साझेदारी अधिनियम क्या है? जानिए इससे संबंधित विशेष बातें : The Indian Partnership Act, 1932

Shadab Salim

18 Nov 2020 7:43 AM GMT

  • साझेदारी अधिनियम क्या है? जानिए इससे संबंधित विशेष बातें : The Indian Partnership Act, 1932

    The Indian Partnership Act, 1932

    भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के साथ ही साझेदारी अधिनियम और पराक्रम में लिखित अधिनियम का भी महत्व है। पिछले आलेखों में संविदा विधि से संबंधित सीरीज लिखी गई है जिसमें 22 आलेखों को प्रकाशित किया गया है। इन समस्त आलेखों में भारतीय संविदा अधिनियम से संबंधित समस्त प्रावधानों की विशेष बातों को उल्लेखित किया गया है।

    इस आलेख में भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 के विशेष प्रावधानों पर तथा इससे संबंधित विशेष बातों पर सारगर्भित चर्चा की जा रही है।

    भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 ( The Indian Partnership Act, 1932)

    किसी समय समाज में व्यापार और वाणिज्य का स्तर अलग था, मनुष्य की आवश्यकताएं अलग थी। केवल एक ही मनुष्य किसी वस्तु का उत्पादन भी करता था और उसे बेच भी देता था। व्यापार वाणिज्य का इतना विकास नहीं हुआ था। समय के साथ साथ व्यापार वाणिज्य का विकास होता चला गया, मनुष्य की आवश्यकताएं बढ़ती चली गई, व्यापार का स्वरूप भी बदल गया। व्यापार के स्वरूपों में सर्वप्रथम तो एकल व्यापार प्रचलित व्यापार रहा है परंतु कभी-कभी साझेदारी व्यापार भी अस्तित्व में आने लगा। समाज की आवश्यकताओं के अनुसार व्यापार के दायित्व देखते हुए साझेदारी व्यापार का विकास होने लगा।

    जब समाज में साझेदारी व्यापार का प्रचलन बढ़ने लगा तो इससे संबंधित विधि-विधानों की भी आवश्यकता प्रतीत होने लगी क्योंकि किसी भी व्यापार को नियंत्रित करना किसी राज्य का कर्तव्य होता है। भारत राज्य ने भी साझेदारी से संबंधित विधान को संकलित किया तथा भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 का निर्माण किया गया।

    भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 साझेदारी से संबंधित समस्त प्रावधानों को अधिनियमित करता है। साझेदारी व्यापार को नियंत्रित करने हेतु यह अधिनियम उपयोगी अधिनियम हैं। आज भी भारत की अर्थव्यवस्था साझेदारी उद्योग धंधों से संचालित हो रही है क्योंकि कंपनी संचालित कर पाना इतना सरल नहीं है। भारतीय अर्थव्यवस्था में या तो एकल व्यवसाय किया जा रहा है या फिर भागीदारी व्यवसाय किया जा रहा है। अधिकांश उद्योग व्यापार एकल या साझेदारी के आधार पर ही संचालित हो रहे है। इस प्रकार के उद्योगों को संचालित करने के लिए राज्य पर भी इन व्यापारों को संचालित करने के लिए प्रमुख दायित्व उठ जाता है। इस आधार पर भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 महत्वपूर्ण हो जाता है जो व्यापार के संचालन तथा भागीदारों के बीच होने वाले समझौतों को अधिनियमित करता है उनके बीच होने वाले विवादों का निपटारा करता है।

    भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 जिसे अंग्रेजी में इंडियन पार्टनरशिप एक्ट 1932 कहा जाता है। अधिनियम पार्टनरशिप से संबंधित कानूनों को संकलित करता है तथा भागीदारी के व्यापार और वाणिज्य को निश्चितता प्रदान करता है। कोई भी व्यापार जो किसी विशेष अनुबंध के अंतर्गत 1 से अधिक व्यक्तियों द्वारा संचालित किया जा रहा है इस प्रकार का व्यापार भागीदारी व्यापार कहलाता है।

    भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 का अध्ययन करने के पश्चात भागीदारी से संबंधित कुछ विशेष बातें निकल कर आती है तथा जिन्हें भागीदारी के आवश्यक तत्व भी कहा जा सकता है। इन तत्वों का उल्लेख लेख में किया जा रहा हैं-

    समझौता

    साझेदारी का जन्म समझौते के बाद ही होता है। भारतीय संविदा अधिनियम के अंतर्गत पहले करार होता है। करार क्या होता है यह जानने के लिए करार संबंधित आलेख संविदा विधि सीरीज के अंतर्गत पढ़े जा सकते हैं।

    भागीदारी के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच भागीदारी का करार होना चाहिए परंतु यह आवश्यक नहीं कि करार लिखित अथवा अभिव्यक्त हो यह आचरण द्वारा सृजित हो सकता है। भागीदारी के लिए स्वैच्छिक प्रकृति का करार होना चाहिए। अगर करार स्वेच्छा से नहीं किया जाता है तो यह भागीदारी का रूप धारण नहीं कर सकता। जिस प्रकार करार होने के लिए संविदा विधि के अंतर्गत जो आवश्यकताएं हैं वही आवश्यकता साझेदारी अधिनियम के अंतर्गत साझेदारी समझौता होने के लिए मान्य होती है।

    किसी करार के बाद ही भागीदारी का जन्म होता है। भारतीय साझेदारी अधिनियम किसी भी साझेदारी के लिए करार की आवश्यकता पर बल देता है। ऐसा करार मौखिक भी हो सकता है या आचरण द्वारा भी हो सकता है। इस प्रकार के करार होने के लिए कोई लिखित करार होना ही आवश्यक नहीं है।

    व्यापार

    साझेदारी अधिनियम के अंतर्गत कोई भी करार किसी व्यापार को करने के उद्देश्य से किया जाता है। किसी व्यापार का उद्देश्य लाभ कमाना होता है। कोई भी काम लाभ कमाने के उद्देश्य से किया जा रहा है तो वह व्यापार होता है। इस प्रकार का व्यापार इस साझेदारी के अंतर्गत किया जा रहा है तो भागीदारी व्यापार माना जाएगा।

    भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 की धारा 2 (ख) के अंतर्गत कारोबार की परिभाषा दी गई है, जिसके अनुसार प्रत्येक व्यापार, पेशा कोई वृत्ति से है। इस परिभाषा से कारोबार का अर्थ स्पष्ट नहीं होता है बल्कि इससे कारोबार का गणात्मक स्वरूप स्पष्ट हो रहा है। वास्तव में कारोबार को परिभाषित करना एक तत्व का प्रश्न है फिर भी साथ कार्य करने में समय धन को परिश्रम जुटाना पड़े और लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाए कारोबार कहलाएगा।

    विश्वनाथ नमक चंद एआईआर 1955 के प्रकरण में न्यायाधीश वेंकटरमन ने अपने निर्णय में कहा कि साझेदारी वहां हो सकती है जहां कोई व्यापार किया जाता है जहां करने के लिए कोई व्यापार ही न हो वहां साझेदारी का प्रश्न ही नहीं उठता है।

    विकी चंद्र बनाम हरिश्चंद्र एआईआर 1940 नागपुर 211 के मुकदमे में अभिनिर्धारित किया गया है कि दो व्यक्ति मिलकर रुई की सौ गांठे खरीदते हैं और संयुक्त रूप से बेचने का करार करते हैं। यह करार कारोबार है और कारोबार में दोनों भागीदार भी हैं तो यहां पर यह भागीदारी है। भागीदारी के लिए कारोबार आवश्यक होता है, कारोबार के लाभ में से अंश पाने के लिए भागीदार भागीदारी का संबंध स्थापित करते हैं।

    सरलतापूर्वक कहा जा सकता है कि जहां एक से अधिक व्यक्ति मिलकर लाभ कमाने के उद्देश्य से कोई व्यापार वाणिज्य पेशा कर रहे हैं इस प्रकार का कारोबार साझेदारी कारोबार कहलाता है।

    जैसे कि दो स्वामी अपनी संपत्ति को साजे में रखकर संयुक्त रूप से उठाकर भागीदारी का निर्माण कर सकते हैं उसी प्रकार दो डॉक्टर या दो वकील रोगियों की चिकित्सा करने के लिए या अपने मुवक्किलों का मुकदमा लड़ने के लिए भागीदारी का निर्माण कर सकते हैं। कारोबार क्या है यह केवल तत्व का प्रश्न है जिसका उत्तर किसी मामले के विशिष्ट तत्वों के संदर्भ में दिया जाएगा। केवल एक कार्यक्रम या धन उधार देने का अकेला एक कार्य कारोबार नहीं हो सकता और वह उस कारोबार के अंतर्गत नहीं आता जिसका उल्लेख भागीदारी अधिनियम की धारा 4 में है।

    लाभ प्राप्त करना

    किसी भी व्यापार का उद्देश्य लाभ प्राप्त करना होता है सभी व्यापारिक गतिविधियां लाभांश प्राप्त करने के उद्देश्य से संचालित की जा रही है। कोई भी व्यापार,उद्योग, वाणिज्य, पेशा लगभग लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से संचालित किया जाता है। भागीदारी का यह सर्वाधिक आवश्यक तत्व है कि भागीदारी द्वारा लाभों में अंश प्राप्त किया जाना चाहिए। व्यापार वाणिज्य से जो भी लाभ प्राप्त हो रहा है उस लाभ में भागीदारों का कोई न कोई अंश होना चाहिए। व्यापार को प्राप्त होने वाले लाभ में जब भागीदार कोई अंश प्राप्त करते हैं तो इसे लाभ का संयोजन कहा जाता है। लाभ को आपस में बांटना कहा जाता है।

    भागीदारी अधिनियम के अंतर्गत यह उल्लेखित नहीं किया गया है कि लाभ कितने कितने हिस्से में लिया जाएगा, लाभ लेने का अनुपात क्या होगा परंतु यह जरूर उल्लेख किया गया है कि लाभांश प्राप्त किया जाएगा। भागीदार उसको किसी भी अनुपात में और किसी भी समय प्राप्त कर सकते हैं। पूर्व के समय में इस आवश्यक तत्व को इतना अधिक महत्व दिया जाता था कि किसी कारोबार चलाने के संबंध में दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य लाभों के अंश को आपस में विभाजित करना होने पर भागीदारी को निर्णायक मान लिया जाता था परंतु आज परिवर्तन हुआ है और कहा जाता है कि मात्र लाभों में भाग लेना या प्राप्त करने के अधिकार से ही किसी व्यक्ति को भागीदार नहीं माना जा सकता।

    पारस्परिक अभिकर्ता

    साझेदारी अधिनियम के अंतर्गत किसी भी भागीदारी के अंतर्गत एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुण या तत्व साझेदारों का आपस में अभिकर्ता होना है। भागीदारी के अस्तित्व में लाने के लिए साझेदारों का आपस में अभिकर्ता होना आवश्यक है। साझेदारी के अंतर्गत सभी भागीदार एक दूसरे के प्रति अभिकर्ता होते हैं।

    कारोबार के साधारण प्रयोजन के लिए प्रत्येक भागीदार अन्य भागीदारों का अभिकर्ता होता है। यदि दो या दो से अधिक व्यक्ति करार करते हैं कि वह कारोबार करेंगे तथा लाभ प्राप्त करेंगे तो प्रत्येक मालिक होता है प्रत्येक दूसरे का एजेंट होता है तथा अन्य द्वारा कारोबार चलाने हेतु की गई संविदा में उसी भांति होता है जैसे एक मालिक किसी एजेंट के कृत्य से होता है जो पूर्ण लाभ अपने मालिक को देता है।

    प्रतिभा रानी बनाम सूरज कुमार एआईआर 1985 एसी 628 के प्रकरण में कहा गया है कि पत्नी तथा पति के मध्य संबंधों में भागीदारी की संकल्पना स्त्री धन के नियुक्त होने के लिए नहीं की जा सकती है। जब तक की पत्नी के द्वारा किसी स्पष्ट विधिक कार्य से अनिवार्यता यह इंगित न किया गया हो की पत्नी को सुपुर्द किया गया स्त्रीधन किसी भागीदारी व्यापार के लिए प्रयुक्त किया जाना है।

    यह किसी व्यापार, वाणिज्य, पेशा को भागीदारी के अंतर्गत संचालित करने के आवश्यक तत्व है। कोई भी व्यापार, वाणिज्य या कारोबार में जब यह तत्व पाए जाते हैं तब साझेदारी व्यापार, वाणिज्य, कारोबार हो जाता है तथा भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 के अंतर्गत दिए गए प्रावधानों से इस प्रकार के व्यापार वाणिज्य पेशे को नियंत्रित करते हैं।

    भागीदार

    भारतीय भागीदारी अधिनियम 1932 इस संबंध में उल्लेख कर रहा है कि भागीदारी क्या होती है तथा भागीदारी किस प्रकार संचालित की जाती है। इस अधिनियम के अंतर्गत किसी कारोबार में व्यक्तियों का कोई दल या व्यक्ति भागीदार है या नहीं यहां भी उल्लेखित किया गया। अधिनियम की धारा 6 उल्लेखित करती है कि यह अवधारणा करने के लिए की व्यक्तियों का कोई समूह फर्म है या नहीं या कोई व्यक्ति फर्म का भागीदार है या नहीं पक्षकारों के बीच वास्तविक संबंध को ध्यान में रखा जाएगा जो शख्स व्यक्तियों को एक साथ लेने में दर्शित होता है।

    भारतीय साझेदारी अधिनियम की धारा 4 में दी गई भागीदारी की परिभाषा के तत्व अनुबंध कारोबार लाभों में अंश पाना और पारस्परिक अभिकरण इन सबके होने के बाद ही कोई व्यक्ति किसी साझेदारी में साझेदार हो पाता है। उपरोक्त तत्व किसी भी साझेदारी को परिभाषित करने के लिए पर्याप्त हैं परंतु धारा 6 के स्पष्टीकरण से यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि लाभों के अंश प्राप्त करने का तत्व किसी भी भागीदारी की अवधारणा में निश्चित नहीं होता अर्थात कुछ परिस्थितियां ऐसी भी हो सकती हैं जब व्यक्ति लाभ का अंश तो प्राप्त करता है परंतु वह भागीदार नहीं होता है। फॉक्स बनाम हिकमैन 1807 एचसीसी 268 के मामले में अभिनिर्धारित किया गया है कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य साझेदारी का संबंध निर्धारित करने के लिए पक्षों के मध्य वास्तविक संबंधों को देखा जाना चाहिए।

    कौन व्यक्ति साझेदार नहीं माने जाते हैं

    कुछ ऐसे भी होते हैं जो लाभ में अंश प्राप्त करने के बाद भी साझेदार नहीं होते हैं तथा फर्म में उन्हें साझेदार नहीं माना जाता वह निम्न व्यक्ति हो सकते हैं-

    संयुक्त हित रखने वाले व्यक्ति

    संपत्ति से प्राप्त लाभों का कुल प्रत्ययगमों का उस संपत्ति में संयुक्त सामान्य हित रखने वाले व्यक्तियों द्वारा लाभ का अंश प्राप्त करना ऐसे व्यक्तियों को फर्म का भागीदार नहीं बना देता है। उदाहरण के लिए जहां संयुक्त स्वामी दान से प्राप्त संपत्तियों का किराया एकत्रित करते हैं तथा कोई कारोबार नहीं चलाते हैं तो वह भागीदार की सृष्टि नहीं करते हैं।

    धन उधार देने वाले व्यक्ति द्वारा कारोबार के लाभों में अंश प्राप्त करना

    किसी व्यापार में लाभ के अंश को प्राप्त करना ही स्वयंमेव फर्म का भागीदार नहीं बनाता है। ठीक उसी प्रकार से धन उधार देने वाला व्यक्ति जो कि कारोबार के लाभ में अंश प्राप्त करता है वह भागीदार नहीं हो जाता है।

    सेवा के अभिकर्ता द्वारा लाभों का अंश प्राप्त करना

    किसी सेवा के अभिकर्ता द्वारा पारिश्रमिक के रूप में लाभों के अंश की प्राप्ति उसको स्वयंमेव फार्म में भागीदार नहीं बना देता है। यदि किसी सेवक को पारिश्रमिक के रूप में लाभ में से कुछ अंश दिया जा रहा है तो ऐसी स्थिति में पारिश्रमिक प्राप्त करके व सेवक फर्म का भागीदार नहीं बन जाता है।

    मृत्यु प्राप्त हुए भागीदार के बच्चे या उसकी विधवा

    किसी साझेदारी फर्म में किसी साझेदार की मौत हो जाने पर उसकी किसी विधवा या बच्चों द्वारा वार्षिक के रूप में लाभों में अंश के प्राप्ति उनको फर्म का भागीदार नहीं बनाती है। कभी-कभी साझेदारी संलेख में यह समझौता होता है कि किसी भागीदार की मृत्यु के बाद उसकी विधवा व उसके बच्चों को कोई मौद्रिक सहायता दी जाएगी ऐसी स्थिति में इस प्रकार दी जा रही मौद्रिक सहायता को भागीदारी में अंश प्राप्त करने के बावजूद भी भागीदार नहीं माना जा सकता।

    ख्याति बेचने वाला

    कारोबार की किसी परिधि में स्वामी भागीदार द्वारा उस कारोबार में गुडविल के विक्रय के प्रतिफलस्वरूप लाभ के अंश की प्राप्ति उस व्यक्ति को फर्म का भागीदार नहीं बना देती है।

    यह सभी लोग किसी भी फर्म में लाभ में अंश प्राप्त करते हैं तथा ऐसा लाभ में अंश प्राप्त करने के उपरांत भी यह व्यक्ति भागीदार नहीं होते हैं इसलिए संपूर्ण रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी लाभ में अंश प्राप्त करने वाले व्यक्ति ही किसी फर्म के भागीदार होंगे।

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