घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 1: अधिनियम का परिचय
Shadab Salim
8 Feb 2022 12:20 PM IST
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 ( The Protection Of Women From Domestic Violence Act, 2005) बेहद महान उद्देश्य से बनाया गया है। भारत की पृष्ठभूमि ऐसी रही है कि एक लंबे समय से यहां महिलाओं के विरुद्ध घरों में हिंसा होती रही है। विशेषकर शादीशुदा महिलाओं के मामले में ऐसी हिंसा अधिक देखने को मिलती है। इन समस्याओं से निपटने के उद्देश्य से ही भारत की संसद ने इस अधिनियम को बनाया है।
भारत में घरेलू हिंसा की रोकथाम के लिए विधायन- यह देखने के पश्चात् कि इस देश में घरेलू हिंसा का प्रचलन बढ़ रहा है, संसद ने मुख्यतः घर की चहारदीवारी के भीतर घटित होने वाली इस विशेष किस्म की हिंसा की रोकथाम के लिए एक विधायन अर्थात् घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 बनाया। यह विधि दण्डाधिकारी वर्ग के माध्यम से सिविल विधि के अधीन अधिक त्वरित उपचार का उपबन्ध करने तथा भारत के संविधान के अनुच्छेदों 14, 15 एवं 21 के अधीन प्रत्याभूत अधिकारों को ध्यान में रखते हुए अधिनियमित की गई है।
प्रत्येक प्राधिकारवान व्यक्ति को घरेलू हिंसा के पीड़ितों के साथ व्यवहार करते हुए लैंगिक संवेदनशीलता की भावना से समस्या का निपटारा करना पड़ता है। यहाँ विरोधी पक्षकार पर असम्यक लाभ प्राप्त करने के लिए या आत्म-विवर्धन के लिए अधिनियम के प्रावधानों का दुरुपयोग किये जाने में, सिवाय उन मामलों में जहाँ दुःखी महिला के प्रति समानुभूति दर्शित करने वाली शक्ति के निधानों में कुछ भी दोषपूर्ण नहीं है।
यह अधिनियम जो राजपत्र में 2005 में प्रकाशित हुआ था 26 अक्टूबर 2006 को प्रवर्तन में आया। हालांकि घरेलू हिंसा से पीड़ितों को बहुत शक्तिशाली उपचार प्रदान करने के द्वारा दुर्बल लिंग के सुधार तथा नारी सशक्तीकरण संसद के मस्तिष्क सर्वोच्च रहा है।
घरेलू हिंसा पर अन्तर्राष्ट्रीय विधियाँ
युनाइटेड किंगडम में सिविल भागीदारी अधिनियम, 2004 द्वारा समान लिंग के युगल के अधिकारों को भी मान्यता दी गई है। कुटुम्ब विधि अधिनियम, 1996 में अध्याय 4 द्वारा "कुटुम्ब गृह एवं घरेलू हिंसा शीर्षक" के अधीन यदि घरेलू हिंसा होती है तो सहवासीगण अनुतोष मांग सकते हैं। कनाडा ने भी घरेलू हिंसा हस्तक्षेप अधिनियम, 2001 अधिनियमित किया है। यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका में महिला के विरुद्ध हिंसा अधिनियम, 1994 के अधीन महिला के विरुद्ध हिंसा दुरगामी परिणामों के साथ एक अपराध है
अधिनियम का उद्देश्य
घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 का उद्देश्य महिलाएं, जो परिवार के अन्दर घटित होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा की शिकार हैं, के लिए संविधान के अधीन प्रत्याभूत अधिकारों के प्रभावी संरक्षण के लिए उपबन्ध करना है। अधिनियम केवल घरेलू सम्बन्ध में पत्नियों तथा महिलाओं को उपचार का अधिकार प्रदान करता है।
उपर्युक्त उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक प्रणाली का उपबन्ध है, अर्थात् यह पुलिस अधिकारी, संरक्षण अधिकारी, सेवा प्रदाता एवं मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि वह पीड़ित व्यक्ति को अधिनियम के अधीन एक या अधिक अनुतोषों के लिए आवेदन करने के उसके अधिकार की सेवा प्रदाता संरक्षण अधिकारी की सेवाओं की उपलब्धता तथा निःशुल्क विधिक सेवाओं का लाभ उठाने के अधिकार की सूचना दे।
इसी प्रकार, मजिस्ट्रेट साधारणत: आवेदन की प्राप्ति से तीन दिनों के भीतर इसकी प्रथम सुनवाई को तिथि निश्चित करने के दायित्व के अधीन है तथा प्रथम सुनवाई के 60 दिनों के भीतर प्रत्येक आवेदन के निस्तारण का प्रयास करेगा। घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 एक निश्चित समय सीमा के भीतर सम्पूर्ण एवं त्वरित उपचार का उपबन्ध करता है।
जहाँ पीड़ित व्यक्ति के अधिकार पर आक्रमण किया जाता है या उसे नष्ट किया जाता है, या नष्ट किये जाने की संभावना है, वहाँ घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 इसकी हानि के लिए नुकसानी या संरक्षित करने के लिए निषेधादेश के द्वारा एक उपचार प्रदान करता है।
2005 के अधिनियम का उद्देश्य असहाय और आश्रयहीन पीड़ितों को और अधिक प्रभावी संरक्षण प्रदान करना तथा संविधान के अधीन प्रत्याभूत महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करना है।
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के अधिनियमित किये जाने का उद्देश्य महिलाओं को, जो पत्नी या विवाह की प्रकृति के सम्बन्ध में रहने वाली स्त्री के अतिरिक्त अकेली महिला, मातायें, विधवायें, बहनें हैं, सिविल विधि के अधीन उपचार प्रदान करना था
घरेलू हिंसा अधिनियम का अधिनियमन समाज में घरेलू हिंसा की घटना को रोकने तथा घरेलू हिंसा से पीड़ित होने से महिलाओं के संरक्षण के लिए सिविल विधि में उपचार प्रदान करने के लिए किया गया है।
घरेलू हिंसा अधिनियम उन महिलाओं को जो परिवार के भीतर घटित होने वाली किसी भी प्रकार की हिंसा की शिकार हैं, संविधान के अधीन प्रत्याभूत महिलाओं के अधिकारों के प्रभावी संरक्षण प्रदान करने के लिए भी उपबन्धित किया गया है।
चूंकि अधिनियम का वास्तविक उद्देश्य घरेलू हिंसा तथा सम्बन्धित मुद्दों से जुड़ी महिला को संरक्षण प्रदान करना है इसलिए पद "प्रत्युत्तरदाता" को परिभाषित करना पड़ेगा ताकि घरेलू हिंसा के सभी पीड़ितों को, जो स्त्री हैं इस बात पर विचार किये बिना कि क्या ऐसी घरेलू हिंसा पत्नी, या विवाह की प्रकृति के सम्बन्ध के अधीन रहने वाली स्त्री या सौतेली माता के साथ की गई, विशिष्ट रूप से तब जब धारा 2 (क) में अन्तर्विष्ट "पीड़ित व्यक्ति" को परिभाषा पत्नी या बहू तक सीमित नहीं है। किसी महिला को एकमात्र उसकी वैवाहिक स्थिति पर विचार करते हुए या उसके सास होने पर संरक्षण या विशेषाधिकार सीमित करना अयुक्तियुक्त है।
अधिनियम को अधिनियमित करने के पीछे विधायिका का आशय निःसन्देह संविधान के अधीन प्रत्याभूत महिलाओं को, जो परिवार में किसी प्रकार की हिंसा की शिकार है तथा उससे सम्बन्धित या उससे संगत मामलों में और अधिक संरक्षण प्रदान करना है।
यह स्पष्ट है कि संविधान के अधीन प्रत्याभूत महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा करने के लिए तथा उन्हें घरेलू हिंसा से पीड़ित बनाने के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करने के लिए अधिनियम को अधिनियमित किया गया है, इस पवित्र सिद्धान्त को मस्तिष्क में रखते हुए उपबन्धों का अर्थान्वयन अपेक्षित है। सिधान्तः यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि घरेलू हिंसा में हमेशा एक महिला हो शिकार या पीड़ित पक्षकार होती है।
ऐसे मामले हो सकते हैं जिनमें विधि निर्माताओं या समाज के सहानुभूतिपूर्ण तथा अनुकूल रुख का दुरुपयोग करते हुए, पुरुष भागीदारों का उत्पीड़न किया जा सकता है तत्पश्चात् यदि विधि न्यायालय पुरुष भगीदार पर दूसरी बार जोर डालती है तो यह समाज में अव्यवस्था कारित कर सकती है।
ऐसी विधियों को लागू करते समय इस विवाद का निर्णय करने में कि परिवार का कौन सा भाग घरेलू हिंसा का पीड़ित है, न्यायालयों को अधिक सतर्क होने की आवश्यकता है। मात्र दस्तावेजों के आधार पर उनके औपचारिक सबूत के बिना तथा मात्र बहस सुनकर आदेश पारित करना विधि द्वारा अनुज्ञात नहीं किया गया है और न्यायिक प्रक्रिया में यह अनुज्ञात नहीं किया जाना चाहिए तथा वाद के एक पक्षकार के प्रति नरम रुख से बचना अपेक्षित है।
2005 के अधिनियम के द्वारा निर्णायक रूप से संसद का आशय भवन को साझो गृहस्थी में जो प्रत्यर्थी द्वारा (पति के सम्बन्धियों सहित) किराये पर उठायो जा सकती है, या जिसके सम्बन्ध में प्रत्यर्थी संयुक्ततः या एकल रूप में कोई अधिकार स्वत्व, हित, या साम्या रखता था, पीड़ित व्यक्तियों के अधिकारों को सुरक्षित करना था। उदाहरणस्वरूप, एक विधवा (या इस मामले की भाँति बहु, जो अपने पति से अलग हो गई है), जो सास के स्वामित्वाधीन अधिवास में सास के साथ रह रही है, "घरेलू नातेदारी" के अधीन आती है।
साझी गृहस्थी में रहने के अधिकार में विघ्न न डालने का दायित्व जारी रहेगा हालांकि सास को कोई अधिकार, स्वत्व या हित नहीं है, किन्तु उन अधिवासों में किरायेदार है या 'साम्या' की हकदार है (जैसे कब्जे का साम्यिक अधिकार)। यह इसलिए है कि परिसर साझी गृहस्थी होगी। इन परिस्थितियों में बहू बेकब्जा किये जाने से संरक्षण की हकदार है हालांकि उसके पति को परिसर में कभी कोई स्वामित्व या अधिकार नहीं था। अधिकार, स्वत्व पर आश्रित नहीं है, अपितु मात्र निवास के तथ्य पर आश्रित है।
इस प्रकार, हालांकि सास किरायेदार है, तब उस आधार पर या किसी अन्य आधार पर साम्या रखती है, बहू को बेकब्जा करने से रोका जा सकता है। सास के स्वामी होने की दशा में, बहू को साझी गृहस्थी में निवास के लिए अनुज्ञा देना, जब तक उसके तथा पति के बीच वैवाहिक नातेदारी रहती है, दायित्व जारी रहेगा।
मात्र एक अपवाद धारा 19 (1) (ख) का परन्तुक है, जो स्त्री को साझी गृहस्थी (sliared household) से स्वयं को हटाये जाने का निर्देश देती है। धारा 19 के अधीन अन्य अनुतोषों के लिए ऐसे अपवाद नहीं सृजित किये गये हैं, विशेषकर, संरक्षण आदेशों के सम्बन्ध में क्या महिला के पक्ष में अन्य अपवाद सृजित करने का संसद का आशय था, उसे ऐसा करना होगा। यह लोप इच्छित था तथा अधिनियम की शेष योजना से संगत था।
श्रीमती प्रीति सतीजा बनाम श्रीमती राज कुमारी, एआईआर 2014 के मामले में कहा गया है कि घरेलू नातेदारी के अन्य मामले हो सकते हैं जैसे कि एक भाई या पुत्र के गृह में रहने वाली अनाथ बहन या विधवा माता दोनों घरेलू नातेदारी की परिभाषा से आच्छादित हैं, क्योंकि भाई स्पष्ट रूप से एक प्रत्यर्थी है।
ऐसे मामले में भी, यदि विधवा माता या बहन को बेकब्जा किये जाने की धमकी दी जाती है, तो वे अधिनियम के अधीन, पुत्र या भाई का सम्पत्ति पर अनन्य स्वामित्व के होते हुए भी, अनुतोष सुरक्षित कर सकती हैं। इस प्रकार, सम्पत्तियों के विरुद्ध निवास के अधिकार को अपवर्जित करते हुए, जहाँ पति अधिकार, अंश, हित या स्वत्व, विहिन हो निवास के अधिकार की उपयोगिता के विस्तार को कठोरता से कम किया जाएगा।
उद्देश्य तथा कारणों का कथन
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के नामित अधिनियमन के लिए उद्देश्यों और कारणों का कथन असंदिग्ध रूप से घोषणा करता है कि 1994 के वियना समझौते के सभी सहभागी राज्यों, बीजिंग घोषणा-पत्र, कार्यवाही के लिए मंच (1995), किसी भी प्रकार की विशेष रूप से परिवार के भीतर घटित होने वाली, हिंसा के विरुद्ध महिलाओं के संरक्षण की स्वीकृति देता है।
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के अधिनियमन के लिए उद्देश्यों एवं कारणों का कथन दर्शित करता है कि चूंकि पति या उसके नातेदार द्वारा महिला के साथ क्रूरता करना केवल अपराध था, तथा सिविल विधि घरेलू हिंसा की घटना को इसकी सम्पूर्णता में सम्बोधित नहीं करती थी।
संसद ने भारत के संविधान के अनुच्छेदों 14, 15 तथा 21 के अधीन प्रत्याभूत अधिकारों को ध्यान में रखते हुए एक विधि अधिनियमित करने का प्रस्ताव किया, ताकि घरेलू हिंसा की घटना से पीड़ित होने से संरक्षित करने तथा घरेलू हिंसा की घटना रोकने के क्रम में, सिविल विधि के अधीन उपचार के लिए उपबन्ध किया जाय। अतः अधिनियम पीड़ितों के लिए सिविल उपचारों का उपबन्ध करता है ताकि घरेलू हिंसा के विरुद्ध उन्हें उपचार प्रदान किया जाय, तथा केवल तभी दण्ड दिया जा सकता है, यदि अधिनियम के अधीन पारित आदेश का उल्लंघन होता है।
अधिनियम का अर्थान्वयन करने के लिए उद्देश्यों और कारणों का कथन प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए, किन्तु रिष्टि के आशयित उपचार तथा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को जानने के लिए उनको सन्दर्भित करना अनुज्ञेय है।
इस पहलू पर, स्टेट आफ वेस्ट बंगाल बनाम यूनियन आफ इण्डिया, एआईआर 1963 एससी 1241 में निर्णय को सन्दर्भित करना सुसंगत है जिसमें यह निम्नलिखित रूप में धारित है:
"फिर भी यह सुस्थापित है कि, विधेयक में संलग्न उद्देश्यों तथा कारणों के कथन, जब संसद में प्रस्तुत किये गये, संविधि के सारवान प्रावधानों के सही अर्थ तथा प्रभाव को विनिश्चित करने के लिये प्रयुक्त नहीं किये जा सकते हैं। विधायन हेतु प्रेरित करने वाली पूर्व कार्यगुजारियों तथा पृष्ठभूमि को समझने के सीमित प्रयोजन के सिवाय उनका प्रयोग नहीं किया जा सकता है। लेकिन हम इस कथन का प्रयोग अधिनियमन के निर्माण के सहायक के रूप में या यह दर्शित करने के लिए नहीं कर सकते हैं कि विधानमण्डल का आशय राज्य में निहित साम्पत्तिक अधिकार ग्रहण करना या किसी रूप में खनिजों के स्वामी के रूप में राज्य सरकार के अधिकारों को प्रभावित करना था। एक संविधि जैसा कि संसद ने पारित किया, सम्पूर्ण रूप में विधायिका के सामूहिक आशय की अभिव्यक्ति है तथा किसी व्यक्ति के द्वारा हालांकि वह मंत्री हो, अधिनियम के आशय और उद्देश्य के बारे में किया गया कोई कथन संविधि में प्रयुक्त शब्दों की सामान्यता को कम करने के लिए प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है।"
वियना समझौता, 1994 तथा कार्रवाई के लिए बीजिंग घोषणा और मंच (1995) ने यह अभिस्वीकृत किया है कि घरेलू हिंसा निःसन्देह रूप से मानव अधिकारों का विवाद है। महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव की समाप्ति पर अभिसमय पर संयुक्त राष्ट्र समिति ने अपनी सामान्य सिफारिश में यह सिफारिश किया है कि राज्य पक्षकारों को महिला को किसी प्रकार की हिंसा के विरुद्ध, विशेष रूप से जो परिवार के भीतर घटती है, संरक्षित करने के लिए कार्य करना चाहिए। भारत में घरेलू हिंसा की घटना व्यापक रूप से विद्यमान है, परन्तु सार्वजनिक परिधि में अदृश्यमान रही है।
सिविल विधि इस घटना को उसकी सम्पूर्णता में प्रदर्शित नहीं करती है। वर्तमान में जहाँ महिलाओं के साथ उसके पति अथवा उसके नातेदारों के द्वारा क्रूरता की जाती है, यह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498(ए) के अधीन अपराध है। महिलाओं को घरेलू हिंसा की पीड़िता होने से संरक्षण के लिए तथा समाज में घरेलू हिंसा की घटना को निवारित करने के लिए सिविल विधि में उपचार का उपबन्ध करने के लिए संसद में घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण विधेयक पुरःस्थापित किया गया।
उद्देश्य और कारणों का कथन
(1) घरेलू हिंसा निःसंदेह मानवाधिकार विवाद और विकास के प्रति गम्भीर व्यवधान है। वियना समझौता, 1994 और कार्यवाही के लिए बीजिंग घोषणा और मंच (1995) ने इसे अभिस्वीकृत किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के विभेदीकरण के उन्मूलन पर अभिसमय समिति (सी ई डी ए डब्ल्यू) ने सभी प्रकार अपनी सामान्य सिफारिश संख्या 12 (1989) में यह अनुशंसा की है कि राज्य पक्षकारों को किसी प्रकार की हिंसा, विशेष रूप से परिवार के भीतर होने वाली हिंसा के विरुद्ध महिलाओं को संरक्षण करने के लिए कार्य करना चाहिए।
(2) घरेलू हिंसा की घटना व्यापक रूप से प्रचलित है किन्तु सार्वजनिक क्षेत्र में व्यापक रूप से अदृश्य है। वर्तमान में, जहां महिला अपने पति या उसके सम्बन्धियों द्वारा क्रूरता के अधीन रखी जाती है, वहां वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498- क के अधीन अपराध है। लेकिन, सिविल विधि इस घटना के सम्बन्ध में पूर्ण रूप से प्रावधान नहीं करती।
(3) इसलिए सिविल विधि के अधीन, जो महिलाओं का घरेलू हिंसा का पीड़ित होने से संरक्षण करने और समाज में घरेलू हिंसा की घटना को निवारित करने के लिए आशयित है, उपचार के लिए प्रावधान करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के अधीन प्रत्याभूत अधिकारों को ध्यान में रखकर अधिनियमित करने की प्रस्थापना की जाती है।
(4) विधेयक अन्य बातों के साथ-साथ निम्नलिखित का प्रावधान करने की ईप्सा करता है :
(i) यह उन महिलाओं को आच्छादित करता है, जो दुर्व्यवहारी से सम्बन्धित हैं या सम्बन्धित रही हैं, जहां दोनों पक्षकार साझी गृहस्थी में एक साथ रह रहे हैं और समरक्तता, विवाह द्वारा या विवाह अथवा दत्तक ग्रहण की प्रकृति में सम्बन्ध के माध्यम से सम्बन्धित हैं। इसके अतिरिक्त संयुक्त परिवार में के रूप में एक साथ रहने वाले परिवार के सदस्यों के साथ सम्बन्ध को भी शामिल किया जाता है। वे महिलाएं भी, जो बहन, विधवा, माता, अकेली महिला हैं या दुर्व्यवहार के साथ रह रही हैं, प्रस्तावित विधायन के अधीन विधिक संरक्षण की हकदार हैं, लेकिन चूंकि विधेयक पत्नी या विवाह की प्रकृति के सम्बन्ध में रहने वाली महिला को पति या पुरुष भागीदार के किसी सम्बन्धी के विरुद्ध प्रस्तावित अधिनियमित के अधीन परिवाद दाखिल करने के लिए समर्थ बनाता है, इसलिए यह पति या पुरुष भागीदार के किसी महिला सम्बन्धी की पत्नी या महिला भागीदार के विरुद्ध परिवाद दाखिल करने के लिए समर्थ नहीं बनाता।
(ii) यह पद "घरेलू हिंसा" को परिभाषित करता है, जिसमें वास्तविक गाली वा धमकी या दुर्व्यवहार अर्थात् शारीरिक, यौन, मौखिक, भावनात्मक अथवा आर्थिक है। महिला के सम्बन्धी द्वारा विधि विरुद्ध दहेज की मांग द्वारा तंग करना भी इस परिभाषा के अधीन आच्छादित किया जायेगा।
(iii) यह आवास को सुनिश्चित करने के लिए महिलाओं के अधिकार के लिए प्रावधान करता है। यह महिलाओं के अपने वैवाहिक गृह या साझी गृहस्थी में निवास करने के अधिकार के लिए प्रावधान करता है, चाहे उसे ऐसे घर या गृहस्थी में कोई हक या अधिकार है या नहीं। इस अधिकार को निवास आदेश द्वारा सुनिश्चित किया जाता है, जो मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया जाता है।
(iv) यह मजिस्ट्रेट को व्यथित व्यक्ति के पक्ष में प्रत्यर्थी को घरेलू हिंसा के कार्य या किसी अन्य विनिर्दिष्ट कार्य में सहायता करने या कारित करने, व्यथित व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त कार्य स्थल या किसी अन्य स्थल में प्रवेश करने, उसको संसूचित करने का प्रयत्न करने, दोनों पक्षकारों द्वारा प्रयुक्त किसी सम्पत्ति से पृथक् करने और व्यथित व्यक्ति, उसके सम्बन्धी या अन्य के प्रति जो घरेलू हिंसा में उसकी सहायता करते हैं, हिंसा कारित करने से निवारित के लिए संरक्षण आदेश पारित करने के लिए मजिस्ट्रेट को सशक्त करता है।
(v) यह संरक्षण अधिकारी की नियुक्ति और व्यथित व्यक्ति को उसकी चिकित्सीय परीक्षा, विधिक सहायता प्राप्त करने, सुरक्षित आश्रय इत्यादि के सम्बन्ध में सहायता प्रदान करने के लिए सेवा प्रदाता के रूप में गैर-सरकारी संगठनों के रजिस्ट्रीकरण के लिए प्रावधान करता है।
इस कानून की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, न्यायालयों से अत्यन्त संवेदनशील दृष्टिकोण अपेक्षित होता है, जहां 2005 के अधिनियमों के अधीन कोई अनुतोष नहीं दिया जा सकता हो तो इसकी कभी परिकल्पना ही नहीं करनी चाहिए किन्तु पोषणीयता के आधार पर एकदम आरम्भिक स्तर पर याचिका को निरस्त करने से पहले उठाये गये विवाद्यकों पर प्रासंगिक विमर्श एवं गहन विचारण होना चाहिए।
यह मस्तिष्क में रखना चाहिए कि बेसहारा एवं किस्मत का मारा हुआ, 2005 के अधिनियम के अधीन "व्यथित व्यक्ति" बहुत मजबूरी में न्यायालय में आता है। सभी दृष्टिकोण से विचार करना न्यायालय का कर्तव्य होता है कि क्या प्रत्यर्थी द्वारा प्रस्तुत दलील व्यथित व्यक्ति के व्यथा को समाप्त करने के लिए वास्तविक रूप से विधितः मजबूत एवं सही है।
"हेतुक के प्रति न्याय, सागर के नमक के समकक्ष है" इस सिद्धान्त को ध्यान में रखना चाहिए। विधि का न्यायालय इस सत्य को मान्यीकृत करने के लिए बाध्य है जो जब न्याय किया जाता है तो चमकता है। आरम्भतः किसी याचिका को खारिज करने से पहले यह देखना बाध्यकारी होता है कि ऐसे विधायन के अधीन व्यथित व्यक्ति अनिर्णयन की स्थिति का सामना न करे।
2005 का अधिनियम जैसा कि न्यायालय ने कहा है कि महिलाओं के संवैधानिक अधिकार की प्राप्ति हेतु एवं यह सुनिश्चित करने के लिए कि वे किसी प्रभार के घरेलू हिंसा पीड़ित नहीं होगी इसके लिए लाभकारी साथ ही साथ प्रचलतापूर्ण सकारात्मक अधिनियम है।