धन शोधन निवारण अधिनियम में "सतत अपराध"की परिकल्पना, जानिए क्या कहता है प्रिवेंशनऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट
LiveLaw News Network
12 Sept 2019 8:36 AM IST
धन शोधन की यह व्याख्या उपयोगी है और इससे यह भी पता चलता है कि इंटेग्रेशन के तीसरे चरण की समाप्ति के बाद ही धन शोधन का अपराध मुकम्मल होता है। अदालत ने आगे कहा कि जब कोई व्यक्ति इस अपराध से प्राप्त धन को छिपाकर रखता है, या इसे अपने पास रखता है या इसका प्रयोग करता है तब वह धन शोधन का अपराधी होता है। किसी भी व्यक्ति को धन शोधन के अपराध का दोषी तभी माना जाएगा जब वह इस अधिनियम के प्रभावी होने के बाद इस अपराध को अंजाम दिया है।
भास्कर कुमार
धन शोधन निवारण अधिनियम (Prevention Of Money Laundering Act) याने पीएमएलए। इसके प्रावधानों पर लोगों का ध्यान उस समय गया जब एडवोकेट डॉक्टर एएम सिंघवी ने दलील दी कि इस अधिनियम को पी चिदम्बरम के मामले में पिछले प्रभाव से लागू किया जा रहा है। डॉक्टर सिंघवी ने कहा कि चिदम्बरम पर एक ऐसे अपराध के लिए मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता जो पीएमएलए, 2007 के तहत एक अनुसूचित अपराध नहीं है। हालांकि सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि यह अपराध सतत प्रकृति का है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि इसे पिछले प्रभाव से लागू किया जा रहा है। मेहता ने यह भी कहा कि चूंकि जिस धन का शोधन किया गया उसका प्रयोग अभी भी हो रहा है और आरोपी इस अपराध से प्राप्त धन का अभी तक फ़ायदा उठा रहा है और यह भी पीएमएलए के तहत एक अपराध है।
सिंघवी ने जो दलील दी वह संविधान की इस ताक़त पर आधारित है कि किसी भी दंडनीय क़ानून को पिछले प्रभाव से लागू करना मौलिक अधिकारों का हनन है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(1) में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को सिर्फ़ उस क़ानून के तहत दंडित किया जा सकता है जो अपराध होने के समय प्रभावी होता है और उससे ऐसा जुर्माना भी नहीं वसूला जा सकता जो उस समय प्रभावी क़ानून के तहत वसूले जाने वाले जुर्माने से अधिक है, जब अपराध हुआ। यह बताना ज़रूरी है कि पीएमएलए के प्रावधानों को कई बार अदालत में इस आधार पर चुनौती दी गई है कि इसकी प्रकृति पिछले प्रभाव से लागू होने की है।
अमूमन यह दलील दी जाती है कि धन शोधन अधिनियम के तहत अपराध सतत प्रकृति का होता है और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि यह पिछले प्रभाव से लागू हो रहा है। बिहार राज्य बनाम देओकरन नेन्शी एवं अन्य [AIR 1973 SC 908] मामले में अदालत ने कहा कि सतत प्रकृति का अपराध सामान्य अपराध से अलग है। सतत अपराध जारी रहता है और यह हर बार एक नया अपराध होता है, जब यह जारी रहता है।
महानिवेश ऑयल्स एंड फ़ूड्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम प्रवर्तन निदेशालय [AIR 1973 SC 908] मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि धन शोधन मामले के तहत होने वाले अपराध में पहला पड़ाव प्लेस्मेंट या धन को ठिकाने लगाना है, जिसके तहत अपराधी अपराध से प्राप्त होने वाले धन को सामान्य वित्तीय व्यवस्था में रखता है। दूसरा है लेयरिंग जिसका मतलब हुआ इस अपराध से प्राप्त धन को वित्तीय व्यवस्था के तहत विभिन्न लेनदेन में इसे पसारना ताकि इस धन की उत्पत्ति के बारे में किसी तरह के लिंक का हर निशान समाप्त हो जाए। और तीसरा चरण है इंटेग्रेशन का जिसमें अपराध से होने वाली प्राप्ति का लाभ अपराधी को मिलता है तो यह धान काला नहीं रह जाता और वह पूरी तरह सफ़ेद हो चुका होता है।
धन शोधन की यह व्याख्या उपयोगी है और इससे यह भी पता चलता है कि इंटेग्रेशन के तीसरे चरण की समाप्ति के बाद ही धन शोधन का अपराध मुकम्मल होता है। अदालत ने आगे कहा कि जब कोई व्यक्ति इस अपराध से प्राप्त धन को छिपाकर रखता है, या इसे अपने पास रखता है या इसका प्रयोग करता है तब वह धन शोधन का अपराधी होता है। किसी भी व्यक्ति को धन शोधन के अपराध का दोषी तभी माना जाएगा जब वह इस अधिनियम के प्रभावी होने के बाद इस अपराध को अंजाम दिया है।
इस अपराध से मिलने वाली राशि अगर कोई हासिल करता है और इस अधिनियम के लागू होने के पहले उसे दाग़ रहित धन बताता है तो इस तरह का धन इस अधिनियम की परिधि से बाहर होगा। हरि नारायण राय बनाम भारत संघ एवं अन्य [2010) 3 JLJR 475] मामले में अदालत ने कहा कि सिर्फ़ धन शोधन की तिथि ही पीएमएलए की धारा 3 के तहत संगत है और इसलिए यह बताने के लिए कि शोधित धन दाग़दार नहीं है, धन शोधन की तिथि क़ानून के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकता है पर धन प्राप्त करने की तिथि उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट सहित अन्य अदालतों ने कई मामलों में अपने फ़ैसले में कहा है कि किसी व्यक्ति को ऐसे अपराध के लिए सज़ा नहीं दी जा सकती जो उस समय हुआ जब यह अधिनयम लागू नहीं हुआ था। हालांकि, पीएमएलए का मामला पेचीदा है क्योंकि वित्तीय अधिनियम 2019 में हुआ संशोधन इस अपराध को "जारी रहने" की श्रेणी में रखता है। इस संशोधन के द्वारा निम्नलिखित प्रावधान इस अधिनियम में जोड़ा गया -
(i) अपराध से मिलने वाला धन एक सतत गतिविधि है और यह उस समय तक चलता रहता है जब तक कि कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपराध से मिलने वाले धन को छिपाकर या अपने पास रखकर या उसे प्राप्त कर या उसका प्रयोग करके उसका लाभ उठाता है या यह दावा करता है कि यह परिसंपत्ति किसी भी तरह से दाग़दार नहीं है।
इस संशोधन से "अपराध से प्राप्त धन" की परिधि का भी विस्तार किया गया जिसमें अब उन अपराधों से प्राप्त धन को भी शामिल कर दिया गया जिसका ज़िक्र पीएमएलए में नहीं है। पीएमएलए की धारा 3 धन शोधन के अपराधों से संबंधित है। पहले इसे निम्न तरह से परिभाषित किया गया था
"कोई भी व्यक्ति जो किसी भी तरह से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आपराधिक गतिविधि से प्राप्त धन को छिपाने, रखने या इसे प्राप्त करने या प्रयोग करने या इसके दाग़दार नहीं होने की बात साबित करने सहित इससे जुड़ी अन्य प्रक्रियाओं में जानबूझकर शामिल होता है या जानबूझकर शामिल होने की कोशिश करता है या इसमें सहभागी है या वास्तव में इसमें शामिल है तो उसे धन शोधन अपराध का दोषी माना जाएगा"।
नए संशोधनों के बाद यदि कोई व्यक्ति पीएमएलए की धारा 3 के तहत इसकी एक या एक से अधिक प्रक्रिया में शामिल पाया जाता है तो वह व्यक्ति धन शोधन का दोषी होगा। "किसी भी तरह से" इस वाक्य को शामिल करके इस गतिविधि को अपराध से प्राप्त होने वाले धन से जोड़े रखा गया है ताकि यह एक ऐसा अपराध लगे जो जारी है। गोकाक पटेल वोलकर्ट लिमिटेड बनाम दूँदय्या गुरुशिद्दैया हिरेमठ [(1991) 2 SCC 141] मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सतत अपराध के अर्थ की चर्चा करते हुए कहा कि कोई अपराध जारी है या नहीं यह प्रश्न आवश्यक रूप से क़ानून की भाषा पर निर्भर करता है जो कि उस अपराध को, उसकी प्रकृति को और किसी अधिनियम को बनाकर प्राप्त किए जाने वाले इच्छित उद्देश्यों को तैयार करता है ताकि वह अपराध बने।
इसी तरह भगीरथ कनोरिया एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य [(1984) 4 SCC 222] मामले में अदालत ने दुहराया कि कोई अपराध सतत अपराध है यह उस क़ानून की भाषा और प्रकृति पर निर्भर करता है जो उस अपराध को बनाता है और विशेष रूप से जिस उद्देश्य से इस तरह के अधिनियम को बनाया जाता है। इस तरह, अगर हम इस संशोधन के उद्देश्य को देखें तो यह तब बनाया गया जब वित्तीय कार्रवाई कार्य बाल ने यह कहा कि अपराध से मिलने वाले धन को छिपाना, अपने पास रखना, प्राप्त करना या इसके प्रयोग को पहले पीएमएलए की धारा 3 के तहत अपराध नहीं माना जाता था।
अगर धारा 3 के संशोधित प्रावधानों को अधिनियम की धारा 2(1)(u) के साथ पढ़ा जाए तो अपराध से मिलने वाले धन से जुड़ी प्रक्रिया या गतिविधि तब तक एक सतत अपराध है जब तक कि वह व्यक्ति अपराध से मिलने वाले धन का लाभ उठाता है। दूसरे शब्दों में, धन शोधन से प्राप्त होने वाले धन का अपराध इस धन को कहीं रखने और इसको वित्तीय व्यवस्था में फैलाने से ही समाप्त नहीं हो जाता है बल्कि तब तक यह जारी रहेगा जब तक कि कोई व्यक्ति इस धन का लाभ उठाता रहेगा।
शंकर दस्तिदार बनाम बंजुला दस्तिदार [2006 (13) SCC 470] मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह एक ग़लती के जारी रहने का सार है कि कोई कार्य जिसकी वजह से नुक़सान जारी रहता है जो इस तरह के अपराध को अंजाम देने वालों को सतत नुक़सान के लिए ज़िम्मेदार माना जाएगा। अगर कोई ग़लत कार्य ऐसा नुक़सान पहुँचाता है जो पूर्ण हो गया है तो इस तरह के अपराध से होने वाले ग़लती का नुक़सान जारी नहीं रहता है। इस तर्क के अनुसार धन शोधन का अपराध तब तक एक सतत अपराध है जब तक इसका अपराधी इस अपराध से प्राप्त होने वाले धन का लाभ लेता रहता है। इस तरह, स्पष्टीकरण क्लाउज के धारा 3 में शामिल किए जाने के बाद इस बारे में किसी भी तरह के भ्रम को दूर किया गया है और यह नहीं कहा जा सकता कि वर्तमान मामले में इसके प्रावधानों को पिछले प्रभाव से लागू किया गया है।
(लेखक नेशनल लॉ स्कूल ऑफ़ इंडिया यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु में क़ानून के तीसरे वर्ष के छात्र हैं)