एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 25: एनडीपीएस एक्ट धारा 42 के आदेशात्मक प्रावधान

Shadab Salim

8 March 2023 10:37 AM GMT

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 25: एनडीपीएस एक्ट धारा 42 के आदेशात्मक प्रावधान

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 42 के अधीन पुलिस अधिकारियों एवं अन्य शासन द्वारा प्राधिकृत अधिकारियों को बगैर वारंट के गिरफ्तारी एवं जप्ती की शक्तियां दी गई है। इस धारा के अंतर्गत दी गई प्रक्रिया का पालन आदेशात्मक है अर्थात उसका किसी भी स्थिति में होना चाहिए अन्यथा शासन अपना प्रकरण संदेह से परे प्रमाणित करने में असफल मानी जाती है। इस आलेख के अंतर्गत इस धारा के ऐसे ही आदेशात्मक प्रावधानों से संबंधित निर्णय पर विमर्श किया जा रहा है।

    अधिनियम की धारा 42 के प्रावधान की प्रकृति आदेशात्मक मानी गई अतः इसका पालन किया जाना चाहिए।

    मो. मलेक बनाम प्रांजल बरदलाय, 2005 क्रिलॉज, 2613 सुप्रीम कोर्ट के मामले में अधिनियम की धारा 42 के आदेशात्मक प्रावधानों के उल्लंघन के आधार पर आपराधिक कार्यवाही अपास्त करवाना चाही थी यह अभिमत दिया गया कि अधिनियम की धारा 42 के प्रावधान संबंधी प्रश्न की प्रकृति तथ्य के प्रश्न की कोटि में आती है। इसका अवधारण साक्ष्य के मूल्यांकन उपरांत ही किया जा सकता है कि क्या इस प्रावधान के अपालन का मामला था। मामले में अभी साक्ष्य प्रस्तुत होना शेष थी। परिणामतः वर्तमान प्रक्रम पर उक्त अभिवाक् के आधार पर कार्यवाही अपास्त करने से अनिच्छा व्यक्त की गयी।

    स्टेट ऑफ पंजाब बनाम बलवीर सिंह, 1994 (3) सुप्रीम कोर्ट केस 299 के मामले में अधिनियम की धारा 42(1) के अधीन यदि पूर्व सूचना किसी व्यक्ति के द्वारा सशक्त अधिकारी को दी गई हो तो उसे आवश्यक तौर पर इसे लिखित में लेखबद्ध करना चाहिए परंतु यदि उसे यह विश्वास करने का कारण उसकी व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर है कि अध्याय 4 के अधीन अपराध कारित किया गया है अथवा उस सामग्री को जो कि ऐसे अपराध को कारित करने के संबंध में साक्ष्य प्रदान कर सकती है किसी भवन आदि में छुपाया गया है तो वह सूर्योदय एवं सूर्यास्त के मध्य बिना वारंट प्राप्त किए गिरफ्तारी अथवा तलाशी कर सकता है।

    यह प्रावधान यह आदेशित नहीं करता है कि उसे उसके विश्वास के कारणों को अभिलिखित करना चाहिए। परंतु अधिनियम की धारा 42 (1) के परंतुक के अधीन यदि ऐसा अधिकारी ऐसी तलाशी को सूर्योदय एवं सूर्यास्त के मध्य करता है तो उसे इसके विश्वास के कारणों को अभिलिखित करना चाहिए। इस सीमा तक इस प्रावधान को आदेशात्मक होना माना गया और इसका उल्लंघन अभियोजन के मामल को प्रभावित करेगा व विचारण को दूषित करेगा।

    जी. श्रीनिवास बनाम स्टेट ऑफ आन्ध्रप्रदेश, 2006 (2) क्राइम्स 647 उड़ीसा के प्रकरण में अधिनियम की अनुसूची के तहत वर्जित औषधि डाइजेपाम (Diazepam) की बीच के दौरान की मात्रा बरामद हुई थी। अपीलांट की दोषसिद्धि की गई थी। इसे चुनौती देते हुए अपील प्रस्तुत की गई। अपीलांट की ओर से मुख्य तर्क अधिनियम की धारा 42 के प्रावधान के अपालन हुए अपील के बाबत था।

    इसमें 2 तरफ से हमला किया गया था। प्रथम यह कि प्रतिषिद्ध वस्तु प्रश्नगत स्थल में स्टोर किए जाने के बाबत जानकारी को अभिलिखित नहीं किया गया था। दूसरा यह है कि अधिनियम की धारा 42 की उपधारा (2) के अनुसार सूचना की प्रतिलिपि को तात्कालिक वरिष्ठ अधिकारी को नहीं भेजा गया था जहाँ तक प्रथम तर्क का संबंध था इसका उत्तर जब्ती पत्रक की कार्यवाही के संदर्भ से दिया गया।

    यह प्रदर्श पी-1 के रुप में था जिसमें अधिकारी ने अंकित किया था कि उसे "भवन क्रमांक.. में डाइजेपाम (Diazepam) के स्टोरेज व आधिपत्य के संबंध में विश्वसनीय जानकारी प्राप्त हुई है।" अधिकारी ने अन्यथा यह अंकित किया था कि न्यायालय से तलाशी वारंट प्राप्त करने के लिए समय नहीं था और विलंब किए जाने पर सामग्री के लुप्त होने की स्थिति प्रतीत होती है। उसने जानकारी को सही होने का विश्वास किया था और इसलिए उसने स्थल पर छापा डालने का तय किया था। हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि उसका यह विचार है कि इसे प्रावधान के समुचित पालन की कोटि में समझा जाना चाहिए। जहां तक द्वितीय बिन्दु का प्रश्न था।

    यह बिन्दु अपीलांट अभियुक्तगण की ओर से इनला किए जाने का मुख्य बिन्दु था। तर्क यह था कि छापा संचालित करने वाले अधिकारी ने उसे प्राप्त जानकारी की प्रतिलिपि को उसके वरिष्ठ तात्कालिक अधिकारी को नहीं भेजी थी जैसी कि अधिनियम की धारा 42 (2) की अपेक्षा होती है और इस प्रावधान के कारण अभियोजन का मामला विफल होना चाहिए इस तर्क को व्यवहत करते समय अधिनियम की धारा 41 व 42 के प्रावधानों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण किया जाना चाहिए ऐसा अभिमत दिया गया।

    इन धाराओं को अध्याय 5 में होना पाया जाता है। जिसका कि शीर्षक "प्रक्रिया" है। यह अध्याय प्रतिषिद्ध वस्तुओं की तलाशी व जब्ती के संबंध में प्रक्रिया को व्यवहुत करता है। अधिनियम की धारा 41 (1) गिरफ्तारी एवं तलाशी वारंट जारी किए जाने के संबंध है। इस बाबत मेट्रोपोलिटिन मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी अथवा द्वितीय श्रेणी के को सशक्त किया गया है। अधिनियम की धारा 41 (1) धारा में वर्णित मजिस्ट्रेटों को किसी व्यक्ति की अथवा किसी स्थल की तलाशी के लिए वारंट जारी करने के लिए सशक्त करती है।

    अधिनियम की धारा 41(2) विभिन्न शासकीय विभागों के राजपत्रित रैंक के अधिकारियों के द्वारा गिरफ्तारी, तलाशी व जब्ती के लिए प्राधिकार पत्र जारी करने को संदर्भित करती है। प्राधिकार पत्र के आधार पर प्राधिकृत अधिकारीगण को गिरफ्तारी को करना होता है एवं तलाशी व जब्ती को करना होता है। अधिनियम की धारा 42 गिरफ्तारी, तलाशी व जब्ती के संबंध है। अधिनियम की धारा 42 (1) जैसा कि इसके शीर्षक से सुझावित होता है।

    यह अधिनियम की धारा 41 (1) अथवा धारा 41 (2) के अधीन बिना वारंट के अथवा प्राधिकार के तलाशी व जब्ती को किए जाने के मामलों में प्रयोज्य होती है। यह तलाशी जप्ती व गिरफ्तारी की सामान्य शक्ति होती है। अधिनियम की धारा 42 "राजपत्रित रैंक के अधिकारीगण" शब्दों का उपयोग नहीं करती है। यह सभी सत अधिकारीगण जो कि नारकोटिक्स कस्टम रेवेन्यू इंटेलीजेंसी अथवा अन्य केन्द्रीय सरकार के किसी अन्य विभाग के हों जिसमें कि पार्लियामेंट्री एवं आर्म फोर्स के अधिकारीगण भी शामिल है एवं राज्य सरकार के अधिकारीगण भी शामिल हैं, को आच्छादित करती है। जो महत्वपूर्ण है वह यह है कि अधिनियम की धारा 12 (1) के अधीन कार्य करने वाले अधिकारीगण बिना प्राधिकार के कार्य करते हैं।

    चूंकि अधिकारीगण बिना प्राधिकार के कार्य करते हैं अतः उपधारा (2) उस जानकारी की प्रतिलिपि को भेजने की अपेक्षा करती है जिस पर कि वे कार्यवाही करते हैं जिसे उस समय जबकि यह प्राप्त होती है लिखित में अंकित किया जाना अपेक्षित होता है। जानकारी को उनके तात्कालिक वरिष्ठ अधिकारियों को भेजा जाता है। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या यह आवश्यक है कि राजपत्रित रैंक के अधिकारीगण को अधिनियम की धारा 42 (2) का पालन करना चाहिए अर्थात् लिखित जानकारी को तात्कालिक वरिष्ठ अधिकारी को 72 घंटे के भीतर भेजना चाहिए।

    अभियुक्तगण के विद्वान अधिवक्ता के अनुसार अधिनियम की धारा 42(2) आदेशात्मक है और यह सभी अधिकारीगण को आच्छादित करती है जिसमें कि राजपत्रित रैंक के अधिकारीगण भी शामिल हैं। यह राजपत्रित एवं गैर राजपत्रित अधिकारीगण के मध्य कोई भिन्नता नहीं दर्शाती है। इसलिए सभी सशक्त अधिकारीगण को अधिनियम की धारा 42 (2) के प्रावधानों का पालन करना चाहिए।

    उच्च न्यायालय ने व्यक्त किया कि अधिनियम की धारा 41 (2) से यह दिखाई देगा कि यह मात्र राजपत्रित रैंक के अधिकारीगण को संदर्भित करती है और यह ऐसे अधिकारीगण है जो कि उनके अधीनस्थ को जो कि प्यून, सिपाही अथवा आरक्षक से अनिम्न पद के न हों, को गिरफ्तारी, तलाशी अथवा जब्ती के लिए प्राधिकृत कर सकते हैं।

    गिरफ्तारी, तलाशी एवं जब्ती का कृत्य जो कि अधिनियम की धारा 42 (1) के अधीन किया जाता है ऐसे अधिकारीगण के द्वारा होता है जिनके पास वारंट नहीं होता है अथवा जिनके हाथों में किए जाने वाली कार्यवाही के पूर्व अधिकार पत्र नहीं होता है। इस धारा का शीर्षक इस प्रकार दिखाई देता है-

    "बिना वारंट अथवा प्राधिकार के प्रवेश करने, तलाशी करने, जब्ती करने अथवा गिरफ्तार करने की शक्ति"

    अधिनियम की धारा 41 के अधीन मजिस्ट्रेटगण को विनिर्दिष्ट किया गया है जो कि यह जो कि गिरफ्तारी वारंट जारी करता है और यह राजपत्रित रैंक के अधिकारीगण है जो उनके अधीनस्थों के पक्ष में प्राधिकार प्रदान करते हैं। अधिनियम की धारा 42 (2) के प्रावधान ऐसे मामलों को आच्छादित करने के लिए आशयित हैं जो कि अधिनियम की धारा 42 (1) के अधीन आते हैं।

    इसलिए यह अभिमत दिया गया कि अधिनियम की धारा 42 (2) के अधीन होने वाली अपेक्षा को गिरफ्तारी, जब्ती एवं तलाशी के मामलों में जबकि राजपत्रित रैंक के अधिकारीगण के द्वारा यह की जाए विस्तारित करने की आवश्यकता नहीं है। राजपत्रित रैंक का अधिकारी जब उसके जूनियर अधिकारीगण को अधिनियम की धारा 41 (2) के अधीन प्राधिकृत करता है तो वह जानता है कि उनसे क्या करने की अपेक्षा है और इसलिए रिपोर्टिंग करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है। इस कारण से अधिनियम की धारा 41 में ऐसी कोई अपेक्षा को अंतर्निहित नहीं किया गया है।

    अधिनियम की धारा 42 (2) के अधीन रिपोर्टिंग करने की आवश्यकता उत्पन्न होती है क्योंकि अधिकारी अधिनियम की धारा 41 (1) अथवा धारा 41(2) के अनुसार बिना प्राधिकार के कार्यवाही करता है। निष्कर्ष के तौर पर यह बताया गया कि अधिनियम की धारा 42 (2) के अधीन तात्कालिक वरिष्ठ अधिकारी को सूचित करने की अपेक्षा को मात्र ऐसे मामलों तक सीमित किया जाना चाहिए जहाँ कि बिना प्राधिकार के राजपत्रित अधिकारीगण से निम्न रैंक के अधिकारीगण के द्वारा कार्यवाही की जाती है। अधिनियम की धारा 42 (2) के प्रावधान की प्रकृति आदेशात्मक मानी गई।

    अधिनियम के निम्न प्रावधानों को आदेशात्मक माना गया- धारा 42,धारा 50,धारा 52 एवं अधिनियम की धारा 57 को स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश बनाम सोरन सिंह, 1998 क्रिलॉज 1829 हिमाचल प्रदेश पूर्णपीठ के मामले में उक्त आदेशात्मक प्रावधानों का पालन होना नहीं पाया गया था। परिणामतः अधिनियम की धारा 15 के अपराध में दोषमुक्ति की गई। प्रावधान को आदेशात्मक स्वरुप का माना गया।

    सेंट्रल ब्यूरो ऑफ नारकोटिक्स नीमच बनाम धन्ना, 2002 (2) म.प्र.वी. नो. 160 म.प्र के मामले में कहा गया है कि इस बाबत सुस्थापित विधि है कि धारा 42 के प्रावधान आदेशात्मक हैं और आदेशात्मक प्रावधान का यदि अपालन होना पाया जाता है तो अभियोजन दूषित हो जाता है। इस प्रकार की जानकारी पर आधारित विचारण भी दूषित हो जाता है और अभियुक्त दोषमुक्ति का हकदार हो जाता है।

    एक अन्य प्रकरण में कहा गया है कि जहाँ अधिनियम की धारा 42 के प्रावधान आकर्षित होते हैं तो इनका पालन किया जाना आदेशात्मक होगा।

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