लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 27: पॉक्सो मामलों में अपराध के बारे में उपधारणा

Shadab Salim

1 Aug 2022 9:36 AM IST

  • लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 27: पॉक्सो मामलों में अपराध के बारे में उपधारणा

    लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (The Protection Of Children From Sexual Offences Act, 2012) की धारा 29 उपधारणा के संबंध में उल्लेख करती है। उपधारणा का अर्थ होता है किसी बात का अनुमान लगाना।

    पॉक्सो मामलों में न्यायालय अभियुक्त के संबंध में यह उपधारणा करती है कि उसने अपराध किया ही होगा जब तक अभियुक्त यह साबित नहीं कर दे कि वे निर्दोष है। बालको के साथ लैंगिग अपराध घटना एक जघन्य अपराध है इसलिए इस अधिनियम में उपधारणा का उल्लेख किया गया है। इस आलेख में धारा 29 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

    धारा 29

    कतिपय अपराधों के बारे में उपधारणा-

    जहां किसी व्यक्ति को इस अधिनियम की धारा 3, धारा 5, धारा 7 और धारा 9 के अधीन किसी अपराध को करने, करने का दुष्प्रेरण करने या करने का प्रयत्न करने के लिए अभियोजित किया जा रहा है। वहां विशेष न्यायालय यह उपधारणा करेगा कि ऐसे व्यक्ति ने वह अपराध किया है यथास्थिति जब तक कि इसके विरुद्ध साबित नहीं हो जाता।

    अभियुक्त के विरुद्ध उपधारणा

    अभियुक्त के विरुद्ध की जाने वाली उपधारणा खण्डनीय होती है। अब यह सुनिश्चित है कि विभिन्न संविधियों में प्रतिकूल भार तथा साविधिक उपधारणा भी की जा सकती है।

    सुब्रामण्यम बनाम राज्य, 2017 के मामले में अभियुक्त ने पॉक्सो अधिनियम की धारा 29 में यथोपबन्धित उपधारणा का या तो प्रत्यक्ष साक्ष्य के माध्यम से या परिस्थितिजन्य साक्ष्य के माध्यम से खण्डन नहीं किया है। इस प्रकार, अभियोजन ने निश्चायक रूप में यह साबित किया है कि यह अभियुक्त था जिसने पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के अधीन दण्डनीय अपराध कारित किया था। इस प्रकार, विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के अधीन सही तौर पर दोषसिद्ध किया था।

    पॉक्सो अधिनियम की धारा 29 के अधीन अभियुक्त के विरुद्ध उपधारणा आत्यन्तिक नहीं होती है, वरन् वह खण्डनीय होती है। यह केवल तब प्रवर्तन में आयेगी, जब अभियोजन पहले उन तथ्यों को साबित करने में समर्थ हो जाता है, जो पॉक्सो अधिनियम की धारा 29 के अधीन उपधारणा को प्रवर्तित होने के लिए आधार गठित करेंगे।

    अभियुक्त की आपराधिक मानसिक स्थिति की उपधारणा

    एक मामले में अभियुक्त की आपराधिक मानसिक स्थिति यह कि अभियुक्त पॉक्सो अधिनियम की धारा 29/30 के अधीन उपधारणा का खण्डन करने में भी विफल हुआ था। उसके ऐसा होने पर और पीडिता के अभिसाक्ष्य, जो न्यायालय के मस्तिष्क में विश्वास प्रेरित करता है, को विस्थापित करने के लिए अनियोजन के मामले में कोई कमी /शैथिल्यता न होने के कारण इस निष्कर्ष से कि अभियुक्त अपराध का अपराधी है, से भिन्न कोई अन्य निष्कर्ष नहीं है।

    अपराध कारित करने के बारे में उपधारणा

    पॉक्सो अधिनियम 2012 में दो प्रावधान, अर्थात् धारा 29 और 30 है, जो संयुक्त रूप में उपधारणा का युग्म बनाते हैं। यदि अभिकथन पॉक्सो अधिनियम की धारा 3,5.7 और 9 के अधीन अपराधों से सम्बन्धित हो, तो धारा 29 यह उपधारणा करती है कि ऐसे व्यक्ति ने अपराध कारित किया है, जब तक उसके प्रतिकूल साबित न किया जाए। ये अपराध क्रमशः धारा 4, 6, 8 और 10 के अधीन दण्डनीय होते हैं। इसलिए यह साबित करने के लिए सबूत का भार उस व्यक्ति, जो अपराध का अभियुक्त है, पर स्थानान्तरित हो जाता है कि उसने वास्तव में अपराध कारित नहीं किया है।

    दूसरी धारा 30 के अधीन उपधारणा होती है और यह अभियुक्त की ओर से दुराशय अथवा आपराधिक मस्तिष्क के अस्तित्व के बारे में कथन करती है. जब कभी यह पॉक्सो अधिनियम के प्रावधानों के अधीन आवश्यक हो। इस आपराधिक मानसिक स्थिति में आशय, हेतुक, तथ्य की जानकारी और तथ्य में विश्वास अथवा विश्वास करने का कारण सम्मिलित होता है। परन्तु विधायिका ने स्वयं धारा 30 (1) में विनिर्दिष्ट रूप में यह प्रावधान किया है कि यह खण्डनीय उपधारणा होती है और अभियुक्त को यह साबित करने का विकल्प प्राप्त होता है कि वह ऐसा आशय हेतुक, जानकारी अथवा विश्वास नहीं रख रहा था, जो अपराध को साबित करने के लिए आवश्यक है।

    सागर दीनानाथ जाधव बनाम महाराष्ट्र राज्य, 2018 क्रि.लॉ.ज 4271 के मामले में अभियुक्त का बचाव अभियुक्त के द्वारा अवयस्क लड़के के साथ कारित किये गये बलपूर्वक लैंगिक समागम का अभिकथन है। चिकित्सीय साक्ष्य के द्वारा लैंगिक हमले को साबित नहीं किया गया है। दूसरी तरफ, अभियुक्त का यह बचाव कि पूर्ववर्ती दिन पर उसका पीड़ित और उसके चाचा के साथ झगडा हुआ था, बचाव पक्ष के साक्षियों के द्वारा समर्थित है। इस प्रकार, अभियुक्त के संभावनाओं की अधिसंभाव्यता के आधार पर पॉक्सो अधिनियम की धारा 29 के अधीन उपधारणा को खण्डित किया है और वह दोषमुक्त किये जाने का हकदार है।

    अवयस्क पर लैंगिक हमले के बारे में उपधारणा

    पॉक्सो अधिनियम की धारा 29 यह प्रावधान करती है कि जहाँ पर किसी व्यक्ति को पॉक्सो अधिनियम की धारा 3, 9, 7 और धारा 9 के अधीन कोई अपराध कारित करने अथवा कारित करने के लिए दुष्प्रेरित करने अथवा प्रयत्न करने के लिए अभियोजित किया गया हो, तो वहाँ पर विशेष न्यायालय यह उपधारणा करेगा कि ऐसे व्यक्ति ने यथास्थिति, अपराध को कारित अथवा कारित करने के लिए दुष्प्रेरणा अथवा प्रयत्न किया है, जब तक उसके प्रतिकूल साबित न कर दिया जाए।

    इस मामले में अपीलार्थी यह साबित करने में विफल हुआ था कि उसने अवयस्क पीड़िता के द्वारा यथा अभिकथित अपराध को कारित नहीं किया है। पॉक्सो अधिनियम की धारा 30 यह प्रावधान करती है कि अभियुक्त को युक्तियुक्त संदेह से परे यह साबित करना है कि उसकी कोई आपराधिक मानसिक स्थिति नहीं थी। अपीलार्थी ने आपराधिक मानसिक स्थिति की उपधारणा का खण्डन करने के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया था। इसलिए अभियुक्त के विरुद्ध अवयस्क पर लैंगिक हमला करने के बारे में उपचारणा सही तौर पर की गयी थी और दोषसिद्धि को उचित अभिनिर्धारित किया गया।

    उपधारणा तीन वर्गों में समूहित

    यह विधिक निष्कर्ष अथवा उपधारणा कि तथ्य विद्यमान है, किसी अन्य तथ्य अथवा तथ्यों के समूह की जानकारी अथवा साबित अस्तित्व पर आधारित है। अधिकांश उपधारणाएं दिए गये मामलों ने कतिपय परिणाम अग्रसर करते हुए साक्ष्य का नियम होती है, जब तक प्रतिकूल रूप में प्रभावित पक्षकार उसे अन्य साक्ष्य से खण्डित नहीं कर देता है। उपचारणा प्रस्तुत करने अथवा अनुनय-विनय के भार को विरोधी पक्षकार पर स्थानान्तरित करती है, जो तब उपधारणा का खण्डन करने का प्रयत्न कर सकता है।

    साक्ष्य की विधि में यह ऐसा तथ्य का निष्कर्ष अथवा निर्णय है, जो कतिपय अन्य साबित तथ्यों से निकाला जाना चाहिए अथवा निकाला जा सकता है। उपधारणाओं को सामान्यतः तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है पहला, विधि की निश्चायक अथवा अखण्डनीय उपधारणाएं विधि की निरपेक्ष प्रतिपादना के रूप में उपधारणाएं, जो ऐसा निष्कर्ष होती है, जिसे विधि के द्वारा कतिपय तथ्यों से निकाला जाना चाहिए और जिसे किसी प्रतिकूल साक्ष्य के द्वारा खण्डित नहीं किया जा सकता है और जो इसके परिणामस्वरूप वास्तविक रूप में साक्ष्य का विषय नहीं होती है, वरन् विधि का नियम होती है।

    इसमें यह उपधारणा शामिल होती है कि 10 वर्ष से कम आयु का बालक किसी दाण्डिक अपराध का दोषी नहीं होगा। दूसरा, विधि की खण्डनीय उपधारणाएं ( प्रीजम्पशनस् ज्यूरिस) होती है, जो ऐसे निष्कर्ष होते हैं, जिन्हें प्रतिकूल साक्ष्य के अभाव में निकाला जाना आवश्यक होता है, जैसे विकृत चित्त मस्तिष्क का और अपने आचरण के लिए उत्तरदायी अभियुक्त होता है।

    तीसरा तथ्य की उपधारणाएं (प्रीजम्पशनस् फैक्टी) होती है, जो ऐसे निष्कर्ष है, जो तथ्य का न्यायाधीश अथवा जूरी अन्य साबित तथ्यों से निकाल सकता है। तथ्य की विशेष उपधारणा की सामर्थ्य अथवा कमजोरी परिस्थितियों तथा आनुकल्पिक स्पष्टीकरण की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति पर निर्भर करती है। इस प्रकार चुराई गयी सम्पत्ति का उसके चुराए जाने के ठीक पश्चात् कब्जा स्पष्टीकरण के अभाव में यह निष्कर्ष अग्रसर करता है कि कब्जाधारी चोरी से सम्बन्धित था।

    सम्पत्ति का कब्जा, विशेष रूप में यदि सारवान समय तक हो, स्वामित्व की उपधारणा उदभूत करता है। अनेक विशेष उपधारणाएं विशेष संदर्भ में उदभूत होती हैं, जैसे इस सामान्य चिकित्सीय ज्ञान पर आधारित उपधारणा कि महिला अपने पचासवें वर्ष अथवा उससे अधिक में संतानोपति की आयु के परे होती हैं।

    संविधियों के निर्वचन में कतिपय तथाकथित उपधारणाएं विद्यमान होती हैं, जो वास्तविक रूप में बिल्कुल साक्ष्य से सम्बन्धित नहीं होती हैं, परन्तु वे निर्वचन का सिद्धांत होती है।

    'उपधारणा' अभिकथित तथ्य की सच्चाई के बारे में तथ्यों से निकाला जाने वाला संभाव्य परिणाम होता है। 'तथ्य की उपधारणा' अभिकथित तथ्य की सच्चाई के बारे में तथ्यों (या तो कतिपय या प्रत्यक्ष अभिसाक्ष्य के द्वारा साबित) से निकाले गये किसी तथ्य के अस्तित्व के बारे में निष्कर्ष होता है।

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