एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 19: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत होने वाले अपराधों की उपधारणा

Shadab Salim

6 Feb 2023 1:26 PM GMT

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 19: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत होने वाले अपराधों की उपधारणा

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 35 इस अधिनियम की महत्वपूर्ण धाराओं में से एक है क्योंकि यह उपधारणा के संबंध में उल्लेख करती है। जैसा कि पूर्व में यह उल्लेख किया गया है कि एनडीपीएस एक्ट भारत में प्रचलित कठोर कानूनों में से एक है। ऐसा इसलिए कहा गया है क्योंकि इस अधिनियम के अंतर्गत होने वाले अपराधों में अभियोजन पक्ष को मामला युक्तियुक्त संदेह के परे साबित नहीं करना होता अपितु अभियुक्त को यह सिद्ध करना होता है कि वे प्रकरण में झूठा फंसाया गया है। प्रकरण में स्वयं को निर्दोष साबित करने का भार अभियुक्त पर होता है। अदालत यह उपधारणा लेकर चलती है कि उक्त अपराध अभियुक्त द्वारा किया ही गया है। इस आलेख के अंतर्गत विभिन्न अदालतों एवं सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णयों के प्रकाश में विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

    धारा 35. आपराधिक मानसिक दशा की उपधारणा (1) इस अधिनियम के अधीन किसी ऐसे अपराध के किसी अभियोजन में, जिसमें अभियुक्त की मानसिक दशा अपेक्षित है, न्यायालय यह उपधारणा करेगा कि अभियुक्त की ऐसी मानसिक दशा है किंतु अभियुक्त के लिए यह तथ्य साबित करना एक प्रतिरक्षा होगी कि उस अभियोजन में अपराध के रूप में आरोपित कार्य के बारे में उसकी वैसी मानसिक दशा नहीं थी।

    स्पष्टीकरण- इस धारा में "आपराधिक मानसिक दशा" के अंतर्गत आशय, हेतु, किसी तथ्य का ज्ञात और किसी तथ्य में विश्वास या उस पर विश्वास करने का कारण है।

    (2) इस धारा के प्रयोजन के लिए कोई तथ्य केवल तभी साबित किया गया कहा जाता है जब न्यायालय युक्तियुक्त संदेह से परे यह विश्वास करे कि वह तथ्य विद्यमान है और केवल इस कारण नहीं कि उसकी विद्यमानता अधिसंभाव्यता की प्रबलता के कारण सिद्ध होती है।

    ज्ञानचन्द बनाम स्टेट, 2005 क्रिलॉज 3228 इलाहाबाद के मामले में साक्षीगण से प्रतिपरीक्षण किए जाने पर ऐसा कुछ हासिल नहीं हुआ था जिससे यह प्रमाणित किया जा सके कि अभियुक्त का भानपूर्वक आधिपत्य नहीं था अभियुक्त के विरुद्ध होने वाली उपधारणा को खंडित किए जाने के संबंध में भी अन्य कोई विश्वसनीय सामग्री नहीं थी। परिणामतः मामले में अधिनियम की धारा 35 व 54 के तहत उपधारणा उपलब्ध होना मानी गई।

    विनोद कुमार बनाम एस के श्रीवास्तव, 2006 क्रिलॉज 1769 देहली के मामले में कहा गया है कि जब एक बार आधिपत्य होना प्रमाणित कर दिया जाता है तो व्यक्ति जो कि यह दावा करता है कि उसका भानपूर्वक आधिपत्य नहीं था उस पर यह प्रमाणित करने का भार होगा क्योंकि वह आधिपत्य में कैसे आया इसकी विशेष जानकारी उसे होगी। अधिनियम की धारा 35 इस तरह की स्थिति को वैधानिक मान्यता प्रदान करती है कि क्योंकि विधि में उपधारणा उपलब्ध होती है और समान तरह की स्थिति धारा 54 के अनुसार है जहाँ भी अवैध पदार्थों के आधार से उपलब्ध उपधारणा को निकाला जा सकता है।

    बूटी बनाम स्टेट ऑफ एमपी, आईएलआर 2011 म.प्र. 511 के मामले कहा गया है कि जब आधिपत्य को प्रमाणित कर दिया गया हो तो जो व्यक्ति यह दावा करता है कि उसका भानपूर्वक आधिपत्य नहीं था तो उसे यह तथ्य प्रमाणित करना होगा कि वह इसके आधिपत्य में कैसे आया था क्योंकि इसकी विशेष जानकारी उसे ही होगी। अधिनियम की धारा 35 इस स्थिति को एक वैधानिक मान्यता प्रदान करती है क्योंकि विधि में उपधारणा उपलब्ध है। समान तरह की स्थिति अधिनियम की धारा 54 में भी है जो कि प्रतिषेधित वस्तु के आधिपत्य के संबंध में उपधारणा उपलब्ध कराती है।

    युक्तियुक्त संदेह से परे मामला प्रमाणित किया जाना आवश्यक

    मलूक खान बनाम स्टेट ऑफ एमपी, 1999 (2) मप्र लॉज 243 म.प्र के मामले में अधिनियम की धारा 35 की उपधारा (1) यह प्रावधानित करती है कि अधिनियम के अंतर्गत अपराध के किसी अभियोजन में जिसमें अभियुक्त की आपराधिक मानसिक दशा अपेक्षित होती है को न्यायालय ऐसी मानसिक दशा के अस्तित्व के बाबत उपधारणा करेगा। परंतु अभियुक्त को यह प्रतिरक्षा लेने का अधिकार होगा कि वह यह प्रमाणित कर सके कि उसकी ऐसी मानसिक दशा नहीं थी। इस उपधारा में दिए गए स्पष्टीकरण में आपराधिक मानसिक दशा में आशय हेतु, सत्य की जानकारी एवं विश्वास शामिल होता है अथवा सत्य के विश्वास होने का कारण शामिल होता है।

    अधिनियम की धारा 35 (2) यह प्रावधानित करती है कि इस धारा के प्रयोजन के लिए सत्य को मात्र उस दशा में प्रमाणित होना कहा जाता है जबकि न्यायालय युक्तियुक्त संदेह से परे इसके अस्तित्व के बाबत विश्वास करता है न कि मात्र इस आधार पर जबकि उसे अधिसंभाव्यता की प्रबलता के आधार पर प्रमाणित किया गया हो। म.प्र हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि इन दोनों वापसियों को उचित तौर पर समझा जाना चाहिए व विधायिका की उनको सृजित करने की रीति की भावना में उसको उचित तौर पर समझा जाना चाहिए।

    विपिन बनाम स्टेट ऑफ गुजरात, 1996 (2) म.प्र.वी. नो. 133. सुप्रीम कोर्ट के मामले में अधिनियम की धारा 35 के प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 (2) के परंतुक के प्रावधान की प्रयोज्यता अपवर्जित नहीं करते हैं। परंतु यह स्पष्ट किया गया कि यदि अभियुक्त अभियोजन के द्वारा विधि में अनुज्ञात अधिकतम अवधि के भीतर चार्जशीट प्रस्तुत करने में विफलता के कारण जमानत पर निर्मुक्त होने के उसके अधिकार का उपयोग करने में विफल रहता है तो वह यह तर्क नहीं दे सकता कि उसे किसी भी समय जमानत पर निर्मुक्त होने का अपराजेय अधिकार है। यह नहीं कहा जा सकता है कि इस दौरान यदि चालान प्रस्तुत कर दिया गया हो तो भी उसे जमानत पर निर्मुक्त करने का अधिकार होगा। परंतु दूसरी ओर यदि अभियुक्त ने विधि के द्वारा अनुज्ञात समय के भीतर उसके अधिकार का उपयोग कर लिया हो और वह जमानत पर निर्मुक्त कर दिया गया हो तो ऐसी स्थिति में मात्र इस आधार पर कि चार्जशीट फाइल कर दी गई है। उसे पुनः गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है।

    मोहम्मद अख्तर बनाम स्टेट ऑफ एम.पी, 1999 (2) म.प्र. लॉज 525:1999 (2) जे.एल.जे. 287 म.प्र के मामले में आधिपत्य के तत्व को स्पष्ट किया गया। अभियोजन से भौतिक नियंत्रण को प्रमाणित करने की अपेक्षा की जाती है और तब जानकारी होने की उपधारणा की जाती जाएगी। जब तक कि अभियुक्त के द्वारा इसे अप्रमाणित न कर दिया गया हो। यह व्यक्त किया गया कि अभियोजन के लिए "जानकारी" को प्रमाणित करना व्यवहारिक तौर पर असंभव होगा। यह भार अभियोजन से अभियुक्त पर शिफ्ट हो जाता है।

    इसका कारण यह है कि इस सत्य की जानकारी की वह प्रतिषिद्ध वस्तु की भौतिक अभिरक्षा में कैसे आया था। अभियुक्त की ही जानकारी में होता है। इस संबंध में साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के प्रावधान पर भी निर्भरता व्यक्त की गई। साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 यह दर्शाती है कि निष्कर्ष के तौर पर यह बताया गया कि यदि जानकारी को प्रमाणित करने का भार भी अभियोजन पर डाल दिया गया तो ऐसी स्थिति में अधिनियम की धारा 35 का जो उपधारणात्मक खंड है वह व्यर्थ हो जाएगा।

    मलूक खान बनाम स्टेट ऑफ एम.पी.1999 (2) म.प्र. लॉज. 243 म.प्र. के प्रकरण में प्रावधान का निर्वाचन किया गया। अधिनियम की धारा 35 की उपधारा (1) के स्पष्टीकरण में सन्निहित "तथ्य" का निर्वाचन किया गया। इस तथ्य को मात्र उस दशा में ही प्रमाणित होना समझा जा सकता है जबकि न्यायालय इसके अस्तित्व के बाबत् भी विश्वास करता है और वह भी युक्तियुक्त संदेह से परे इसका अभिप्राय यह है कि अभियोजन तर्कपूर्ण विश्वसनीय व स्वीकारयोग्य साक्ष्य से इसे प्रमाणित करने के लिए आबद्ध होता है। यह प्रमाणित किया जाना चाहिए कि लांछित व्यक्ति को कथित तथ्य की जानकारी थी अथवा वह इसकी जानकारी रखे हुए था और इसे युक्तियुक्त संदेह से परे प्रमाणित किया जाना चाहिए। इसका अभिप्राय यह है कि अन्य प्रतिपादना जो कि ऐसी जानकारी के अस्तित्व न होने को इंगित करती हो उसे दूर किया जाना चाहिए।

    श्रीमती गीवा फतीमत बनाम हरसिंह 2000 क्रिलॉज 48 एनओसी बम्बई के मामले में म्युजिक सिस्टम के स्पीकर में प्रतिषिद्ध वस्तु होना पाई गई थी। अभियुक्त की प्रतिरक्षा यह थी कि उसके पति के मित्र ने म्युजिक सिस्टम को उसके पति को दिए जाने के लिए दिया था। पति के मित्र का पति विदेश में इलैक्ट्रॉनिक्स वस्तु विक्रय का कार्य करता था। अभियोजन ने इस मित्र के संबंध में जांच पड़ताल नहीं की थी इन परिस्थितियों में अभियोजन का मामला संदेह से परे प्रमाणित नहीं माना गया। प्रतिषिद्ध वस्तु के आधिपत्य के बाबत अभियुक्त की जानकारी होना संदेह से परे प्रमाणित नहीं मानी गई। अपराध अप्रमाणित माना गया।

    अब्दुल रशीद बनाम स्टेट ऑफ गुजरात, 2000 (1) सुप्रीम 363 सुप्रीम कोर्ट के मामले में उपधारणा को खंडन हेतु अभियुक्त को स्वयं साक्ष्य देना आवश्यक शर्त नहीं उपधारणा को खंडित करने के लिए अभियुक्त को स्वयं साक्ष्य देना आवश्यक शर्त नहीं है। अभियोजन साक्ष्य से भी वह यह इंगित कर सकता है कि अभियुक्त को अपेक्षित आशय की जानकारी नहीं थी।

    एक मामले में अभियुक्त के निवास स्थल पर रखे हुए बक्से में से प्रतिषेधित वस्तु की बरामदगी हुई थी। अभियुक्त के द्वारा अधिनियम की धारा 35 व 54 में यथाविहित उपधारणा का खंडन नहीं किया गया था। अपराध प्रमाणित माना गया।

    दिनेश बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, आईएलआर 2011 म.प्र. 210 जप्ती पंचनामा प्रमाणित होना नहीं पाया गया। अतः यह प्रमाणित होना नहीं पाया गया कि अभियुक्त हेरोईन के आधिपत्य में था। परिणामतः उपधारणा उत्पन्न होने का प्रश्न नहीं माना गया। दोषमुक्ति की गई।

    मलूक खान के मामले में चार्जशीट के अवलोकन से यह दर्शित होता था कि ट्रक के स्वामी को भी अभियुक्त के रुप में होना इंगित किया गया था। वाहन का स्वामी अहमदाबाद में निवास करता था। ट्रक के चालक को गिरफ्तार नहीं किया गया था। जब छापा की कार्यवाही की गई थी उस समय ट्रक में अथवा ट्रक के सामीप्य में कुछ भी नहीं पाया गया था कि सुपुर्दगीनामे पर सौंपे जाने की प्रार्थना की गई थी। यह निवेदन किया गया था कि बरसात के कारण व मौसम के गलत प्रभाव के कारण ट्रक क्षतिग्रस्त हो जाएगा और इस आधार पर ट्रक के स्वामी को हानि होगी। वाहन को अभिरक्षा में देने की प्रार्थना स्वीकार कर ली गई।

    रामू बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, 2008 क्रिलॉज एनओसी 1243 पंजाब-हरियाणा के मामले में खुले स्थल से प्रतिषिद्ध वस्तु की बरामदगी का मामला था। अभियोजन भानपूर्वक आधिपत्य प्रमाणित करने में विफल रहा था। अपराध अप्रमाणित माना गया।

    पी.यू रेगी बनाम स्टेट वाय सुपरिन्डेंट ऑफ सेन्ट्रल एक्साइज, 2001 (1) क्राइम्स 327 के मामले में अभियुक्त के विरुद्ध यह आरोप था कि उनके द्वारा प्रतिषिद्ध वस्तु की खेती की गई थी। साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया। खेती किए जाने का तथ्य शारीरिक श्रम के अलावा व्यय के तत्व को भी अंतर्निहित करता है। इसके अलावा इस तथ्य को भी रेखांकित किया गया कि अभियोजन यह प्रमाणित करने में विफल रहा था कि अभियुक्त संबंधित खेतों के अनन्य आधिपत्य में था अथवा स्वामी था। इस बिन्दु पर साक्ष्य अभाव में कि अभियुक्तगण के द्वारा प्रतिषिद्ध वस्तु के पौधों की खेती की गई थी उनकी आपराधिक मनः दशा होने की उपधारणा नहीं की जा सकती दोषमुक्ति की गई।

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