भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 11: इस अधिनियम के तहत अपराधों के दुष्प्रेरण के लिए दंड

Shadab Salim

27 Aug 2022 4:31 AM GMT

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 11: इस अधिनियम के तहत अपराधों के दुष्प्रेरण के लिए दंड

    भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 12 इस अधिनियम के अंतर्गत बनाए गए अपराधों के दुष्प्रेरण को भी दंडनीय अपराध बनाती है। दुष्प्रेरण के लिए भी सात वर्ष तक का कारावास दिया जा सकता है जो न्यूनतम तीन वर्ष तक का हो सकता है। किसी भी अपराध के दुष्प्रेरण को भी अपराध बनाया जाना आवश्यक है अन्यथा वह व्यक्ति बच निकलते है जो पर्दे के पीछे से अपराध कारित करते है।

    साथ ही ऐसे व्यक्ति जो एक लोक सेवक को रिश्वत देने का प्रयास करते हैं उन्हें भी दंडित किये जाने का लक्ष्य है। इस ही उद्देश्य से इस अधिनियम में धारा 12 को प्रवेश दिया गया है। भारतीय दंड संहिता की धारा 165क भी इस पर ही प्रावधान करती है। इस आलेख में धारा 12 पर विस्तारपूर्वक टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

    धारा 12

    अपराधों के दुष्प्रेरण के लिए दंड -

    जो कोई, इस अधिनियम के अधीन दंडनीय किसी अपराध का दुष्प्रेरण करेगा, चाहे वह अपराध उस दुष्प्रेरण के परिणामस्वरूप किया गया हो अथवा नहीं, वह कारावास से जिसकी अवधि तीन वर्ष से कम की नहीं होगी, किन्तु जो सात वर्ष की हो सकेगी, दंडित किया जाएगा और जुर्माने का भी दायी होगा।

    भारतीय दण्ड संहिता में इस धारा में अन्तःस्थापित करके एक रिश्वत की भेंट करना, एक सारभूत अपराध बनाया जाता है। अतएव, रिश्वत की भेंट करने वाले एक व्यक्ति को धारा 161 एवं 116 में वर्णित पुराने प्रावधानों के अधीन नहीं बल्कि इसी धारा के अधीन अभियोजित किया जा सकता है कारण कि, यदि प्रावधानों के दोनों समूहों को एक साथ अस्तित्वशील होने वाला माना जा सकता है और इस सहअस्तित्व के परिणाम ऐसे उद्देश्यों के लिए विनाशात्मक होगा जिसके लिए नये कानून विनाशात्मक होगा जिसके लिए नये कानून को पारित किया जाता है, जबकि पूर्ववर्ती को पश्चात्वर्ती द्वारा निरसित कर दिया गया है। अब कोई भी भ्रष्टाचार के दुष्प्रेरण पर इस अधिनियम की धारा 12 ही प्रयोज्य होती है।

    मात्र रिश्वत की भेंट, इस धारा के अधीन एक अपराध है

    मात्र यह तथ्य कि अभियुक्त ने उससे कोई वस्तु ग्रहण करने के लिए मजिस्ट्रेट में कहा और उसके पक्ष में एक आदेश पारित किया, यहाँ मात्र मजिस्ट्रेट को रिश्वत का संदाय करने का प्रयास ही अपराध को गठित करने के लिए पर्याप्त था। यह आवश्यक नहीं था कि अभियुक्त को उस मजिस्ट्रेट के समक्ष इच्छा रखनी चाहिए थी जिसे वह संदाय करने की इच्छा रखता था। यह पर्याप्त था कि अभियुक्त के पास जेब में धन था और एक अनुकूलतम आदेश पारित करने के लिए उससे किसी भी वस्तु को लेने के लिए अनुरोध करने के पश्चात्, उसने अपनी जेब में अपना रुपये वाला बैग बाहर निकालने के लिए हाथ डाला जो खाली नहीं था और उसमें धन रखा था।

    किसी भी लोक सेवक के अपराध को साबित करने हेतु यह महत्व नहीं रखता है कि उसने वास्तव में, अवैध परितोषण को ग्रहण किया था। यदि अवैध परितोषण के संदाय किये जाने के बारे में कोई भी प्रस्ताव लोक सेवक द्वारा प्रस्तुत किया जाता है और वह ऐसे प्रस्ताव को स्वतः की स्वीकृति प्रदान कर देता है; तो वह भारतीय दंड संहिता की धारा 161 के अधीन दोषी होगा।

    यदि एक व्यक्ति जो अपने प्रस्ताव में रकम का संदाय कराने हेतु प्रस्ताव करता है; तो भारतीय दंड संहिता की धारा 161 के अधीन एक अपराध का गठन हो जाता है। क्योंकि धारा 161 का दृष्टान्त यह स्पष्ट कर देता है कि रिश्वत की भेंट धारा 116 के अधीन एक दुष्प्रेरण का अभिप्राय रखता है और निश्चित तौर पर धारा 165 के अधीन एक रकम का गठन करेगा।

    ज्यों ही भारतीय दंड संहिता की धारा 161 के अधीन एक व्यक्ति को एक अपराध कारित करने के लिये उकसाया जाता है; त्योंही धारा 161 के अधीन दुष्प्रेरण का एक अपराध पूरा हो जाता है और यह स्थिति बिना इस तथ्य पर विचार किये ही धारा 165 के अन्तर्गत उद्भूत है कि उस व्यक्ति ने धन को स्वीकार नहीं किया, बल्कि स्वीकार करने की सहमति भी नहीं दी थी।

    यह रिश्वत दाता को दुराशय होता है कि जिस पर धारा 165-क के अधीन विचार किया जाना होता है और यह उसको उत्तरदायी बनाने के लिए पर्याप्त होगा यदि वह उसका रिश्वत दाता के रिश्वत प्रदान करने में या वैसा प्रयास करने में उसका प्रयास, उसका पक्षपात करने के लिए या उसका विरोध करने के लिए अपने शासकीय कर्तव्य में एक शासकीय कार्य करने के लिए या प्रदर्शित करने के लिए या प्रदर्शित करने से परिविरत रहने के लिए लोक सेवक को उत्प्रेरित करना था ऐसी दशा में इस बात को निरर्थक माना जाता है कि क्या वास्तव में, प्रश्नगत स्थिति में कोई ऐसा कार्य सम्पन्न हुआ या नहीं।

    क्या रिश्वतदाता के दुराशय पर विचार किया जाना आवश्यक है या नहीं

    इस मत से इंकार नहीं किया जा सकता है कि विचारण न्यायालय के समक्ष जब किसी एक लोक सेवक को रिश्वत भेंट करने संबंधित एक आपराधिक मामला प्रस्तुत किया जाता है, तब विचारण के दौरान इस न्यायालय का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह उस समय के परिप्रेक्ष्य पर गंभीरतापूर्वक विचार करें कि उस समय रिश्वतदाता की मानसिक स्थिति क्या थी जब रिश्वत का संदाय किया जा सकता था।

    हालांकि इस प्रसंग में इस प्रश्न से कुछ नहीं लेना देना होता है क्या वह लोक सेवक उस कार्य को करने या करने से परिविरत रहने की दशा में था या नहीं जिसके लिए उसे रकम की भेंट की गयी थी। अतएव यदि एक 'अवैध परितोषण' का भेंटकर्ता ने एक ऐसे लोक सेवक को रिश्वत का संदाय किया जिसके पास उस विशेष व्यक्ति का पक्षपात करने का कोई प्राधिकार नहीं था, भारतीय दंड संहिता की धारा 165- क के अधीन अपराध का दोषी होगा। हालांकि लोक सेवक प्रलोभन को स्वीकृत करने से इंकार कर सकता है।

    पद्मा सेन बनाम राज्य, ए आई आर 1959 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1276 के मामले में कहा गया है कि जहाँ कोई भारतीय दंड संहिता की धारा 165- क के अधीन किसी दाण्डिक मामले के विचारण में ऐसे व्यक्ति को दुराशय पर अवश्यमेव विचार किया जाना चाहिए जिसने रिश्वत का संदाय किया यही उसको उत्तरदायी बनाने के लिए पर्याप्त होगा जहाँ उसका किसी भी लोक सेवक को रिश्वत देने का उद्देश्य उसे किसी का पक्षपात करने या किसी का विरोध, उसके शासकीय कृत्यों के आभास में, किसी शासकीय कार्य को करने या करने से परिविरत करने के लिए प्रलोभन देना था। जबकि यहाँ यह बिल्कुल निरर्थक बात थी कि क्या कथित लोक सेवक वास्तव में, प्रश्नगत कार्य करने या न करने की स्थिति में था।

    यदि दो अभियुक्तों को धारा 7 एवं 12 के अधीन आरोपित किया गया हो और अभियुक्त को यदि दोषमुक्त कर दिया जाता है; तो क्या दुष्प्रेरक को दोषसिद्ध किया जा सकता है या नहीं–

    जहाँ एक व्यक्ति को धारा 161 के अधीन एक अपराध के दुष्प्रेरण के लिए दोषसिद्ध किया जाना होता है; वहाँ इसके लिये यह आवश्यक नहीं है कि अपराध किया जाना चाहिए।

    दुष्प्रेरण को भारतीय दंड संहिता की धारा 107 के अधीन परिभाषित किया गया है तथा एक व्यक्ति एक कार्य करने के लिए उस समय दुष्प्रेरित करता है जब-

    (1) वह उस कार्य को करने के लिए दुष्प्रेरित करता है।

    (2) दो या दो से अधिन व्यक्तियों को उस कार्य करने के लिए षडयन्त्र में नियुक्त करता है।

    (3) साशय उस कार्य को करने में किसी कार्य या विधिक लोप द्वारा सहायता प्रदान करता है।

    धारा 107 का स्पष्टीकरण (2) यह कथन करता है कि जो कोई भी या एक कार्य के कारित किये जाने के समय या उसके पूर्व उस कार्य को कारित करने में सहायता प्रदान करता है और तदनुसार उसको सुगम बना देता है, अर्थात् यह कहा जा सकता है कि वह उसके कारित किये जाने में सहायता प्रदान करता है।

    इस प्रकार के मामले में यदि अपराध से आरोपित व्यक्ति को इस आधार पर दोषमुक्त कर दिया जाता है कि उसने अपराध कारित नहीं किया है; तो उस अपराध के कारित किये जाने के किसी कार्य या लोप द्वारा साशय सहायता करने का कोई उद्भूत नहीं होता है। अतएव चाहें दोषमुक्ति का आदेश दोषरहित या दोषपूर्ण हो, किन्तु दुष्प्रेरक की दोषसिद्धि को इन सभी परिस्थितियों में बने रहने की अनुज्ञा नहीं प्रदान की जा सकती है।

    ओम प्रकाश बनाम उत्तर प्रदेश राज्य ए आई आर 1960 सुप्रीम कोर्ट 405 : 1960 के मामले में अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 165- क के अधीन अभियोजित किया गया तथा दोषसिद्ध किया गया। उसने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की और यह तर्क किया कि उसके विरुद्ध भारतीय दंड संहिता 1860 के अधीन दोषसिद्धि का निष्कर्ष भारत के संविधान के अनुच्छेद 20 के प्रावधानों के विरुद्ध है क्योंकि अपराध यदि 4 दिसम्बर 1948 को अभियुक्त द्वारा कारित किये जाने का अभिकथन किया गया; जबकि कथित अपराध 28 जुलाई, 1952 पर सर्वप्रथम सृजित किया गया।

    जब धारा 165-क को पहली बार अधिनियम किया गया और दण्ड विधि संशोधन अधिनियम 1952 की धारा 3 द्वारा भारतीय दंड विधि में प्रस्तावना की गयी। इस तर्क की संपुष्टि उच्च न्यायालय द्वारा कर दी गयी तथा दोषसिद्धि को भारतीय दंड संहिता की धारा 161 सपठित धारा 109 के अधीन परिवर्तित कर दिया गया। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि धारा 161/109 की विधि में प्रभाव को कम से कम धारा 165 क के समान संक्षिप्त तौर पर व्यवहार किया जा सकता है।

    जहाँ तक, वास्तव में, कारित किये गये एक अपराध का संबंध एक दुष्प्रेरण से होता अतएव, संशोधित आरोप द्वारा अभियुक्त की जानकारी में लाये जाने वाले किसी अग्रिम तथ्यों की आवश्यकता नहीं पड़ती थी क्योंकि धारा 161/109 एवं धारा 165 क के अधीन दंड एक समान था और अभियुक्त के साथ कोई घोर अन्याय नहीं हुआ।

    चन्द्रकान्त रतीलाल मेहता बनाम महाराष्ट्र राज्य, 1993 क्रि लॉ ज 2863 (बम्बई) के मामले में ये तथ्य असामान्य थे और दूसरे भ्रष्टाचार के मामलों से इसकी स्थिति भिन्न थी। क्योकि इस मामले में माँग कभी भी लोकसेवक की ओर से नहीं की और इस कारण भी कि इसमें परिवादी एक जनता का सदस्य नहीं है अवैध कार्य को करने के लिए माँग या अनुरोध का उद्भव जन सदस्य से नहीं हुआ है। इसके अलावा यह वह लोक सेवक है जिसने अवैधानिकता के बारे में शिकायत की है।

    यह सत्य है कि जालसाजी अवैधानिक परितोषण को स्वीकृत करने का विधि विरुद्ध कार्य का एक पक्ष होने के से लोकसेवक की सहमति हुए बिना ही सफलता नहीं प्राप्त कर सकता था परन्तु यहाँ यह भिन्नता पाई जाती है कि इस मामले की स्थिति सामान्य भ्रष्टाचार के मामलों के ठीक विपरीत है।

    परिवादी, गृह राज्य मंत्री, महाराष्ट्र सरकार को एक सहभियुक्त को स्थिति मतें होने के रूप में नहीं माना जा सकता है। एक साक्षी की हैसियत से उसकी सामान्य सत्य निष्ठा का उच्च स्तर होने के कारण जहाँ तक उसके साक्ष्य के गुण का सम्बन्ध है, ऐसा कोई कारण नहीं है कि क्यों दोषसिद्धि की एक ऐसे साक्ष्य पर आधारित नहीं माना जा सकता है जिसकी संपुष्टि न की गई हो।

    अपराधों का अन्वेषण

    भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 165 क के अधीन एक अपराध के लिए भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 की धारा 5-क के अधीन अनुज्ञा प्राप्त करना आवश्यक होता है।

    जहाँ धारा 165-क के अन्तर्गत एक दण्डनीय अपराध का संज्ञान लिया जाता है; और विचारण न्यायालय अन्वेषण की अवैधानिकता को समाप्त करने की कार्यवाही कर चुका है; वहाँ इसका अन्वेषण करने के लिए इजाजत प्राप्त करने की असफलता द्वारा अधिनियम की धारा 5-क के अधीन आवश्यक विवेचना परिणाम को तब तक निःसार नहीं बनायेगा जब तक कि उसके द्वारा न्याय का दुरुपयोग न हुआ हो।

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