भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 10: रिश्वत के अपराध में दोषमुक्ति

Shadab Salim

26 Aug 2022 4:08 AM GMT

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 10: रिश्वत के अपराध में दोषमुक्ति

    भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 7 रिश्वत के अपराध का प्रावधान करती है, धारा सात ने ही लोक सेवकों को रिश्वत लेने पर दंडनीय अपराध का उल्लेख किया है जिसमे कड़े कारावास का उल्लेख है। इस धारा के अधीन प्रकरणों में अनेक अभियुक्त दोषमुक्त किये गए हैं। इस आलेख में कुछ न्यायलयीन प्रकरणों में दोषमुक्ति पर चर्चा की जा रही है।

    रिश्वत के अपराध में दोषमुक्त होना

    कैलाश चन्द्र पाण्डेय बनाम स्टेट ऑफ़ वेस्ट बंगाल, 2003 क्रि लॉ ज 4286 के मामले में चूंकि अभियोजन संदेह से परे यह साबित करने में असफल हो गया कि वास्तव में परितोषण के रूप में वास्तव में किसी के संदाय का प्रस्ताव एवं प्रतिग्रहण हुआ इसलिए अभियुक्त को संदेह का लाभ पाने का हकदार माना गया।

    प्रभाकर बाला जी भोगी बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र, 2007 क्रि लॉ ज 532 (बम्बई ) के मामले में जहाँ साक्षियों का साक्ष्य विश्वसनीय था कोई तर्क पूर्ण साक्ष्य यह प्रदर्शित करने के लिए नहीं पेश किया गया कि अभियुक्त ने किसी धन की मांग की थी और उसको ग्रहण किया था यहां अभियुक्त को दोषमुक्ति का हकदार माना गया।

    स्टेट बनाम मेमराज (2011) क्राइम्स (एस एल) 486 के मामले में चूंकि, उस व्यक्ति के बारे में साक्ष्य में कोई तात्विक विरोधाभास होता है जिसने वास्तव में उस समय अभियुक्त की तलाशी ली थी जब यह अभिकथन किया गया कि कलुषित रकम अभियुक्त से बरामद की गई और शैडो साक्षी की किसी स्पष्टीकरण के बिना परीक्षा नहीं की गयी है इसलिए विचारण न्यायालय द्वारा अभियुक्त की दोषमुक्ति को उचित माना गया।

    एन सुकन्ना बनाम स्टेट, 2015 (3) क्रि लॉ ज 4927 के मामले में अवैध परितोषण के लिए किसी मांग के सबूत के अभाव में भ्रष्टाचार निवारण या अवैध साधनों का प्रयोग या किसी मूल्यवान वस्तु या घनीय प्राप्त करने के लिए एक लोक सेवक की हैसियत से पद का दुरुपयोग किया जाना स्थापित नहीं किया जा सकता था। यह अवैध परितोषण के प्रतिग्रहण के मात्र सबूत पर होता है कि अधिनियम की धारा 20 के अधीन यह उपधारणा की जा सकती है कि ऐसे परितोषण को किसी शासकीय कार्य को करने के लिए या उससे प्रविरत रहने के लिए प्राप्त किया गया था। अतएव, जब तक अवैध परितोषण की सबूत मांग का सबूत नहीं होता, जब तक प्रतिग्रहण का कोई सबूत नहीं होगा। उपरोक्त कारणों से अपील अनुज्ञात की गयी तथा अधिनियम की धाराएं 7 एवं 13 (1) पठित धारा 13 (2) के अधीन अपीलार्थी की दोषसिद्धि एवं अधिरोपित किये गये दण्डादे को अपास्त कर दिया गया और उसको आरोपों से मुक्त कर दिया गया।

    जहां यह अभिकथन किया गया कि अभियुक्त ने स्टाक को अभिग्रहीत करने दा उसके विरुद्ध एक मिथ्या केस तैयार करने की धमकी देकर के एक उचित मूल्य की दुकान के व्यापारी, परिवादी से 300/- रु० रिश्वत की मांग की तथा उसको अभिग्रहीत किया वहां परिवादी ने स्वयं परिवाद का तिरस्कार किया और यह साबित करने का कोई सबूत नहीं या कि अभियुक्त ने कोई मांग की थी जिसके परिणामस्वरूप उसकी दोषसिद्धि को दोषमुक्ति में परिवर्तित कर दिया गया।

    बी एन स्वामी बनाम स्टेट आफ कर्नाटक, 2015 क्रि लॉ ज 3015 (कर्नाटक) के मामले में जहां यह अभिकथन किया गया कि अभियुक्त ने विकास प्राधिकरण द्वारा परिवादी को आवंटित किये गये स्थल के लिए विक्रय-विलेख जारी करने में शासकीय पक्ष को प्रदर्शित करने के लिए परिवादी से 1,000/- रु० की मांग की थी, वहां चूंकि परिवादी ने अपने मौखिक साक्ष्य में इस बात का विनिर्दिष्ट तौर पर उल्लेख नही किया था कि उसने अभियुक्त को रिश्वत की रकम दी थी तथा उसने उसको एक हाथ से प्राप्त किया था इसलिए अभियुक्त की दोषसिद्धि को इस आधार पर पोषणीय नहीं माना गया कि अभियोजन युक्तियुक्त संदेह से परे मामले को साबित करने में असमर्थ रहा और उसे अपास्त कर दिया गया।

    हितेन्द्र प्रभुलाल पुरोहित बनाम स्टेट ऑफ गुजरात, 2019 क्रि लॉ ज के मामले में अभिकथन किया गया कि अभियुक्त पुलिस कांस्टेबल ने परिवादी से जो मदिरा का कारवार कर रहा था, उसके विरुद्ध दर्ज किये जाने वाले झूठे मामले से बचाने के लिए रिश्वत की मांग की थी। परिवादी ने कोई शिकायत करवाने को अस्वीकार कर दिया था। कोई भी अन्य साक्ष्य मांग को साबित करने के लिए नहीं पेश किया गया। अतएव, मांग के सबूत के अभाव में अभियुक्त से धब्बे पर धन की बरामदगी को उसकी दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त नहीं माना गया।

    एक मामले में अभियुक्त द्वारा रिश्वत की मांग करने के बारे में तथा उसके द्वारा उसके प्रतिग्रहण की मांग के बारे में सबूत के अभाव की दशा में उसकी दोषसिद्धि के निर्णय तथा दण्डादेश को अपास्त कर दिया गया।

    स्टेट बनाम शिवराम, (2011) 2 क्राइम्स 89 (बम्बई) के मामले में जहां परिवादी एवं सैद्ये साक्षी का साक्ष्य अभियुक्त द्वारा कलुषित रकम की मांग एवं प्रतिग्रहण रिश्वत धन की रकम के बारे में संगत नहीं है और यह पाया जाता है कि मंजुरी प्राधिकारी अभियुक्त व्यक्तियों के अभियोजन को मंजूर करने में अपने विवेक का प्रयोग नहीं किया था वहां विशेष न्यायालय द्वारा अभियुक्त की दोषमुक्ति को उचित माना गया।

    गनडप्पा बनाम स्टेट, 2014 (4) क्राइम्स 204 के मामले में जहां अभिलेख पर संपूर्ण तथ्यों एवं साक्ष्य को ध्यान में रखते हुए अभियोजन अभियुक्त द्वारा अवैध परितोषण की मांग एवं प्रतिग्रहण को साबित कर पाने में असफल गया और दूसरी ओर अभियुक्त अपने स्पष्टीकरण को साबित करने में सफल रहा वहाँ विवारण न्यायालय के निर्णय को अपास्त कर दिया गया। और अभियुक्त को दोषमुक्त कर दिया गया।

    अमरा भाई स्कीम सूरिया स्टेट ऑफ गुजरात, 2015 क्रि लॉ ज 3410 के मामले में फंसाने वाला साक्षी पक्षी हो गया और अभियोजन ने यह प्रदर्शित करने के लिए किसी भी स्वतंत्र साक्षी की नहीं की थी जब अभिकथित तौर पर रिश्वत का घन अभियुक्त को सौंपा गया, वहां यह साबित करने के लिए किसी भी साक्ष्य के अभाव में, अभियुक्त ने कोई मांग की थी। यह अभिनिर्धारित किया गया कि अवैध परितोषण की प्रतिक्षण एवं वरामदगी को साबित नहं किया गया और इसलिए अभियुक्त की दोषसिद्धि को अपास्त कर दिया गया।

    एक प्रकरण में जहां यह अभिकथन किया गया कि किराने या पंसारी संबंधी वस्तुओं के प्रदाय के लिए अनुज्ञप्ति को प्रत्यावर्तित करने के लिए अभियुक्त ने 10,000/- रु० की मांग की थी यहां परिवादी ने वन किया कि अभियुक्त ने करेंसी नोटों के साथ आने के लिए अप मोबाइल फोन से फोन किया था लेकिन उसको उसके मोबाइल का नम्बर याद नहीं था चूंकि साक्षी ने स्वीकार किया कि रिश्वत की मांग उसकी अनुपस्थिति में नहीं की गयी थी जबकि परिवादी का लाइसेंस नवीनीकृत हो गया था। ऐसी दशा में, रिश्वत की मांग करने का अभियुक्त के लिए कोई अवसर नही था। चूंकि धारा 47 एवं 13 (2) के अधीन अपराध नहीं स्थापित किया गया। इसलिए अभियुक्त की दोषसिद्धि अपास्त कर दिया गया।

    जहाँ जाल बिछाये जाने के 4 दिनों पहले अभियुक्त द्वारा पूर्व मांग की गयी और अभिलेख उसी दिन मंत्रणा में अभियुक्त की उपस्थिति के प्रतिबंधित कर रहे थे वहां क पूर्व मांग के प्रश्न को नकारा गया और अभियुक्त द्वारा रिश्वत की मांग एवं प्रतिग्रहण को नहीं विश्वसनीय पाया गया इसलिए दोषसिद्धि को स्थिर रखने योग्य नहीं माना गया।

    अशोक नायक बनाम स्टेट (2011) 4 क्राइम्स 289 (म० प्र०) के मामले में अभियुक्त ने इस तथ्य को स्वीकृत किया था कि उसने कलुषित करेंसी नोटों को स्वीकार कर लिया था क्योंकि वह उसके प्राइवेट क्लीनिक का परिवादी के अधिकार के लिए परिवादी से उसकी परामर्श फीस थी। अभियुक्त के इस स्पष्टीकरण को अन्वेषण अधिकारी द्वारा सवीकार किया गया था।

    परिवादी के साक्ष्य के सिवाय यह प्रदर्शित करने के लिए कोई अन्य साक्ष्य नहीं था कि अभियुक्त ने परिवादी को योग्यता प्रमाण जारी करने के लिए तथा मेडिकल बिल पारित करने के लिए बतौर रिश्वत 500/- रु० की मांग की थी। आम नियमों के अधीन एक सरकारी अस्पताल में एक्टर अपना प्राइवेट व्यवस्था करने के लिए हकदार था। अतएव, रिश्वत की मांग एवं प्रतिग्रहण के लिए अभियुक्त की दोषसिद्धि को पोषणीय नहीं माना गया।

    किशोर भाई मघाली भाई गोहिल बनाम स्टेट आफ गुजरात, 2015 क्रि लॉ ज 3649 के मामले में जहां प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के अभियुक्त चिकित्सा अधिकारी के विरुद्ध अभिकचन था कि वह रोगी का उपचार करने तथा प्रमाण-पत्र जारी करने के लिए विभिन्न रकम भारित कर रहा था वहां फंसाने वाला रोगी ने यह कहीं भी नहीं कथन किया कि अभियुक्त डाक्टर धन की मांग की थी। चूंकि अभियोजन ने किसी भी ऐसे साक्षी की परीक्षा नहीं की श्री उस समय अस्पताल में था जब अभिलिखित धन का संदाय अभियुक्त डाक्टर को किया गया। इसलिए अवैध परितोषण की मांग के सबूत के अभाव में अपीलार्थी के पद्धि को अपास्त कर दिया गया तथा अपीलार्थी को दोषमुक्त कर दिया गया।

    रमन भाई आशा भाई चौहान बनाम स्टेट आफ गुजरात, 2015 क्रि लॉ ज 3912 के मामले में जहां यह अभिकथन किया गया कि अभियुक्त लोक सेवक ने अधिकारों के अभिलेख में उसके नाम की प्रविष्टि करने के लिए परिवादी से रिश्वत ग्रहण की थी ताकि भूमि के अर्जन के लिए प्रतिकर प्राप्त किया जा सके। यह अभिलेख से स्थापित किया गया कि प्रश्नगत भूमि का कोई अर्जन नहीं हुआ था। इस मामले में आरोप-पत्र लगभग सात वर्षो के एक छोर विलम्ब के पश्चात् दाखिल किया गया और मूल रकम की वसूली को किसी भी ने देखा था और किसी ने भी अभियुक्त को डस्टबिन में फेंकते हुए देखा था। अतएव अभियुक्त को दोषमुक्त किये जाने का हकदार माना गया।

    मिस लीलाबेन लीलावती शान्तीलाल मधु बनाम गुजरात राज्य, 2015 क्रि लॉ ज के मामले में 3682 जहां यह अभिकथन किया गया कि अभियुक्त, सिविल अस्पताल में प्रसूति विशेषज्ञ डाक्टर ने गर्भपात के लिए परिवादी से रिश्वत की मांग की थी वहां सभी चार साक्षियों ने यह पुष्टि का साक्ष्य प्रस्तुत किया कि अभियुक्त से कोई बरामदगी नहीं हुई थी और अभियुक्त इस कोई भी मांग नहीं की गयी थी जिसको अन्वेषण अधिकारी ने स्पष्टरूपेण स्वीकार किया था साक्षियों ने कतिपय पक्षद्रोही हो गये और पंचों ने अभियोजन के मामले का सपन नहीं किया था, किसी भी पंच ने अभियुक्त अभियुक्त को कोई मांग करते हुए नहीं देखा था। अतएव साक्ष्य के अभाव में धारा 20 भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधीन 11 अभियुक्त के विरुद्ध नहीं की जा सकती थी। अतएव अभियुक्त की दोषसिद्धि को अपास्त कर दिया गया।

    स्टेट आफ गुजरात बनाम वीराभाई दादूभाई, 2015 क्रि लॉ ज 1653 के मामले में जहां अवैधानिक परितोषण के मांग सदृश्य महत्वपूर्ण कारक को नहीं साबित किया गया और न ही धन की मांग करने के आशय को साबित किया गया वहां चूंकि अभियोजन भ्रष्टाचार के प्रमुख कारकों अर्थात् मांग एवं प्रतिग्रहण को साबित कर पाने में असफल रहा इसलिए विचारण न्यायालय को अभियुक्त प्रत्यर्थी को दोषमुक्त करने में न्यायसंगत माना गया।

    एक मामले में हालांकि परिवादी ने अभियुक्त के जेब में बलात् करेंसी नोटों को रख दिया था लेकिन स्वेच्छया उसको ग्रहण किया था। चूंकि अभियुक्त से धन की मात्र बरामदगी को अपराध इस बात का कोई साक्ष्य नहीं था कि अभियुक्त ने या तो रिश्वत की मांग की थी या की साबित करने के लिए अपर्याप्त था इसलिए अभियुक्त की दोषमुक्ति को न्यायसंगत माना गया क्योंकि परिवाद और साक्ष्य को विरोधाभाषी पाया गया।

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