भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 8 : लोक सेवक को रिश्वत देने का अपराध

Shadab Salim

24 Aug 2022 12:08 PM GMT

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 8 : लोक सेवक को रिश्वत देने का अपराध

    भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 7 इस अधिनियम की महत्वपूर्ण धारा है। यहां से इस अधिनियम का नया अध्याय शुरू होता है, जिसमें इस अधिनियम में उल्लेखित किए गए अपराधों के संबंध में प्रावधान किए गए हैं। कुछ ऐसे कृत्य बताए गए हैं, जिन्हें इस अधिनियम में अपराध बनाया गया है। इस अधिनियम के अंतर्गत प्रारंभ में प्रक्रिया दी गई है एवं उसके बाद अपराधों का उल्लेख किया गया है। यहां इस आलेख में इस अधिनियम की धारा 7 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

    धारा 7

    लोक सेवक को रिश्वत दिए जाने से संबंधित अपराध,

    ऐसा कोईलोक सेवक जो,

    (क) किसी व्यक्ति से, इस आशय से कोई सम्यक् लाभ अभिप्राप्त करता है या प्रतिगृहीत करता है या अभिप्राप्त करने का प्रयास करता है कि चाहे वह स्वयं या किसी अन्य लोक सेवक द्वारा किसी लोक कर्तव्य का कार्यपालन अनुचित रूप से या बेईमानी से किया जाए या करवाया जाए या ऐसे कर्तव्य से कार्यपालन को पूरा किया जाए या न करवाया जाए या

    (ख) किसी लोक कर्तव्य का कार्यपालन अनुचित रूप से या बेईमानी से, चाहे स्वयं के द्वारा या किसी अन्य लोक सेवक द्वारा करने या करवाने से या ऐसे कर्तव्य के कार्यपालन को पूरा न करने या न करवाने के लिए किसी व्यक्ति से किसी इनाम के रूप में कोई असम्यक् लाभ अभिप्राप्त करता है या प्रतिगृहीत करता है या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न करता है; या

    (ग) किसी लोक कर्तव्य का अनुचित रूप से या बेईमानी से कार्यपालन करता है या किसी अन्य लोक सेवक को किसी लोक कर्तव्य का अनुचित रूप से या बेईमानी से कार्यपालन करने हेतु प्रेरित करता है या किसी व्यक्ति से कोई असम्यक् लाभ स्वीकार करने के परिणामस्वरूप या उसकी प्रत्याशा में ऐसे कर्तव्य का कार्यपाल करने से प्रविरत रहता है, या वह कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष से कम की नहीं होगी, किन्तु जो सात वर्ष की हो सकेगी, दंडनीय होगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।

    स्पष्टीकरण 1- इस धारा के प्रयोजन के लिए, किसी असम्यक लाभ को अभिप्राप्त करने, प्राप्त करने के लिए सहमत होने, प्रतिगृहीत करने या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न करने से ही लोक सेवक द्वारा कर्तव्य का पालन स्वयं अपराध का गठन करेगा, चाहे लोक सेवक द्वारा उसका कार्यपालन अनुचित रहा हो या न रहा हो।

    दृष्टांत- एक लोक सेवक "एस" एक व्यक्ति, "पी" से उसके नेमी राशन कार्ड आवेदन को समय से प्रक्रिया में लाने के लिए पांच हजार रुपए की रकम उसे देने को कहता है। "एस" इस धारा के अधीन अपराध का दोषी है।

    स्पष्टीकरण 2- इस धारा के प्रयोजन के लिए

    (i) "अभिप्राप्त करता है" या "प्रतिगृहीत करता है" या "अभिप्राप्त करने का प्रयत्न करता है" पदों में ऐसे मामले सम्मिलित होंगे, जहां ऐसा कोई व्यक्ति जो लोक सेवक होते हुए, स्वयं के लिए या किसी व्यक्ति के लिए लोक सेवक के रूप में अपने पद का दुरुपयोग करके या किन्हीं अन्य भ्रष्ट या अवैध साधनों के द्वारा कोई असम्यक् लाभ अभिप्राप्त करता करता है। या प्रतिगृहीत करता है" या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न

    (ii) इस बात का कोई महत्व नहीं होगा कि ऐसा व्यक्ति लोक सेवक होते हुए वह असम्यक् लाभ सीधे या पर पक्षकार के माध्यम से अभिप्रात करता है या प्रतिगृहीत करता है या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न करता है।

    किसी शासकीय कार्य को करना या करने से प्रविरत रहना-

    यदि कोई कार्य उसके विशुद्ध सामर्थ्य से भिन्न होने के रूप में उसके शासकीय सामर्थ्य में किया जाता है या किया जाने का आशय बनाया जाता है तो यह आवश्यक नहीं है कि लोक सेवक को वह कार्य करने के बाध्य किया जाना चाहिए। ऐसे कार्य को करने के लिए या कार्य या लोप जिसके लिए 'परितोषण' प्राप्त किया जाता है या उसको प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है, को अवश्यमेव लोक सेवक के शासकीय कृत्यों से जुड़ा होना चाहिए।

    यही नहीं, बल्कि जिसके संदर्भ में रिश्वत का संदाय किया जाता है तो उसको इतने पर भी एक शासकीय कार्य होना चाहिए तथा कृपा या विरोध को अवश्यमेव शासकीय कृत्यों के प्रयोग में प्रदर्शित किया जाना चाहिए। इस धारा में निर्दिष्ट शासकीय कार्य या कृत्य को स्पष्टरूपेण एक ऐसे कार्य या कृत्य का अभिप्राय रखता है जिसे एक लोक सेवक अपने शासकीय सामर्थ्य में कर सकता है और इसे एक प्राइवेट नागरिक के सामर्थ्य में नहीं किया जा सकता है वह कार्य जिसको करने के लिए रिश्वत प्राप्त की जाती है या दी जाती है।

    उसे इसलिए अवश्यमेव ऐसे पद से जुड़ा होना चाहिए था जिसे लोक सेवक रिश्वत के रूप में प्राप्त करता है और प्रश्नगत पद को धारण करता है तथा रिश्वत का संदाय उसी के संदर्भ में अवश्यमेव किया जाना चाहिए जिसके बारे में रिश्वत देने वाला व्यक्ति युक्तियुक्त रूप से विश्वास कर सकता है कि यह कार्य रिश्वत प्राप्त करने वाले लोक सेवक द्वारा किया जा सकता है।

    शामराव बनाम राज्य, 58 बाम्बे लॉ रिपोर्टर 355 के मामले में अभियुक्त एक पुलिस पटेल ने शोधन क्षमता प्रमाण पत्र जारी किया जिसका प्रयोग "कामगर पटेल के हैसियत से स्वयमेव का उल्लेख करते हुए दाण्डिक कार्यवाही में किया जाना था और ऐसे प्रमाण पत्र को जारी करने के लिए उसने बतौर 'परितोषण' एक धनराशि ग्रहण किया। ऐसी परिस्थितियों में यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि शोधन प्रमाणपत्र को जारी करने में अभियुक्त ने जो धन स्वीकार किया, वह उसके शासकीय कार्य के निष्पादन किये जाने के लिए लिया गया था और इसी वजह से स्वीकृति की गयी धनराशि रिश्वत थी तथा अभियुक्त भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन अपराध करने का दोषी था।

    इनरी भीमसिंह बनाम राज्य, ए आई आर 1955 के मामले में यह कहना उचित नहीं है कि यदि एक लोक सेवक एक विशेष आदेश को पारित करने के पश्चात् रिश्वत स्वीकार करता है या उसे रिश्वत भेंट की जाती है तो अवैध 'परितोषण' को स्वीकार करने या अवैध 'परितोषण' को भेंट करने का कोई भी अपराध स्थापित नहीं होता है। इसके अलावा यह भी साबित किया जाना चाहिए कि एक शासकीय कार्य को उसके द्वारा कराये जाने के प्रयोजन के लिए लोक सेवक को रिश्वत दी गयी।

    एक रोचक मामले में जहाँ टीका लगाने वाले डाक्टर ने शिशु के माता-पिता को यह धमकी दिया कि जब तक वह उसे कुछ धन का संदाय नहीं करेगा तब तक वह टीका लगाने से उत्पन्न होने वाली पीड़ा से बचाने का उपाय नहीं करेगा, वहाँ यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि टीका लगाने वाले डाक्टर को अभियोजित नहीं किया जा सकता था और न ही उसे प्रश्नगत को प्राप्त करने के लिए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन दोषसिद्ध किया जा सकता था।

    क्योंकि उसके पास उनके माता पिता की सहमति के बिना ही शिशुओं को स्पर्श करने का कोई अधिकार नहीं था। आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि वह रिश्वत लेने का नहीं बल्कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 348 के अधीन उद्यापन का दोषी था।

    जहाँ छुट्टी पर होने पर, लोक सेवक द्वारा अपराध कारित किया जाए-

    यदि किसी लोक सेवक द्वारा उस समय कोई अपराध कारित किया जाता है, जिस समय वह छूटी पर होता है, तो उस समय वह एक लोक सेवक नहीं रह जाता है। अतएव, जब तक वह सेवारत होता है, तब तक उसे अवश्यमेव एक लोक सेवक होना चाहिए।

    इसी प्रकार किसी विशेष पुलिस कांस्टेबल, जिसकी तैनाती यदि किसी विशेष पुलिस चौकी पर की गयी हो तो भी वह एक लोक सेवक होने से विरत नहीं हो जाता है, विशेषकर उस समय जब वह एक दूसरी पुलिस चौकी पर रहता है। । एक वह व्यक्ति जो तथ्यतः एक दोषपूर्ण ढंग से एक लोकसेवक के कर्तव्य का निर्वहन करता है लेकिन वह एक लोक सेवक नहीं होता है। उसका विचारण इस धारा के अन्तर्गत किया जा सकेगा।

    धारा 7 एवं भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 को तत्संवादी धारा 13 (1) (घ) तथा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 के बीच विभेदःह्न धारा 7 तथा धारा 13 (1) (घ), ये दोनों धाराएं एक दूसरे से बड़ी भिन्न है और पृथक्-पृथक् अपराधों का गठन करती हैं, हालांकि इन दोनों धाराओं का अर्थ भ्रष्टाचार की खोज करना होता है। पहली वाली धारा में, धारा 161 के अधीन अपराध या तो एक वर्णित कारावास से जिसका विस्तार 3 वर्षों तक हो सकता है या जुमनि से या इन दोनों से दण्डनीय होता है।

    जबकि भ्रष्टाचार अधिनियम, 1947 की धारा 5 (2) सपठित धारा 5 (1) (घ) एक ऐसे कारावास जो 7 वर्षों तक विस्तारित हो सकेगा, या जुमनि से या इन दोनों से दण्डनीय होता है। पश्चात्वर्ती मामले में एक वर्ष के कारावास के न्युनतम दण्ड के लिए भी प्रावधान किया गया है। जिस समय धारा 5 (1) (घ) के अधीन एक अपराध के लिए जुमनि की धनराशि का अवधारण किया जाता है, उस समय न्यायालय को ऐसी रकम या उस सम्पत्ति के मूल्य पर विचार करना होता है जिसे अभियुक्त ने अपराध कारित करके प्राप्त किया है।

    हालांकि ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया गया है। दूसरे, अधिनियम की धारा 5 (1) (क) के अनुसार, यदि धारा 161 के अधीन अपराधी पेशेवर हो गया है, तो यह तथ्य एक पृथक अपराध का गठन करने वाला माना जायेगा। और इसे आपराधिक अवचार की संज्ञा प्रदान की जाती है।

    भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन आभ्यासिक अपराध तथा अधिनियम की धारा 5 (1) (घ) के अधीन एकल अपराध एक समान ढंग से ही दण्डनीय है, जो पुनः यह प्रदर्शित करेंगे कि अधिनियम की धारा 5 (1) (घ) के अधीन अपराध, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 के अधीन एक अपराध से भिन्न है। धारा 161 के अधीन के दुष्प्रेरण, धारा 165 (क) के अधीन दण्डनीय है जबकि 5 (1) (घ) के अधीन अपराध का दुष्प्रेरण अधिनियम के अधीन दण्डनीय नहीं है, फिर भी ऐसा दुष्प्रेरण भारतीय दण्ड संहिता की धारा 109 के अधीन दण्डनीय माना जाता है।

    धारा 161 के अधीन एक अपराध को कारित करने का प्रयास ठीक उसी तरह से दण्डनीय होता है, जैसे स्वयमेव प्रमुख अपराध को कारित करना। जहाँ धारा 5 (1) (घ) के अधीन एक अपराध को कारित करने का प्रयास मात्र ऐसे कारावास से दण्डनीय है जिसका विस्तार 3 वर्षों के कारावास अथवा जुर्माने से या इन दोनों तक हो सकता है जब कि इस अपराध को कारित करने के लिए दण्ड का विस्तार जुर्माने के साथ 7 वर्षों के कारावास तक हो सकता है।

    हालांकि यह बात ध्यान देने योग्य है कि अधिनियम, 1947 के अधीन कानून निर्माता ने अनेक ढंग से दण्ड प्रक्रिया संहिता के कुछ नियमों को उपान्तरित करने में तथा यह भी प्रावधान करने में अभियुक्त के विरुद्ध एक उपधारणा को सृजित करके सुगम सबूत बनाने में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 160 के अधीन दण्डनीय अपराधों से संव्यवहार किया गया है कि इस प्रभाव तक धारा 161 के अधीन एक दण्डनीय अपराध के लिए लोक सेवक के विरुद्ध किसी भी कार्यवाही में एक व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत किया गया यह कथन कि उसने कोई परितोषण दिया था, देने के लिए सहमत हुआ था, संहिता की धारा 165 क के अधीन अभियोजन के अध्यधीन नहीं होगा।

    अतएव, अधिनियम की धारा 5 (1) (घ) का अधिनियमन, इस बात पर ध्यान दिए बिना ही धारा 161 के प्रावधानों की गैर जानकारी में नहीं किया गया। इसकी रचना उन परिस्थितियों को निपटने के लिए धारा 161 का पूरक बनाने के प्रयोजन से की गयी जिन्हें धारा 161 द्वारा आच्छादित नहीं किया जायेगा। यह धारा 161 के साथ एक अनावश्यक प्रतिरूप होने से दूर है।

    यदि उपरोक्त वर्णित सदृशय प्रावधानों को एक भिन्न दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह अधिनियम की धारा 5 (1) (घ) को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस धारा तथा 'भारतीय दण्ड संहिता की धारा के बीच गुणों की दृष्टिकोण से अन्तर होता है। यह कि धारा 5 (1) (घ) के अधीन एक अपराध, बिना किसी लाभ के अस्तित्वशील है जब कि धारा 161 ऐसे एक लाभ या हित का अभिप्राय रखती है। दूसरे, यह कि अपराध निश्चित तौर पर यह अभिप्राय नहीं रखता है कि उसका संबंध एक ऐसे दूसरे व्यक्ति से होता है जो आर्थिक हानि से पीड़ित हो।

    प्रश्नगत अपराध मात्र ऐसे धन के अपयोजन द्वारा घटित हो सकता है जो अन्यथा राज्य की भेंट के रूप में या सेवा से या सेवा के गुणों से राज्य सरकार को वंचित कर देने से घटित होता है, जिसके लिए उसे वेतन दिया जाता है। इस प्रकार से अपराध अपनी जेब से किसी भी व्यक्ति को वेतन दिए बिना ही कारित हो सकता है और इतने पर भी, कानून और प्रक्रिया में कमियों का कुशलतापूर्वक ढंग से शोषण करके राज्य सरकार की हानि लाभ लेने वाले किसी भी अधिकारी द्वारा कारित किया जा सकता है।

    धारा 7 एवं भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 161 के बीच संबंध

    रिश्वत का आरोप एक ऐसा आरोप है जिसे आसानी से लगाया जा सकता है और बहुधा हल्के तौर पर लगाया जाता है। इसके अलावा, यह भी कठिन होता है कि रिश्वत के आरोप में अपराध को स्थापित करने के लिए प्रत्यक्ष साक्ष्य का आलंब लिया जा सकता है और इसे संदेह के परे स्थापित करने के लिए भार से अभियोजन को मुक्ति नहीं प्रदान की जा सकती है। यदि ऐसी प्रत्येक बात पर विचार करने के पश्चात् जिन पर विधिक रूप से विचार किया जा सकता है, उस पर सम्यक् रूप से विचार करने के पश्चात्, इस दृष्टिकोण को अपनाने लिए स्थान होता है कि इतने पर भी, निर्दोषिता की युक्तियुक्त प्रत्येक संभावना के लिए अभियुक्त के विरुद्ध उद्भूत हुई प्रबल आशा का अपवर्जन कर दिया गया है; तो वह दोषमुक्त किये जाने का हकदार जाता है।

    जब कभी पारिस्थितिक साक्ष्य पर यह साबित करने हेतु विश्वास किया जाता है; परिस्थितियों को अवश्यमेव की गयी उपधारणाओं के द्वारा नहीं बल्कि साबित किया जाना चाहिए। साक्ष्य का कोई भी एकल मद अलग किया जा सकता है और उसे महत्त्व प्रदान किया जा सकता है और विचारण किये जाने से अभियुक्त के मामले को वापस नहीं लिया जा सकता है। किन तथ्यों से रिश्वत का गठन होता है; यह एक विधि का प्रश्न है: क्या साक्ष्य पर अपराध कारित किया गया है; यह एक तथ्य का प्रश्न है।

    अतएव जब एक रिश्वत की मांग एवं स्वीकृति से संबंधित साक्ष्य पर संदेह नहीं किया जा सकता है और पूर्णतया निर्दोषिता की उपधारणा को स्थानान्तरित नहीं करता है; तो आरोप को स्थापित हुआ नहीं कहा जा सकता है। न्यायालय का न केवल वही समाधान किया जाना चाहिए कि परिस्थितियां साबित किये गये तथ्यों के संगत है; बल्कि वह अभियुक्त एक दोषी व्यक्ति है, से मौलिक किसी दूसरे निष्कर्ष के असंगत है।

    अन्य सभी प्रकार के रिश्वत के मामले इस नियम के अध्यधीन होते हैं कि अभियुक्त को तब तक दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता है जब तक न्यायालय को युक्तियुक्त संदेह के परे उससे संबंधित दोष का समाधान नहीं हो जाता है। यह नियम अभियुक्त के आवरण या साक्षी के आचरण से संबंधित किसी भी योग्यता को स्वीकृति नहीं प्रदान करता है।

    इसके बावजूद भी, जहाँ एक रिश्वत के मामले में अभियुक्त अभिवाक करता है और अच्छे आचरण का साक्ष्य प्रस्तुत करता है जिसे न्यायालय संतोषजनक मान्यता प्रदान कर देता, और वहाँ यदि न्यायालय को प्रतीत होता है कि ऐसे चरित्र को धारण करने वाला एक व्यक्ति के द्वारा अभियोजन द्वारा अभिकथित समय पर तथा ढंग में साबित की गयी परिस्थितियों में कारित किये जाने की संभावना नहीं होगी, वहाँ ऐसी संभाव्यता को अवश्यमेव इस प्रश्न का अवधारण करने में विचारणार्थ ग्रहण किया जाना चाहिए क्या ऐसे व्यक्ति के दोषी होने के बारे में युक्तियुक्त संदेह है।

    इस साक्ष्य को साक्ष्य अधिनियम की धारा 14 के अन्तर्गत विहित नियमों के अधीन ग्राह्य माना जा सकता है कि अभियुक्त ने पूर्ववर्ती अवसरों पर रिश्वत ली थी। यह कि इसी के समान तथ्य मानसिक आशय या अन्य दशाओं के जारी किये जाने के सुसंगत है हालांकि उनका प्रयोग भौतिक कार्यों के साबित करने में नहीं किया जा सकता है।

    यह साक्ष्य कि जिस व्यक्ति ने उस समय लिखित पत्रों में रिश्वत का संदाय करने के सन्दर्भ में यह शिकायत की थी कि रिश्वत की मांग किये जाने पर ही उसने उसका संदाय किया था, को न्यायालय में में प्रस्तुत किये गये पश्चात्वर्ती साक्षियों के कथन की संपुष्टि करने वाले के रूप ग्राह्य माना जायेगा।

    ऐसा कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि वह एक सत्यवादी नहीं था। यदि तर्क को जब साक्षी के साथ रहने वाला साक्षी 11 रुपये प्रतिदिन उपार्जन कर रहा था, तब जब कभी पारिस्थितिक साक्ष्य पर यह साबित करने हेतु विश्वास किया जाता है; परिस्थितियों को अवश्यमेव की गयी उपधारणाओं के द्वारा नहीं बल्कि साबित किया जाना चाहिए। साक्ष्य का कोई भी एकल मद अलग किया जा सकता है और उसे महत्त्व प्रदान किया जा सकता है और विचारण किये जाने से अभियुक्त के मामले को वापस नहीं लिया जा सकता है।

    किन तथ्यों से रिश्वत का गठन होता है; यह एक विधि का प्रश्न है; क्या साक्ष्य पर अपराध कारित किया गया है; यह एक तथ्य का प्रश्न है। अतएव जब एक रिश्वत की मांग एवं स्वीकृति से संबंधित साक्ष्य पर संदेह नहीं किया जा सकता है और पूर्णतया निर्दोपिता की उपधारणा को स्थानान्तरित नहीं करता है; तो आरोप को स्थापित हुआ नहीं कहा जा सकता है। न्यायालय का न केवल वही समाधान किया जाना चाहिए कि परिस्थितियां साबित किये गये तथ्यों के संगत है; बल्कि वह अभियुक्त एक दोषी व्यक्ति है, से मौलिक किसी दूसरे निष्कर्ष के असंगत है।

    अन्य सभी प्रकार के रिश्वत के मामले इस नियम के अध्यधीन होते हैं कि अभियुक्त को तब तक दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता है जब तक न्यायालय को युक्तियुक्त संदेह के परे उससे संबंधित दोष का समाधान नहीं हो जाता है। यह नियम अभियुक्त के आचरण या साक्षी के आचरण से संबंधित किसी भी योग्यता को स्वीकृति नहीं प्रदान करता है।

    इसके बावजूद भी, जहाँ एक रिश्वत के मामले में अभियुक्त अभिवाक् करता है और अच्छे आचरण का साक्ष्य प्रस्तुत करता है जिसे न्यायालय संतोषजनक मान्यता प्रदान कर देता, और वहाँ यदि न्यायालय को प्रतीत होता है कि ऐसे चरित्र को धारण करने वाला एक व्यक्ति के द्वारा अभियोजन द्वारा अभिकथित समय पर तथा ढंग में साबित की गयी परिस्थितियों में कारित किये जाने की संभावना नहीं होगी, वहाँ ऐसी संभाव्यता को अवश्यमेव इस प्रश्न का अवधारण करने में विचारणार्थ ग्रहण किया जाना चाहिए क्या ऐसे व्यक्ति के दोषी होने के बारे में युक्तियुक्त संदेह है।

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