याची चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट के रूप में व्यवसाय कर रहा है और अपने मुवक्किलों के लेखाओं को प्रस्तुत करने के लिए चैम्बर गया हुआ था।

    जब तक यह साबित नहीं किया जाता है कि याची इस तथ्य से अवगत था कि परिवादी उस जाति से सम्बन्धित था और उसे अपमानित करने के आशय से उसने ऐसे शब्द का प्रयोग किया था, यह नहीं कहा जा सकता है कि याची की ओर से उस नाम से बुला करके उसे अपमानित करने का आशय था। इसलिए इस वाद में अधिनियम की धारा 3 (1) (x) की कोई अपेक्षा संतुष्ट नहीं होती है।

    "चमार" शब्द का प्रयोग करना क्या अपमान गठित करता है?

    यदि अनुसूचित जाति समुदाय के सदस्य को लोक स्थान पर अपमानित या शर्मिन्दा करने के आशय से "चमार" कहा गया था, तो यह सचमुच अधिनियम की धारा 3 (1) (x) के अन्तर्गत अपराध है। क्या शब्द " चमार" अपमानित करने या शर्मिन्दा करने के आशय से प्रयुक्त किया गया था, उस सन्दर्भ में अर्थान्वयित किया जायेगा जिसमें यह प्रयुक्त हुआ था। यह बात स्वरन सिंह बनाम स्टेट धू स्टैंडिंग काउंसिल, 2008 के मामले में कही गई है।

    जनता में "चमार" कहना अधिनियम की धारा 3 के अधीन अपराध साबित नहीं:-

    सुदामा गिरि एवं अन्य बनाम झारखण्ड राज्य 2009 के मामले में अपीलार्थी ने अभिकथित रूप से सूचनादाता को "चमार" कहा और उस पर एवं उसकी पत्नी पर हमला किया। सूचनादाता के प्रस्तुत साक्षियों द्वारा यह कथन किया गया कि हमला हुआ था। चिकित्सक ने चिकित्सीय जाँच में सूचनादाता, उसकी पत्नी एवं अन्य व्यक्तियों के शरीर पर साधारण चोटें पाई। लेकिन इस सबके बावजूद अपीलार्थी द्वारा उसे लोक स्थान पर "चमार" कहने का कोई साक्ष्य नहीं था।

    इन तथ्यों और अभिलेख पर साक्ष्यों की पृष्ठभूमि में न्यायालय ने यह धारित किया कि अपीलार्थी केवल भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323 और 448 के अधीन दोषसिद्ध किये जाने के दायी हैं, लेकिन अधिनियम की धारा 3 के अधीन दोषसिद्ध किये जाने के दायी नहीं हैं।

    असार्वजनिक स्थान पर 'साली धोबिन' कहना:-

    सुहेल फासिह बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश, 2012 क्रि० लॉ ज० (एन० ओ० सी०) 177 (इला०) के वाद में अभिनिर्धारित किया गया है कि:-

    कोई आशयित अभिवास नहीं परिवाद में यह अभिकथन किया गया था कि अभियुक्त ने परिवादिनी को उस समय 'साली धोबन' कहा, जब वह अपने पारिश्रमिक को माँगने के लिए गयी हुई थी। यह घटना सरकारी आवास गृह में स्थित अभियुक्त के घर के पहले बल पर घटित हुई थी। इसलिए अभियुक्त के विरुद्ध सार्वजनिक दृष्टि में साशय अपमान का आरोप विरचित करना उचित नहीं था।

    भद्दी भाषा पर टिप्पणी शब्द 'हरिजन', 'धोबी', आदि का प्रयोग अधिकांशत: उच्च जातियों से सम्बन्धित लोगों के द्वारा अपमान, गाली, के रूप में शब्द की तरह किया जाता है। किसी व्यक्ति को इन नामों से बुलाना आजकल भद्दी गाली तथा आपराधिक हो गया है। आधारभूत रूप में आजकल इसका प्रयोग जाति को प्रदर्शित करने के लिए नहीं किया जाता है, परन्तु इसका प्रयोग किसी व्यक्ति को साशय अपमानित करने तथा उसका मानमर्दन करने के लिए किया जाता है।

    हमें इस देश के नागरिक के रूप में सदैव एक चीज को अपने ध्यान तथा आत्मा में रखना चाहिए कि किसी व्यक्ति अथवा समाज को आजकल अपमानित अथवा मानमर्दित नहीं किया जाना चाहिए और किसी व्यक्ति की भावनाओं को आहत नहीं किया जाना चाहिए।

    सुभद्र सुशील आनन्द बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र 2008 के प्रकरण में जाति के नाम से भद्दी भाषा का प्रयोग परिवादिनी के द्वारा यह अभिकथन किया गया था कि उसका, जो 'महार' जाति से सम्बन्धित है, अपमान जाति के नाम भद्दी भाषा के प्रयोग के कारण किया गया था। परिवादिनों के द्वारा यह कहीं नहीं कहा गया था कि अभियुक्तगण अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति से सम्बन्धित नहीं थे।

    उसने विनिर्दिष्ट रूप से यह उल्लेख किया है कि वह विश्वास करतो थी कि ये 'उच्चवर्णीय' अर्थात जाति के उच्च अथवा ऊपर के वर्ग से सम्बन्धित थे। इसलिए प्रथम सूचना रिपोर्ट में हस्तक्षेप करने का कोई मामला नहीं बनता है।

    जाति के नाम से गाली देना स्वीकृति रूप से, एक मामले में इतिलाकर्ता अनुसूचित जाति का सदस्य है। अभियुक्त ने मात्र यह प्रकथन किया था कि उसने अनेक " हरिजन दुसाध विधायक" को देखा है, जिसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसने इत्तिलाकर्ता को अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति का सदस्य होने के कारण अपमानित करने के आशय से अपमानित अथवा अभित्रासित किया।

    यह अभिकथन नहीं किया गया था कि उसने इत्तिलाकर्ता को सार्वजनिक दृष्टि के भीतर उसके जाति सूचक नाम से गाली दिया। अधिनियम की धारा 3 (1) (x) अथवा धारा 3 (1) (xi) के अधीन कोई अपराध नहीं बनता है। कार्यवाही अभिखण्डित कर दी गई।

    यह किया गया था कि अभियुक्तगण, परिवादीगण को उस समय, जब वे श्मशान भूमि में शौच क्रिया कर रहे थे, सार्वजनिक दृष्टि के भीतर अपमानित करने अथवा अभिन्नासित करने के आराय से उनके जाति सूचक नाम की गाली दिये। यह पाया गया कि श्मशान भूमि बिना किसी झाड़ियों के बिल्कुल साफ मैदान थी। परिवाद के कूटकरण के सम्बन्ध में संदेह था। अभियुक्त की दोषसिद्धि अनुचित थी।

    बाबूलाल बनाम स्टेट आफ राजस्थान, 2004 के मामले में कहा गया है कि जहाँ यह अभिकथन किया गया जाता है कि अभियुक्तगण परिवादी के घर में घुसे और उसकी सम्पत्ति को क्षतिग्रस्त किये। परिवादी को भी अपमानजनक भाषा उसकी जाति को निर्दिष्ट करके गाली दी जा रही थी, यह अभिनिर्धारित किया गया कि चूंकि अभियुक्त को अभिकधित अपराध के लिए विचारण में भेजने के लिए अभिलेख पर पर्याप्त साक्ष्य था, इसलिए विचारण अभिखण्डित किये जाने के लिए दायी नहीं था।

    जाति के नाम से चिल्लाना- यदि अभियुक्त परिवादी के, जो अनुसूचित जाति से सम्बन्धित हो, के जाति के नाम के द्वारा परिवादी को उसे अपमानित करने के आशय से चिल्लाता है। साक्षियों के साक्ष्य के अनुसार किसी भूमि के सम्बन्ध में पक्षकारों के बीच विवाद लंबित हो। तीन दिन के बाद, प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलम्ब के लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं हो।

    अभियुक्त के रूप में केवल दो व्यक्तियों को जोड़ा गया हो, हालांकि परिवाद में सात व्यक्तियों का उल्लेख किया गया हो। अभियुक्त का दोषमुक्ति उचित मानी जाएगी। यह निर्धारण स्टेट आफ हिमाचल प्रदेश बनाम देश राज, 2014 के मामले में कही गई है।

    जातिसूचक नाम से बुलाने पर कानून:-

    कुमार धीरेन्द्र विक्रमेन्द्र प्रताप सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में परिवादी ने यह अभिकथन किया है कि उसे याची के द्वारा उसके जातिसूचक नाम "मुशहर" कह करके गाली दी गयी थी, परन्तु शपथ पर लिए गये अपने कथन में उसने ऐसा कोई संकेत नहीं किया है कि याची उसे उसका जातिसूचक नाम "मुशहर" कह करके गाली देता है।

    उसने अपने कथन में कतिपय गाली के शब्दों के बारे में बताया है, जो परिवाद में पूर्ण रूप से है। मैं यह पाता हूँ कि साक्षी संख्या 1 सिहेश्वर पासवान ने अपने कथन में यह प्रकट किया था कि याची उसके जाति सूचक नाम "चमार" कह करके गाली देता था, जबकि साक्षी संख्या 2 गोरेलाल सिंह ने अपने कथन में यह प्रकट किया है कि याची ने परिवादी को उसका जातिसूचक नाम "मुशहर" का प्रयोग करके बुलाया था।

    मैं यह पुनः पाता हूँ कि हालांकि परिवादी और साक्षी संख्या 1 ने यह कहा था कि याची ने परिवादी को जिला परिषद् के नजदीक गाली दी थी, जबकि साक्षी संख्या 2 ने यह कहा था कि याची परिवादी को टेम्पो स्टैण्ड के नजदीक गाली दी थी।

    एक मामले में घटना सार्वजनिक दृष्टि के भीतर नहीं घटी केस डायरी के अनुसार, यह नहीं कहा जा सकता है कि घटना सार्वजनिक दृष्टि के भीतर घटित हुई थी। प्रावधान में प्रयुक्त शब्द "सार्वजनिक दृष्टि" के भीतर के स्थान में, न कि "सार्वजनिक स्थान" में हैं। सार्वजनिक दृष्टि के भीतर के स्थान में घटित घटना तथा सार्वजनिक स्थान में घटित घटना के बीच स्पष्ट रूप से अन्तर है।

    घटना लगभग 11.00 बजे पूर्वान्ह घटी हुई थी और घटना स्थल पर केवल अभियुक्त दल उपस्थित था और उनके बीच जो घटित हुआ था, सार्वजनिक दृष्टि के भीतर घटित होने के लिए अभिकथित नहीं किया गया है। इन परिस्थितियों में यह नहीं कहा जा सकता है कि अधिनियम की धारा 3 (1) (x) के अधीन अपराध के आवश्यक तत्व साबित हुए है।

    लोक स्थान का अर्थ: - लोक स्थान से ऐसा स्थान अभिप्रेत है जो सरकार द्वारा या म्यूनिसिपैलिटी (या अन्य स्थानीय निकाय) द्वारा या ग्राम सभा द्वारा या राज्य के अभिकरण द्वारा स्वामित्व में लिया जाता है या पट्टे पर दिया जाता है न कि प्राईवेट व्यक्तियों द्वारा या प्राइवेट निकाय द्वारा।

    "सार्वजनिक स्थान" ऐसा स्थान है, जिस पर जनता के सदस्यों को बिना किसी बाधा अथवा हस्तक्षेप के पहुँच प्राप्त होती है। ऐसा स्थान जनता के द्वारा प्रयोग के लिए खुला होता है अथवा वे वहाँ पर आने-जाने के लिए अभ्यस्त होते हैं, जिसमें सार्वजनिक कार्यालय भी शामिल होता है।

    ऐसा स्थान, जिसके लिए जनता को पहुँच का विधि अधिकार प्राप्त होता है और वे अभ्यस्त रूप में इधर-उधर प्रवेश के किसी निबंन्धन के बिना आते-जाते हैं, 'सार्वजनिक स्थान' की परिधि के भीतर आएगा। यदि प्रवेश अनुमति के द्वारा विनियमित हो अथवा अन्यथा निर्बन्धित हो, तब यह 'सार्वजनिक स्थान' नहीं होता है। लेकिन यदि जनता को ऐसे स्थान की पहुँच संदाय पर सशर्त रूप में और युक्तियुक्त निर्बंन्धन के अधीन प्राप्त हो अथवा अन्य शब्दों में कोई असीमित अधिकार न हो, तब वह 'सार्वजनिक स्थान' के भीतर आएगा।

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