घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 17: घरेलू हिंसा के मामलों में अपील

Shadab Salim

23 Feb 2022 4:59 AM GMT

  • घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 17: घरेलू हिंसा के मामलों में अपील

    घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 ( The Protection Of Women From Domestic Violence Act, 2005) की धारा 29 अपील के संबंध में उल्लेख करती है। अपील किसी भी व्यक्ति का एक कानूनी अधिकार है।

    आपराधिक मामलों में अपील से संबंधित व्यवस्था दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत की गई है किंतु घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 एक विशेष अधिनियम है तथा इस अधिनियम में विशेष रुप से अपील का प्रावधान भी दिया गया है। साथ ही अपील की अवधि को भी निर्धारित किया गया है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 29 पर न्याय निर्णय सहित व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा है

    धारा 29

    अपील

    उस तारीख से, जिसको मजिस्ट्रेट द्वारा किये गये आदेश की, यथास्थिति, व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी पर जिस पर भी पश्चात्वर्ती हो, तामील की जाती है, तीस दिनों के भीतर सेशन न्यायालय में कोई अपील हो सकेगी।

    धारा 29 मजिस्ट्रेट के द्वारा पारित किये गये किसी आदेश, जो व्यथित व्यक्ति अथवा प्रत्यर्थी, जैसे भी स्थिति हो, पर तामील किया गया हो, के विरुद्ध सत्र न्यायालय के समक्ष अपील के लिए प्रावधान करती है।

    धारा 29 की उपधारा (3) विवाह तथा विवाह विच्छेद से सम्बन्धित किसी विधि के सम्बन्ध में केवल परिसीमा अधिनियम के प्रावधानों के अनुप्रयोग को वर्जित करती है। चूंकि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम से सम्बन्धित मामले को उक्त अधिनियम की उपधारा (3) में शामिल नहीं किया गया है।

    इसलिए अवर अपीलीय न्यायालय के समक्ष कार्यवाही को परिसीमा अधिनियम के प्रावधानों से प्रयोजनीय होने का प्रश्न तथा परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के अधीन आवेदन का प्रश्न घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन प्रस्तुत की गई अपील के सम्बन्ध में पोषणीय न होने के कारण उद्भूत नहीं हो सकता है।

    धारा 29 अपील का कथन करती है। यह इस बात को इंगित करती है कि 'आदेश' के विरुद्ध अपील पोषणीय होती है। अधिनियम की धारा 29 में अभिव्यक्ति 'आदेश' की परिधि का अर्थान्वयन करने के लिए पहले विधिक प्रावधान की स्पष्ट भाषा पर विचार करना आवश्यक होगा। यह आदेश के विरुद्ध अपील का कथन करती है।

    धारा 29 में प्रयुक्त निश्चित आर्टिकिल 'दि' को निश्चित रूप से पहले निर्दिष्ट आदेशों का संदर्भ प्राप्त होना चाहिए। अन्यथा निश्चित आर्टिकिल 'दि' का प्रयोग अपना महत्व खो देगा। संविधि के अध्याय 4 में पहले निर्दिष्ट सभी आदेशों को 'आदेश' की परिधि के भीतर आने के लिए अभिनिर्धारित किया जाना चाहिए, क्योंकि अधिनियम की धारा 29 में अभिव्यक्ति 'आदेश' के ठीक पहले निश्चित आर्टिकिल 'दि' को समझने का अन्य अथवा अच्छा ढंग नहीं है।

    आदेश को अपनी परिधि के भीतर धारा 18 से 23 के अधीन पारित किये गये सभी आदेशों को लेना चाहिए तथा भाषा तथा शब्दावली के द्वारा धारा 29 में अभिव्यक्ति आदेश" की परिधि से धारा 23 के अधीन पारित किये गये आदेश को अपवर्जित करने अथवा छोड़ने का कोई कारण नहीं है।

    कार्यवाही की प्रकृति

    नि:संदेह अनुतोष, जो मजिस्ट्रेट के लिए आवश्यक है और अधिनियम के कतिपय के प्रावधानों के अधीन प्रदान करने के लिए यह प्राधिकृत किया गया। है, सिविल प्रकृति के होते हैं। परन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि मजिस्ट्रेट उन कार्यों को करते समय दण्ड न्यायालय के रूप में कार्य नहीं कर रहा है।

    अधिनियम के अधीन शक्ति का प्रयोग करते समय मजिस्ट्रेट दण्ड न्यायालय के रूप में कार्य करता है, हालांकि कार्यवाही अथवा अनुतोष की प्रकृति, जिसे वह कतिपय प्रावधानों के अधीन प्रदान कर सकता है,सिविल प्रकृति के होते हैं।

    किसी व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही करने का अधिकार अन्तर्निहित होता है और इसका अधिनियम के प्रावधानों के अधीन उससे अनुतोष की मांग करने के प्रश्न से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। यदि मजिस्ट्रेट यह निश्चित करता है कि व्यक्ति, जिसके विरुद्ध अधिनियम के अधीन कार्यवाही की गई है, को अधिनियम के अर्थान्तर्गत प्रत्यर्थी के रूप में पक्षकार नहीं बनाया जा सकता है, तब सम्पूर्ण कार्यवाही को समाप्त किया जाना है।

    ऐसा आदेश, जो अधिनियम के अधीन आवेदकगण के अनुतोष प्राप्त करने के अधिकार की कटौती करता है अथवा ऐसी कार्यवाही हो, जो प्रारम्भ में ही समाप्त हो गई हो, तब उसे अधिनियम की धारा 29 के अधीन प्रयोज्यनीय होना अभिनिर्धारित किया जाना चाहिए।

    अपील का उपचार अधिनियम की धारा 29 उस तारीख से, जिस पर मजिस्ट्रेट के द्वारा व्यथित व्यक्ति अथवा प्रत्यर्थी, जैसी भी स्थिति हो, पर आदेश पारित किया गया है, से 30 दिन के भीतर अपील के लिए उपचार का प्रावधान करती है तथापि ऐसी अपील ऐसे शुद्ध रूप से प्रक्रियात्मक आदेशों के विरुद्ध पोषणीय नहीं होगी, जो पक्षकारों के अधिकारों तथा दायित्वों को निर्णीत अथवा अवधारित नहीं करते हैं।

    यह मानना भी कि अन्तरिम अनुतोष के लिए धारा 23 के अधीन पारित किया गया अन्तरिम आदेश अधिनियम की धारा 29 के अधीन अपीलीय होता है, इस न्यायालय द्वारा विनिर्दिष्ट रूप से संप्रेक्षण किया गया है कि अपीलीय न्यायालय उसमें तब हस्तक्षेप करेगा, यदि यह पाया जाता है कि विवेकाधिकार का मनमाने ढंग से, सनकपूर्ण ढंग से प्रतिकूल रूप से प्रयोग किया गया है अथवा यदि यह पाया जाता है कि विचारण न्यायालय में अन्तरिम अनुतोष की मंजूरी अथवा इंकारी को विनियमित करने वाली विधि की सुनिश्चित स्थिति की उपेक्षा की गयी है।

    अपील का अधिकार

    अपील के अधिकार को अधिकांशतः त्रुटि मनमानेपन तथा अयुक्तियुक्तता के विरुद्ध न्यूनतम प्रक्रियात्मक रक्षोपाय के रूप में जाना जाता है। एक मामले में इस न्यायालय ने अपील के अधिकार से सम्बन्धित प्रावधानों पर विचार करते समय "उदारता की आवश्यकता पर जोर दिया था। अधिनियम की धारा भी उसका निर्वचन करने का प्रयत्न करते समय और धारा 29 में अभिव्यक्ति 'आदेश' की परिधि तथा आयाम को सुनिश्चित करते समय ऐसी उदारता की हकदार होती हैं।

    प्रत्यर्थी ने आक्षेपित आदेश को स्वयं प्रस्तुत किया है, जिसे वह सम्यक् आवेदन करने के पश्चात् मजिस्ट्रेट से प्राप्त किया है। उसे यह तर्क करने के लिए नहीं सुना जा सकता है कि उसे अपील का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है, क्योंकि आदेश उस पर तामील नहीं किया गया है।

    अपील का अधिकार का आश्रय लेना

    पी चन्द्रशेखर पिल्लै बनाम वालसाला चन्द्रन याची, जो धारा 29 के अधीन अपील के अपने अधिकार का आश्रय नहीं लिया है, न तो मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होने के लिए अपने अधिकार का आश्रय लिया है और पहले पारित किये गये अन्तरिम आदेश के निरस्तीकरण/परिवर्तन/उपान्तरण के लिए प्रार्थना किया है, के अनुरोध पर आक्षेपित आदेश के विरुद्ध दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन शक्तियों के आश्रय को न्यायसंगत ठहराते हुए कोई परिस्थिति नहीं है।

    याची को मजिस्ट्रेट के समक्ष उपयुक्त तर्क उठाने का विकल्प प्राप्त है और मजिस्ट्रेट को अधिनियम की धारा 12 (4) और 12 (5) के अधीन उस अभियान की भावना को, जो उससे अपेक्षित है, आत्मसात करने के पश्चात् याचिका को शीघ्रतापूर्वक तथा विधि के अनुसार गुणावगुण पर निस्तारित करने के लिए कार्यवाही करनी चाहिए।

    मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किये गये आदेश के विरुद्ध अपील

    अपील अधिनियम की धारा 23 की उपधारा (1) और उपधारा (2) के अधीन पारित किये गये आदेश, जो मजिस्ट्रेट के द्वारा पारित किया गया हो, के विरुद्ध भी होगी। हालांकि अधिनियम की धारा 23 के अधीन पारित किये गये आदेश के विरुद्ध अपील पर विचार करते समय अपीलीय न्यायालय सामान्यतः मजिस्ट्रेट द्वारा विवेकाधिकार के प्रयोग में हस्तक्षेप नहीं करेगा।

    अपीलीय न्यायालय हस्तक्षेप केवल तब करेगा, यदि यह पाया जाता है कि विवेकाधिकार का मनमाने ढंग से, सनकपूर्ण ढंग से प्रतिकूल रूप से प्रयोग किया गया है अथवा यदि यह पाया जाता है कि न्यायालय ने अन्तरिम अनुतोष की मंजूरी अथवा इंकारी को विनियमित करने वाली विधि के सुनिश्चित सिद्धान्तों की उपेक्षा किया है।

    मजिस्ट्रेट का आदेश

    मजिस्ट्रेट के आदेश के विरुद्ध दाखिल किसी आवेदन को अपील माना जाना चाहिए और न कि पुनरीक्षण यह अधिनियम केवल अपील के दाखिल करने के लिए उपबन्ध करती है और न कि पुनरीक्षण के लिए यह अधिनियम विशेष अधिनियमन होने के कारण दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 399 पर अभिभावी होगी। इसलिए, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 399 के अधीन पुनरीक्षण के रूप में आवेदन को पंजीकृत करते हुए सत्र न्यायाधीश का आदेश अनुचित निर्णीत किया गया था।

    अन्तिम आदेश के विरुद्ध अपील

    अधिनियम की धारा 29 के अधीन अपील अधिनियम की धारा 12 की उपधारा (1) के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किये गये अन्तिम आदेश के विरुद्ध होगी।

    इस धारा के अधीन अपील केवल अन्तिम आदेश के विरुद्ध पोषणीय है और पुनरीक्षण उस अन्तरिम अनुतोष के विरुद्ध पोषणीय है, जिसका सत्र न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण किया जा सकता है।

    एकपक्षीय अन्तरिम आदेश के विरुद्ध अपील की स्वीकारी

    धारा 29 के अधीन अन्तरिम एकपक्षीय आदेश के विरुद्ध अपील को स्वीकार करने पर विचार करते हुए न्यायालय निश्चित रूप से इस तथ्य से अवगत होगा कि व्यथित व्यक्ति उस मजिस्ट्रेट के पास पहुँच सकते हैं, जो अन्तरिम आदेश पारित किया था। अधिनियम की धारा 23, सपठित धारा 28 (2) के अधीन परिवर्तन की मांग कर सकते हैं।

    धारा 29 के अधीन अपील स्वीकार करने के लिए विचार करने वाले न्यायालय को सदैव इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि ऐसा अनुक्रम/उपचार व्यक्ति व्यक्ति को उपलब्ध है और युक्तियुक्त रूप से प्रज्ञावान व्यक्ति के रूप में न्यायालय निश्चित रूप से इसके बारे में प्रश्न पर विचार करेगा कि उस उपचार का उपयोग किये बिना तथा उसके पहले अपील प्रस्तुत करने के लिए धारा 29 के अधीन प्रावधानों का आश्रय क्यों लिया गया है। परन्तु यह इस बात का कथन करना नहीं है कि अपील पोषणीय नहीं होती है।

    केवल उपयुक्त मामले में धारा 29 के अधीन शक्तियों का आश्रय लेने की आवश्यकता होती है और अपील स्वीकार की जा सकती है। विवेकाधिकार अपीलीय न्यायालय में निहित होता है। परन्तु अपील को स्वीकार करने की अधिकारिता अथवा सक्षमता पर संदेह नहीं किया जा सकता है।

    इस धारा के अधीन अपील योग्य आदेश न्यायालय आदेशों के वर्गों को संक्षिप्त करना चाहेगी जो धारा 29 के अधीन अपील योग्य होंगे :

    (1) अधिनियम की धारा 18 से 22 के अधीन केवल अन्तिम आदेश।

    (2) अधिनियम की धारा 23 के अधीन अन्तरिम/एकपक्षीय आदेश भी अपील योग्य होगा।

    (3) प्रक्रियात्मक परिधि से सम्बन्धित अन्य सभी आदेश अधिनियम की धारा 29 के अधीन अपील योग्य होना आशयित नहीं हैं।

    अपीलों की स्वीकृति, सुनवाई तथा निस्तारण

    अधिनियम की धारा 29 यह प्रावधान करती है कि किसी आदेश से, जिसे मजिस्ट्रेट पारित कर सकता है, अपील 'सत्र न्यायालय के समक्ष होगी। यह उल्लेख करना सुसंगत है कि अधिनियम यह नहीं कहता है कि अधिनियम की धारा 29 के अधीन प्रस्तुत की गई अपील को स्वीकार करते समय तथा सुनते समय सत्र न्यायालय को किस प्रक्रिया का पालन करना है। अपीलों को स्वीकृति, सुनवाई तथा निस्तारण से सम्बन्धित संहिता के प्रावधानों को अधिनियम की धारा 29 के अधीन सत्र न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की गई अपील को लागू होना चाहिए।

    धारा 29 के अधीन अपील 'सत्र न्यायालय के समक्ष, न कि सत्र न्यायाधीश के समक्ष होती है धारा 29 के अधीन अपील का प्रावधान सत्र न्यायालय के समक्ष किया गया है, क्योंकि मजिस्ट्रेट का न्यायालय, जिसका आदेश चुनौती के अधीन होता है, सत्र न्यायालय से कनिष्ठ दण्ड न्यायालय होता है। इसलिए, दण्ड न्यायालय के रूप में कार्य करते हुए अधिनियम के अधीन कार्य करने वाला मजिस्ट्रेट सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय के कनिष्ठ होता है।

    अपील में निलम्बन अथवा स्थगन का एकपक्षीय आदेश

    अन्तरिम आदेश, जिसके विरुद्ध अपील प्रस्तुत की गई है, के विरुद्ध अपील की स्वीकृति पर विचार करने वाले तथा स्थगन की मंजूरी पर विचार करने वाले अपीलीय न्यायालय को निश्चित रूप से तथा सतर्क रूप से सभी परिस्थितियों पर विचार करना चाहिए और केवल तब निलम्बन का अन्तरिम आदेश प्रदान करना चाहिए। इसलिए, अधिनियम की धारा 29 के अधीन प्रस्तुत की गई अपीलों में निलम्बन/स्थगन का एकपक्षीय आदेश प्रदान करने के पहले बहुत सावधानी तथा सतर्कता बरती जानी चाहिए।

    पुनरीक्षण अथवा अपील में आदेश को चुनौती देने का अवसर

    सामान्यतः जब पुनरीक्षण अथवा अपील में आक्षेपित आदेश को चुनौती देने का अवसर उपलब्ध होता है, तब दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन आश्रय लेना आवश्यक नहीं होता है। हालांकि पेप्सी फूड्स लिमिटेड बनाम विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट (1998) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह संप्रेक्षण किया गया था कि किसी समय संहिता की धारा 482 अथवा अनुच्छेद 227 के अधीन तात्कालिक अनुतोष के लिए ऐसी कुछ घोर त्रुटियों, जो अधीनस्थ न्यायालयों के द्वारा कारित की जा सकती थी, को सुधार करने के लिए आश्रय लिया जा सकता था।

    आवेदन के प्ररूप में त्रुटि जब पुनरीक्षणीय आवेदन का सार विधितः स्वीकार योग्य है और उस पर सक्षम न्यायालय द्वारा न्यायिक रूप से विचार किया गया था, तो आवेदन के, जो उसके समक्ष पेश किया गया था, प्ररूप में त्रुटि सम्पूर्ण कार्यवाही को दूषित नहीं करता।

    पुनरीक्षण की शक्तियां

    दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 401 के अधीन पुनरीक्षण के शक्तियों का प्रयोग करते समय उच्च न्यायालय दोषमुक्ति के निष्कर्ष को दोषसिद्धि में परिवर्तित करने के लिए अपीलीय न्यायालय की शक्ति के सिवाय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 में विनिर्दिष्ट अपीलीय न्यायालय की सभी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है।

    पुनरीक्षण की शक्ति प्रकृति में पर्यवेक्षणकारी होती है

    पुनरीक्षण की शक्ति प्रकृति में पर्यवेक्षणकारी होती है, जो उच्चतर न्यायालयों को अधीनस्थ दण्ड न्यायालयों के अभिलेखों को मंगाने तथा स्वयं का यह समाधान का प्रयोजन करने के लिए जांच करने हेतु समर्थ बनाती है कि ऐसे अवर न्यायालय का दण्डादेश, निष्कर्ष, आदेश अथवा कार्यवाही वैध, सही अथवा उचित है।

    पुनरीक्षण की शक्ति का प्रयोग सत्र न्यायालय संहिता की धारा 397 (1) और 401 के अधीन पुनरीक्षण की शक्ति के प्रयोग के प्रयोजन के लिए उच्च न्यायालय के अधीनस्थ दण्ड न्यायालय होता है।

    संहिता की धारा 397 (1) उसमें विनिर्दिष्ट न्यायालयों को अवर दण्ड न्यायालय के अभिलेखों को मंगाने तथा स्वयं का इसके बारे में समाधान करने के प्रयोजन के लिए जांच करने के लिए सशक्त करती है कि क्या ऐसे अवर न्यायालय का दण्डादेश, निष्कर्ष वैध, सही अथवा उचित है अथवा क्या ऐसे अवर न्यायालय को कार्यवाही नियमित है।

    पुनरीक्षण शक्ति प्रदत करने का उद्देश्य उच्चतर दण्ड न्यायालयों को विधि की गलत धारणा, प्रक्रिया को अनियमितता, उचित सावधानी की उपेक्षा अथवा व्यवहार की प्रकट कठोरता, जो एक तरफ सम्यक कानून और व्यवस्था के अनुरक्षण में कुछ क्षति में परिणामित हुई अथवा दूसरी तरफ व्यक्तियों की कुछ निर्योग्य कठिनाई में परिणामित हुआ है, से उद्भूत न्याय की हत्या को सुधारने के लिए प्रदान की गई है।

    उच्च न्यायालय की पुनरीक्षणीय अधिकारिता उच्च न्यायालय की पर्यवेक्षणीय शक्ति या पुनरीक्षणीय अधिकारिता अभिव्यक्त रूप से या विवक्षित रूप से इस अधिनियम के किसी उपबन्धों द्वारा अपवर्जित नहीं की गयी है। इस प्रकार, उच्च न्यायालय की पुनरीक्षणीय शक्ति अपराध के लिए उपबन्ध करते हुए किसी अन्य परिनियम पर आधारित नहीं है, जब तक द० प्र० सं० का विनिर्दिष्ट अपवर्जन है।

    उच्च न्यायालय द्वारा शक्ति का प्रयोग अपील में सत्र न्यायालय का निर्णय, हालांकि अधिनियम की धारा 29 के अधीन प्रस्तुत किया गया हो, फिर भी अवर दण्ड न्यायालय होने के कारण संहिता की धारा 397 (1) और 401 के अधीन अपनी शक्ति के प्रयोग में उच्च न्यायालयों द्वारा पुनरीक्षणीय होता है। याचीगण को उस उपचार का आश्रय देना है।

    सत्र न्यायालय का निर्णय अधिनियम यह नहीं कहता है कि सत्र न्यायालय का निर्णय किसी अन्य न्यायालय के समक्ष चुनौती के अधीन होता है संहिता की धारा 397 (1) के अधीन उच्च न्यायालय किसी अवर दण्ड न्यायालय के समक्ष किसी कार्यवाही के अभिलेखों को मंगा सकता है और उसकी जांच कर सकता है।

    विनिर्दिष्ट उपचार

    जहाँ विनिर्दिष्ट अधिनियम के अधीन पक्षकार को विनिर्दिष्ट उपचार का विकल्प प्राप्त हो वहाँ उच्च न्यायालय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन हस्तक्षेप नहीं करेगा।

    एन पी पोन्नूस्वामी बनाम निर्वाचन अधिकारी, नामक्कल निर्वाचन क्षेत्र के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि :

    "जहाँ ऐसी संविधि के द्वारा अधिकार अथवा दायित्व सृजित किया गया हो, जो उसे प्रवर्तित करने के लिए विशेष उपचार प्रदान करती है, तब उस संविधि के द्वारा प्रदान किये गये उपचार कर उपयोग किया जाना चाहिए।

    पक्षकारों का अधिकार

    धारा 18 से 22 के प्रावधानों का संदर्भ स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है कि धारा 18 से 22 के अधीन अन्तरिम आदेश, हालांकि प्रकृति में अन्तिम नहीं होता है और हालांकि वे केवल उस क्षेत्र को धारित कर सकता है, जब तक अन्तिम आदेश पारित नहीं किया जा सकता है, सारवान रूप से पक्षकारों के अधिकारों को भी प्रभावित करेगा।

    अन्तरिम अनुतोषों की उस प्रकृति पर विचार करना आवश्यक नहीं है, जो धारा 23, सपठित धारा 18 से 22 के अधीन न्यायालय द्वारा प्रदान किये जा सकते हैं परन्तु यह बहुत स्पष्ट है कि धारा 18 से 22 के अधीन अन्तरिम संरक्षण आदेश, अन्तरिम निवास आदेश, अन्तरिम धनीय आदेश, अन्तरिम अभिरक्षा आदेश अथवा अन्तरिम प्रतिकर आदेश सारवान रूप से कम से कम पक्षकारों के अधिकारों को प्रभावित करेंगे, जब तक उसे परिवर्तित अथवा उसे उपान्तरित नहीं कर दिया जाता है।

    आदेश की तामीली

    प्रत्यर्थी पर आदेश की तामीली को अधिनियम की धारा 29 के अधीन अपील के अधिकार के साथ कुछ भी नहीं करना है। अपील का अधिकार व्यक्ति व्यक्ति अथवा प्रत्यर्थी को उपलब्ध होता है, परन्तु अपोल के ऐसे अधिकार का प्रयोग धारा 29 के अधीन विहित एक मास की अवधि के भीतर किया जाना है और तीस दिन की ऐसी अवधि का चलना प्रत्यर्थी अथवा व्यथित व्यक्ति पर आदेश की तामीली की तारीख से प्रारम्भ होगा। यह मानना पूर्ण रूप से अस्वीकार्य है कि अपील का अधिकार प्रत्यर्थी पर आदेश की तामील पर निर्भर करेगा।

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