क्या भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था में पीड़ित को भी अभियोजन प्रक्रिया का सक्रिय हिस्सा बनाया जाना चाहिए?

Himanshu Mishra

9 April 2025 12:53 PM

  • क्या भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था में पीड़ित को भी अभियोजन प्रक्रिया का सक्रिय हिस्सा बनाया जाना चाहिए?

    परिचय: पीड़ित के अधिकारों पर ध्यान

    Jagjeet Singh v. Ashish Mishra @ Monu (2022) के ऐतिहासिक (Landmark) निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने तीन अहम मुद्दों पर गहराई से विचार किया—पीड़ित (Victim) का कानूनी अधिकार, कोर्ट द्वारा जमानत (Bail) देते समय अपनाए जाने वाले सिद्धांत, और निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) का मूल सिद्धांत। यह मामला केवल अपने तथ्यों के कारण नहीं, बल्कि इस वजह से महत्वपूर्ण बना क्योंकि इसमें कोर्ट ने पहली बार स्पष्ट रूप से कहा कि पीड़ित को भी जमानत की प्रक्रिया में भाग लेने और अपनी बात रखने का पूरा अधिकार है।

    सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा आरोपी को दी गई जमानत को रद्द (Cancel) करते हुए यह स्पष्ट किया कि भारत में आपराधिक न्याय व्यवस्था (Criminal Justice System) अब केवल राज्य और आरोपी के बीच की प्रक्रिया नहीं रह गई है—अब इसमें पीड़ित को भी अधिकार प्राप्त हैं।

    'पीड़ित' की परिभाषा क्या है? (Who is a 'Victim' Under Indian Law?)

    Code of Criminal Procedure (CrPC) की धारा 2(wa) के अनुसार, “पीड़ित” वह व्यक्ति होता है जिसे किसी अपराध के कारण शारीरिक, मानसिक या आर्थिक नुकसान हुआ हो। इसमें पीड़ित का अभिभावक या कानूनी उत्तराधिकारी (Legal Heir) भी शामिल होता है। इस परिभाषा को CrPC में 2008 में संशोधन (Amendment) के द्वारा जोड़ा गया था।

    सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ किया कि “पीड़ित” और “शिकायतकर्ता” (Complainant) एक ही व्यक्ति नहीं होते। कोई तीसरा व्यक्ति भी रिपोर्ट दर्ज करा सकता है, लेकिन वास्तविक पीड़ित वही होता है जो अपराध से सीधे तौर पर प्रभावित हुआ हो। इसीलिए अब भारतीय कानून में यह जरूरी हो गया है कि पीड़ित को हर स्तर पर अपनी बात रखने का अधिकार दिया जाए।

    हर चरण में सुनवाई का अधिकार (A Right to be Heard: Participation at All Stages)

    कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि अब पीड़ित को केवल गवाह या मूक दर्शक बनकर नहीं रहना पड़ेगा। उसे हर चरण—जांच (Investigation), सुनवाई (Trial), अपील (Appeal) और पुनरीक्षण (Revision)—में हिस्सा लेने और अपनी बात रखने का अधिकार है। यह अधिकार केवल सिद्धांत में नहीं, बल्कि व्यावहारिक (Practical) रूप से भी लागू होना चाहिए।

    इस फैसले में कोर्ट ने अंतरराष्ट्रीय मानकों (International Standards) का भी हवाला दिया, जैसे कि संयुक्त राष्ट्र का 1985 का घोषणा पत्र (UN Declaration of 1985), जिसमें स्पष्ट किया गया था कि पीड़ित को न्याय प्रणाली में पूरा अधिकार मिलना चाहिए। भारत में भी Mallikarjun Kodagali v. State of Karnataka (2019) जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना है कि पीड़ित को अपील दायर करने और अपनी बात रखने का कानूनी अधिकार है।

    CrPC की धारा 439 के तहत जमानत: विवेक, लेकिन सीमाओं के साथ (Bail Under Section 439 CrPC: Discretion With Boundaries)

    CrPC की धारा 439 के तहत कोर्ट को जमानत देने का अधिकार तो है, लेकिन यह अधिकार बिना सोच-विचार के नहीं इस्तेमाल किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर नाराजगी जताई कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने आरोपी को जमानत देते समय जरूरी कानूनी मानकों पर ध्यान नहीं दिया।

    Prasanta Kumar Sarkar v. Ashis Chatterjee (2010) में कोर्ट ने कई मापदंड (Parameters) तय किए थे जिन्हें किसी को जमानत देने से पहले देखा जाना चाहिए—जैसे कि आरोपी के खिलाफ prima facie मामला है या नहीं, अपराध की गंभीरता (Gravity), सज़ा की संभावना, आरोपी के भागने का डर, और गवाहों को प्रभावित करने की आशंका। यही सिद्धांत बाद के मामलों जैसे Neeru Yadav v. State of U.P. (2014) और Mahipal v. Rajesh Kumar (2020) में दोहराए गए हैं।

    Jagjeet Singh के मामले में हाई कोर्ट ने केवल पोस्टमार्टम रिपोर्ट में गोली लगने के निशान न होने को आधार बनाया, और अन्य जरूरी पहलुओं की अनदेखी कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे एकतरफा और अधूरी सोच बताया।

    न्यायिक प्रक्रिया में निष्पक्ष सुनवाई का उल्लंघन (Fair Hearing Denied: A Procedural Violation)

    कोर्ट ने यह भी पाया कि हाई कोर्ट की सुनवाई के दौरान पीड़ित पक्ष के वकील वर्चुअल सुनवाई से अचानक कट गए और उनकी बात सुनी ही नहीं गई। उन्होंने बाद में फिर से सुनवाई की अपील की, लेकिन उस पर भी कोई विचार नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे पूरी न्यायिक प्रक्रिया का उल्लंघन (Violation) माना और कहा कि जब पीड़ित खुद सामने आकर बोलना चाहते हैं, तो कोर्ट का यह कर्तव्य (Duty) है कि उन्हें सुना जाए।

    FIR कोई पूरी कहानी नहीं होती (FIR is Not an Encyclopedia: Caution Against Premature Conclusions)

    कोर्ट ने यह भी कहा कि FIR को घटनाओं का पूरा वर्णन (Encyclopedia) मानना गलत है। सिर्फ FIR में गोली लगने की बात का जिक्र न होना, यह मानने का आधार नहीं हो सकता कि आरोपी ने कोई गंभीर अपराध नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व फैसले Puran v. Rambilas (2001) और Narendra K. Amin v. State of Gujarat (2008) में भी यह बात कही गई थी कि अगर कोर्ट जरूरी तथ्यों की अनदेखी करके जमानत देता है, तो वह आदेश कानूनी रूप से गलत माना जाएगा।

    न्याय और स्वतंत्रता के बीच संतुलन (Liberty Versus Justice: A Delicate Balance)

    सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी भी आरोपी को अनिश्चित काल तक जेल में नहीं रखा जा सकता। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (Article 21) के तहत प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि किसी गंभीर अपराध के आरोपी को बिना पर्याप्त विचार के जमानत दे दी जाए।

    इसलिए कोर्ट ने मामले को दोबारा विचार के लिए हाई कोर्ट को भेज दिया ताकि पीड़ित को भी सुना जा सके और सभी कानूनी मापदंडों के अनुसार निष्पक्ष फैसला हो।

    Jagjeet Singh v. Ashish Mishra का फैसला भारतीय न्याय व्यवस्था में एक नया अध्याय जोड़ता है। यह स्पष्ट करता है कि अब केवल आरोपी और राज्य की बातें नहीं सुनी जाएंगी, बल्कि पीड़ित की पीड़ा और अधिकार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। यह फैसला दिखाता है कि जमानत कोई साधारण प्रक्रिया नहीं है—इसमें समाज, न्याय और मानव गरिमा (Dignity) सभी का संतुलन जरूरी है।

    यह फैसला भारतीय कानून को अधिक संवेदनशील (Sensitive), संतुलित और पीड़ित-समर्थक (Victim-Centric) बनाता है। इससे न्याय केवल कानूनी प्रक्रिया न होकर, एक मानवीय अनुभव भी बनता है—जिसमें हर पीड़ित को भरोसा हो कि उसकी आवाज भी सुनी जाएगी।

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