लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 17: पॉक्सो अधिनियम में किसी अपराध को करने का प्रयत्न

Shadab Salim

9 July 2022 12:30 PM GMT

  • लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 17: पॉक्सो अधिनियम में किसी अपराध को करने का प्रयत्न

    लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (The Protection Of Children From Sexual Offences Act, 2012) की धारा 18 किसी अपराध को करने के प्रयत्न के संबंध में लागू होती है। जैसे कि भारतीय दंड संहिता में उल्लेखनीय अपराधों को करना ही अपराध नहीं अपितु ऐसे अपराधों को करने का प्रयास करना भी अपराध है। इस ही तरह पॉक्सो अधिनियम में उल्लेखित किये गए अपराधों को करने का प्रयत्न भी अपराध है। इस आलेख में धारा 18 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

    धारा 18

    किसी अपराध को कारित करने के प्रयास के लिए दण्ड

    जो कोई इस अधिनियम के अधीन दंडनीय किसी अपराध को करने का प्रयास करता है या किसी अपराध को करवाता है और ऐसे प्रयास में अपराध कारित करने के लिए कोई कार्य करता है वह अपराध के लिए उपबंधित किसी प्रकार के किसी ऐसी अवधि के कारावास से जो यथास्थिति, आजीवन कारावास के आधे तक का हो सकेगा या उस अपराध के लिए उपबंधित कारावास की अधिकतम अवधि के आधे तक का हो सकेगा या जुर्माने से या दोनों से दंडनीय होगा।

    शब्द "प्रयत्न" का अर्थ

    शब्द प्रयत्न का साधारणतया तात्पर्य ऐसे कृत्य के साथ संयोजित आशय है, जिसमें आशयित चीज का अभाव हो। इसे किसी कृत्य को करने के प्रयत्न, जो मात्र तैयारी के परे कारित किया गया हो, परन्तु निष्पादन का अभाव हो, के रूप में वर्णित किया जा सकता है।

    अपराध कारित करने का आशय के अपेक्षित तत्व दाण्डिक विधि में अपराध कारित करने का आशय अपराध कारित करने के प्रति किए गये कृत्य के साथ होता है। अपराध को पूरा करने का प्रयास अथवा प्रयत्न, जो उसकी मात्र तैयारी अथवा योजना बनाने से अधिक की कोटि में आता हो, जिसे यदि साबित न किया गया हो, प्रयत्न किए गये कृत्य की सम्पूर्ण समाप्ति में परिणामित होगा, परन्तु जो वास्तव में पक्षकार की अन्तिम इच्छा को पूरा करने में सफल नहीं होता है।

    अपराध कारित करने के "प्रयत्न" के अपेक्षित तत्व ये हैं-

    (1) उसे कारित करने का आशय,

    (2) उसके कारित करने के प्रति प्रत्यक्ष कृत्य

    (3) पूर्णता की असफलता, और

    (4) कारित करने की अभिव्यक्त संभावना।

    बलात्संग कारित करने का पर्याप्त साक्ष्य बलात्संग कारित करने का प्रयत्न भी गम्भीर अपराध होता है। यहाँ पर अपराधी अपराध को पूरा करने के लिए प्रत्येक चीज करता है, परन्तु कतिपय अपूर्वानुमानित घटना के कारण वह कृत्य को पूरा करने में विफल होता है। सबूत प्रस्तुत किया जाना है। पीड़िता अपराधी और अपराध स्थल पर उपलब्ध सभी साक्ष्य को एकत्र किया जाना चाहिए। वास्तविक मामले में चूंकि पीडिता पर हमला किया जाता है, इसलिए पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध होता है। इस पर उसी रीति में कार्यवाही की जाती है, जैसे बलात्संग के मामले में की जाती है।

    पद "प्रयत्न" का निर्धारण जब कोई तैयारी के प्रक्रम पर पहुंचने के पश्चात् प्रत्यक्ष कृत्य कोई अपराध कारित करने के आशय से किया जाता है, यद्यपि आशयित अपराध वास्तविक रूप में कारित किया जा सके अथवा नहीं, प्रयत्न के रूप में कहा जा सकेगा।

    किसी महिला पर अश्लील हमले का आशय अथवा अभिव्यक्ति बलात्संग के प्रयत्न की कोटि में तब तक नहीं आता है, जब तक अभियुक्त का सभी स्थितियों में और प्रतिरोध के बावजूद अपने आवेश को संतुष्ट करने के लिए दृढ संकल्प को साबित नहीं कर दिया जाता है।

    ऐसा अपमानजनक कृत्य करने के लिए पति के द्वारा मात्र प्रयत्न पत्नी के प्रति क्रूरता की कोटि में आएगा और पत्नी क्रूरता के आधार पर विवाह-विच्छेद के लिए अपने पति के विरुद्ध वाद दाखिल कर सकती है। परन्तु यह बलात्संग की कोटि में नहीं आएगा, यदि वह अपने प्रयत्न में सफल नहीं होता है।

    क्या कतिपय कृत्य विशेष अपराध कारित करने के प्रयत्न की कोटि में आता है, अपराध की प्रकृति और उसे कारित करने के लिए उठाए जाने वाले आवश्यक कदमों पर निर्भर रहते हुए तथ्य का प्रश्न होता है। रामेश्वर बनाम हरियाणा राज्य 1984 क्रि लॉ ज 786 के मामले में यह पाया गया है कि अपीलार्थी अभियोक्त्री, श्रीमती दर्शन, बलबीर की पत्नी को पकड़ लिया था और उसके साथ बलात्सग कारित करने के लिए उसके सलवार की डोरी खोलने का प्रयत्न किया था परन्तु उसने प्रतिरोध किया था उसने कुल्हाड़ी उठा लिया था और अपीलार्थी के शरीर के ऊपरी भाग पर क्षति कारित किया था और इसके पश्चात् वह बच निकला था।

    अपीलार्थी ने अभियोक्त्री के द्वारा पहने गये सलवार की डोरी खोलने का प्रयत्न किया था, परन्तु वह ऐसा करने में विफल हुआ था। अपीलार्थी की ओर से कोई अन्य कृत्य नहीं है। यदि ऊपर उद्धृत मामले में न्यायमूर्ति पैटर्सन के अधिमत को अनुसरित किया जाता है। न्यायालय अभियोजन मामले से यह नहीं देख सकता है कि अभियुक्त सभी स्थिति में लैंगिक समागम कारित करने के लिए दृढ संकल्प था, क्योंकि ज्यों ही अभियोक्त्री के द्वारा उस कुल्हाड़ी से प्रहार किया गया था, त्यों ही वह भाग निकला था।

    बलात्संग कारित करने के प्रयत्न के अपराध के लिए अभियोजन को यह साबित करना चाहिए कि वह तैयारी के प्रक्रम के परे गया है। अपराध कारित करने की मात्र तैयारी और वास्तविक प्रयत्न के बीच अन्तर मुख्य रूप में दृढ संकल्प की बड़ी मात्रा में शामिल होता है।

    वर्तमान मामले में अपीलार्थी ने अपना गुप्तांग न तो प्रदर्शित किया था न तो प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया था। इन सभी कारणों से न्यायालय अपर सत्र न्यायाधीश से इस बात पर सहमत नहीं हो सकता है कि अभिलेख पर साक्ष्य से यह निःसंदेह बलात्संग कारित करने के प्रयत्न का मामला था। वह निःसंदेह रूप में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 के अधीन अपराध कारित करने का दोषी था। इसलिए, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376/511 के अधीन अभिलिखित की गयी उसकी दोषसिद्धि तथा दण्डादेश को अपास्त किया गया। लेकिन उसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 के अधीन दोषसिद्ध किया गया।

    गुलाम अहमद बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य, 2006 क्रि लॉ ज अभियुक्त अपनी कामवासना को संतुष्ट करने के लिए बलात्संग कारित करने के आशय से पीडिता को भूमि पर उसकी शाल पर गिरा दिया, उसकी सलवार फाड़ दिया, अपनी पेंट खोला, उस पर लेट गया, जो यह दर्शाएगा कि वह सभी स्थितियों में उसके शरीर पर अपने आवेश को संतुष्ट करने के लिए आशयित था।

    यह केवल उस समय था, जब पीड़िता की माँ पीड़िता को बुलाने और देखने के लिए घटनास्थल पर पहुंची थी कि वह पीड़िता के शरीर पर से उठा और भाग गया। यह उसे प्रवेशन से निवारित किया था, परन्तु इस प्रक्रिया में शाल पर उसका स्खलन हुआ था जिसके धब्बे उसके पैट पर भी पाए गये थे। अभियुक्त का कृत्य स्पष्ट रूप में धारा 376, सपठित धारा 511 के अधीन आएगा। यह अभिवाक कि अभियुक्त केवल लज्जा भंग करने का दोषी था धार्य नहीं था बलात्संग कारित करने के प्रयत्न के लिए दोषसिद्धि उचित थी।

    बलात्संग का अपराध पूरा करने के लिए आशयित और असमर्थ

    महाराष्ट्र राज्य बनाम राजेन्द्र जावनमल गांधी 1997 के मामले में परिस्थितियां यह दर्शाती है कि अभियुक्त लड़की के साथ बलात्संग कारित करने के लिए आशयित था। उस अपराध को कारित करने में वह मारूति कार में सीट पर लड़की को लिटा दिया और तब स्वयं उस पर लेट गया। वह उसका नीकर नीचे खींच दिया और अपनी पैंट की जिप भी खोल लिया और अपना पुरुष जननांग बाहर निकाल लिया। वह अपना पुरुष जननांग लड़की के गुप्तांग पर दाबा था, परन्तु चूंकि उसका स्खलन हो गया था. इसलिए वह प्रवेशन नहीं कर सका था और बलात्संग का अपराध पूरा करने में असमर्थ था. लेकिन यह स्पष्ट है कि उसने बलात्संग कारित करने का प्रयत्न किया था।

    प्रवेशन का प्रश्न तर्क

    भेरू लाल बनाम राजस्थान राज्य, 2004 क्रि लॉ ज 1677 (राज) चूंकि पीड़िता (अभियोक्त्री लड़की) 7-8 वर्ष की थी, इसलिए पूर्ण जानकारी में प्रवेशन का कोई प्रश्न उद्भूत नहीं होता है तथा लिंग को उसकी योनि में डालने पर अपराध पूरा हो जाता है और यह संभाव्य है कि जब अभियुक्त-अपीलार्थी ने अपना लिंग उसकी योनि में बलपूर्वक डालने का प्रयत्न किया था, तब रक्तस्त्राव प्रारम्भ हो गया था और मामला समाप्त हो गया था।

    इस प्रकार, अभियुक्त-अपीलार्थी के अधिवक्ता का यह तर्क कि अभियुक्त-अपीलार्थी के द्वारा बलात्संग का अपराध कारित नहीं किया गया था, परन्तु अधिकांशतः अपराध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376/511 के परे नहीं जाता है, विफल होता है और नामंजूर किया जाता है।

    कर्नाटक राज्य बनाम महा बालेश्वर गौर्य नायक, एआईआर 1992 एससी 2043 के प्रकरण में चिकित्सा अधिकारी के अनुसार लड़की के साथ भग प्रवेशन के द्वारा बलात्संग कारित किया जा सकता है, यदि बलपूर्वक प्रवेशन न हो और इसलिए योनिच्छद अविकल था। कोई रक्तस्त्राव नहीं हुआ था. कोई स्खलन नहीं हुआ था और भगांजलि किसी सूजन के बिना अविकल थी। इसी प्रकार अभियुक्त की जांच पर यह पाया गया था कि उसके लिंग पर न तो कोई रक्त का धब्बा न ही कोई बाल देखा गया था तथा जननांग का बाल मैला नहीं हुआ था।

    पिछली एक-चौथाई ग्रंथियों के पिछले भाग पर भगोष्ठमल की थोड़ी मात्रा थी। पीड़िता से लिए गये यौनिक भगोष्ठमल तथा अभियुक्त से लिए गये शिश्नमल को रासायनिक परीक्षण के लिए भेजा गया था, परन्तु कोई वीर्य का शुक्राणु नहीं पाया गया था। विचारण न्यायालय ने प्रत्यर्थी को धारा 341 और 323 के अधीन दोषसिद्ध किया था। यह अभिनिर्धारित किया गया था कि ऐसी परिस्थितियों में अपराध केवल बलात्संग के प्रयत्न का था यौनिक पदार्थ की उपस्थिति हाल के समागम से असंगत थी, क्योंकि यह एकत्र होने में लगभग 24 घण्टे लेगा, यदि शिश्नमल को समागम के दौरान रगड़ा जाता है। ऐसी परिस्थितियों में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 सपठित धारा 511 के अधीन अपराध कारित किया गया था।

    अभियोक्त्री ने यह कहीं नहीं कहा है कि अपीलार्थी ने अपनी पैंट पूर्ण रूप से हटाई थी और उसका गुप्तांग दृश्यमान था स्वयं उसके प्रकथन के अनुसार यह प्रतीत होता है कि अनियोक्त्री को भूमि पर गिरा दिया गया था और उसके अण्डरवियर को हटाया गया था, इसके पश्चात् अपीलार्थी ने अपनी पैंट खोली थी, इन सब कृत्यों के बीच वह चिल्लाई थी, जिस पर अपीलार्थी भाग गया था।

    यह इस बात को दर्शाता है कि अपीलार्थी ने अपनी पैंट पूर्ण रूप में नहीं हटाई थी और अभियोक्त्री का ऐसा कोई कथन नहीं है कि उसे जमीन पर गिराने के पश्चात् अपीलार्थी उसके शरीर पर बैठा था और उसके गुप्तांग में पुरुष जननांग का प्रवेशन करने का प्रयत्न किया था। मामले की इस दृष्टि में यदि घटना के बारे मे अभियोक्त्री के सम्पूर्ण कथन को स्वीकार किया जाता है, तब अपराध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376/511 के अधीन नहीं आएगा।

    अशोक उर्फ पप्पू बनाम म.प्र. राज्य, 2005 क्रि लॉ ज 2301 (एमपी) अभियोक्त्री की लज्जा भंग करने के लिए दायित्व वर्तमान मामले में लड़की ने चिल्लाहट से अभियुक्त को रोका था और अभियुक्त स्वय अभियोक्त्री के शरीर पर भी नहीं लेटा था और अपना पुरुष जननांग भी प्रदर्शित नहीं किया था परन्तु तत्काल घटनास्थल से भाग गया था। मामले की इस दृष्टि में न्यायालय का यह विचारित विचार था कि अपीलार्थी के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376/511 के अधीन दण्डनीय अपराध नहीं बनेगा, परन्तु उसी समय वह अभियोक्त्री की उसके अण्डरवियर को हटा करके लज्जा भंग करने के लिए। दायी होगा और जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 के अधीन दण्डनीय है।

    बलात्संग कारित करने के प्रयत्न के सबूत के लिए यह साबित किया जाना चाहिए कि अभियुक्त प्रवेशन के प्रक्रम से परे गया था। एक मामले में जहाँ पर अपीलार्थी अभियोक्त्री का जो 13 वर्ष की थी, प्रधानाध्यापक था तथा अभियुक्त के द्वारा उसे बलपूर्वक नंगा किया गया था और उसने उसे जमीन पर लेटा दिया था स्वयं निर्वस्त्र हो गया था और बलपूर्वक उसके गुप्तांग पर अपना लिंग रगड़ा था तथा स्वयं स्खलित हो गया था, यह स्पष्ट रूप में बलात्संग कारित करने के प्रयत्न का मामला था, न कि लड़की की लज्जा भंग करने की कोटि में आने वाला धारा 354 के अधीन मात्र अपराध था।

    अशोक उर्फ पप्पू बनाम मप्र राज्य, 2005 क्रि लॉ ज 2301 (एमपी) के मामले में अभियुक्त ने अभियोक्त्री को बलपूर्वक समागम के लिए विलुब्ध किया था, उसने प्रतिरोध किया था और उसकी चिल्लाहट ने साक्षियों को आकर्षित किया था। अभियुक्त भाग गया था। अभियोक्त्री और स्वतंत्र साक्षियों का साक्ष्य विश्वसनीय था और वह तात्विक विशिष्टियों पर अभियोजन मामले को संपुष्ट करता था परन्तु अभिलेख से लैंगिक समागन कारित करने की अभियुक्त की शारीरिक और मनोवैज्ञानिक पूंसुकता को साबित नहीं किया गया था।

    साक्ष्य में यह नहीं था कि अभियुक्त ने पीड़िता का पायजामा अथवा स्वयं अपना पायजामा उतारा था। यह अभिनिर्धारित किया गया था कि यह नहीं कहा जा सकता है कि वह प्रतिरोध के बावजूद सभी स्थितियों में लैंगिक समागम कारित करने के लिए दृढ संकल्प था। चूंकि बलात्संग कारित करने के लिए दृढ संकल्प की उच्चतर मात्रा आवश्यक थी, जिसका अभाव था इसलिए पीड़िता की लज्जा भंग करने के लिए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 के अधीन दण्डनीय अपराध बनता था और तदनुसार दोषसिद्धि को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376/511 से धारा 354 में परिवर्तित किया गया।

    बलात्संग का अपराध कारित करने के लिए असमर्थ

    अपीलार्थी अपराध कारित करने की तैयारी करने और उसका आशय रखने के कारण उसके कारित करने के प्रति कृत्य करता है, ऐसे कृत्य को उस अपराध को कारित करने के प्रति अन्तिम कृत्य होना आवश्यक नहीं है, परन्तु इसे अपराध कारित करने के अनुक्रम के दौरान कृत्य होना चाहिए। चूंकि अपीलार्थी उस समय स्खलित हो गया था जब उसने लड़की के गुप्तांग पर अपना पुरुष जननांग रगड़ा था. इसलिए वह प्रवेशन नहीं कर सका था और बलात्संग का अपराध पूरा करने में असमर्थ था। लेकिन यह स्पष्ट है कि उसने बलात्संग कारित करने का प्रयत्न किया था।

    यह अभिकथन किया गया था कि अभियुक्त

    सुनील कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य, 2005 क्रि लॉ ज 2512 (एच पी) अध्यापक ने पीड़िता लड़कियों को कमरे में बुलाया था उनके सलवार को हटाया था, तब अपने पेंट की जिप हटाने के पश्चात् उनके साथ बलात्संग कारित करने का प्रयत्न किया था। पीड़िताओं का अभिसाक्ष्य अन्य साक्षियों के द्वारा तात्विक विशिष्टियों पर संपुष्ट हुआ था। बाल साक्षी के द्वारा बतायी गयी घटना की गलत तारीख समय बीतने के कारण थी, क्योंकि उसकी परीक्षा घटना के लगभग 2 वर्ष पश्चात् की गयी थी। इस प्रकार पीड़िता का अभिसाक्ष्य घटना की गलत तारीख का उल्लेख करने के आधार पर अविश्वसनीय नहीं था इसलिए प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलम्ब, यदि कोई हो, को स्पष्ट किया गया था और अभियुक्त की दोषसिद्धि को उचित अभिनिर्धारित किया गया था।

    लाला उर्फ लाल चन्द बनाम राजस्थान राज्य, 2004 क्रि लॉ ज 1218 (राज) के मामले में अभियुक्त अभियोक्त्री, जो मानसिक रूप में मंदबुद्धि की थी के साथ उस समय बलात्संग कारित करने के लिए अभिकथित किया गया था, जब वह अपने घर में अकेली थी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलम्ब हुआ था। अभियोजन कहानी की कोई स्वतंत्र संपुष्टि नही हुई थी।

    साक्षियों के कथन विरोधी थे और अभियोक्त्री के शरीर पर उस समय किसी प्रकार की कोई क्षति नहीं पायी गयी थी, जब उसकी चिकित्सीय रूप में जांच की गयी थी। इस प्रभाव का निष्कर्ष कि अभियोक्त्री के सलवार पर वीर्य पाया गया था। किसी परिणाम का नहीं था, क्योंकि वह विवाहित महिला थी और विशेष रूप में जब अभियुक्त को बलात्संग के प्रयत्न का, न कि बलात्संग का दोषी पाया गया था। इसलिए अभियुक्त दोषमुक्त किए जाने के लिए दायी था।

    एक मामले में महिला अपने ससुर के साथ डॉक्टर के पास उपचार के लिए आयी थी, और ससुर को गर्म पानी लाने के लिए बाहर भेजा गया था और उसके पश्चात् डॉक्टर ने बलात्संग कारित करने का प्रयत्न किया था और जब उसका ससुर वापस लौटा, तब उसने डॉक्टर को नंगे खड़े हुए देखा था और अपीलार्थी ने तत्काल कपड़ा पहना था। इन परिस्थितियों में अभियुक्त को सही तौर पर दोषसिद्ध किया गया।

    पीडिता अवयस्क लड़की का साक्ष्य यह था कि अपीलार्थी ने उसके साथ बलात्संग कारित करने का प्रयत्न किया था। उसकी मित्र भी बाल साक्षी थी। उसके साक्ष्य ने उच्च न्यायालय को घटना, जो घटित हुई थी के व्यापक पक्ष पर पीड़िता के प्रकथन की सच्चाई से आश्वास किया था। पीड़िता का साक्ष्य उसके मित्र तथा चिकित्सीय साक्ष्य के द्वारा संपुष्ट हुआ था उच्च न्यायालय विशेष रूप में चिकित्सीय साक्ष्य और उसके मित्र के भी अभिसाक्ष्य के प्रकाश में पीडिता की कहानी पर विश्वास करने में सही था। इसलिए उच्च न्यायालय के द्वारा दोषमुक्ति के आदेश को उलटते हुए प्रदान की गयी दोषसिद्धि में कोई त्रुटि नहीं हो सकती है।

    पीड़िता लड़की घटना के समय लगभग 10 वर्ष की आयु की अवयस्क थी। अभियोजन मामला यह था कि अपीलार्थी उसे गेहूं के खेत में ले गया था जहाँ पर उसने उसके साथ बलात्संग कारित करने का प्रयत्न किया था। यह पीड़िता के साक्ष्य और चिकित्सीय साक्ष्य के द्वारा समर्थित था। मिथ्या फँसाव का कोई मामला नहीं बनाया गया था। धारा 376/511 के अधीन अभियुक्त की दोषसिद्धि उचित थी। पुनः 8 वर्ष के कठोर कारावास के दण्डादेश का अधिरोपण अत्यधिक नही पाया गया।

    अजय पारिडा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, 2009 क्रि लॉ ज 2582 अभियोजन सभी युक्तियुक्त संदेह से परे यह साबित करने में समर्थ हुआ है कि अभियुक्त अभियोक्त्री को अपने कमरे के अन्दर उस समय ले गया था, जब उसके अन्य परिवार के सदस्य घर में नहीं थे और उक्त अभियोक्त्री पर लैंगिक रूप में हमला किया था, जो अपीलार्थी के द्वारा मात्र अश्लील आक्रमण नहीं था, परन्तु यह कि वह वास्तविक रूप में अभियोक्त्री के साथ बलात्संग कारित करने का प्रयत्न किया था, यद्यपि यह असफल रूप में योनि के प्रवेश के आस-पास के भाग पर लालिमा के अपवाद के साथ प्रवेशन करना था।

    अभियोजन सभी युक्तियुक्त संदेह से परे यह साबित करने में समर्थ रहा है कि अभियुक्त-अपीलार्थी ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376/511 के अधीन दण्डनीय अपराध कारित किया था, जिसके लिए अभियुक्त अपीलार्थी को आरोपित किया गया था और विद्वान अपर सत्र न्यायाधीश के द्वारा विचारित किया गया था।

    यह अभिकथन किया गया था कि अभियुक्त ने स्वयं अपनी पुत्री के साथ बलात्संग कारित किया था। डॉक्टर का यह साक्ष्य कि कोई वास्तविक लैंगिक समागम अथवा कम-से-कम प्रवेशन नहीं हुआ था, परन्तु लैंगिक समागम करने के प्रयत्न से इन्कार नहीं किया जा सकता था। पुनः अभियुक्त के द्वारा लैंगिक समागम का आश्रय लेने के पहले स्वयं तथा पीड़िता के नारियल का तेल लगाने का तथ्य यह दर्शाने के लिए इंगित करने वाला एक अन्य कारक था कि अभियुक्त का स्वयं अपनी पुत्री के विरुद्ध लैंगिक हमला कारित करने का स्पष्ट आशय था। बलात्संग के प्रयत्न का अपराध बनता था। अभियुक्त की धारा 376 (2) (घ) के अधीन दोषसिद्धि को धारा 376(2)(च) सपठित धारा 511 के अधीन परिवर्तित किया गया।

    कमल कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य, 2009 क्रि लॉ ज 36 अभियोजन मामला यह था कि अभियुक्त अभियोक्त्री, अवयस्क लड़की को झाड़ियों की तरफ ले गया था और उसका पायजामा उतारा था और अपने पुरुष जननांग को उसकी योनि पर रगड़ा था तथा इसे उसके मुंह में डाला था। अभियुक्त ने अपने कृत्य को प्रारम्भ किया था और यह बलात्संग का अपराध कारित करने की कोटि में आता था। परन्तु इस बीच में अभियोक्त्री की माँ के बुलाने के द्वारा बाधित किया गया था और वह घटनास्थल से भाग गया था। अभियुक्त अभियोक्त्री के साथ बलात्संग के प्रयत्न और लज्जा भंग करने का दोषी था।

    मोहम्मद जमाल उद्दीन उर्फ आबेदीन बनाम त्रिपुरा राज्य, 2009 क्रि लॉ ज 2572 अभियोजन साक्षी 9 के साक्ष्य से यह प्रतीत होता है कि जिसने अभियुक्त/अपीलार्थी के इस पूर्ववर्ती आचरण के बारे में कहा था कि अभियुक्त-अपीलार्थी ने उसके साथ एक बार रात्रि के समय अपने घर में तेलपारा और जलपारा के कर्मकाण्ड के द्वारा उपचार के नाम पर बलात्संग कारित करने का प्रयत्न किया था।

    इसलिए इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि अभियुक्त-अपीलार्थी की उपचार के नाम पर महिला रोगी के साथ बलात्संग के प्रयत्न / कारित करने की आदत थी। इसलिए मात्र पीडिता लड़की के शरीर पर बाहय क्षति का अभाव विशिष्ट रूप में पीड़िता लड़की की अभियोजन कहानी पर अविश्वास करने के लिए आधार नहीं हो सकता है।

    यह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 सपठित धारा 511 के अधीन दंडनीय है। अभियुक्त ने जब अभियोक्त्री को उसके पिता के आटा मिल पर पकड़ा था और बलपूर्वक उसे झाडियों तथा पेड़ों की तरफ घसीट कर ले गया था वह उसे जमीन पर फेक दिया था और उसे निर्वस्त्र करने के लिए उसके अन्तःवस्त्रों को हटाया था, उस पर लेट गया था और उसने प्रवेशन के लिए प्रयत्न किया था और तब अभियोक्त्री के गुप्तांग से रक्तस्त्राव प्रारम्भ हो गया था, तब बलात्संग अथवा बलात्संग कारित करने के कम-से-कम प्रयत्न का अपराध साबित हुआ है।

    बलात्संग के अपराध के लिए अपरिहार्य प्रवेशन, न कि स्खलन है। प्रवेशन के बिना स्खलन बलात्संग कारित करने का प्रयत्न, न कि वास्तविक बलात्संग गठित करता है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 में यथाअन्तर्विष्ट "बलात्संग" की परिभाषा "लैंगिक समागम" को निर्दिष्ट करती है और धारा से संलग्न स्पष्टीकरण यह प्रावधान करता है कि बलात्संग के अपराध के लिए आवश्यक लैंगिक समागम गठित करने के लिए प्रवेशन पर्याप्त है। समागम का तात्पर्य लैंगिक सम्बन्ध है। वर्तमान मामले में वह सम्बन्ध साबित नहीं हुआ है। अवर न्यायालय अपने विचार में सही नहीं थे।

    जब अभियोक्त्री के साक्ष्य पर उचित परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाता है, तब यह स्पष्ट है कि वास्तविक बलात्संग कारित करना साबित नहीं हुआ है। लेकिन यह साबित करने के लिए साक्ष्य पर्याप्त है कि बलात्संग कारित करने का प्रयत्न बनता था। वह स्थिति होने के कारण दोषसिद्धि को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376/511 में परिवर्तित किया जाता है। साढ़े तीन वर्ष का अभिरक्षीय दण्डादेश न्याय के उद्देश्यों को पूरा करेगा। अभियुक्त, जो जमानत पर है अपने अवशेष दण्डादेश को भुगतने के लिए अभिरक्षा में आत्मसमर्पण करेगा।

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