घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 6: अधिनियम की धारा 12 से संबंधित महत्वपूर्ण बातें
Shadab Salim
14 Feb 2022 7:00 PM IST
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 ( The Protection Of Women From Domestic Violence Act, 2005) की धारा 12 घरेलू हिंसा से पीड़ित महिला को अधिकार प्रदान करती है। जैसा कि अब तक यह बताया गया है कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम एक सिविल उपचार है लेकिन इसकी प्रक्रिया के संबंध में आवेदन मजिस्ट्रेट को करना होता है।
मजिस्ट्रेट क्रिमिनल मामलों से संबंधित है। धारा 12 इस अधिनियम की आधारभूत धारा है जिसके लिए ही इस अधिनियम को गढ़ा गया है। यहां व्यथित महिला और उसके अलावा अन्य लोग मजिस्ट्रेट को आवेदन कर सकते हैं तथा अपनी पीड़ा बता सकते हैं। इस आलेख के अंतर्गत धारा 12 से संबंधित महत्वपूर्ण बातों पर चर्चा की जा रही है।
अधिनियम की धारा 12 व्यथित व्यक्ति को, या संरक्षण अधिकारी को, या व्यथित व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति को इस अधिनियम के अधीन एक या अधिक अनुतोष प्राप्त करने के लिए मजिस्ट्रेट को आवेदन प्रस्तुत करने के लिए हकदार बनाती है।
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 12 के शब्द जिसके अन्तर्गत अधिनियम के अधीन आदेश या अनुतोष पाने के लिए प्रक्रिया दी गई है, प्रदर्शित करती है कि ऐसी कार्यवाही के लिए समय सीमा निश्चित नहीं है एवं यह प्रदर्शित करना अपेक्षित होता है कि अधिनियम के अधीन आवेदक व्यक्ति व्यक्ति है।
अधिनियम की धारा 12 मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन दाखिल करने हेतु प्रावधान करती है एवं इसकी उपधारा (1) प्रावधानित करती है कि कोई व्यक्ति व्यक्ति या संरक्षण अधिकारी या व्यक्ति व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति इस अधिनियम के अधीन एक या अधिक अनुतोष प्राप्त करने के लिए मजिस्ट्रेट को आवेदन प्रस्तुत कर सकेगा।
धारा 12 की उपधारा (1) प्रावधानित करती है कि व्यथित व्यक्ति या संरक्षण अधिकारी या व्यथित व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति इस अधिनियम के अधीन एक या अधिक अनुतोष प्राप्त करने के लिए मजिस्ट्रेट को आवेदन प्रस्तुत कर सकेगा।
धारा 12 का परन्तुक प्रावधानित करता है कि ऐसे आवेदन पर कोई आदेश पारित करने के पहले किसी संरक्षण अधिकारी या सेवा प्रदाता से उसके द्वारा प्राप्त किसी घरेलू हिंसा की रिपोर्ट पर मजिस्ट्रेट विचार करेगा।
इस धारा के पीछे अन्तर्निहित और मूल सिद्धान्त पत्नी द्वारा सहन की गयी वित्तीय स्थिति और मानसिक पीड़ा के सुधार के लिए है, जब अपने वैवाहिक गृह को छोड़ने के लिए विवश की जाती है।
उपधारा (1) अधिनियम की धारा 12 मजिस्ट्रेट को आवेदन से सम्बन्धित होती है। धारा 12 की उपधारा (1) प्रावधानित करती है कि व्यथित व्यक्ति या संरक्षण अधिकारी या व्यथित व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति इस अधिनियम के अधीन एक या अधिक अनुतोष प्राप्त करने के लिए मजिस्ट्रेट को आवेदन प्रस्तुत कर सकेगा।
व्यथित व्यक्ति या संरक्षण अधिकारी या व्यथित व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति धारा 12 की उपधारा (1) के अधीन इस अधिनियम के अधीन कोई अनुतोष प्राप्त करने के लिए आवेदन प्रस्तुत कर सकता है।
उपधारा ( 4 )
अधिनियम की धारा 12 को उपधारा (4) प्रावधानित करती है कि मजिस्ट्रेट पहली सुनवाई को तिथि नियत करेगा, जो न्यायालय द्वारा आवेदन की प्राप्ति की तिथि से सामान्यतः तीन दिन से अधिक नहीं होगी।
उपधारा ( 5 )
अधिनियम की धारा 12 को उपधारा (5) यह प्रावधान करती है कि मजिस्ट्रेट, उपधारा (1) के अधीन दिये गये प्रत्येक आवेदन को उसकी सुनवाई के प्रथम तारीख से साठ दिन की अवधि के भीतर, उसका निपटारा करने का प्रयास करेगा।
धारा 12, जो अधिनियम के अधीन आदेश या अनुतोष प्राप्त करने के लिए, मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन करने की अपेक्षा करती है, इस प्रभाव के परन्तुक को अन्तर्विष्ट करती है कि ऐसे आवेदन पर कोई आदेश पारित करने से पहले मजिस्ट्रेट संरक्षण अधिकारी या सेवा प्रदाता से प्राप्त घरेलू घटना रिपोर्ट को विचारित करेगा।
अधिनियम में दाण्डिक प्रावधान
अधिनियम में अन्तर्विष्ट उद्देश्यों एवं कारणों के कथन के अलावा अधिनियम में अन्तविष्ट विभिन्न प्रावधान भी यह स्पष्ट करते हैं कि अधिनियम के अधीन प्रबलता से व्युत्पन्न अधिकार एवं कृर्त्तव्य सिविल प्रकृति के अधिकार होते हैं।
धारा 31 एवं 33 को छोड़कर जो क्रमशः संरक्षण आदेश की अवहेलना एवं संरक्षण अधिकारी के अपने कर्तव्य के निर्वहन न करने के लिए दण्ड का प्रावधान करती है, इसके अलावा अधिनियम में कोई दाण्डिक प्रावधान नहीं हैं।
अधिनियम के अधीन सुरक्षा का अधिकार
जॉनसन फरनैनडिस बनाम मिसेज मारिया फरनैनडिस, 2011 के वाद में कहा गया है कि घरेलू हिंसा से महिला का संरक्षण अधिनियम, 2005 महिलाओं की सुरक्षा के लिए अधिनियमित किया गया है न कि पुरुष को। आवेदक संख्या 2 द्वारा आवेदक संख्या 1 की ओर से नहीं बल्कि दोनों आवेदकों की ओर से द्वारा दाखिल किया गया था।
यदि यह उसके द्वारा, व्यथित व्यक्ति होते हुए, आवेदक संख्या 1 की ओर से दाखिल किया गया होता तो यह दूसरी बात होती आवेदक संख्या 2 निश्चित रूप से उक्त अधिनियम के अधीन किसी अनुतोष को पाने का हकदार नहीं था।
इस प्रकार, किन्हीं भी न्यायालयों को आवेदक संख्या 2 को आवेदक संख्या 1 के भाई को अनुतोष प्रदान करने का प्रश्न ही नहीं था सत्याभासी अभिवास पर कि आवेदक संख्या 2, आवेदक संख्या 1 की सहायता कर रहा था मजिस्ट्रेट द्वारा कारण बताया गया एवं अपर सत्र न्यायाधीश द्वारा इसे न्यायोचित किया गया था। आवेदक संख्या 2, इस प्रकार, उक्त अधिनियम के अधीन किसी प्रकार की सुरक्षा का हकदार नहीं था।
धारा 12 के अधीन प्रदत्त अनुतोषों का वर्गीकरण अधिनियम की धारा 12 के अधीन आवेदन पर प्रदत्त अनुतोष को विस्तारपूर्वक निम्नवत् वर्गीकृत किया जा सकता है :
(1) धारा 18 के अधीन संरक्षण आदेश जो प्रत्यर्थों को घरेलू हिंसा के किसी कृत्य से निवारित करें।
(2) धारा 19 के अधीन निवास आदेश।
(3) धारा 20 के अधीन धनीय अनुतोष जिसमें भरण-पोषण उपार्जनों की हानि, चिकित्सीय व्यय एवं व्यथित व्यक्ति के नियंत्रण में से किसी सम्पत्ति के नाश, नुकसानी या हटाये जाने के कारण हुई हानि, सम्मिलित है।
(4) धारा 21 के अधीन अभिरक्षा आदेश जो व्यथित व्यक्ति की किसी सन्तान या सन्तानों की अस्थायी अभिरक्षा या धारा 21 के अधीन व्यक्ति व्यक्ति के भेट के अधिकारों को व्यवहृत करती है; और
(5) धारा 22 के अधीन प्रतिकर आदेश।
अनुतोष की प्रकृति
गंगाधर प्रधान बनाम रश्मिवाला प्रधान, 2012 के वाद में कहा गया है कि 2005 के अधिनियम की धारा 12 के अधीन दाखिल याचिका में दावाकृत अनुतोष सिविल प्रकृति के होते हैं। धारा 12 के अधीन दाखिल याचिका की तिथि तक, याची (यहां विपक्षी) को 2005 के अधिनियम की धारा 12 के अधीन उसकी याचिका में वांछित कोई अनुतोष नहीं प्रदान किया गया था। इस प्रकार यह याची के अधिकारों की वंचना का अनवरत कृत्य है।
स्वीकृत रूप से, वर्तमान याची द्वारा संयुक्त परिवार की सम्पत्तियों में से उसे हिस्सा नहीं दिया गया था। इस प्रकार, यह जारी रहने वाला वाद हेतुक है जिसके लिए 2005 के अधिनियम की धारा 12 के अधीन पोषणीय अनुतोष का दावा करते हुए याचिका दाखिल की गई थी एवं 2005 के अधिनियम के प्रावधान प्रस्तुत मामले में पूर्णतया आच्छादित होते हैं।
अनुतोष प्राप्त करने की प्रक्रिया
अधिनियम का अध्याय 4 अनुतोष का आदेश प्राप्त करने के लिए प्रक्रिया व्यवहत करता है। धारा आवेदन दाखिल करने का प्रावधान करती है, ऐसे आवेदन व्यथित व्यक्ति द्वारा या उसकी ओर से दाखिल किया जा सकता है। अधिनियम की धारा 12 (2) प्रत्यर्थी से प्रतिकर के अनुदान का अनुतोष का प्रावधान करता है। अधिनियम की धारा 13 प्रत्यर्थी या किसी अन्य व्यक्ति पर नोटिस के तामील से सम्बन्धित है, इस प्रावधान में यह प्रत्यर्थी के अलावा नोटिस को शामिल करता है।
व्यथित व्यक्ति कौन है?
व्यथित व्यक्ति महिला होती है, जो प्रत्यर्थी के साथ घरेलू सम्बन्ध में है या रहती आ रही है और जो प्रत्यर्थी द्वारा घरेलू हिंसा के कृत्य का शिकार होना अभिकथित करती है।
व्यथित व्यक्ति का विकल्प
व्यथित व्यक्ति सम्बन्धित मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रत्यक्षतः परिवाद दाखिल कर सकती है। यह व्यथित व्यक्ति का विकल्प होता है कि यह बजाय मजिस्ट्रेट के समक्ष स्वयं अभिगम करने के संरक्षण अधिकारी से एवं आकस्मिकता को स्थिति में सेवा प्रदाता से अभिगम कर सकती है एवं उनके सहयोग से संबद्ध मजिस्ट्रेट से।
प्रत्यर्थी के रूप में कौन संयोजित किया जा सकता है
अधिनियम की धारा 12 के अधीन आवेदन में, यदि व्यथित व्यक्ति पत्नी या पत्नी की प्रकृति के सम्बन्ध में रहने वाली कोई महिला है, यदि तथ्य ऐसी वांछा करते हैं तो पति की महिला नातेदार या पुरुष भागीदार जैसी भी स्थिति हो को प्रत्यर्थी के रूप में भी संयोजित किया जा सकता है।
"घरेलू हिंसा"
आर्थिक या वित्तीय संसाधनों की अनवरत वंचना एवं व्यथित व्यक्ति के साझी गृहस्थी, भरण-पोषण इत्यादि की पहुँच के परित्याग का अनवरत प्रतिषेध व्यथित व्यक्ति को अधिनियम के अध्याय ॥ में वर्णित घरेलू हिंसा की परिभाषा में ला सकता है।
घरेलू नातेदारी
श्रीमती मेनाकुरु रेणुका एवं अन्य बनाम श्रीमती मेनाकरु मोहन रेड्डी 2009 (3) क्राइम्स 473 2009 क्रि० लॉ ज० (एन० ओ० सी०) 819 (ए० पी०) के मामले में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुंचा,
"इस प्रकार, मुख्य प्रावधान की अन्तर्वस्तुओं की दृष्टि में प्रत्यर्थिनों के रूप में अपवर्जित घरेलू नातेदारी में स्वयं उसी महिला सदस्य को पुनः धारा के परन्तुक के अधीन सम्मिलित किये जाने का प्रश्न उद्भूत नहीं हो सकता है। इसलिए इसे इससे समझा जाना है कि परन्तुक केवल उन पुरुष सदस्यों, जो घरेलू नातेदारी में से भी भिन्न हों, को सम्मिलित करने का आशय रखता है परन्तुक में विनिर्दिष्ट रूप से महिला को अपवर्जित करने का अनाशयित लोप होना प्रतीत है अथवा यह इस कारण से हो सकता है कि मुख्य धारा यह स्पष्ट करती है कि केवल पुरुष सदस्य हो प्रत्ययगण हो सकते हैं, इसे परन्तुक में पुनः विनिर्दिष्ट नहीं किया गया है।"
कोई महिला, जो घरेलू नातेदारी में है अथवा रही है, जिसे प्रत्यर्थी, अर्थात् उसके पति के द्वारा घरेलू हिंसा के अधीन बनाया गया है, वह "व्यथित व्यक्ति" के रूप में अधिनियम की धारा 12 के अधीन घरेलू हिंसा का परिवाद दाखिल कर सकती है अधिनियम के अधीन आदेशों, अर्थात् भरण-पोषण, संरक्षण आदेश, आदि की मांग कर सकती है।
इस प्रकार, प्रत्यर्थी को ऐसे आवेदन में घरेलू हिंसा के अधीन परिवाद के अनुसरण में अपनी पत्नी अथवा आवेदिका, जिसके साथ वह घरेलू नातेदारी में था, को अधिनियम के अधीन लाभों, अर्थात् इस सम्बन्ध में साझी गृहस्थी, भरण-पोषण, धनय लाभों से निरन्तर रूप से वंचित करके अधिनियम के प्रावधानों को विफल बनाने के अलए अनुज्ञात नहीं किया जा सकता है।
घरेलू नातेदारी का सबूत
एक मामले में, मजिस्ट्रेट ने निश्चायक रूप से यह निष्कर्ष अभिलिखित किया है कि विरोधी पक्षकार संख्या 2 घरेलू हिंसा के आरोप को साबित करने में विफल हुई है। यह भी प्रकट है कि विरोधी पक्षकार संख्या 2 विवाह-विच्छेद के मामले में पारित किये गये आदेश के द्वारा अन्तरिम भरण-पोषण के रूप में याची से 4,000 रुपये प्रति मास पहले से ही प्राप्त कर रही है।
यह दावा नहीं कर सकती है कि उसे बुरे समय में छोड़ दिया गया है और वह स्वयं का भरण-पोषण करने की स्थिति में नहीं है। पुनः यह प्रकट है कि याची तथा विरोधी पक्षकार संख्या 2 बारह वर्षों से अधिक समय से पृथक् कर रहे हैं। विरोधी पक्षकार संख्या 2 का यह मामला नहीं है कि मामले संस्थित करने की तारीख से वह याची के साथ साझी गृहस्थी में कभी रही थी। इसलिए, याची तथा विरोधी पक्षकार संख्या 2 के बीच कोई घरेलू नातेदारी होना प्रतीत नहीं होता है।
साझी गृहस्थी में अन्य व्यक्ति के साथ रहना घरेलू सम्बन्ध का आवश्यक तत्व है, जैसा कि इस अधिनियम की धारा 2 (च) के अधीन अनुध्यात है। इसके अतिरिक्त, आवेदक को सम्बन्ध में, जो विवाह के समान है, मनुष्य के साथ साझी गृहस्थी में भी रहना चाहिए यदि वह स्वयं पत्नी या विवाह पक्षकार होने का दावा कर रही है।
इसके पश्चात् यदि वह पहले से विवाहिता महिला है, तो वह मनुष्य के साथ घरेलू सम्बन्ध में प्रवेश नहीं कर सकती। वर्तमान मामले में स्वीकृति स्थिति है कि प्रत्युत्तरदाता विवाहिता महिला है, जो अपने पति से कोई विधिक विवाह-विच्छेद अभिप्राप्त नहीं की है। इसलिए इस अधिनियम की धारा 12 के अधीन प्रारम्भ की गयी कार्यवाही विधि में समर्थित नहीं की जा सकती।
मजिस्ट्रेट की शक्ति ऐसी पीड़ित महिला के लिए न्याय सुनिश्चित करने हेतु जो घरेलू हिंसा का परिवाद करती है, उसके लिए मजिस्ट्रेट को समुचित आदेश पारित करने की अनुमति देते हुए वृहद शक्ति दी गयी है जो मजिस्ट्रेट उक्त अधिनियम की धारा 12 की उपधारा (1) के अधीन आवेदन में पारित कर सकता है।
उक्त शक्ति में व्यथित व्यक्ति को निवास का आदेश पारित करना शामिल है भले ही साझी गृहस्थी से प्रत्यर्थी को अलग कर दिया जाय। ऐसी शक्ति में धनी अनुतोष एवं प्रतिकर प्रदत्त करने, बच्चों की अभिरक्षा को व्यथित व्यक्ति को सौंपने का अधिकार भी शामिल है। अधिनियम विशिष्ट रूप से मजिस्ट्रेट को अन्तरिम निर्देश या एक पक्षीय अन्तरिम आदेश के द्वारा ऐसे आदेशों को पारित करने के लिए सशक्त करती है।
अधिनियम, मजिस्ट्रेट को अधिनियम की धारा 12 के अधीन पीड़ित व्यक्ति के परिवाद को विचारित करने के लिए सशक्त करती है एवं यह मजिस्ट्रेट पर दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अधीन उक्त की जांच करने का कर्त्तव्य अधिरोपित करती है जबकि अधिनियम की धारा 18 से 22 के अधीन अनुतोष केवल सिविल अनुतोष की प्रकृति के होते हैं।
यहाँ केवल मजिस्ट्रेट के आदेश का उल्लंघन हैं जो अधिनियम की धारा 31 के अधीन अपराध बन जाते हैं एवं जो किसी भी प्रत्यर्थी द्वारा संरक्षण आदेश के उल्लंघन की स्थिति में दण्ड को आकर्षित करते हैं।
मजिस्ट्रेट का क्षेत्राधिकार
नीरज गोस्वामी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 2013 के प्रकरण में आवेदन की तिथि पर, उसने त्यागपत्र देकर नौकरी छोड़ दी थी। यह प्रतीत होता है कि उसकी कम्पनी में नियोजन की उसकी प्रास्थिति त्यागपत्र स्वीकार न होने के कारण जारी थी परन्तु कम्पनी द्वारा यह प्रमाणित नहीं किया गया है कि वह प्रतिदिन ऑफिस जाती थी।
उसका कथन कि वह अब लखनऊ स्थित अपने पिता के घर में रहती थी इसे इस प्रकार निर्वाचित नहीं किया जा सकता है कि उस तिथि को वह वहां नहीं रह रही थी, उस तिथि को अपने पिता के घर में रहते हुए भी वह कह सकती थी कि वह अब अपने पिता के घर में रहेगी।
इस प्रकार, घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के अधीन परिवाद के दाखिल किये जाने की तिथि पर लखनऊ में उसका निवास अस्थायी हो सकता है, यह सुस्थापित है, इसलिए उच्च न्यायालय का मत था कि लखनऊ के मजिस्ट्रेट को घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 (1) के अधीन कारित अपराध को विचारित करने का क्षेत्राधिकार प्राप्त है।
मजिस्ट्रेट का दायित्व घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम की धारा 18 के अधीन किसी आदेश को पारित करने के लिए मजिस्ट्रेट को घरेलू हिंसा के विषय में यह समाधानित करना होगा कि ऐसी घटना हुई है या होने की सम्भावना है।
हालांकि, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम की धारा 19 के अधीन कोई आदेश पारित करने के लिए मजिस्ट्रेट को घरेलू हिंसा के कारित होने के विषय में अपने समाधान को अभिलिखित करने का दायित्व होता है। केवल अटकलों एवं अंदाजों के आधार पर घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम की धारा 18 एवं 19 के अधीन आदेश पारित नहीं किया जा सकता।
आवेदन पर कोई आदेश पारित करने से पहले मजिस्ट्रेट पर संरक्षण अधिकारी या सेवा प्रदाता के प्राप्त रिपोर्ट को विचारण में लेना आज्ञापक होता है। न तो ऐसी रिपोर्ट मांगना आबध्यकारी होता है न ही यह आवध्यकारी होता है कि याची को नोटिस जारी करने से पहले मजिस्ट्रेट ऐसी रिपोर्ट पर विचार करे शब्द किसी आदेश को पारित करने से पहले आवेदन पर किसी अन्तिम आदेश को प्रावधानित करता है, प्रत्यर्थी को नोटिस जारी करने को नहीं।
शब्द कोई रिपोर्ट उल्लिखित करता है कि कोई रिपोर्ट, यदि मजिस्ट्रेट के द्वारा प्राप्त की गयो हो तो विचारित की जाएगी। अतः इस प्रक्रम पर यदि रिपोर्ट नहीं मंगायी गयी है या विचारित नहीं की गयी है तो यह कार्यवाही को खारिज करने का आधार नहीं हो सकता।