लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 34: अधिनियम के अंतर्गत अपनी पसंद के वकील की सेवाएं लेना
Shadab Salim
5 Aug 2022 3:00 PM IST
लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (The Protection Of Children From Sexual Offences Act, 2012) की धारा 40 पीड़ित बालक को अपनी पसंद के वकील को प्रकरण में नियुक्त करने की शक्ति देती है। किसी भी आपराधिक मामले का संचालन लोक अभियोजक द्वारा किया जाता है जिसे साधारण भाषा में सरकारी वकील कहा जाता है।
पॉक्सो मामलों में पीड़ित व्यक्ति को यह अधिकार दिया गया है कि वह अपनी पसंद से किसी प्रायवेट अधिवक्ता को अपनी ओर से प्रकरण में नियुक्त कर सकता है जो उसके मामले की निगरानी करे और पीड़ित को समय पर न्याय मिल सके। इस आलेख के अंतर्गत पीड़ित के इस ही अधिकार पर चर्चा की जा रही है।
यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है
धारा 40
विधि व्यवसायी की सहायता लेने के लिए बालक का अधिकार
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 301 के परंतुक के अधीन रहते हुए बालक का कुटुंब या संरक्षक इस अधिनियम के अधीन किसी अपराध के लिए अपनी पसंद के विधिक काउंसेल की सहायता लेने के लिए हकदार होंगे :
परंतु बालक का कुटुंब या संरक्षक विधिक काउंसेल का व्यय उठाने में असमर्थ है तो विधिक सेवा प्राधिकरण उन्हें वकील उपलब्य कराएगा।
यह धारा बालक को विधिक व्यवसायी की सहायता लेने का अधिकार प्रदान करती है। यह प्रावधान करती है कि बालक के संरक्षक का परिवार इस अधिनियम के अधीन किसी अपराध के लिये "उनके चुनाव के" वकील की सहायता लेने के लिये हकदार होगा और परन्तुक के अनुसार, यदि बालक का परिवार या संरक्षक विधिक वकील प्रदान करने में असमर्थ है, तो "विधिक सेवा प्राधिकरण" उनको वकील प्रदान करेगा।
इस अधिनियम की धारा 40 के साथ पठित पॉक्सो नियम के नियम 4 के संयुक्त अध्ययन पर, विधायी समादेश बालक के माता-पिता या संरक्षक को उक्त अधिनियम के अधीन अपराधों के सम्बन्ध में सभी कार्यवाहियों और उसकी प्रगति की पूर्ण सूचना उपलब्ध करना संविधान के अनुच्छेद 15 और 39 को प्रभावी करने के लिये न्यायिक आदेशिका के प्रत्येक प्रक्रम पर बालक के हित और कल्याण को सुरक्षित करने के एक मात्र उद्देश्य से है।
क्या आवेदक को विधिक सहायता प्रदान करना युक्तियुक्त है अथवा नहीं
जस्टिस पी. एन. भगवती ने अपनी रिपोर्ट, अर्थात् विधिक सहायता समिति की गुजरात राज्य की रिपोर्ट, 1971 में यह सिफारिश की थी कि विधिक सहायता सभी न्यायालयों को उपलब्ध होनी चाहिए, जिससे कि निःशक्त व्यक्ति न्याय प्राप्त कर सके भगवती समिति के शब्दों में :
आज दुर्भाग्यवश हमारा न्याय प्रशासन विलम्ब और व्यय के लिए कुख्यात हो गया है, गरीब व्यक्ति विधि के समझ समान स्तर पर स्थित नहीं होते हैं, न्याय प्रदान करने के पारम्परिक ढंग न्यायालयों के दरवाजों को गरीबों के लिए खोलने हेतु प्रवर्तित हुए हैं और देश के सभी भागों में लाखों लोगों को न्याय की घोर इन्कारी कारित किए है। उनके लिए न्याय का कोई अर्थ नहीं है।
समिति ने अवधारण के लिए निम्नलिखित परीक्षणों की भी सिफारिश की थी-
(i) साधनों का परीक्षण विधिक सहायता प्रदान करने के पहले आवेदक के आय के स्त्रोत पर विचार किया जाना चाहिए।
(ii) प्रथम दृष्ट्या मागले का परीक्षण यह परीक्षण दाण्डिक मामलों में लागू नहीं होता है। सिविल मामलों में जब साधनों का परीक्षण समाप्त हो जाता है, तब आवेदक के लिए यह दर्शाना आवश्यक है कि उसे कार्यवाही को या तो अनियोजित करने या बचाव करने के लिए प्रथम दृष्ट्या मामला प्राप्त है,
(iii) औचित्य का परीक्षण साधनों का परीक्षण और प्रथम दृष्टया मामले के परीक्षण की संतुष्टि के पश्चात् अन्तिम रूप में यह निश्चित करना विधिक सहायता समिति का कर्तव्य होता है कि वा आवेदक को विधिक सहायता प्रदान करना युक्तियुक्त है अथवा नहीं।
39-क समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता
राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक तंत्र इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और वह, विशिष्टतया, यह सुनिश्चित करने के लिए कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता: के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए. उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा या किसी अन्य रीति से निःशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा।"
निःशुल्क विधिक सेवा का अधिकार स्पष्ट रूप में अपराध के अभियुक्त के लिए युक्तियुक्त निष्पक्ष और न्यायसंगत प्रक्रिया का आवश्यक तत्व है और इसे अनुच्छेद 21 की गारण्टी ने विवक्षित अभिनिर्धारित किया जाना चाहिए। यह ऐसे प्रत्येक अभियुक्त का संवैधानिक अधिकार है, जो निर्धनता, संपर्क वर्जित होने की स्थिति जैसे कारणों के कारण अधिवक्ता को नियुक्त करने अथवा विधिक सेवा सुनिश्चित करने में असमर्थ हो और राज्य अभियुक्त को अधिवक्ता प्रदान करने के समादेश के अधीन होता है, यदि मामले की परिस्थितियां और न्याय की आवश्यकताए ऐसी अपेक्षा करती है, परन्तु वास्तव में अभियुक्त ऐसे अधिवक्ता के प्रावधान का विरोध न करता हो।
सुनवाई के अधिकार का सूत्र
कोई व्यक्ति, जो वहां के सिवाय आपराधिक विधि को गतिमान बना सकता है अथवा प्रारम्भ कर सकता है, जहाँ पर अपराध को अधिनियमित करने अथवा सृजित करने वाले संविधि इसके प्रतिकूल इंगित करती है। परिवादी का सुनवाई का अधिकार इसे छोड़कर और इसके सिवाय आपराधिक विधिशास्त्र के परे की अवधारणा है कि जहाँ पर अपराध को सृजित करने वाली संविधि आवश्यक विवक्षा के द्वारा परिवादी को योग्यता के लिए प्रावधान करती है, वहां पर ऐसे सांविधिक प्रावधान के द्वारा सामान्य सिद्धांत अपवर्जित हो जाता है।
समाज के हित में अपराधियों को दण्ड समाज की व्यापक भलाई के लिए अधिनियमित दण्ड संविधियों के पीछे उद्देश्यों में से एक होने के कारण कार्यवाही संस्थित करने के अधिकार को उसे विनिर्दिष्ट सांविधिक अपवाद को छोड़कर और उसके सिवाय दाण्डिक विधिशास्त्र को अज्ञात सुनवाई के अधिकार के सीधे-सादे सूत्र में उसे रखते हुए समाप्त, सीमित अथवा निर्बन्धित नहीं किया जा सकता है।
लोक अभियोजक द्वारा जांच, विचारण या अपील के अधीन उपस्थित और अभिवचन करना-
(1) किसी मामले का भारसाधक लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक किसी न्यायालय में, जिसमें वह मामला जांच, विचारण या अपील के अधीन है, किसी लिखित प्राधिकार के बिना हाजिर हो सकता है और अभिवचन कर सकता है।
(2) किसी ऐसे मामले में यदि कोई प्राइवेट व्यक्ति किसी न्यायालय में किसी व्यक्ति को अभियोजित करने के लिए किसी प्लीडर को अनुदेश देता है तो मामले का भारसाधक लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक अभियोजन का संचालन करेगा और ऐसे अनुदिष्ट प्लीडर उसमें लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक के निदेश के अधीन कार्य करेगा और न्यायालय की अनुज्ञा से उस मामले में साक्ष्य की समाप्ति पर लिखित रूप में तर्क पेश कर सकेगा।
यह उल्लेख दण्ड प्रक्रिया संहिता धारा 301 में किए गए हैं।
(1) लोक अभियोजक बिना प्राधिकार के उपस्थित हो सकता है
लोक अभियोजक अथवा मामले का भारसाधक सहायक लोक अभियोजक किसी न्यायालय, जिसमे जांच, विचारण अथवा अपील लम्बित हो, किसी लिखित प्राधिकार के बिना उपस्थित हो सकेगा।
(2) लोक अभियोजक अभियोजन का संचालन करेगा
लोक अभियोजक सम्पूर्ण मामले के भार साधन में होगा। वह मामले में साक्ष्य प्रस्तुत करेगा, आपत्ति उठाएगा, आपत्ति को दूर करेगा तथा तर्क करेगा।
(3) प्राइवेट वकील और राज्य के वकील के बीच मामले को संचालित करना
रत्नाकर बनाम राज्य, एआईआर 1966 उडीसा 102 के मामले में कहा गया है कि सम्पूर्ण अभियोजन का संचालन या तो मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायालय के समक्ष लोक अभियोजक अथवा सहायक लोक अभियोजक के हाथों में होता है। यदि किसी पुलिस के मामले में कोई प्राइवेट व्यक्ति किसी वकील को किसी व्यक्ति को अभियोजित करने के लिए अनुदेशित करता है, तब वह लोक अभियोजक के निर्देश के अधीन कार्य करेगा। प्राइवेट वकील मामले को स्वतंत्रतापूर्वक संचालित नहीं कर सकता है। वह अभियोजन को तब तक संचालित नहीं कर सकता है, जब तक उसे इस प्रकार लोक अभियोजक के द्वारा अनुज्ञात न किया गया हो।
जहां पर लोक अभियोजक को सम्पूर्ण रूप में दूर रखा गया हो और एक प्राइवेट वकील मामले के पूर्ण भार साधन में हो, तब विचारण अनियमित होता है और अभियुक्त पर प्रतिकूल प्रभाव कारित होता है। न्यायालय प्राइवेट वकील के द्वारा मामले को संचालित करने के मामले में असम्बद्ध होता है। यह विषय अनन्य रूप में प्राइवेट वकील और राज्य वकील के बीच का है।
दाण्डिक कार्यवाही अभिखण्डित
उसे उच्चतर फोरम के समक्ष चुनौती देने का अधिकार अभियोजन को जारी रखना अभिभावी रूप में राज्य की चिन्ता होती है। परन्तु जब परिवादी उस समय सुने जाने की इच्छा व्यक्त करता है, जब दाण्डिक कार्यवाही को अभिखण्डित किए जाने की ईप्सा की गयी हो, तब यह उसे न्याय की इन्कारी होगी, यदि उसे उसके उस निमित्त न्यायालय में निवेदन करने के पश्चात् भी सुने जाने से रोका जाता है।
उससे यह कहने में न्यायालय को लाभ क्या होगा कि उसे उसके द्वारा संस्थित की गयी दाण्डिक कार्यवाही को अभिखण्डित किए जाने के जोखिम पर भी बिल्कुल नहीं सुना जाएगा। उससे यह कथन करने के लिए कोई सांत्वना नहीं होगी कि यदि दाण्डिक कार्यवाही को अभिखण्डित किया जाता है, तब उसको उच्चतर फोरम के समक्ष चुनौती दिए जाने का अधिकार प्राप्त हो सकेगा।
दण्ड प्रक्रिया संहिता में अनुचिन्तित योजना यह इंगित करती है कि व्यक्ति, जो कारित किए गये अपराध के द्वारा व्यथित हो, को मात्र इस कारण से विचारण के परिदृश्य से विलुप्त नहीं किया जाता है कि अन्वेषण पुलिस के द्वारा किया गया था और उनके द्वारा आरोप-पत्र प्रस्तुत किया गया था।
यह तथ्य भी कि न्यायालय ने अपराध का संज्ञान लिया था, उसे अपनी शिकायत के निराकरण के लिए न्यायालय पहुंचने से वर्जित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। सत्र न्यायालय में भी, जहाँ पर केवल लोक अभियोजक को संहिता की धारा 225 के अनुसार अभियोजन को संचालित करने के लिए सशक्त किया गया हो, वहां पर प्राइवेट व्यक्ति, जो मामले में अन्तर्ग्रस्त अपराध के द्वारा व्यथित हो, को विचारण में भाग लेने से वर्जित नहीं किया जाता है।
लोक अभियोजक का नियंत्रण और निर्देश
राम किस्तियाह बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य ए आई आर 1959 के मामले में कहा गया है कि शब्द "कृत्य" को तकनीकी अर्थ में ऐसी किसी भिन्न चीज और साक्षियों की परीक्षा अथवा प्रतिपरीक्षा करने तथा न्यायालय के समक्ष मामले को प्रस्तुत करने से भिन्न अर्थ में नहीं समझा जाना है। लोक अभियोजक के निर्देश के अधीन कार्य करने वाला व्यक्ति ऐसी प्रत्येक चीज कर सकता है, जिसे कोई अधिवक्ता किसी दाण्डिक मामले में कर सकता है। वह उपस्थित हो सकता है, अभिवचन कर सकता है और कार्यवाही कर सकता है।
वह साक्षियों की परीक्षा कर सकता है, आपत्तियां उठा सकता है और उसका उत्तर दे सकता है। इसलिए जब धारा 301 प्राइवेट रूप में नियुक्त किए गये वकील को लोक अभियोजक के निर्देश के अधीन मामले में कृत्य करने के लिए प्राधिकृत करता है, तब वह मामले में प्रत्येक चीज कर सकता है, परन्तु यह कि उसे लोक अभियोजक के नियंत्रण और निर्देश में किया गया हो।
प्राइवेट वकील का अधिकार लोक अभियोजक के अधिकार के अधीनस्थ
प्राइवेट वकील का अधिकार लोक अभियोजक के अधिकार के अधीनस्थ होता है। परिवादी के द्वारा नियुक्त किए गये अधिवक्ता को तब तक सुने जाने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं होता है, जब तक उसे लोक अभियोजक के द्वारा अनुज्ञात न किया गया हो। परन्तु जहाँ पर राज्य किसी विशेष मामले में कोई रूचि न रख रहा हो, वहां पर परिवादी का अधिवक्ता कार्य कर सकता है।
प्राइवेट वकील न्यायालय की अनुमति से लिखित कथन प्रस्तुत कर सकता है-
शब्द और न्यायालय की अनुमति से मामले में साक्ष्य समाप्त हो जाने के पश्चात् लिखित तर्क प्रस्तुत कर सकता है। पुरानी संहिता के अधीन यह अभिनिर्धारित किया गया था कि धारा 493 के अधीन पक्षकार का वकील भी मामले में तर्क प्रस्तुत कर सकता है। वर्तमान संहिता के अधीन प्राइवेट अधिवक्ता न्यायालय की अनुमति से लिखित तर्क प्रस्तुत कर सकता है।
उसे न्यायालय में मामले को प्रस्तुत करने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। यह भी ध्यान में रखा जाना है कि प्राइवेट वकील का लिखित तर्क अभियोजन तथा बचाव पक्ष के साक्ष्य को समाप्त होने के ठीक पश्चात् प्रस्तुत किया जाना है तथा लोक अभियोजक और बचाव पक्ष के अधिवक्ता के तर्क को इसके पश्चात् सुना जाना है।
सम्पूर्ण अभियोजन और अन्य अधिवक्ता का आवरण केवल लोक अभियोजक को सहायता प्रदान कर सकता है-
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 225 विनिर्दिष्ट रूप में यह अनुचिन्तन करती है कि सत्र न्यायालय के समक्ष प्रत्येक विचारण में अभियोजन को लोक अभियोजक के द्वारा संचालित किया जाएगा। अभिव्यक्ति गा का प्रयोग भी बिना किसी अपवाद के इसे आज्ञापक और आत्यन्तिक बनाता है। पुनः इसका पुनर्कथन दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 301 (1) के अधीन किया गया है, जो किसी न्यायालय के समक्ष किसी लिखित प्राधिकार के बिना अभिवचन करने हेतु लोक अभियोजक की उपस्थिति को अनुज्ञात करता है। लेकिन उसकी उपधारा (2) के अधीन केवल यह अनुचिन्तन किया गया है कि कोई प्राइवेट व्यक्ति अधिवक्ता को अनुदेश दे सकता है, जो लोक अभियोजक के निर्देश पर कार्य कर सकता है और न्यायालय की अनुमति से लिखित तर्क भी प्रस्तुत कर सकता है।
इसलिए यह पर्याप्त रूप में स्पष्ट है कि ऐसे मामले में, जहाँ पर प्राइवेट अधिवक्ता उपस्थित होता है लोक अभियोजक की भूमिका पूर्ण रूप में समाप्त नहीं हो जाती है। ऐसा कोई व्यक्ति, जिसे अनुज्ञात किया गया हो, वास्तविक रूप में लोक अभियोजक का स्थान ग्रहण नहीं कर सकता है। अन्ततः यह केवल लोक अभियोजक है, जिसे सम्पूर्ण अभियोजन को संचालित करना है और अन्य अधिवक्ता केवल लोक अभियोजक की सहायता कर सकते है।
लोक अभियोजक अभियुक्त के लिए उपस्थित नहीं हो सकता है
एक मामले में कहा गया है कि लोक अभियोजक अथवा सहायक लोक अभियोजक परिवाद मामलों में भी अभियुक्त के लिए उपस्थित नहीं हो सकते हैं। परन्तु न्यायालय अभियुक्त के लिए अधिवक्ता की उपस्थिति पर आपत्ति नहीं कर सकता है। यह विधिज्ञ परिषद है, जो कार्यवाही करेगी।