घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 15: न्यायालय की अधिकारिकता

Shadab Salim

21 Feb 2022 4:59 AM GMT

  • घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 15: न्यायालय की अधिकारिकता

    घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 ( The Protection Of Women From Domestic Violence Act, 2005) की धारा 27 अधिनियम के अंतर्गत न्यायालय की अधिकारिता के संबंध में उल्लेख करती है।

    इस अधिनियम को कुछ इस प्रकार गढ़ा गया है कि पीड़ित महिलाओं को शीघ्र से शीघ्र न्याय उपलब्ध कराया जा सके। इसलिए इस अधिनियम में अधिकारिता प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को दी गई है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 27 पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है और उस पर आए वादों में दिए गए निर्णय को भी प्रस्तुत किया जा रहा है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा का मूल स्वरूप है

    धारा 27

    अधिकारिता

    (1) यथास्थिति, प्रथम वर्ग के न्यायिक मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट का न्यायालय, जिसकी स्थानीय सीमाओं के भीतर,

    (क) व्यथित व्यक्ति स्थायी रूप से या अस्थायी रूप से निवास करता है या कारबार करता है या नियोजित है; या

    (ख) प्रत्यर्थी निवास करता है या कारबार करता है या नियोजित है; या

    (ग) हेतुक उद्भूत होता है,

    इस अधिनियम के अधीन कोई संरक्षण आदेश और अन्य आदेश अनुदत्त करने और इस अधिनियम के अधीन अपराधों का विचारण करने के लिए सक्षम न्यायालय होगा।

    (2) इस अधिनियम अधीन किया गया कोई आदेश समस्त भारत में प्रवर्तनीय होगा।

    न्यायालय की अधिकारिता

    जब कार्यवाही को स्वीकार तथा विचारित करने के लिए न्यायालय के प्राधिकार अथवा अधिकारिता के बारे में प्रश्न उठाया जाता है, तब निर्णय कार्यवाही को समाप्त कर सकता है इसलिए पक्षकारों को कार्यवाही स्वीकार करने तथा विचारित करने के लिए न्यायालय की अधिकारिता अथवा प्राधिकार के बारे में निर्णायक प्रश्न को निर्णीत करने के पहले अपने प्रतिद्वन्द्वी तर्कों के समर्थन में अपना साक्ष्य, मौखिक और/अथवा दस्तावेजी, जैसी भी स्थिति हो, को प्रस्तुत करने के लिए निष्पक्ष तथा पूर्ण अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त भी इसकी अपेक्षा करते हैं।

    दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 300 का वाचन यह स्पष्ट करता है कि व्यक्ति, जो अधिकारिता रखने वाले सक्षम न्यायालय के द्वारा एक बार विचारित किया गया है, इसका तात्पर्य यह है कि मजिस्ट्रेट उक्त अधिनियम के प्रावधानों के अधीन अपराध का विचारण करने की अधिकारिता रखता है और विचारण किया गया हो तथा मामला दोषसिद्धि अथवा दोषमुक्ति में समाप्त हो गया हो, तब ऐसे व्यक्ति को किसी अन्य अपराध के लिए तथ्यों के उसी समूह पर पुन: उसी अपराध के लिए विचारित नहीं किया जायेगा।

    स्वीकृत रूप से, मजिस्ट्रेट को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन दण्डनीय अपराध का कम से कम अधिनियम के प्रावधानों के अधीन विचारण करने की कोई शक्ति प्राप्त नहीं है। ऐसे अपराध अथवा उक्त अभिकथनों से उद्भूत अपराध का विचारण करने के लिए सक्षम न्यायालय द्वारा न्याय निर्णयन, हालांकि उन कार्यवाहियों में अभिकथन किये गये हों, फिर भी अधिकारिता के अभाव के कारण मजिस्ट्रेट अपराध का विचारण नहीं कर सकता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 300 वर्तमान मामले में प्रयोज्यनीय नहीं है।

    स्वीकृत रूप से कार्यवाही परिवाद में अभिकथित अपराध के लिए किसी दण्ड हेतु संस्थित नहीं की गई थी, परन्तु यह केवल संरक्षण तथा परिवादी के अधिकारों के न्यायनिर्णयन के लिए थी और कार्यवाहियां पूर्ण रूप से भिन्न तथा पृथक् है, इसलिए उसका विचारण किये जाने के लिए, जो अब अभिकथित किया गया है, अपराध के साथ कुछ भी नहीं है।

    मजिस्ट्रेट की अधिकारिता अधिनियम की धारा 27 न्यायिक मजिस्ट्रेट, प्रथम वर्ग अथवा महानगर मजिस्ट्रेट, जैसी भी स्थिति हो, के न्यायालय पर अधिकारिता प्रदत्त करती है और ऐसा न्यायालय अधिनियम के अधीन अपराधों का भी विचारण करने के लिए सशक्त होता है।

    मजिस्ट्रेट की शक्तियों का क्षेत्र और अधिकारिता अधिनियम के प्रावधानों के अधीन शक्ति का प्रयोग करते हुए मजिस्ट्रेट को शक्ति की क्षेत्र तथा अधिकारिता पूर्ण रूप से भिन्न तथा सुभिन्न होती है। यदि भारतीय दण्ड संहिता के प्रावधानों के अधीन दण्डनीय अपराध के अभिकथन का अधिनियम के प्रावधानों के अधीन कार्यवाही में अभिकथन किया गया हो, तब इसके बारे में प्रश्न कि क्या अधिनियम के प्रावधानों के अधीन अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए मजिस्ट्रेट परिवाद में अभिकथित अपराध का विचारण कर सकता था, क्या उक्त अधिनियम के प्रावधान अभियुक्त को दण्डित करने के लिए प्रावधान उपबन्ध करते थे।

    अनुतोषों के सम्बन्ध में विवाद्यक विरचित करने का मजिस्ट्रेट को निर्देश

    याची ने धारा 18 के अधीन संरक्षण आदेश, धारा 19 के अधीन निवास आदेश, धारा 20 के अधीन भरण-पोषण का आदेश तथा धारा 22 के अधीन प्रतिकर आदेश, आदि की मांग किया था। दोनों अवर न्यायालयों को प्रत्येक अनुतोष पर पक्षकारों के द्वारा प्रस्तुत किये गये साक्ष्य की जांच करनी चाहिए और उस पर निर्णय देना चाहिए। जिसे नहीं किया गया है।

    इसलिए इन परिस्थितियों में उच्च न्यायालय के लिए अवर न्यायालयों के दोनों आदेशों को अपास्त करने तथा मजिस्ट्रेट को पक्षकारों की सुनवाई के पश्चात् दावा किये गये अनुतोषों के सम्बन्ध में विवाद्यकों को विरचित करने और तब पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत किये गये साक्ष्य पर तथा प्रयोज्यनीय विधि पर विचार करने और याची के द्वारा ईप्सित प्रत्येक अनुतोष पर निर्णय प्रदान करने के लिए निर्देशित करने के सिवाय कोई अन्य विकल्प प्राप्त नहीं है।

    इसके परिणामस्वरूप यह याचिका सफल होती है। दोनों अवर न्यायालयों के आदेश अपास्त किये जाते हैं और मजिस्ट्रेट को किये गये संप्रेक्षणों के प्रकाश में आवेदन को नये सिरे से निर्णीत करने के लिए निर्देशित किया जाता है।

    महानगर मजिस्ट्रेट की अधिकारिता

    हिमा बनाम प्रीतम अशोक के मामले में यह कहा गया है कि,यह विवादित नहीं है कि घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 के अधीन परिवाद दाखिल करते समय याची महानगर मजिस्ट्रेट की अधिकारिता के भीतर अपने माता-पिता के साथ रह रही थी। वास्तव में याची के द्वारा कुटुम्ब विधि अधिनियम, 1996 के अधीन ब्रेन्ट फोर्ड कन्ट्री कोर्ट पहुँच करके अविकृत आदेश प्राप्त किया गया था।

    वह स्वयं द्वारा महानगर मजिस्ट्रेट की अधिकारिता को अपवर्जित करने के लिए पर्याप्त नहीं था, यदि यह अन्यथा घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 27 के द्वारा अन्यथा अधिकारिता धारित करती थी। महानगर मजिस्ट्रेट ने भी यह अभिनिर्धारित करने में गलती किया कि अपराध संरक्षण आदेश के उल्लंघन से उद्भूत हुआ था, इसलिए उसे दिल्ली के न्यायालयों के द्वारा विचारित नहीं किया जा सकता था, "महानगर मजिस्ट्रेट" को कोई अधिकारिता प्राप्त नहीं होगी।

    मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की न्यायिक शक्तियाँ

    दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 12 (3) (ख) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट में न्यायिक शक्ति निहित नहीं कर सकती है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 192 मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को जिले में अन्य मजिस्ट्रेट के पास मामलों को भेजने के लिए शक्तियां प्रदान करती है हालांकि यह शक्ति प्रशासनिक शक्ति नहीं है, क्योंकि उक्त प्रावधान स्वयं यह कथन करता है कि उक्त प्रावधान के अधीन शक्ति का आश्रय मजिस्ट्रेट के द्वारा केवल अपराध का संज्ञान लेने के पश्चात् ही लिया जा सकता है।

    मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की प्रशासनिक शक्तियाँ

    मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को प्रशासनिक शक्तियां अपने अधीनस्थ न्यायिक मजिस्ट्रेटों के कार्य पर सामान्य नियन्त्रण तथा पर्यवेक्षण की होती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि इसे अपने अधीनस्य सभी अन्य न्यायिक मजिस्ट्रेटों पर प्रशासनिक नियन्त्रण प्राप्त होता है। प्रत्येक न्यायिक मजिस्ट्रेट मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के अधीनस्थ होता है। प्रत्येक न्यायिक मजिस्ट्रेट को स्थानीय अधिकारिता, जिसमें मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट और अधीनस्थ शामिल हैं।

    मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के द्वारा परिभाषित की जानी है और यह कि स्थानीय अधिकारिता को परिभाषित करने का प्रयोग उच्च न्यायालय के नियन्त्रण के अधीन होगा। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के अधीनस्थ ऐसे न्यायिक मजिस्ट्रेट में कार्य का वितरण मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के द्वारा समय-समय पर नियम बना करके अथवा विशेष आदेश जारी करके किया जाना है।

    यह इस तथ्य के कारण है कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट उस जिले, जिसमें उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 29 (1) के अधीन यथोपबन्धित सात वर्ष तक के कारावास का दण्डादेश पारित करने की शक्ति प्रदान की गई है, का नियन्त्रण अधिकारी होता है। यह इस कारण से है कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 192 के अधीन उसके अधीनस्थ मजिस्ट्रेट को मामलों को सौंपने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 192 के अधीन शक्ति तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 410 के अधीन सभी मामलों को वापस लेने तथा अन्तरित करने की शक्ति निहित की गई है।

    मामलों को वापस लेने की मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्ति

    दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 410 ऐसा प्रावधान है, जो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को मामलों को वापस लेने को शक्ति प्रदान करता है। इस प्रावधान को अपराध के संज्ञान, जाँच अथवा विचारण के मामले में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अधिकारिता के साथ कुछ भी नहीं करना है। यह विशेष शक्ति उसे जिले में अन्य मजिस्ट्रेट के कार्य पर सामान्य नियन्त्रण अथवा पर्यवेक्षण रखने वाला व्यक्ति होने के कारण प्रदान की गई है।

    कुटुम्ब न्यायालय की अधिकारिता

    उस अनुतोष का धारा 18 से 22 के अधीन किसी अन्य कार्यवाही में कुटुम्ब न्यायालय के समक्ष दावा किया जा सकता है, ऐसा शब्द है, जो इस तर्क से भिन्न है कि धारा 12 के अधीन याचिका पर कुटुम्ब न्यायालय के द्वारा विचार किया जा सकता है और उसके द्वारा निस्तारित किया जा सकता है। घरेलू हिंसा अधिनियम की भाषा योजना अथवा अभिप्राय में ऐसा कुछ भी नहीं, जो दूरस्य रूप से भी यह सुझाव दे सकता है कि सिविल न्यायालय अथवा कुटुम्ब न्यायालय धारा 12 के अधीन आवेदन पर विचार करने के लिए सक्षम होता है और धारा 12 के अधीन ऐसे आवेदन में धारा 18 से 22 के अधीन अनुतोष प्रदान कर सकता है।

    वास्तव में, कुटुम्ब न्यायालय तथा सिविल न्यायालय को अपने समक्ष लम्बित कार्यवाही में घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 18 से 22 के अधीन भी अनुतोष प्रदान करने की अधिकारिता प्राप्त है। परन्तु निश्चित रूप से कुटुम्ब न्यायालय अथवा सिविल न्यायालय को धारा 12 के अधीन आवेदन पर विचार करने को कोई शक्ति प्राप्त नहीं है।

    ये धारा 12 के अधीन आवेदन को स्वीकार नहीं कर सकते हैं, न तो उस समय जब इसे मूलतः उनके समक्ष दाखिल किया गया हो, न हो उच्चतर न्यायालय मजिस्ट्रेट के समक्ष लम्बित धारा 12 के अधीन ऐसी याचिका को ऐसे सिवित अथवा कुटुम्ब न्यायालय के समक्ष अन्तरित करने की कोई अधिकारिता ग्रहण कर सकते हैं।

    प्रादेशिक अधिकारिता न्यायिक मजिस्ट्रेट, प्रथम वर्ग अथवा महानगर मजिस्ट्रेट जैसी भी स्थिति हो, जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर व्यथित व्यक्ति स्थायी रूप से अथवा अस्थायी रूप से निवास करता है, को भी घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 27 (1) (क) में यथाविहित मामले का विचारण करने की प्रादेशिक अधिकारिता प्राप्त होती है।

    कान्ति देवी बनाम उत्तराखण्ड राज्य, 2014 के मामले में कहा गया है कि अधिनियम की धारा 18, 19, 20, 21 और 22 का परिशीलन यह स्पष्ट करेगा कि ऐसा अनुतोष, जैसा कि परिवादी-प्रत्यर्थी संख्या 2 के द्वारा ईप्सा किया गया था, की आवेदकगण के विरुद्ध भी मांग की जा सकती है। यह आवश्यक नहीं है कि उन अनुतोषों की केवल पति के विरुद्ध ही मांग की जा सकती है।

    अन्य शब्दों में ऐसे अनुतोषों की मांग किसी प्रत्यर्थी (आवेदक संख्या 2) के विरुद्ध की जा सकती है, जिसका विवरण अधिनियम की धारा 2 (घ) में दिया गया है। क्या परिवादी प्रत्यर्थी ऐसे अनुतोष का हकदार है अथवा नहीं, सर्वोत्तम रूप से अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, कोटद्वार के द्वारा निर्णीत किया जा सकता है, जिसके पास मामला है। इसलिए आवेदकगण यह नहीं कहता है कि कोटद्वार के न्यायालय को अधिनियम की धारा 12 के अधीन परिवाद को स्वीकार करने की कोई प्रादेशिक अधिकारिता प्राप्त नहीं है।

    मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की प्रादेशिक अधिकारिता दण्ड प्रक्रिया संहिता धारा 410 के अधीन मामलों को वापस लेने तथा उसकी जांच करने अथवा विचारण करने को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्ति उस पर एक अन्य मजिस्ट्रेट की स्थानीय सीमाओं के भौतर, जिस न्यायालय से ऐसे मामले को वापस लिया गया था, शामिल क्षेत्र पर उस पर प्रादेशिक अधिकारिता प्रदत्त नहीं करता है।

    प्रादेशिक अधिकारिता न रखने वाले मजिस्ट्रेट के पास मामले को स्थानान्तरित किया जा सकता है, यदि वह अन्यथा सक्षम हो। उस अन्तरण के द्वारा ऐसा मजिस्ट्रेट केवल उस मामले को विचारित करने का प्राधिकार प्राप्त करता है परन्तु वह उस मजिस्ट्रेट की स्थानीय सीमाओं के भीतर, जिसके न्यायालय से मामले को स्थानान्तरित किया गया है, शामिल क्षेत्र पर अधिकारिता प्राप्त नहीं करता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 192 भी मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की प्रादेशिक अधिकारिता से सम्बन्धित नहीं है।

    स्थानीय अधिकारिता मात्र इस कारण से कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 410 के अधीन मामले को वापस लेने की अथवा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 192 के अधीन मामलों को सौंपने की शक्ति निहित की गई है, यह नहीं कहा जा सकता है कि उसकी स्थानीय अधिकारिता (न्यायिक शक्ति) सम्पूर्ण जिले तक विस्तारित है। पूर्वोलिखित शक्तियां उसे केवल अधीनस्थ मजिस्ट्रेटों पर सामान्य नियन्त्रण तथा पर्यवेक्षण का प्रभावी प्रयोग करने के लिए ही प्रदान की गई हैं।

    मजिस्ट्रेट की स्थानीय अधिकारिता जब उच्च न्यायालय के अनुमोदन से प्रत्येक मजिस्ट्रेट की स्थानीय अधिकारिता, जिसमें मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की स्थानीय अधिकारिता शामिल है, परिभाषित की गई है, तब मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता है अथवा उच्च न्यायालय की जानकारी अथवा सहमति के बिना उसे पुनः परिभाषित नहीं कर सकता है।

    स्थानीय अधिकारिता का प्रयोग

    अनिल कुमार बनाम सिन्धू, 2009 के मामले में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, तिरुवनन्तपुरम किसी अन्य मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की तरह ही केवल प्रथम वर्ग के न्यायिक मजिस्ट्रेटों में एक है और चूंकि उच्च न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 14 (1) के अधीन नियन्त्रण को अपनी शक्ति के प्रयोग में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, तिरुवनन्तपुरम की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं को अनुमोदित कर दिया है।

    मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, तिरुवनन्तपुरम का न्यायिक शक्तियों का प्रयोग केवल उनकी स्थानीय सीमाओं तक ही, न कि उसके परे सीमित किया जाना है। इसलिए प्रत्येक न्यायिक मजिस्ट्रेट, जिसमें मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट शामिल है, कि सम्पूर्ण जिले में अधिकारिता तथा शक्तियों का विस्तारण, जैसा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 14 (2) के अधीन उपबन्धित है, उनकी स्थानीय सीमाओं की परिभाषा के अधीन है। जब एक बार उनकी स्थानीय अधिकारिता को इस प्रकार परिभाषित किया गया हो, तब वे अपनी शक्तियों का प्रयोग केवल ऐसी स्थानीय सीमाओं के भीतर कर सकते हैं।

    निवास

    "निवास", "रुकने" की अपेक्षा उससे अधिक कुछ चीज को इंगित करती है और किसी स्थान पर रुकने के किसी आशय को अभिव्यक्त करती है न कि मात्र आकस्मिक रूप में जाने को इंगित करती है। निवास के प्रश्न को इसके बारे में निर्णीत किया जाना आवश्यक है कि क्या निवास स्थायी अथवा अस्थायी रूप से का दावा करने वाले पक्षकार को किसी विशेष स्थान पर रुकने का आशय है, तब केवल यह कहा जा सकता है कि पक्षकार उस विशेष स्थान पर या तो स्थायी रूप से या अस्थायी रूप से भी निवास कर रहा है। जिसके बारे में प्रश्न कि क्या व्यक्ति व्यक्ति किसी विशेष स्थान को निवास स्थान, स्थायी अथवा अस्थायी बनाया है, ऐसा प्रश्न है, जिसे प्रत्येक मामले के तथ्यों के संदर्भ में निर्णीत किया जाना है।

    "निवास करता है"

    एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय पत्नी के द्वारा अपने पति के विरुद्ध भरण-पोषण की याचिका के सम्बन्ध में पद "निवास करता है" से सम्बन्धित प्रश्न पर विचार कर रहा था। शब्द "निवासी" के शब्दकोशी अर्थ पर विचार करते हुए सर्वोच्य न्यायालय ने यह संप्रेक्षण किया है कि शब्द का तात्पर्य किसी स्थान में स्थायी निवास करना के साथ ही साथ अस्थायी रूप से निवास करना दोनों है।

    यह दोनों अर्थ के योग्य है, जिसमें सर्वाधिक कठोर रूप में तथा सर्वाधिक तकनीकी अर्थ में अधिवास तथा स्थायी निवास है। इसे जो कुछ भी अर्थ प्रदान किया गया है, परन्तु एक चीज स्पष्ट है कि इसमें किसी विशेष स्थान पर आकस्मिक रूप से रुकना अथवा अस्थायी रूप में आना-जाना शामिल नहीं होता है। संक्षेप में शब्द का अर्थ अन्तिम विश्लेषण में विशेष संविधि के संदर्भ तथा प्रयोजन पर निर्भर करेगा।

    अस्थायी निवास

    अस्थायी निवास के अन्तर्गत वह स्थान है, जहां व्यथित व्यक्ति घरेलू हिंसा के कारित करने की दृष्टि में निवास करने के लिए विवश की गयी थी। वह वहां स्थायी रूप से या पर्याप्त समय के लिए किन्तु तत्समय के लिए निवास करने का विनिश्चय नहीं कर सकती।

    स्थान जहां व्यथित व्यक्ति आकस्मिक दौरे पर गया है, लाज या छात्रावास या अतिथि गृह या सरांय, जहां वह संक्षिप्त अवधि के लिए ठहरती है या अन्य व्यक्ति के विरुद्ध मामले के दाखिल करने के प्रयोजन के लिए साधारणतया स्थान पर निवास ऐसा स्थान नहीं हो सकता, जो शब्द "स्थाई रूप से निवास करता है" का समाधान करेगा, जैसा कि अधिनियम की धारा 27 में प्रतीत होता है।

    संरक्षण आदेश की मंजूरी अधिनियम, 2005 की धारा 27 के प्रावधानों का सामान्य अवलोकन यह प्रकट करेगा कि प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट, जिसकी स्थानीय सीमाओं के भीतर व्यथित व्यक्ति स्थायी रूप से अथवा अस्थायी रूप से निवास करता है अथवा व्यवसाय करता है अथवा नियोजित किया गया हो; अथवा प्रत्यर्थी निवास करता है, अथवा व्यवसाय करता है अथवा नियोजित किया गया है; अथवा याद हेतुक उद्भूत हुआ हो।

    इस अधिनियम के अधीन संरक्षण आदेश तथा अन्य आदेश प्रदान करने के लिए और इस अधिनियम के अधीन अपराधों का विचारण करने के लिए सक्षम न्यायालय होगा। उपधारा (2) यह कथन करती है कि इस अधिनियम के अधीन दिया गया आदेश सम्पूर्ण भारत में प्रवर्तनीय होगा। अधिनियम, 2005 के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया गया आदेश उक्त अधिनियम की धारा 29 की दृष्टि में अपीलीय होता है।

    मामले का स्थानान्तरण

    जहाँ मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान लेने के पहले मामले को स्थानान्तरित कर दिया गया हो, तब ऐसा स्थानान्तरण केवल प्रशासनिक कार्यवाही, न कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 192 के अधीन स्थानान्तरण होगा।

    याचिका का स्थानान्तरण

    परिचय उद्देश्यों और कारणों का कथन, तथा उद्देशिका आदि का वाचन स्थिति को पूर्ण रूप से स्पष्ट कर देता है। अधिनियम में कहीं भी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो धारा 12 के अधीन दाखिल की गई याचिका, जो किसी मजिस्ट्रेट के न्यायालय के समक्ष लम्बित हो, को किसी अन्य न्यायालय को स्थानान्तरित करने को अनुज्ञात अथवा प्राधिकृत करता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन शक्तियां स्पष्ट रूप से किसी दण्ड न्यायालय के समक्ष लम्बित कार्यवाही को किसी सिविल न्यायालय को स्थानान्तरित करने को शक्ति से वरिष्ठतर न्यायालयों को आच्छादित नहीं करती है।

    यद्यपि घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन सृजित अधिकार तथा प्रदान किये गये अनुतोष प्रकृति में सारत: सिविल होते हैं, फिर भी महत्वपूर्ण रूप से अधिनियम में किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष लम्बित ऐसे सिविल दावे को किसी अन्य सिविल न्यायालय को स्थानान्तरित करने के लिए अधिनियम में कोई प्रावधान नहीं है। इस प्रकार के किसी विनिर्दिष्ट प्रावधान के अभाव में उच्चतर न्यायालयों को मजिस्ट्रेट, जैसी भी स्थिति हो, के समक्ष लम्बित धारा 12 के अधीन याचिका को किसी अन्य सिविल न्यायालय या कुटुम्ब न्यायालय को स्थानान्तरित करने की शक्ति प्राप्त नहीं होती है। इस प्रकार की गई प्रार्थना अपने आमुख पर पोषणीय नहीं है।

    परिवाद की खारिजी

    इसकी वैधानिकता मात्र इस कारण से कि याची या तो अस्थायी रूप से स्थायी रूप से भारत वापस लौट आयी है, यह उसे घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के प्रावधानों का आश्रय लेने के लिए अहकदार नहीं बनायेगा, यदि उसे गुणावगुण पर मामला प्राप्त हो।

    इस प्रकार महानगर मजिस्ट्रेट द्वारा अधिकारिता के अभाव के कारण परिवाद की खारिजी तथा अपर सत्र न्यायाधीश के द्वारा उसका अनुमोदन अवैध, क्योंकि यह संधार्य नहीं हो सकता है। परन्तु उसी समय यह ध्यान में रखा जाना है कि संरक्षण आदेश केवल उस व्यक्ति के विरुद्ध ही प्राप्त किया जा सकता है, जो व्यथित व्यक्ति के साथ घरेलू नातेदारी में है।

    विधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग

    यह आशंका है कि यदि अधिनियम की धारा 27 के अधीन बनाये गये प्रावधानों पर यह दावा करने के लिए कि वह स्थान अधिनियम, 2005 की धारा 27 के अर्थान्तर्गत उसका स्थायी निवास है, आकस्मिक निरीक्षण करने के लिए भी अनुज्ञात करने हेतु शाब्दिक अर्थान्वयन किया जा सकता है, तब यह विधिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को अग्रसर करेगा, क्योंकि व्यथित व्यक्ति किसी ऐसे स्थान को चुन करके, जहाँ वह आकस्मिक रूप से आ जा सकता है, अन्य पक्षकार को परेशान करना पसन्द कर सकता है।

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