एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 33: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत अभिगृहीत वस्तुओं का पुलिस द्वारा अपने भार साधन में लेना

Shadab Salim

20 March 2023 3:36 AM GMT

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 33: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत अभिगृहीत वस्तुओं का पुलिस द्वारा अपने भार साधन में लेना

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 55 प्रक्रिया के संबंध में प्रावधान करती है। इस धारा के अनुसार पुलिस इस अधिनियम के अंतर्गत अभिगृहीत की गई वस्तुओं का कब्ज़ा या भार साधन अपने हाथ में ले सकती है। इस प्रावधान का उद्देश्य वस्तुओं की सुरक्षा है एवं उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी किसी निर्दिष्ट व्यक्ति को दी जानी है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 55 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत मूल धारा है

    धारा 55

    अभिगृहीत और परिदत्त वस्तुओं का पुलिस द्वारा अपने भारसाधन में लेना- किसी पुलिस थाने का कोई भारसाधक अधिकारी ऐसी सभी वस्तुओं का, जो उस पुलिस थाने के स्थानीय क्षेत्र के भीतर इस अधिनियम के अधीन अभिगृहीत की जाए और जो उसे परिदत्त की जाए, मजिस्ट्रेट के आदेशों के लंबित रहने के दौरान, अपने भारसाधन में लेगा और उन्हें सुरक्षित अभिरक्षा में रखेगा तथा किसी ऐसे अधिकारी को जो ऐसी सभी वस्तुओं के साथ पुलिस थाने तक जाए या जो उस प्रयोजन के लिए तैनात किया जाए, ऐसी वस्तुओं पर अपनी मुद्रा लगाने के लिए या उनके या उनमें से नमूना लेने के लिए अनुज्ञात करेगा तथा इस प्रकार लिए गए सभी नमूने भी पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी की मुद्रा से मुद्रांकित किए जाएंगे।

    स्वर्णकी बनाम स्टेट ऑफ केरल, 2006 क्रिलॉज 65 केरल हाई कोर्ट के मामले में अधिनियम की धारा 55 के क्षेत्र बाबत विवेचना की गई। सुप्रीम कोर्ट ने न्याय दृष्टांत् कर्नेलसिंह बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 2000 (7) सु को के 632:2000 क्रिलॉज 4635 में धारा 55 के क्षेत्र बाबत विवेचना की थी और यह अभिनिर्धारित किया था कि अधिनियम की धारा 51 सहपठित धारा 52 एवं 53 के एप्लीकेशन के साथ, अधिकारी से अधिनियम की धारा 55 के अधीन सील आदि चस्पा करने के लिए अपेक्षित अधिकारी "नजदीकी पुलिस स्टेशन के प्रभार में होने वाला अधिकारी" होगा और यह अधिनियम की धारा 53 के अधीन सशक्त पुलिस स्टेशन के प्रभार में होने वाले अधिकारी से सुभिन्न होगा।

    यदि अधिनियम की धारा 52 की उपधारा (3) (क) के अधीन विहित प्रक्रिया का अवलंब लेना हो तो अधिनियम की धारा 55 आकर्षित होगी। परंतु यदि गिरफ्तार व्यक्ति एवं जब्त वस्तुओं को अधिनियम की धारा 52 की उपधारा (3) के खण्ड (ख) के अधीन अधिनियम की धारा 53 के अधीन सशक्त अधिकारी को अग्रेषित कर दिया गया हो तो ऐसी स्थिति में अधिनियम की धारा 55 के पालन का आग्रह नहीं किया जा सकता है। नजदीकी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी एवं अधिनियम की धारा 53 के अधीन सशक्त अधिकारी के मध्य सुभिन्नता स्पष्ट व सुभिन्न है। यह सुभिन्नता युक्तियुक्त उद्देश्य पर आधारित है।

    करन सिंह बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़ 2005 क्रिलॉज 1745 छतीसगढ़ के मामले में अभियोजन यह प्रमाणित करने में विफल रहा था कि अभियुक्त से प्राप्त पदार्थ गाँजा था क्योंकि फोरेंसिक साइंस लेबोटरी की रिपोर्ट को साक्ष्य में नहीं दिया गया था और न प्रदर्श किया गया था। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अधीन उसके होने वाले कथन में इसे स्पष्ट करने का अवसर नहीं दिया गया था। अपराध प्रमाणित होना नहीं माना गया।

    वेंकटराव बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़, 2006 क्रिलॉज 2326 छत्तीसगढ़ के मामले में मालखाना रजिस्टर की प्रतिलिपि से यह दर्शित नहीं होता था कि अपीलांट-अभियुक्त से जप्त गाँजा अथवा उससे प्राप्त किए गए नमूने को मालखाना में सुरक्षित अभिरक्षा में सीलबंद दशा में न्यसित किया गया था अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों का अपालन होना नहीं पाया गया। मामले में मुख्य आरक्षक असा 1 ने यह भी मंजूर किया था कि दिनांक 1.3.2003 को 1985 के अधिनियम के अधीन 3 मामले रजिस्टर्ड किए गए थे और इन तीनों मामलों की सम्पत्ति को मालखाना में जमा किया गया था।

    उसने प्रतिपरीक्षण में यह भी मंजूर किया था कि तीनों मामलों की अन्यसित सम्पत्ति में से दो पैकिटों को रासायनिक परीक्षण के लिए दिनांक 6.3.2003 को भेजा गया था इसलिए इस बात की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि फोरसिक साइंस लेबोटरी के द्वारा प्राप्त किए गए पदार्थ उस स्वरूप का नहीं था जो कि अभियुक्त के आधिपत्य से जप्त किया गया था अथवा इसमें बिगाड़ हो गया था अपराध अप्रमाणित होना नहीं माना गया।

    करन सिंह बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़, 2006 क्रिलॉज 1745 छत्तीसगढ़ के मामले में हालांकि मालखाना रजिस्टर की प्रतिलिपि से यह दर्शित होता था कि नमूने को सीलबंद करने में नमूने के सील के इम्प्रेशन का उपयोग किया गया था। इसको मालखाना मोहरर की सुरक्षित अभिरक्षा में न्यसित किया गया था फिर भी फोरेंसिक साइंस लेबोटरी की रिपोर्ट से यह दर्शित नहीं होता था कि ऐसी कोई सील या तो उसे प्राप्त हुई थी अथवा इसका फोरेंसिक साइंस लेबोटरी के द्वारा परीक्षण के लिए भेजे गए पैकेट की अंतर्वस्तु का परीक्षण करने के पूर्व फोरेंसिक साइंस लेबोटरी के द्वारा मिलान किया गया था। अभिलेख से यह दर्शित होना नहीं पाया गया कि जब्त वस्तु एवं नमूने के सील के इम्प्रेशन को विचारण न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया था। अपराध प्रमाणित होना नहीं माना गया।

    स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम गुरमेल सिंह,2005 सुप्रीम कोर्ट केस (क्रिमिनल) 641:2005 क्रिलॉज 1746 के मामले में मालखाना रजिस्टर को यह प्रमाणित करने के लिए कि मालाखाना में जप्त वस्तुओं को रखा गया था, प्रस्तुत नहीं किया गया था। इसके अलावा सील का नमूना भी नमूने के साथ एक्साइज सेबोटरी के लिए नमूने की बोतल पर प्रतीत होने वाली सील से मिलाने करने के प्रयोजन के लिए नहीं भेजा गया था। इसके अलावा अभियोजन के द्वारा प्रस्तुत लिंक साक्ष्य संतोषप्रद होना नहीं पाई गई थी। अपराध अप्रमाणित माना गया।

    धर्मेन्द्र कुमार बनाम स्टेट ऑफ एम.पी, 2004 (3) क्राइम्स 500 म.प्र के प्रकरण में 500 ग्राम अफीम जब्ती का मामला था। स्टेशन हाउस ऑफिसर के द्वारा स्थल पर नमूना पैकेट तैयार नहीं किया गया था। इसे उसके द्वारा संचालित कार्यवाही में संदेह सृजित करने की परिस्थिति के रूप में माना गया। यह प्रमाणित होना नहीं पाया गया कि स्टेशन हाउस ऑफिसर ने जब्त वस्तु को सील किया था। अधिनियम की धारा 55 में यथा प्रावधानित अनुसार स्टेशन हाउस ऑफिसर ने नमूना प्राप्त नहीं किया था।

    न्याय दृष्टांत मोहम्मद शमीम बनाम स्टेट, 1992 (1) ई.एफ.आर 89 में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जब मामले की संपत्ति को स्टेशन हाउस ऑफिसर के समक्ष अधिनियम की धारा 55 के अधीन यथा अपेक्षित इसे सील करने के लिए प्रस्तुत न किया गया हो तो अधिनियम के आदेशात्मक प्रावधान का पालन होना माना जाएगा। वर्तमान मामले के तथ्य यह थे कि नमूने को स्टेशन हाउस ऑफिसर के समक्ष नहीं निकाला गया था। जब्त वस्तु को स्टेशन हाउस ऑफिसर के द्वारा प्राप्त नहीं किया गया था।

    तहसीलदार ने उसके कार्यालय में जब्त मद से 2 नमूने बनाए थे। इस प्रक्रिया को अधिनियम की धारा 55 के प्रावधान के उल्लंघन में होना माना गया। अधिनियम की धारा 55 यह प्रावधानित करती है कि नमूने को स्टेशन हाउस ऑफिसर के समक्ष निकाला जाना चाहिए और जब्ती प्राधिकारी के द्वारा उसकी उपस्थिति में नमूना निकालने के उपरांत स्टेशन हाउस ऑफिसर के द्वारा नमूने पर सील अंकित की जानी चाहिए। अधिनियम की धारा 55 के प्रावधानों का अपालन अभियोजन के भाग पर अत्याधिक गंभीर लचरता मानी गई। अधिनियम की धारा 55 के प्रावधान के अपालन के आधार पर अभियुक्त को संदेह का लाभ पाने की पात्रता मानी गई।

    एक प्रकरण में मामले में अधिनियम की धारा 52, 55 व 57 के प्रावधानों के अपालन का तर्क दिया गया था। इन प्रावधानों के अपालन के आधार पर अभियुक्त को कोई प्रतिकूलता होना प्रमाणित नहीं की गयी थी। परिणामतः अभियुक्त को दोषमुक्त किए जाने की प्रार्थना अस्वीकार कर दी गयी।

    गोविन्द राम बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़ 2006 क्रिलॉज 2177 छत्तीसगढ़ के मामले में अभियुक्त का अधिनियम की धारा 18 के तहत अभियोजन था। मामले में अधिनियम की धारा 55 व 57 के प्रावधानों का अपालन होना पाया गया। अभियुक्त को दोषमुक्त किए जाने का अभिमत दिया गया।

    करन सिंह बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़, 2006 क्रिलॉज 1745 छत्तीसगढ़ के मामले में अधिनियम की धारा 55 के प्रावधान के अपालन का तर्क दिया गया था। उप निरीक्षक अभियोजन साक्षी 8 की साक्ष्य से यह दर्शित नहीं होता था कि जब्ती के समय उसने नमूनों के दोनों पैकेट अथवा शेष पदार्थ जिसे कि अभियुक्त से जब्त होना बताया गया था को सील किया था। अभियोजन साक्षी 4 आरक्षक एवं अभियोजन साक्षी 2 साक्षी की साक्ष्य इस बिन्दु पर संपूर्ण तौर पर मौन होना पाई गई। मुख्य आरक्षक अभियोजन साक्षी 7 जो कि मालखाना के प्रभार में था।

    उसने भी यह नहीं बताया था कि उसने सील युक्त अवस्था में वस्तुओं को प्राप्त किया था। मालखाना रजिस्टर की प्रतिलिपि के परिशीलन से यह स्पष्ट तौर पर दर्शित होता था कि दो नमूने जिन पर ए व बी मार्क था प्राप्त हुए थे व शेष गाँजा को मालखाना में अन्य सील्ड अवस्था में सुरक्षित अभिरक्षा में न्यसित किया गया था। इसका अभिप्राय यह है कि स्टेशन हाउस ऑफिसर ने उसकी सील वस्तुओं पर चस्पा नहीं की थी। इस प्रकार मामले में अधिनियम की धारा 55 के प्रावधानों का गंभीर अपालन होना पाया गया। अपराध अप्रमाणित माना गया।

    गोविन्द राम बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़, 2006 क्रिलॉज. 2177 छत्तीसगढ़ के मामले में दी गई सूचना में यह वर्णित नहीं था कि अभियुक्त को नजदीकी मजिस्ट्रेट अथवा राजपत्रित अधिकारी के द्वारा तलाशी करवाने के उसके विधिक अधिकार बाबत् अवगत कराया गया था। मात्र यह वर्णित किया गया था कि यदि अभियुक्त चाहता तो किसी नजदीकी मजिस्ट्रेट अथवा एस.डी.ओ. (पी) / सी.एस.पी. के द्वारा उसकी तलाशी की जा सकती थी। इस प्रकार सूचना पत्र में यह वर्णित नहीं था कि अभियुक्त किसी राजपत्रित अधिकारी द्वारा तलाशी करने के उसके अधिकार को चुन सकता था।

    मुख्य आरक्षक अभियोजन साक्षी 9 जो कि ए.एस.आई. के साथ उपस्थित था उसने भी यह अभिसाक्ष्य नहीं दी थी कि अभियुक्त को ए.एस.आई. ने अधिनियम की धारा 50 के अधीन तलाशी करवाने के उसके अधिकार से अवगत कराया था। पद 6 में उसने यह बताया था कि ए.एस.आई. ने अभियुक्त से यह पूछा था कि क्या वह ए.एस.आई. अथवा किसी राजपत्रित अधिकारी के द्वारा तलाशी करवाना पसंद करेगा।

    इस प्रकार इस साक्षी की साक्ष्य से यह दर्शित नहीं होता था कि अभियुक्त को नजदीकी मजिस्ट्रेट के द्वारा तलाशी करवाने के विकल्प को प्रदान किया गया था। एक ओर जहां सूचना पत्र में अधिनियम की धारा 50 के अधीन अभियुक्त को उसके विधिक अधिकार के बाबत अवगत कराए जाने के संबंध में सारवान लोपता थी।

    वहीं दूसरी ओर ए.एस.आई. अभियोजन साक्षी 8 एवं मुख्य आरक्षक अभियोजन साक्षी 9 की साक्ष्य भी स्वखण्डनकारी थी। स्वतंत्र साक्षीगण अभियोजन की कथा का समर्थन नहीं करते थे। मामले के तथ्यों व परिस्थितियों में अधिनियम की धारा 50 व 55 के प्रावधानों का अपालन होना पाया गया। परिणामतः अपील स्वीकार करते हुए अपीलांट को अधिनियम की धारा 22 के आरोप से दोषमुक्त कर दिया गया।

    भोपाराम बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 2005 क्रिलॉज 12 एन.ओ.सी राजस्थान के मामले साक्षी जिसकी उपस्थिति में तलाशी की गई थी उसकी साक्ष्य अभियोजन के इस प्रभाव के मामले में को मिथ्या दर्शाती थी कि अधिनियम की धारा 50 के अधीन सूचना की तामील के पूर्व किसी ने बैग नहीं देखा था जिसमें से कि प्रतिषिद्ध वस्तु बरामद हुआ बताया गया था।

    पुलिस स्टेशन के मालखाना में सीलयुक्त पैकेटों को जमा करने के पूर्व पुनः सील किए जाने को सुझावित करने बाबत कोई साक्ष्य नहीं थी। अभिकथित बरामदगी के उपरांत वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को कोई वरिष्ठ रिपोर्ट निर्वाहित किए जाने बाबत भी साक्ष्य अभाव था। उक्त दशा में अभियोजन का मामला प्रमाणित होना नहीं माना गया। यह अभिमत दिया गया कि अधिनियम की धारा 50, 55 व 57 के प्रावधानों का उल्लंघन था।

    मिनुन्नो वनसेंजो बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश, 2006 क्रिलॉज 2339 हिमाचल प्रदेश के प्रकरण में यह तर्क दिया गया कि अन्वेषण अधिकारी के द्वारा उपयोगित सील को स्वतंत्र साक्षी को सुपुर्द नहीं किया गया था एवं यदि सील अन्वेषण अधिकारी के पास उपलब्ध थी तो उसके लिए किसी भी समय जप्त पदार्थ को बिगाड़ने की संभावना थी। इसके प्रतिउत्तर में अतिरिक्त महाअविधता ने यह तर्क दिया कि उन व्यक्तियों के संबंध में अभिलेख पर समुचित साक्ष्य थी जिन्होंने बरामद पदार्थ को व्यवहृत किया था।

    इसके अलावा यह प्रमाणित करने के लिए भी समुचित साक्ष्य थी कि नमूने को नहीं बिगाड़ा गया था। अपने इस तर्क के समर्थन में अन्वेषण अधिकारी के कथन को संदर्भित किया गया। जिसने स्पष्ट तौर पर बताया था कि ग्रीफकेस जिसमें से कि "चरस" को बरामद किया गया था उसे अभियुक्त ने उसकी चाबी से साक्षीगण अर्थात् चालक एवं परिचालक की उपस्थिति में खोला था और कथित ब्रीफकेस को खोले जाने पर टेबलेट एवं स्टिक्स जो कि पोलीथिन में लपेटी गई थी के रूप में चरस को कपड़ों के अंदर छिपाकर रखा गया था।

    इसके उपरांत अभियुक्त को ब्रीफकेस के साथ पुलिस स्टेशन साक्षीगण के साथ ले जाया गया था जहाँ वजन किए जाने पर कथित "चरस" को 5 किलोग्राम होना पाया गया था। 25-25 ग्राम के दो नमूने प्राप्त किए गए थे और सिगरेट के खाली कार्टून में रखे गए थे। शेष "चरस" को पैक किया गया था व “एच” रुपी 9 सील नमूने के साथ सीलबंद किया गया था। नमूनों को भी सील "एच" के साथ सीलबंद किया गया था। प्रत्येक नमूने में "एच" 3 सीलें थीं।

    उसके द्वारा अन्यथा यह बताया गया था कि रस" के तीनों पैकेट एन. सी. बी. फॉर्म के साथ, अभियुक्त के साथ स्टेशन हाउस ऑफीसर के समक्ष प्रस्तुत किए गए थे। सेम्पल सीलों को भी प्रस्तुत किया गया था। इस साक्षी ने एन.सी.बी. फॉर्म एवं उसके हस्ताक्षर एवं कथित फॉर्म पर सील नमूना "एच" को प्रमाणित किया था। एस.एच.ओ. (अभियोजन साक्षी 4) के कथन पर भी निर्भरता व्यक्त की गई थी जिसने कि केस सम्पत्ति को पुनः सील किया था। इस साक्षी ने यह बताया था कि चरस के नमूना पैकेट को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की सील के साथ सीलबंद किया गया था व एम.एच.सी. को सुरक्षित अभिरक्षा के लिए सौंपा गया था।

    उसने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के द्वारा जारी प्रमाण पत्र को भी प्रमाणित किया था। इस पर उसने उसके हस्ताक्षर होने को भी पहचाना था। इसके अलावा अ.सा. 3 ने विनिर्दिष्ट तौर पर यह बताया था कि मामले की सम्पत्ति को बिगाड़ा नहीं गया था। यह साक्ष्य बिना कंपन के रही थी। इन महत्वपूर्ण साक्षीगण को ऐसा कोई सुझाव नहीं दिया गया था कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत मामले की सम्पत्ति का भारी मात्रा में जप्त पदार्थ से कोई संबंध नहीं था। मात्र इस तरह के तर्क के सिवाय कि इस प्रभाव की कोई साक्ष्य नहीं थी कुछ होना नहीं पाया गया।

    इसके विपरीत अभियोजन साक्षीगण की साक्ष्य जो कि ऊपर वर्णित की गई है उसे सत्यपूर्ण एवं साखपूर्ण होना माना गया। इस पर अविश्वास करने का कोई कारण होना नहीं पाया गया। इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियोजन युक्तियुक्त संदेह से परे यह प्रमाणित करने में विफल रहा था कि नमूने को बिगाड़ा नहीं गया था।

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