अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :11 एफआईआर के लिए किसी जांच की आवश्यकता न होना, अपराधी परिवीक्षा न, मिलना और अन्य अधिनियमों का प्रभावहीन होना

Shadab Salim

29 Oct 2021 10:49 AM GMT

  • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :11 एफआईआर के लिए किसी जांच की आवश्यकता न होना, अपराधी परिवीक्षा न, मिलना और अन्य अधिनियमों का प्रभावहीन होना

    अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989) के अंतर्गत अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के न्याय हेतु कड़े कदम उठाए गए हैं।

    इस अत्याचार निवारण अधिनियम को भरसक प्रयासों के साथ इतना सशक्त बनाने के प्रयास किए गए हैं कि किसी भी स्थिति में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के विरुद्ध होने वाले अत्याचारों के मामलों में उन्हें पूर्ण रूप से न्याय मिले तथा अन्य लोग इन जातियों के प्रति अत्याचार से संबंधित अपराध करने से भयभीत रहे तथा उन्हें अत्याचार संबंधित अपराध करने से निवारित किया जा सके।

    इस उद्देश्य से ही इस अधिनियम के अंतर्गत अंतिम धाराओं में कुछ दो तीन बातें भी ऐसी जोड़ी गई है जो इस अधिनियम को कड़ा रूप प्रदान करती हैं, उनका उल्लेख इस आलेख में मूल धाराओं के साथ कुछ न्याय निर्णय के साथ किया जा रहा है।

    अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार (निवारण अधिनियम) 1989 के कुछ कड़े प्रावधान:-

    इस अधिनियम की धारा 18, 19 और 20 में इस अधिनियम को कड़े बनाने के प्रयास किए गए हैं निम्न तीन बातों को इन तीन धाराओं में जोड़ा गया है:-

    1)- एफआईआर दर्ज करते समय किसी जांच की आवश्यकता नहीं होना।

    2)- अभियुक्त को अपराधी परिवीक्षा का लाभ नहीं मिलना।

    3)- अन्य अधिनियम का प्रभावहीन होना।

    1)- एफ आई आर दर्ज करते समय किसी जांच की आवश्यकता नहीं होना:-

    इस अधिनियम की धारा 18(क) के अंतर्गत एक पुलिस अधिकारी को प्रथम इत्तिला रिपोर्ट दर्ज करने हेतु किसी अन्वेषण या पूर्व अनुमोदन की कोई आवश्यकता नहीं होगी। एक पुलिस अधिकारी अपने समक्ष उपस्थित हुए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्य की मौखिक शिकायत पर आवेदन को लिखेगा तथा उसे पढ़कर सुनाएगा और उस पर उस पीड़ित के हस्ताक्षर करवाएगा।

    यह प्रक्रिया इस अधिनियम के अंतर्गत प्रस्तुत की गई है तथा धारा 18(क) में स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया गया है कि कहीं भी कोई पुलिस अधिकारी किसी जांच के संबंध में कोई आश्वासन नहीं देगा।

    अनुसूचित जाति के सदस्य को शिकायत दर्ज कराने में भी अनेक कठिनाइयों का सामना करना होता था। उसकी एफआईआर संबंधित पुलिस थाने पर दर्ज नहीं की जाती थी। रसूखदार लोग पुलिस पर रसूख डालकर ऐसे अनुसूचित जाति के सदस्य को दबाने का प्रयास करते थे। पुलिस अधिकारी जांच करने का आश्वासन देकर बात को टालने का प्रयास करते थे।

    इसी पर स्थिति से निपटने के उद्देश्य से इस अधिनियम के अंतर्गत धारा 18(क) को प्रस्तुत किया गया है जिसका मूल स्वरूप कुछ इस प्रकार है:-

    [धारा 18 (क)- किसी जांच या अनुमोदन का आवश्यक न होना-

    (1) इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए -

    (क) किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध प्रथम इत्तिला रिपोर्ट के रजिस्ट्रीकरण के लिए किसी प्रारम्भिक जांच की आवश्यकता नहीं होगी; या

    (ख) किसी ऐसे व्यक्ति की गिरफ्तारी, यदि आवश्यक हो, से पूर्व अन्वेषक अधिकारी को किसी अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होगी, जिसके विरुद्ध इस अधिनियम के अधीन किसी अपराध के किए जाने का अभियोग लगाया गया है और इस अधिनियम या संहिता के अधीन उपबंधित प्रक्रिया से भिन्न कोई प्रक्रिया लागू नहीं होगी।

    (2) किसी न्यायालय के किसी निर्णय या आदेश या निदेश के होते हुए भी, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के उपबंध इस अधिनियम के अधीन किसी मामले को लागू नहीं होंगे। ]

    2)- अपराधी परिवीक्षा का लाभ नहीं दिया जाना

    (धारा 19):-

    दंड प्रक्रिया संहिता धारा 360 और अपराधी परिवीक्षा अधिनियम किसी ऐसे अपराधी को सुधारने का प्रयास करते हैं जिसने कम गंभीर अपराध किया है तथा जिसकी आयु कम है और वे जिसका अपराध प्रथम बार है।

    अर्थात किसी ऐसे व्यक्ति को जो कोई अभ्यस्त अपराधी नहीं है अपराध की दुनिया से बचाने का प्रयास किया गया है तथा उसे सुधर जाने के कुछ अवसर प्रदान किए गए। यह व्यवस्था किसी अभियुक्त या सिद्धदोष अपराधी के लिए एक राहतभरी है पर इस अधिनियम के अंतर्गत इस व्यवस्था को समाप्त किया गया है।

    यदि किसी व्यक्ति को इस अधिनियम के अंतर्गत अभियुक्त बनाया जाता है तो उस व्यक्ति को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 या अपराधी परिवीक्षा अधिनियम दोनों के ही लाभ नहीं मिलेंगे अर्थात ऐसे व्यक्ति को जिसने पहली बार अपराध किया है तथा जिसकी आयु कम है और जो अभ्यस्त अपराधी नहीं है एवं जिसने कम गंभीर अपराध किया है यह मानकर जो राहत अभियुक्त को दी जाती है वह इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध करने वाले व्यक्ति को नहीं दी जाएगी।

    धारा 19 के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है जिसका मूल स्वरूप यहां इस आलेख में प्रस्तुत किया जा रहा है:-

    [धारा 19 इस अधिनियम के अधीन अपराध के लिये दोषी व्यक्तियों को संहिता की धारा 360 या अपराधी परिवीक्षा अधिनियम के उपबन्ध का लागू न होना-

    संहिता की धारा 360 के उपबन्ध और अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 (1958 का 20) उपबन्ध अठारह वर्ष से अधिक आयु के ऐसे व्यक्ति के संबंध लागू नहीं होंगे जो इस अधिनियम के अधीन कोई अपराध करने का दोषी पाया जाता है।]

    प्रक्रिया संहिता की धारा 360 और अपराधी परिवीक्षा अधिनियम की धारा 4 की प्रयोज्यता:- अवाजि श्रीपतराव टेकले बनाम स्टेट आफ महाराष्ट्र के प्रकरण में कहा गया है कि जहाँ अत्याचार का अपराध अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम के प्रावधानों के अधीन कारित किया गया था, वहाँ यह अभिनिर्धारित किया गया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 और अपराधी परिवीक्षा अधिनियम की धारा 4 के प्रावधान लागू नहीं होते हैं।

    अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 20 उक्त अधिनियम के प्रावधानों को अन्य विधि पर अभिभावी प्रभाव प्रदान करती है, इसलिए अभियुक्त परिवीक्षा के लाभ का हकदार नहीं है।

    परिवीक्षा अनुदत्त किये जाने में विचार किये जाने वाले कारक:-

    जय सिंह बनाम हरियाणा राज्य (1983) 1 क्राइम्स 331 (पी० एंड एच०), में यह धारित किया गया था कि दोषसिद्ध को परिवीक्षा पर छोड़ने के लिए आयु एकमात्र मापदंड नहीं है। वह रीति जिसमें अभियुक्त ने अपराध में भाग लिया था और उसका चरित्र और पूर्ववृत्त विचार में लिये जाने होते हैं। इसके अतिरिक्त वह परिस्थितियाँ जिनमें अपराध किया गया था भार के रूप में तुला में आयु कारक को प्रत्यादेशित करने के लिए रखना होता है।

    एक मामले में अभियुक्त 21 वर्ष से कम आयु का पाया गया:- अभियुक्त परिवीक्षा पर छोड़ा गया-

    मामले में अभियुक्त याचिकाकर्ता घटना के समय 21 वर्ष से कम आयु का था और अभिलेख में उसके विरुद्ध यह दर्शित करने के लिए कुछ नहीं था कि वह पूर्व दोषसिद्ध था परिणामतः न्यायालय ने धारित किया कि यह उपयुक्त मामला था जिसमें कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 का लाभ उसे दिया जाए। अभियुक्त याचिकाकर्ता का दंड निलम्बित किया गया और इसके सिवाय वह सदाचरण की परिवीक्षा पर छोड़े जाने को आदेशित किया गया।

    3)- अन्य अधिनियम का प्रभावहीन होना:-

    अधिनियम की धारा 20 अन्य सभी अधिनियम को इस अधिनियम पर प्रभावहीन कर देती है। दंड प्रक्रिया संहिता भारतीय दंड संहिता और अन्य आपराधिक अधिनियम इस अधिनियम पर प्रभावहीन हो जाते हैं।

    इस अधिनियम की कोई भी बात यदि अन्य आपराधिक अधिनियम से टकराती है तब ऐसी स्थिति में इस अधिनियम को महत्व दिया जाएगा तथा उन अधिनियम को प्रभावित कर दिया जाएगा जैसा कि इस अधिनियम के अंतर्गत धारा 360 दंड प्रक्रिया संहिता का लाभ नहीं दिए जाने का निर्देश दिया गया है तथा दंड प्रक्रिया संहिता धारा 360 किसी अपराधी को लाभ देने का निर्देश देती है इस स्थिति में इस अधिनियम को महत्व दिया जाएगा। यह इस अधिनियम की धारा 20 में उल्लेखित किया गया है।

    धारा 20 का मूल स्वरूप इस प्रकार है:-

    [धारा 20 अधिनियम का अन्य विधियों पर अध्यारोही होना इस अधिनियम में जैसा अन्यथा उपबन्धित है उसके सिवाय इस अधिनियम के उपबन्ध तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि या किसी रूढ़ि या प्रथा या किसी अन्य विधि के आधार पर प्रभाव रखने वाली किसी लिखत में उससे असंगत किसी बात के होते हुए भी, प्रभावी होंगे।]

    अन्य अधिनियमों में असंगत प्रावधान- अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 20 के अनुसार अधिनियम के प्रावधान किसी अन्य प्रावधान, जो असंगत हों, पर अभिभावी होते हैं। यदि अन्य अधिनियम कोई ऐसा प्रावधान बनाता है, जो इस अधिनियम के अन्य प्रावधानों में असंगत हों, तब यह अभिभावी होगा। चूँकि अधिनियम के अधीन अपराध के विचारण के लिए प्रक्रिया हेतु अधिनियम में कोई प्रावधान विहित नहीं किया गया है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि संहिता में उपबन्धित प्रक्रिया के सामान्य नियम इस अधिनियम से असंगत हैं।

    यह तथ्य कि विधायिका ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अधीन अपराध के विचारण के लिए कोई विहित प्रक्रिया विहित करते हुए कोई प्रावधान नहीं बनाया है, हालांकि इसने अन्य अधिनियमों में यह सुझाव देने के लिए विनिर्दिष्ट प्रावधान किया है कि यह अधिनियम के अधीन अपराधों के विचारण के लिए कोई विशेष प्रक्रिया विहित करने के लिए कभी भी आशयित नहीं था। यह बात मीरा बाई बनाम भुजबल सिंह, 1995 क्रि० लॉ ज० 2376 (एम० पी०) के मामले में कही गई है।

    न्यायिक दंडाधिकारी की शक्ति संज्ञान पूर्व अवस्था तक परिसीमित:-

    सो० सथीयनाथन बनाम वीरामुथू, 2009 क्रि० लॉ ज० 1512 (मद्रास) के मामले में कहा गया है कि इस अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत दंडनीय अपराध विशेष न्यायालय द्वारा निरपेक्षतः विचारणीय है जो कि आवश्यक रूप से सत्र न्यायालय है। अपराध का संज्ञान लेने के पश्चात्, न्यायिक दंडाधिकारी, पुलिस द्वारा अपराध का अन्वेषण करने को निर्देशित नहीं कर सकता है। न्यायिक दंडाधिकारी को अन्वेषण करने को निर्देशित करने की शक्ति संज्ञान पूर्व अवस्था में ही उपलब्ध है।

    अधिनियम के अन्तर्गत दंडाधिकारी द्वारा वैयक्तिक परिवाद पर अपराध का संज्ञान अनुज्ञेय अधिनियम के अन्तर्गत किये गए अपराध का संज्ञान मजिस्ट्रेट द्वारा व्यक्तिगत परिवाद पर लिया जा सकता है और इसलिए दंडाधिकारी के आदेश को इस आधार पर, कि अधिनियम के अधीन दंडनीय अपराधों के किये जाने का वैयक्तिक परिवाद असमर्थ है, संधार्य नहीं किया जा सकता है, दी गई चुनौती को बनाए नहीं रखा जा सकता है।

    दांडिक प्रावधानों का गलत या बिना उल्लेख किये परिवाद किया गया दंडाधिकारी उस पर संज्ञान लेने के लिए सक्षम:-

    सथीयनाथन बनाम वीरामुथू, 2009 क्रि० लॉ ज० 1512, के मामले में यह धारित किया गया था कि परिवादकर्ता की तरफ से दांडिक प्रावधान का उल्लेख करना आबद्धकर नहीं है और भले ही शिकायतकर्ता ने गलत दांडिक प्रावधान को उद्धृत किया है, तो भी दंडाधिकारी को सही दांडिक प्रावधान का उल्लेख करते हुए संज्ञान लेना होता है।

    अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :11 एफआईआर के लिए किसी जांच की आवश्यकता न होना, अपराधी परिवीक्षा न, मिलना और अन्य अधिनियमों का प्रभावहीन होनाप्रस्तुत मामले में, परिवादी द्वारा गलती से उद्धृत किये गये प्रावधान दंडाधिकारी द्वारा यांत्रिकतः समाविष्ट किये गये थे इसलिए दंडाधिकारी को सही धाराओं का उल्लेख करने और या तो जाँच करने या बिना संज्ञान लिए परिवादी को पुलिस के पास जाने के लिए निर्दिष्ट करने के लिए मामले को वापस किया गया था।

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