घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 4: अधिनियम के कुछ अन्य विशेष शब्दों की परिभाषाएं

Shadab Salim

11 Feb 2022 4:30 AM GMT

  • घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 4: अधिनियम के कुछ अन्य विशेष शब्दों की परिभाषाएं

    घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 ( The Protection Of Women From Domestic Violence Act, 2005) की धारा दो के अंतर्गत विशेष शब्दों की परिभाषाएं दी गई हैं। इससे पूर्व के आलेख में इस धारा से संबंधित विवेचना प्रस्तुत की गई थी जहां कुछ शब्दों का उल्लेख किया गया था। धारा 2 में उल्लेखित किए गए शब्दों में शेष शब्द यहां इस आलेख में प्रस्तुत किए जा रहे हैं।

    "गृहस्थी"

    "गृहस्थी" का निश्चित अर्थ होता है एवं इस प्रकार इसे "घर" शब्द के साथ पारस्परिक परिवर्तनीय रीति से साधारण शाब्दिक अर्थों में अर्थावित नहीं किया जा सकता इसलिए प्रश्नगत संविधि में सीधे "गृहस्थी" शब्द को प्रयुक्त करने में विधायन को निवारित नहीं किया जा सकता शब्द घर के कई अर्थ होते हैं जिसमें से एक है।

    "लोगों के रहने के लिए मकान जो सामान्यतया एक परिवार के लिए होता है" जैसा कि आक्सफोर्ड एडवांस डिक्शनरी न्यू 7वां संस्करण में परिभाषित है अमेरिकन हेरिटेज डिक्शनरी "घर" को "एक या अधिक व्यक्तियों को खासकर एक परिवार के लोगों के रहने के लिए ढाँचा" के रूप में परिभाषित करती है।

    शब्द "गृहस्थी" आक्सफोर्ड एडवांस डिक्शनरी न्यू, 7वां संस्करण में सभी लोग जो घर में एक साथ रह रहे हैं" की तरह परिभाषित है एवं अमेरिकन हेरिटेज डिक्शनरी में यथापरिभाषित "गृहस्थी" का अर्थ-

    1. (क) घरेलू इकाई जिसमें परिवार के सदस्य जो एक साथ गैर-नातेदार जैसे नौकरों के साथ रहते हैं, (ख) रहने का स्थान एवं अध्यासन जो ऐसी इकाई से सम्बन्धित हो

    (2) व्यक्ति या लोगों का समूह जो एक निवास स्थान को अध्यासित करते हैं।

    "साझी गृहस्थी"

    "साझी गृहस्थी" से ऐसी गृहस्थी अभिप्रेत है, जहाँ व्यथित व्यक्ति रहता है या किसी घरेलू नातेदारी में या तो अकेला या प्रत्यर्थी के साथ किसी प्रक्रम पर रह चुका है, और जिसके अंतर्गत ऐसी गृहस्थी भी है जो चाहे उस व्यक्ति व्यक्ति और प्रत्यर्थी के संयुक्ततः स्वामित्व या किरायेदारी में है, या उनमें से किसी के स्वामित्व या किरायेदारी में है, जिसके सम्बन्ध में या तो व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी या दोनों संयुक्त रूप से या अकेले, कोई अधिकार, हक, हित या साम्या रखते हैं और जिसके अधीन ऐसी गृहस्थी भी सम्मिलित है जो ऐसे अविभक्त कुटुम्ब का अंग हो सकती है जिसका प्रत्यर्थी इस बात पर ध्यान दिये बिना कि प्रत्यर्थी या व्यथित व्यक्ति का उस गृहस्थी में कोई अधिकार, हक या हित है, एक सदस्य है।

    धारा 2 (ध) परिभाषित करता है कि "साझी गृहस्थी" का तात्पर्य ऐसी गृहस्थी से है जहाँ व्यथित व्यक्ति रहता है या किसी घरेलू नातेदारी में या तो अकेले या प्रत्यर्थी के साथ किसी प्रक्रम पर रह चुका है, और जिसके अंतर्गत ऐसी गृहस्थी भी है जो चाहे उस व्यथित व्यक्ति और प्रत्यर्थी के संयुक्ततः स्वामित्व या किरायेदारों में हैं, या उनमें से किसी के स्वामित्व या किरायेदारी में है, जिसके सम्बन्ध में या तो व्यक्ति व्यक्ति या प्रत्यर्थी या दोनों संयुक्त रूप से या अकेले, कोई अधिकार, हक, हित या साम्या रखते हैं और जिसके अंतर्गत ऐसी गृहस्थी भी है जो ऐसे अविभक्त कुटुम्ब का अंग हो सकती है जिसका प्रत्यर्थी इस बात पर ध्यान दिये बिना कि प्रत्यर्थी या व्यथित व्यक्ति का उस गृहस्थी में कोई अधिकार, हक या हित है, एक सदस्य है।

    "साझी गृहस्थी" जहाँ (1) व्यथित व्यक्ति किसी प्रक्रम पर घरेलू नातेदारी में रहता है या रह चुका है (जिसमें वैवाहिक या उसी प्रकार के सम्बन्ध एवं या घरेलू नातेदारी को परिभाषा में अभिव्यक्त रूप से प्रगणित सम्बन्ध ही आवश्यक रूप से नहीं शामिल होते हैं बल्कि "अविभक्त कुटुम्ब" के सदस्यों के बीच सम्बन्ध जो साझी गृहस्थी में अकेले प्रत्यर्थी के साथ रह चुके हैं, को भी शामिल करता है) चाहे एकल रूप से या प्रत्यर्थी के साथ एवं (2) इसमें ऐसी गृहस्थी भी शामिल हैं जो चाहे व्यथित व्यक्ति के स्वामित्य में या किरायेदारी में प्रत्यर्थी एवं व्यथित व्यक्ति के द्वारा संयुक्त रूप से धारित हो या उनमें से किसी एक के स्वामित्व या किरायेदारी में हो जिसके सम्बन्ध में व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी या दोनों संयुक्त रूप से या अकेले, कोई अधिकार, हक, हित या साम्या रखते हैं, एवं (3) इसमें ऐसी गृहस्थी भी शामिल हैं जो अविभक्त कुटुम्ब से सम्बन्धित हो जिसका प्रत्यर्थी एक सदस्य हो भले ही प्रत्यर्थी या व्यक्ति व्यक्ति साझी गृहस्थी में कोई अधिकार, हक या हित रखता हो।

    इस प्रकार उक्त परिभाषा को विधायन के स्वीकार्य उद्घोषणा एवं महिलाओं को अपनी प्रतिष्ठा एवं मनोबल को अपनी जीवन शैली के अनुसार विनियमित करने के पर्याप्त उपचार प्रदान करने की आवश्यकता पर जोर देते हुए अवलोकित करने की आवश्यकता होती है जो कि अब तक थी या पूर्णतया अपेक्षित थी, इसे जोर देने की कोई आवश्यकता नहीं है कि विधानमण्डल ने घरेलू हिंसा अधिनियम अधिनियमित कर अधिनियम की धारा 3 में परिगणित हिंसा के विभिन्न रूप के विरुद्ध भारतीय महिलाओं के लिए उनके मनोबल, प्रतिष्ठा एवं मर्यादा को प्रतिरक्षित करने के लिए गैर परम्परागत एवं अनूठे उपचार प्रदान करने का प्रयास किया है जो कि विधि में इससे पहले उपलब्ध नहीं था।

    धनंजय रामकृष्ण गायकवाड यनाम सुनन्दा धनन्जय गायकवाड, 2016 के मामले में कहा गया है कि "साझी गृहस्थी" का तात्पर्य उस स्थान से है, जहां व्यक्ति व्यक्ति घरेलू सम्बन्ध में रहती है या किसी प्रक्रम पर रही है।

    साझी गृहस्थी के अन्तर्गत वह गृहस्थी है, जो संयुक्त परिवार से सम्बन्धित है, जिसका प्रत्यर्थी सदस्य है।

    पत्नी साझी गृहस्थी में निवास के अधिकार का दावा करने के लिए हकदार है और साझी गृहस्थी का केवल तात्पर्य पति से सम्बन्धित घर पर या पति द्वारा किराये पर लिए गए घर या उस घर से होगा, जो संयुक्त परिवार से सम्बन्धित है, जिसका पति सदस्य है।

    साझी गृहस्थी की अवधारणा साझी गृहस्थी वह गृहस्थी है जहाँ व्यथित व्यक्ति रहता है या किसी घरेलू नातेदारी में या तो अकेले या प्रत्यर्थी के साथ उल्लेखित पद से सन्दर्भित किसी प्रक्रम पर रह चुका है। यह व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी के संयुक्तत: स्वामित्व या किरायेदारी में हो सकता है, जिसके सम्बन्ध में या तो व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी या दोनों संयुक्त रूप से या अकेले, कोई अधिकार, हक, हित या साम्या रखते हैं।

    इसके अतिरिक्त, साझी गृहस्थी अभिवक्त कुटुम्ब को भी शामिल करती है जिसमें प्रत्यर्थी अविभक्त कुटुम्ब का सदस्य है। इस परिभाषा के पठन से प्रदर्शित होता है कि यदि व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी या दोनों संयुक्ततः या अकेले साझी गृहस्थी के सम्बन्ध में कोई अधिकार, हक, हित या साम्या रखते हैं तो वह साझी गृहस्थी के लिए दावा कर सकती है।

    "संयुक्त परिवार"

    जिस उद्देश्य के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम अधिनियमित किया गया था उसके उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए जो संविधान के अधीन प्रत्याभूत महिलाओं के अधिकार के प्रभावकारी संरक्षा प्रदान करने के लिए जो परिवार में रहने के कारण परिवार में घटित होने वाली हिंसा से पीड़ित हैं एवं इससे सम्बन्धित या समानार्थी मामलों के लिए "संयुक्त परिवार" की परिभाषा में प्रयुक्त अभिव्यक्ति "घरेलू नातेदारी" एवं 'साझी गृहस्थों' की परिभाषा का ऐसा निर्वाचन करना चाहिए जो अधिनियम के उद्देश्य एवं घरेलू हिंसा के अधीन निश्चित अनुतोष प्राप्त करने के लिए संगत हो एवं इस प्रकार, "अविभक्त कुटुम्ब" अभिव्यक्ति का तात्पर्य ऐसी गृहस्थी से है जहाँ परिवार के सदस्य एक साथ रहते हैं एवं न कि हिन्दू विधि में संयुक्त परिवार" की तरह इसे समझा जाएगा। दूसरा निर्वचन देश में साझी गृहस्थी को बहिष्कृत करने की क्षमता रखता है जो कि अधिनियम के स्वीकार्य उद्देश्य के सम्बन्ध में विधायन का आशय नहीं हो सकता।

    "अविभक्त कुटुम्ब" "इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका 2008" में निम्न रूप से परिभाषित है "संयुक्त परिवार ऐसा परिवार है जिसमें एकान्वयिक वंशानुक्रम के सदस्य ( एक समूह जिसमें स्त्री या पुरुष को पौढ़ो की पंक्ति पर जोर दिया जाता है) अपने दम्पति एवं संतति के साथ एक ही घर में सदस्यों के एक प्राधिकारी के अधीन एक साथ रहते हैं।

    संयुक्त परिवार एकल परिवार (माता-पिता एवं आश्रित पुत्रगण) का विस्तार है एवं यह प्रारूपिक तौर पर विकसित होता है जब एक लिंग के बच्चे विवाह होने पर अपने माता-पिता का घर नहीं छोड़ते जबकि अपने दम्पत्ति को साथ रहने के लिए लाते हैं।

    इस प्रकार, पिता की ओर से पंक्ति के संयुक्त परिवार में वृद्ध व्यक्ति एवं उसकी पत्नी, उसके बच्चे एवं अविवाहित पुत्री, उसके पुत्र की पत्नी और बच्चे और अग्रेतर शामिल होते हैं। बीच की पौढ़ी में किसी व्यक्ति के लिए जो संयुक्त परिवार से सम्बन्धित है उसमें मूल परिवार (अर्थात् जिसमें उसका जन्म हुआ है) के वैवाहिक जीवन को संयुक्त करने से तात्पर्यित होता है। इस प्रकार, घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों को स्वीकार्य विधायी आशय के आलोक में अपने उचित पृष्ठभूमि में अर्थान्वित करने को आवश्यकता होती है।

    शीर्ष न्यायालय द्वारा प्रतिपादित उपरोक्त प्रावधान व्यथित व्यक्ति-पत्नी को अपने श्वसुर द्वारा अर्जित एवं स्वामित्व को सम्पत्ति या परिसर में निवास करने के किसी अधिकार का दावा करने के लिए हकदार नहीं बनाता है, जिसमें पति को शामिल कर किसी को कोई दावा, अधिकार, या साम्या नहीं है। इस प्रकार, श्वसुर की आवासीय सम्पत्ति जो उसने अर्जित किया है, उसमें उसके पुत्र भी दावा नहीं कर सकते। श्वसुर जिस प्रकार चाहता है अपने अधिकार के अधीन व्यवहार करने के लिए। पूर्णतया स्वतंत्र होता है।

    वाक्यांश "संयुक्त परिवार" को धारा 2 (च) के अधीन "घरेलू नातेदारी" की परिभाषा में स्थान प्राप्त है जिसे किसी के द्वारा वाकपटुता से नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। वाक्यांश "संयुक्त परिवार" उक्त संविधि में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है।

    भारतीय समाज के समकालीन संदर्भों में साधारण अर्थों में स्मरणातीत समय से शास्त्र एवं पुराण ने इसे मान्यता प्रदान किया है एवं एकल परिवार की तुलना में संयुक्त परिवार के प्रति प्रोत्साहन दिया है, इसका अग्रेतर विस्तार की कोई आवश्यकता नहीं है।

    इस प्रकार, कोई भी इसे सुरक्षित रूप से निष्कर्षित कर सकता है कि 'घरेलू नातेदारी' उपधारा में परिगणित विशिष्ट नातेदारी तक आवश्यक रूप से सीमित रहने की आवश्यकता नहीं होती यह अविभक्त कुटुम्ब में साझी गृहस्थी के परिवार के सदस्यों के बीच नातेदारों को अपने विस्तार में लेती है।

    संयुक्त परिवार की अवधारणा

    निःसन्देह धारा 2 (ध) के अधीन निर्दिष्ट परिवार की "संयुक्त" प्रास्थिति का सजातीय अर्थ है। सामान्य भाषा में, "संयुक्त परिवार" में लोगों का समूह होता है, जो या तो रक्त या विवाह या एक ही घर में रहने के कारण सम्बन्धित होते हैं। इस प्रकार का दृष्टान्त कमोवेश सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है।

    भारत में सामान्य व्यवहार यह है कि पुत्र और उसको पत्नी विवाह के बाद (पति के) माता-पिता के घर में निवास करते हैं यद्यपि जैसे ही बच्चे वयस्कता की आयु प्राप्त कर लेते हैं, वैसे ही उनके पालन-पोषण के प्रति उनका विधिक आभार समाप्त हो जाता है, माता-पिता एवं बच्चे के बीच विधिक सम्बन्ध जारी रहता है। "संयुक्त परिवार" की संकल्पना विधितः हिन्दू विधि में अतुलनीय होती है।

    "संयुक्त परिवार" की संकल्पना एच यू एफ के समानार्थी नहीं होती न ही यह मुस्लिम विधि, क्रिश्चियन विधि या अन्य किसी वैयक्तिक विधि में पायी जाती है। इस एच यू एफ को समतुल्यता करते हुए "संयुक्त परिवार" का सीमित निर्वाचन अस्पष्ट विभेद में परिणामित होगी क्योंकि साझी गृहस्थी में रहने वाली महिलायें एच० यू० एफ० से सम्बन्धित होगी (एवं इस प्रकार हिन्दू) उनको जो हिन्दू मतों पर विश्वास करते हैं उनकी अपेक्षा जो हिन्दू नहीं हैं ज्यादा सुरक्षा होती है। [

    "विवाह की प्रकृति की नातेदारी"

    2005 के अधिनियम का लाभ प्राप्त करने के लिए सभी लिव-इन-रिलेशनशिप विवाह को प्रकृति की नातेदारी नहीं होती। ऐसा लाभ प्राप्त करने के लिए शर्तों को संतुष्ट होना चाहिए एवं इसे साक्ष्य द्वारा साबित करना होता है। यदि आदमी की कोई "रखैल" है जिसकी वह आर्थिक रूप से सहायता करता है एवं मुख्य रूप से उसे लैंगिक सम्बन्धों के उद्देश्य एवं/ या नौकरानी की तरह उपयोग में लेता है तो वह "विवाह की प्रकृति को नातेदारी नहीं होगी।"

    परिभाषा खण्ड में केवल पांच प्रकार की नातेदारी का उल्लेख है जो स्वयं पूर्ण है क्योंकि अभिव्यक्ति "तात्पर्य" इसमें प्रयुक्त किया गया है। जब परिभाषन खण्ड "तात्पर्य" को परिभाषित करता है तो परिभाषा प्रथम दृष्ट्या सीमित एवं पूर्ण होती है धारा 2 (च) में "सम्मिलित" पद प्रयुक्त नहीं है जो परिभाषा को पूर्ण बनाये। इस संदर्भ में न्यायालय को "विवाह की प्रकृति की नातेदारी" अभिव्यक्ति के अर्थ का परीक्षण करना होगा।

    अभिव्यक्ति "विवाह की प्रकृति की नातेदारी" घरेलू हिंसा अधिनियम या धारा 2 (च) के अधीन आती है। इसका तात्पर्य ऐसी नातेदारी से है जिसमें विवाह को अन्तर्विलित या आवश्यक प्रकृति हो हालांकि यह विधितः मान्य नहीं होता एवं इस प्रकार, दिये गये मामलों में क्या नातेदारी नियमित विवाह का अधिनिश्चिय करती है इस प्रकार दोनों की तुलना में इसे विनिश्चित करना होगा

    अधिनियम समलैंगिक (गे या लेस्बियन) नातेदारी को मान्यता नहीं देती

    घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2 (च) में हालांकि अभिव्यक्ति "दो व्यक्तियों" प्रयुक्त है, धारा 2 (क) में प्रयुक्त अभिव्यक्ति "व्यथित व्यक्ति" में केवल "महिला" आती है, इस प्रकार अधिनियम समलैंगिक (गे या लेस्बियन) नातेदारी को मान्यता नहीं प्रदान करती एवं इस प्रकार कोई कृत्य, लोप या किसी पक्षकारगण का आचरण घरेलू हिंसा अधिनियम के किसी अनुतोष को अधिकृत करने के लिए घरेलू हिंसा की ओर अग्रसारित नहीं करेगी।

    "समय के किसी प्रक्रम पर साथ रह चुका होना या रहना चाहिए"

    धारा 2 (च) में "समय के किसी प्रक्रम पर रहना या रह चुका होना" शब्द का प्रयोग विधायन के आशय का संकेतिक है एवं इसे पूर्णतया स्पष्ट करता है कि व्यक्ति को घरेलू नातेदारी में समझना होगा भले ही वह प्रत्यर्थी के साथ अधिनियम के लागू होने के पूर्व समय के किसी प्रक्रम पर प्रत्यर्थी के साथ रह चुका है।

    क्या यह विधायी आशय नहीं था कि 'शब्द या समय के किसी प्रक्रम पर' को अधिनियम की धारा 2 (च) में स्थान नहीं प्रदान किया जाना चाहिए एवं इतना कहना पर्याप्त होना चाहिए कि घरेलू नातेदारी का तात्पर्य दो व्यक्तियों के बीच ऐसे सम्बन्ध से है जो साझी गृहस्थी में एक साथ रहते हों।

    लिव-इन-रिलेशनशिप इसे उल्लिखित किया जा सकता है कि, ऐसी नातेदारी लम्बे समय तक टिक सकती है एवं आश्रितता की आकृति एवं असुरक्षा में परिणामित हो सकती है एवं ऐसी नातेदारियों की बढ़ती संख्या विशेषतया उन महिलाओं को एवं लिव-इन-रिलेशनशिप से उत्पन्न बच्चों को पर्याप्त एवं प्रभावी सुरक्षा प्रदान करने की अपेक्षा करते हैं।

    विधानमण्डल, निश्चित रूप से विवाह पूर्व लैंगिक सम्बन्ध को प्रोत्साहित नहीं कर सकती, हालांकि इस समय ऐसी नातेदारी अत्यन्त वैयक्तिक है एवं लोगों ने इसके समर्थन में एवं इसके विरुद्ध अपना मत दिया है।

    उच्चतम न्यायालय ने डी वेलूसामी बनाम डी पतचाईअम्माल, एआईआर 2011 एससी 479 के मामले में अवधारित किया है कि रहने का सभी सम्बन्ध विवाह की प्रकृति में सम्बन्ध के समान नहीं होता, जिससे इस अधिनियम का लाभ लिया जाय।

    आवेदक और अनावेदक के लिए ऐसे ढंग में रहना आवश्यक है कि उन्हें समाज द्वारा व्यापक रूप से पति और पत्नी माना जाता है और न केवल यह कि उन्हें विधिक विवाह करने के लिए अन्यथा अर्ह भी होना चाहिए, इसके साथ उनमें से दोनों विवाह करने के लिए विधिक आयु के हों, उनमें से दोनों उस समय अविवाहित हैं, जब वे ऐसे सम्बन्ध में प्रवेश करते हैं, जो विवाह के समान है इत्यादि।

    'विवाह की प्रकृति की नातेदारी' एवं 'लिव-इन-रिलेशनशिप' के बीच अन्तर विवाह की प्रकृति को नातेदारी एवं वैवाहिक नातेदारी के बीच विभेद को प्रथमतः उल्लिखित करना होगा। विवाह की नातेदारी मतों में भिन्नता, वैवाहिक अभान्ति इत्यादि तथ्य के बावजूद भी जारी रहती है इसके बावजूद भी कि यदि वे साझी गृहस्थी में सहभागिता नहीं कर रहे हैं तो यह विधि पर आधारित होगा। परन्तु लिव-इन-रिलेशनशिप विधिक विवाह के विपरीत पक्षकारगण के मध्य विशुद्ध रूप से एक व्यवस्था है।

    लिव-इन-रिलेशनशिप का एक बार पक्षकार निश्चित करता है कि वह ऐसी नातेदारी में नहीं रहना चाहता तो नातेदारी समाप्त हो जाती है। अग्रेतर, शादी की प्रकृति की नातेदारी में ऐसी नातेदारी के अस्तित्व पर जोर देने वाले पक्षकार को किसी प्रक्रम पर या किसी समय बिन्दु पर, ऐसी नातेदारों के चरित्र को चिन्हित करने के लिए सकारात्मक तौर पर साबित करना चाहिए क्योंकि विधायन ने की प्रकृति की अभिव्यक्ति प्रयुक्त किया है।

    "पति का नातेदार"

    धारा 2 (घ) के परन्तुक में प्रयुक्त शब्द में पति के नातेदार में महिला नातेदारी भी शामिल हो सकती है।

    अधिनियम के अधीन संरक्षण महिला, जो विवाहिता है, घरेलू सम्बन्ध में प्रवेश नहीं कर सकती, जैसा कि धारा 2 (च) के अधीन अनुज्ञात है और यदि वह मनुष्य के साथ उसकी रखैल या उपपत्नी के रूप में स्थायी सम्बन्ध साबित करती है, तो वह इस अधिनियम के अधीन संरक्षण के लिए हकदार नहीं होगी।

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