विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम (Specific Relief Act) भाग 2: विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के अंतर्गत संपत्ति के कब्ज़े का प्रत्युद्धरण (Recovery) क्या होता है
Shadab Salim
24 Nov 2020 11:49 AM IST
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 संपत्ति के कब्जे का प्रत्युद्धरण के लिए व्यवस्था करता है। अधिनियम की धारा 5, 6 स्थावर संपत्ति के प्रत्युद्धरण के बारे में उपबंध करती है तथा धारा 7 धारा 8 जंगम संपत्ति के प्रत्युद्धरण के बारे में उपबंध करती है।
विनिर्दिष्ट स्थावर संपत्ति का प्रत्युद्धरण विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 की धारा 5 के अनुसार जो व्यक्ति किसी विशेष संपत्ति के कब्जे का हकदार है वह सिविल प्रक्रिया संहिता 1960 द्वारा उपबंधित प्रकार से उसका प्रत्युद्धरण कर सकता है।
स्थावर संपत्ति के प्रत्युद्धरण के संबंध में अधिनियम के भाग 2 के अध्याय एक में दो प्रकार के उपबंध है। पहले प्रकार का उपबंध कब्जे के हक पर आधारित है तथा इसका वर्णन धारा 5 में किया गया है तथा दूसरे प्रकार का उपबंध कब्ज़े पर आधारित है तथा इसके संबंध में विधि धारा 6 में वर्णित है।
जब कभी किसी व्यक्ति को उसके कब्जे की संपत्ति में से निकाल दिया जाता है वहां पर विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 5, 6, 7 और 8 के अनुसार न्याय प्रदान किया जाता है।
वी श्रीनिवासन राजू अन्य बनाम भारत इलेक्ट्रॉनिक लिमिटेड अन्य के प्रकरण में अपीलार्थी ने संपत्ति के स्वामित्व एवं कब्जे की घोषणा के लिए वाद किया था क्योंकि उसके अनुसार प्रत्यार्थी ने अनधिकृत कब्जा कर रखा था तथा परीक्षण न्यायालय ने साक्ष्य पर पूर्ण विचार करे बगैर प्रत्यार्थी के पक्ष में डिक्री पारित की थी। उच्च न्यायालय ने अपील में सभी मौखिक तथा अन्य साक्ष्य पर पूरी तरह विचार करके निर्णय दिया की संपत्ति अपीलार्थी के कब्जे में नहीं थी तथा प्रत्यार्थी ने अनधिकृत कब्जा नहीं किया था। यह निर्णय तथ्यों के आधार पर दिया गया था। उच्चतम न्यायालय ने हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया किसी भी संपत्ति में उस संपत्ति का कब्जा सबसे पहला साक्ष्य होता है जिस व्यक्ति के पास कब्जा होता है उसे संपत्ति का स्वामी होने की अवधारणा की जाती है।
किसी स्थावर संपत्ति से बेक़ब्ज़ा किए गए व्यक्ति द्वारा वाद
जब कभी किसी स्थावर संपत्ति से किसी व्यक्ति को बे कब्जा किया जाता है या उसे निकाल दिया जाता है तो ऐसी स्थिति में विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 के माध्यम से वह न्यायालय की शरण ले सकता है।
इस अधिनियम के माध्यम से वह कब्जे के लिए वाद प्रस्तुत कर सकता है। धारा 6 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति अपनी सहमति के बिना स्थावर संपत्ति से विधि के अनुक्रम से अन्यथा बेकब्जा कर दिया जाए तो वह अथवा उसके उत्पन्न अधिकार द्वारा दावा करने वाला कोई भी व्यक्ति किसी अन्य से हटके होते हुए भी जो इसे वाद में खड़ा किया जा सकें उसको कब्जा वाद द्वारा प्रत्युद्धरण कर सकेगा।
इस धारा के अधीन कोई भी बात बेकब्जा किए जाने की तारीख से 6 महीने के बीत जाने के बाद अथवा सरकार के विरुद्ध नहीं लाया जा सकता। इस धारा के अधीन किए गए किसी वाद में पारित किसी भी आदेश व डिक्री के विरुद्ध कोई अपील होगी और न ही ऐसे किसी आदेश डिक्री का कोई अनुज्ञात होगा।
धारा की कोई भी बात किसी भी व्यक्ति को ऐसी स्थावर संपत्ति पर अपना हक स्थापित करने के लिए वाद लाने से उसके कब्जे का प्रत्युद्धरण करने से वंचित नहीं करेगी। धारा 6 महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रतिपादित करती है, पहला सिद्धांत यह है कि विवादास्पद अधिकार विधि के समक्ष अनुक्रम में निर्मित किए जाने चाहिए, दूसरा सिद्धांत यह है कि यदि व्यक्ति का किसी संपत्ति पर कब्जा है तो कब्जे के स्त्रोत पर ध्यान दिए बिना उसके कब्जे को संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।
दूसरे शब्दों में इस धारा का उद्देश्य है कि यदि किसी व्यक्ति का संपत्ति पर कब्जा है तो उसे केवल कानूनी प्रक्रिया द्वारा ही बेदखल किया जा सकता है। इस प्रकार यह धारा लोगों को कानून अपने हाथ में लेने से रोकती है। यह धारा वर्तमान कब्जे को बहुत महत्व देती है तथा उसे संरक्षण प्रदान करती है चाहे उसके विरुद्ध कोई भी हक खड़ा किया जाए। यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के वर्तमान कब्ज़े के विरुद्ध किसी हक का दावा करता है तो वह कानूनी प्रक्रिया द्वारा दावा सिद्ध करके ही कब्जा प्राप्त कर सकता है। इस धारा के अंतर्गत कब्जा पुनः प्राप्त करके वही व्यक्ति वाद करने का अधिकारी है जिसका कब्जा वैध हो।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 के अंतर्गत धारा 6 की वह आवश्यक बातें जिनसे इस धारा का प्रारूप बनता है-
अधिनियम की धारा 6 का अध्ययन करने के उपरांत कुछ ऐसे आवश्यक तत्व नजर आते हैं जिनका होना इस धारा के लिए आवश्यक होता है।
1)- संपत्ति से बेकब्जा किए जाने के समय वादी का कब्जा वैध होना चाहिए। कोई भी अवैध कब्जा इस धारा के अंतर्गत पुनः वापस नहीं दिलाया जाता है।
2)- वादी को उसकी संपत्ति से उसकी सहमति के बगैर बेदखल किया जाता है। यदि वादी ने अपनी सहमति स्वतंत्र रूप से नहीं दी है तथा उसकी सहमति के बगैर उसे कब्जे से बेदखल कर दिया गया है तो विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 6 के अनुसार वह कब्जा पुनः प्राप्त करने का अधिकारी है।
3)- यदि वादी को उसकी संपत्ति से बेदखल विधि के सम्यक अनुक्रम में न किया गया हो अर्थात किसी भी व्यक्ति को जब किसी संपत्ति के कब्जे से बेदखल किया जाता है तो विधि द्वारा स्थापित कोई प्रक्रिया होती है उसके अनुक्रम में ही उसे बेदखल किया जाता है। यदि इस प्रकार की प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है तो व्यक्ति को उसकी संपत्ति से बेदखल किया जाना अवैध होगा।
4)- यदि वादी को बेकब्जा करते समय उसका कब्जा वैध था तथा उसे विधि के अनुक्रम के बिना बेक़ब्ज़ा किया गया था तो वह कब्जा पुनः प्राप्त करने के लिए वाद कर सकता है भले ही ऐसे वाद में उसके विरुद्ध कोई अन्य क्यों न खड़ा किया जाए।
5)- कब्जा पुनः प्राप्त करने के लिए वाद बेकब्जा किए जाने की तारीख से 6 माह के भीतर किया जाना चाहिए। यहां पर इस धारा के अंतर्गत वादी को एक समय सीमा दी गई है इस परिसीमा के बाधित हो जाने पर कोई भी व्यक्ति मुकदमा नहीं कर सकता है। जिस दिन उसे संपत्ति से बेदखल किया गया है बेकब्जा किया गया है उस दिवस से 6 माह के भीतर उसे वाद दाखिल करना होता है।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 6 के अंतर्गत सरकार के विरुद्ध कोई वाद नहीं लाया जा सकता है कब्जा प्राप्त करने के लिए प्रक्रिया वही होती है जो सिविल प्रक्रिया संहिता में दी गई है।
एमएस जगदम पाल बनाम साउदर्न इंडियन एजुकेशन ट्रस्ट एआईआर 1988 एससी 103 के वाद में धारा 6 के अंतर्गत कब्जा प्राप्त करने के लिए वाद संस्थित किया गया था। वादी का कहना था कि भूमि उसके पति ने खरीदी थी तथा उसके जीवन काल में भूमि उनके कब्जे में थी तथा उनकी मृत्यु के बाद भूमि पर उसका कब्जा था। वादी के अनुसार प्रत्यार्थी जो पड़ोस की भूमि के स्वामी थे ने अतिचार करके उसे बेकब्जा कर दिया। ट्रायल कोर्ट ने तथ्यों के आधार पर निर्णय लिया कि बेकब्जा किए जाने के पूर्व भूमि वादी के कब्जे में थी।
दूसरी और प्रत्यार्थी का कहना था कि वादी का संपत्ति पर कोई हक नहीं था। उन्होंने तर्क किया कि उन्होंने कोई अतिचार नहीं किया वरन उन्हें संपत्ति प्रतिकूल कब्जा द्वारा प्राप्त हुई क्योंकि वाद के पूर्व 12 वर्षों तक वादी का कब्जा नहीं था परंतु ट्रायल कोर्ट ने निर्णय दिया कि प्रत्यार्थी ने प्रतिकूल कब्जे द्वारा संपत्ति प्राप्त नहीं की थी। इस प्रकार परीक्षण न्यायालय ने निर्णय वादी के पक्ष में दिया परंतु उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने वाद की संभावना पर विचार किए बिना तथा उन बातों पर ध्यान दिए बिना जिनको परीक्षण न्यायालय महत्व दिया था निर्णय को उलट दिया।
उच्च न्यायालय के इस निर्णय के विरुद्ध वादी ने यह अपील उच्चतम न्यायालय में कि थी। उच्चतम न्यायालय में अपील स्वीकार करते हुए तथा उच्च न्यायालय के निर्णय को उलटते हुए कहा कि खंडपीठ ने वाद के महत्वपूर्ण तत्वों को नहीं समझा। परीक्षण न्यायालय का निर्णय गवाहों की विश्वसनीयता पर आधारित था, खंडपीठ द्वारा परीक्षण न्यायालय के निर्णय के आधार पर तथा वाद की संभावनाओं पर विचार किए बिना निर्णय दिया जो उचित नहीं था।
उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि संपत्ति को प्रतिकूल कब्जे द्वारा प्राप्त नहीं किया, संपत्ति पर वादी का कब्जा था। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सामान्य नियम यह है कि संपत्ति के एक भाग का कब्जा पूर्ण पर कब्जा माना जाता है यदि अन्यथा पूर्ण खाली है। प्रस्तुत वाद में क्योंकि भूमि पानी में डूबी रहती थी अतः प्रतिकूल कब्जा नहीं हुआ था क्योंकि कब्जा लगातार नहीं रहा। इस निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि यदि वादी का संपत्ति के एक भाग पर कब्जा है तथा शेष भाग खाली पड़ा है अर्थात उस पर किसी का कब्जा नहीं है तो वादी का कब्जा पूर्ण संपत्ति पर माना जाएगा जहां वादी भूमि के हक तथा कब्जे के लिए वाद करता है तथा वादी संपत्ति में हक को सिद्ध कर देता है तथा बाद में संपत्ति से बेक़ब्ज़ा किए जाने की तारीख को अभिकथित करता है वह कब्जे की डिक्री प्राप्त करने का अधिकारी होगा। ऐसे मामले में उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि तथ्यों पर समवर्ती निर्णय की अवहेलना करके वादपद के आधार पर अपील स्वीकार नहीं करनी चाहिए जिसे न तो उठाया गया तथा न जिस पर न्यायालयों में बहस हुई।
सरस्वती बनाम एस गणपति एआईआर 2001 एसी 1844 के वाद में वादी तथा प्रतिवादी दोनों ने एक दूसरे से लगे सर्वे संख्या की भूमि ली थी। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध वाद किया की प्रतिवादी ने उसकी भूमि पर अवैध कब्जा किया था। वास्तव में वादी के सर्वे संख्या वाली भूमि की सीमा विक्रय विलेख में गलत दिखाई गई थी इसके बावजूद ट्रायल कोर्ट तथा अपील न्यायालय ने निर्णय दिया कि वादी के विक्रय विलेख में दिखाई गई भूमि की सीमा से जितनी भी कम थी वह अवश्य प्रतिवादी के अवैध कब्जे में होगी। उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यह मत विधि में पुष्टि नहीं होगा, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय का निर्णय सही है तथा उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय सही हस्तक्षेप किया।
विशेष जंगम संपत्ति के कब्जे का प्रत्युद्धरण
जंगम संपत्ति के कब्जे का के प्रत्युद्धरण के संबंध में उपबंध विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 की धारा 7 और 8 में उल्लिखित हैं। इन धाराओं के अनुसार धारा 7 महत्वपूर्ण धारा मानी जाती है। धारा 7 के अनुसार जो व्यक्ति किसी निर्दिष्ट जंगम संपत्ति के कब्जे का हकदार है सिविल प्रक्रिया संहिता 1960 द्वारा उपबंधित प्रकार से उसका वितरण कर सकता है।
अधिनियम की धारा 7 के निम्नलिखित दो स्पष्टीकरण है जो इस प्रकार हैं-
स्पष्टीकरण एक- न्यासी ऐसी जंगम संपत्ति के कब्जे के लिए इस धारा के अंतर्गत वाद ला सकता है जिसमें कि लाभप्रद हित का वह व्यक्ति हकदार है जिसके लिए वह न्यासी है।
स्पष्टीकरण दो- जंगम संपत्ति पर वर्तमान कब्जे का कोई विशेष या अस्थाई अधिकार इस धारा के अंतर्गत वाद समर्थन के लिए पर्याप्त हैं।
धारा 7 1877 के विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 10 के समक्ष है विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 की धारा 7 के उपबंध इसी अधिनियम की धारा 5 के समान है। धारा 5 स्थावर संपत्ति के कब्जे के प्रत्युद्धरण से संबंधित हैं।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 की धारा 7 की मुख्य तीन विशेषताएं हैं-
इस धारा का लाभ उठाने के लिए आवश्यक है कि वाद करने वाला व्यक्ति विनिर्दिष्ट जंगम संपत्ति के कब्जे का हकदार हो।
संपत्ति विनिर्दिष्ट होनी चाहिए।
जंगम संपत्ति का प्रत्युद्धरण उसी ढंग से किया जा सकता है जैसा कि सिविल प्रक्रिया संहिता में उपबंधित है।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 के अंतर्गत कोई विशेष दृष्टांत धारा के संबंध में प्रस्तुत नहीं किए गए हैं परंतु 1877 के पुराने अधिनियम में कुछ दृष्टांत दिए गए थे जिनकी सहायता से इस धारा के अर्थ को समझा जा सकता है दृष्टांत जो इस प्रकार है-
क उधार धन लेने हेतु कुछ गहने ख के पास गिरवी रखता है। ख गहनों का व्ययन (dispose) करने का अधिकारी होने के पूर्व उनका व्ययन कर देता है। क उधार धन का भुगतान या भुगतान को पेश किए बिना ख के विरुद्ध गहनों का कब्जा प्राप्त करने के लिए मुकदमा करता है। यह मुकदमा खारिज किया जाना चाहिए क्योंकि क गहनों के कब्जे का अधिकारी नहीं है चाहे उनकी सुरक्षित अभिरक्षा के बारे में उसको कोई अधिकार हो।
क एक पत्र ख को लिखता है बिना क की सहमति से पत्र को पुनः प्राप्त कर लेता है, क पत्र प्राप्त करने का अधिकारी है।
जिस व्यक्ति का कब्जा है परंतु स्वामी के नाते नहीं है उसका उन व्यक्तियों को जो तत्काल कब्जे का हकदार है परिदान किया जाना चाहिए। विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 8 इस संबंध में उल्लेख कर रही है जिसका जंगम संपत्ति की किसी भी ऐसी विशिष्ट वस्तुओं पर कब्जा अथवा नियंत्रण है जिसका वह स्वामी नहीं है वह उसके तत्काल कब्जे के हकदार व्यक्ति को परिदत्त करने के लिए विवश किया जा सकता है।
जब विवादस्पद वस्तु प्रतिवादी द्वारा वादी के अभिकर्ता अथवा धन्यासी के रूप में धारित की हो।
जब की विवादित वस्तु की हानि के लिए वादी को यथा योग्य अनुतोष न पहुंचाता हो।
जबकि हानि के कार्य वास्तविक नुकसान या अभिनिश्चय करना अत्यंत कठिन हो।
जबकि दावा वस्तु का कब्जा वादी के पास से सदोष अंतरित कराया गया।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 की धारा के अर्थ को इस उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है-
राम अमेरिका जाते समय अपना फर्नीचर श्याम के पास छोड़ जाता है। उसकी अनुपस्थिति में उसके अभिकर्ता के नाते श्याम बिना राम के प्राधिकार के फर्नीचर घनश्याम के पास गिरवी रख देता है तथा घनश्याम यह जानते हुए श्याम को फर्नीचर गिरवी रख लेता है। घनश्याम को राम को फर्नीचर परिदत्त करने को विवश किया जा सकता है क्योंकि वह उसे एक न्यासी के रूप में धारित किए हुए।