भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 भाग 1: अधिनियम का उद्देश्य एवं एक परिचय

Shadab Salim

10 Aug 2022 4:27 AM GMT

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 भाग 1: अधिनियम का उद्देश्य एवं एक परिचय

    भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) वर्ष 1988 का एक महत्त्वपूर्ण केंद्रीय अधिनियम है, जो 1988 का अधिनियम संख्या 49 है अर्थात यह अधिनियम 1988 में 49वा अधिनियम है। यह 9 सितंबर,1988 को लागू एवं प्रभावी हुआ।

    यह अधिक विस्तारित अधिनियम तो नहीं है लेकिन भारत की पार्लियामेंट द्वारा गागर में सागर भरने का प्रयास किया गया है और इस अधिनियम की कम से कम धाराओं में भ्रष्टाचार निवारण से संबंधित समस्त प्रावधान कर दिए गए हैं। इस अधिनियम को निर्मित करने करने का एकमात्र उद्देश्य भारत राष्ट्र को भ्रष्टाचार मुक्त करना क्योंकि भ्रष्टाचार दीमक की तरह इस राष्ट्र को धीरे धीरे खा रहा है।

    एक मामले में उच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए यह अभिनिर्धारित किया है कि इस अधिनियम के प्रावधानों से यह इंगित होता है कि विधायिका का आशय भ्रष्ट लोक सेवकों के कृत्यों को गंभीरता से लेते हुए उन्हें दण्डित करना है तथा उन्हें भ्रष्ट कार्यों के लिए किसी भी तरह से माफ करना नहीं है।

    प्रत्येक त्रुटि चाहे वह कितनी ही भारी क्यों न दिखती हो फिर भी उसे अनुचित हेतु से नहीं जोड़ना चाहिए। यह सम्भव है कि कोई विशिष्ट न्यायिक अधिकारी निरन्तर ऐसे आदेश पारित करे जो न्यायिक आचरण में सन्देह उत्पन्न करते हों, जो पूर्ण रूप से अथवा आंशिक रूप से निर्दोष कार्य कारण में किए गए नहीं कहे जा सकते हो। ऐसे मामले में भी उच्चतर न्यायालय के लिए अपनाया जाने वाला समुचित मार्ग उसके कार्य के गोपनीय अभिलेख में उसके आचरण को नोट करना और समुचित अवसरों पर उसका उपयोग करना है।

    उच्चतर न्यायालय में न्यायाधीशों का कर्तव्य न्यायिक अनुशासन को सुनिश्चित करना और समस्त सम्बन्धित व्यक्तियों से न्यायालय के लिए सम्मान सुनिश्चित करना है। न्यायपालिका के लिए सम्मान उस समय बढ़ता नहीं है जब निचले स्तर के न्यायाधीशों की उम्र रूप से आलोचना की जाती है और सार्वजनिक रूप से उन्हें डॉट-फटकार लगायी जाती है।

    क्रिमिनल लॉ संशोधन अधिनियम, 1952 के प्रावधानों से स्पष्ट हो जाता है कि विधानमण्डल का उसमें अधिनियमित करने का आशय, भारतीय दण्ड संहिता की धारा में 161, 165 या भ्रष्टाचार निवारण अधिनतियम 1947 की धारा 5 (2) के अधीन दण्डनीय अपराधों के विचारण के लिए और तीव्रगति से उनका निस्तारण करने के लिए भारतीय दण्ड संहिता तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता 1898 को संशोधित करना था ।

    एक सत्र न्यायाधीश या एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश या एक सहायक सत्र न्यायाधीश के स्तर के विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति इन सभी अपराधों का विचारण करने के लिए करना था और न केवल इन सभी अपराधों का विचारण करने के लिए विशेष न्यायाधीशों में अनन्य अधिकारिता को निहित करना था। बल्कि उन्हें उन सभी अपराधों से भिन्न किसी भी अपराध को अन्तर्ग्रस्त करने वाले मामले का विचारण करते समय शक्ति प्रदान करना था जिसके लिए अभियुक्त को उसी विचारण में दण्ड प्रक्रिया संहिता 1898 के अधीन अधिरोपित किया जा सकता है।

    विचारणार्थ सुपुर्दगी की कार्यवाही को भी समाप्त कर दिया गया और विशेष न्यायाधीशों को विचारण करने के लिए उन्हें सुपुर्द किये बिना ही इन सभी अपराधों का संज्ञान लेने की भी शक्ति प्रदान कर दी गयी तथा मजिस्ट्रेट द्वारा वारण्ट मामलों के विचारण के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 द्वारा विहित निम्नलिखित प्रक्रिया द्वारा अभियुक्त व्यक्तियों को विचारणार्थ शक्ति प्रदान करना था।

    विशेष न्यायाधीशों की न्यायालयों को बिना ही एक जूरी या निर्धारकों की सहायता के ही मामले का विचारण करने वाले सत्र न्यायालय समझे जाते थे। इसके अलावा, सत्र न्यायालय को ऐसे अपराधों के दण्ड के लिए कानून द्वारा प्राधिकृत किये गये किसी दण्डादेश को किसी अपराध का उनके द्वारा दोषसिद्ध किये गये व्यक्तियों के सन्दर्भ में पारित करने के लिए शक्ति प्रदान की गयी। उच्च न्यायालय में निहित की गयी अपील एवम् पुनरीक्षण की शक्ति का प्रयोग किया जाना था यदि कि विशेष न्यायालय उच्च न्यायालय की स्थानीय अधिकारिता की सीमाओं के भीतर निर्धारकों की सहायता के बिना या जूरी के बिना ही मामलों का विचारण करने वाली न्यायालय थी।

    विशेष न्यायालय के समक्ष विचारण

    प्रक्रिया को सत्र न्यायालयों द्वारा अभियुक्त के विचारण के मामले में उसे प्राप्त करने वाली एकरूपता प्रदान कर दी गयी।

    ऐसे प्राईवेट व्यक्ति भी जो लोकसेवकों के साथ पडयंत्र करके और उनकी सक्रिय मौनानुकूलता से लोकनिधि को हड़पते पाए जाएंगे, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधीन दायी है। रमेश चंद्र जैन बनाम मध्यप्रदेश राज्य 1991 के मामले में आवेदकों ने, जो चार परिवहन कंपनियों के भागीदार थे, सह-अभियुक्त, बैंक अधिकारी की मदद से ट्रक खरीदने के लिए बैंक से ऋण के रूप में चैक प्राप्त किया और ट्रक-विक्रेता ने चैक के आधार पर रुपये भी प्राप्त कर लिया और यह दर्शित करने के लिए कि उक्त कंपनियों को ट्रकों का प्रदाय वस्तुतः किया गया है, बैंक में कूटकृत दस्तावेजें भी प्रस्तुत कर दी।

    परिवाद पर विशेष न्यायाधीश ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1955 की धारा 5 (2) / (5) (1) (क) तथा दंड संहिता की धारा 120-ख, 468 तथा 471 के अधीन आरोप विरचित किया।

    आरोप विरचन के विरुद्ध उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण मुख्य प्रश्न यह उठा कि क्या भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम प्राईवेट व्यष्टियों को भी लागू होता है?

    आवेदन खारिज करते हुए, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारिक किया कि इस बात की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि संसद् ने लोक सेवकों में व्याप्त रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के कारण, जिनमें द्वितीय विश्वयुद्ध से उत्पन्न उन परिस्थितियों की वजह से जिनमें बड़ी मात्रा में लोकधन का संवितरण करना पड़ रहा है और भ्रष्ट लोक सेवकों के विरुद्ध समुचित कार्यवाही करने के लिए भारतीय दंड संहिता के उपबंध पूरे नहीं पड़ रहे हैं, वृद्धि हुई है, 1947 के अधिनियम सं० 2 को अधिनियमित किया है।

    अतः इस बुराई की गंभीरता को रोकने और भ्रष्टाचार को समाप्त करने के उद्देश्य से 1947 का अधिनियम सं० 2 अधिनियमित किया गया और यह अधिनियम एक प्रकार का सामाजिक विधान है, जिसका आशय भारत के संविधान, इस अधिनियम और अन्य सहबद्ध अधिनियमों के अधीन लोक सेवकों को प्रत्याभूत संरक्षण को छोड़कर, लोकसेवकों के भ्रष्ट क्रियाकलाप का निवारण करना और उनके लिए उन्हें दंडित करना है।

    स्वतंत्रता मिलने के पश्चात् भारत प्रभुसत्ता-संपन्न गणतंत्र बन गया है, तो भी विश्वयुद्धोत्तर परिस्थियों में कोई सुधार नहीं हुआ है और लोक सेवकों में व्याप्त भ्रष्टाचार यथावत् बना हुआ है। केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों ने अपने नागरिकों के जीवन के हर क्षेत्र में उनके रहन-सहन के स्तर सुधार करने की दृष्टि से पंचवर्षीय योजनाओं के अधीन ऐसी बड़ी-बड़ी परियोजनाएं अपने हाथ में ली हैं, जिनके लिए करोड़ों रुपये के लोक धन का संवितरण किया जाना है।

    इनमें इस बात की पूरी संभावना है कि कर्मचारी लालचवश अपने लिए अच्छा लाभ कमाने के लिए देश की त्वरित प्रगति में रोड़ा अटकाकर भ्रष्ट क्रियाकलाप अपना सकते हैं और इसलिए संसद ने भ्रष्टाचार और घूसखोरी के मामले से और भी कारगर रूप से निपटने के लिए हाल ही में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 अधिनियमित किया है। अतः ऐसे प्राईवेट व्यक्ति भी जो लोक सेवकों के साथ षडयंत्र करके और उनकी सक्रिया मौनानुकूलता से लोक निधि को हड़पते पाए जायेंगें, ऐसे भ्रष्ट क्रियाकलाप के लिए भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधीन दायी होंगे और ऐसी परिस्थितियों में प्राईवेट व्यष्टि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के उपबंधों के अधीन आरोपित किए जाने से नहीं बच सकते।

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