क्या जिला जजों को हाईकोर्ट जजों के समान वेतन और पेंशन मिलनी चाहिए?

Himanshu Mishra

9 Jun 2025 4:53 PM IST

  • क्या जिला जजों को हाईकोर्ट जजों के समान वेतन और पेंशन मिलनी चाहिए?

    न्यायिक स्वतंत्रता का संवैधानिक आधार (Constitutional Foundation for Judicial Independence)

    सुप्रीम कोर्ट ने All India Judges Association बनाम Union of India (2023) के महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि जिला न्यायपालिका (District Judiciary) की स्वतंत्रता केवल एक नीति का विषय नहीं, बल्कि एक संवैधानिक अनिवार्यता (Constitutional Mandate) है।

    कोर्ट ने कहा कि न्यायिक अधिकारी राज्य के कर्मचारी नहीं होते, बल्कि वे संवैधानिक पदाधिकारी (Constitutional Functionaries) होते हैं। उनके वित्तीय आत्मनिर्भरता (Financial Independence) और सम्मानजनक सेवा शर्तें न्याय प्रणाली की प्रभावशीलता और लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक हैं।

    कोर्ट ने All India Judges Association (1993), Brij Mohan Lal v. Union of India (2012) और S.P. Gupta v. Union of India (1981) जैसे मामलों का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया कि न्यायिक स्वतंत्रता संविधान के मूल ढांचे (Basic Structure) का हिस्सा है। अनुच्छेद 50 (Article 50) में भी राज्य को कार्यपालिका (Executive) से न्यायपालिका को अलग रखने का निर्देश है, जो इसी स्वतंत्रता को सुदृढ़ करता है।

    एकीकृत न्यायपालिका और वेतन में समानता की आवश्यकता (Unified Judiciary and the Need for Uniform Pay and Designation)

    कोर्ट ने कहा कि भारत में न्यायपालिका संरचनात्मक रूप से एकीकृत (Unified) है। प्रशासनिक नियंत्रण राज्यों में भिन्न हो सकता है, लेकिन जिला न्यायालय से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सभी न्यायालय न्यायिक कार्य ही करते हैं। इसलिए, सेवा शर्तों, पदनामों (Designations) और पदोन्नति के नियमों में समानता आवश्यक है।

    कोर्ट ने यह भी कहा कि कुछ राज्यों में अब भी "Munsiff" या "Subordinate Judge" जैसे पदनाम प्रयोग किए जा रहे हैं, जो न केवल पुरानी व्यवस्था को दर्शाते हैं, बल्कि संवैधानिक गरिमा के खिलाफ भी हैं। कोर्ट ने सभी राज्यों को निर्देश दिया कि FNJPC और SNJPC द्वारा सुझाए गए पदनाम – Civil Judge (Junior Division), Civil Judge (Senior Division), और District Judge – पूरे देश में लागू किए जाएं।

    न्यायाधीशों की तुलना कार्यपालिका कर्मचारियों से नहीं (Judges Are Not Comparable to Executive Employees)

    संघ और राज्यों द्वारा दिए गए तर्कों को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्यायिक अधिकारियों की तुलना किसी भी कार्यपालिका कर्मचारी (Executive Staff) से नहीं की जा सकती। न्यायाधीश संप्रभु शक्ति (Sovereign Power) का प्रयोग करते हैं और उन्हें मंत्री और विधायक जैसे सार्वजनिक पदाधिकारियों (Public Office Holders) के समकक्ष माना जाना चाहिए।

    All India Judges Association (1993) में कोर्ट ने कहा था कि यदि न्यायपालिका के वेतन निर्धारण में कार्यपालिका का एकाधिकार हो, तो यह संविधान की आत्मा के खिलाफ होगा। इस निर्णय में कोर्ट ने “Inherent Powers” के सिद्धांत को भी मान्यता दी, जिसके अनुसार न्यायपालिका को अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को निभाने के लिए आवश्यक संसाधनों की मांग करने का अधिकार है।

    न्याय तक पहुंच और अनुच्छेद 21 (Access to Justice and Article 21)

    कोर्ट ने न्यायिक अधिकारियों की आर्थिक सुरक्षा को नागरिकों के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार (Fundamental Right) से जोड़ा। Anita Kushwaha v. Pushap Sudan (2016) मामले का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि "Access to Justice" संविधान के अनुच्छेद 21 का एक अनिवार्य हिस्सा है।

    कोर्ट ने यह भी कहा कि अधिकांश नागरिकों का पहला और कई बार अंतिम संपर्क जिला न्यायपालिका से होता है। इसलिए, इस स्तर पर न्यायिक अधिकारियों को उचित वेतन, भत्ता और ढांचागत सुविधाएं देना न केवल प्रशासनिक जिम्मेदारी है, बल्कि यह संवैधानिक कर्तव्य भी है।

    वेतन में समानता: हाई कोर्ट और जिला न्यायालय (Parity in Pay: Linking District Judges with High Court Judges)

    इस निर्णय का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह था कि सुप्रीम कोर्ट ने जिला न्यायाधीशों के वेतन को हाई कोर्ट के न्यायाधीशों से जोड़ा। कोर्ट ने कहा कि सभी न्यायाधीश – चाहे वे किसी भी स्तर पर हों – मूलतः एक ही काम करते हैं: निष्पक्ष और स्वतंत्र निर्णय देना। इसलिए यदि हाई कोर्ट न्यायाधीशों का वेतन बढ़ता है, तो उसी अनुपात में जिला न्यायाधीशों का वेतन भी बढ़ना चाहिए।

    यह सिद्धांत पहले All India Judges Association (2002) में स्वीकार किया गया था और Review Order दिनांक 5 अप्रैल 2023 में दोहराया गया। कोर्ट ने यह भी कहा कि एक जैसे न्यायिक कार्यों के लिए भिन्न वेतन संरचना न्यायिक एकता और निष्पक्षता के सिद्धांतों के खिलाफ है।

    पे मैट्रिक्स और फिटमेंट फार्मूला (Adoption of Pay Matrix and Fitment Formula)

    कोर्ट ने SNJPC की उस सिफारिश को भी मंजूरी दी जिसमें न्यायिक अधिकारियों के लिए मास्टर वेतनमान (Master Pay Scale) की जगह पे मैट्रिक्स (Pay Matrix) प्रणाली अपनाने की बात की गई थी। 2.81 का गुणक (Multiplier) लागू करने की सिफारिश को भी सुप्रीम कोर्ट ने उचित ठहराया, भले ही कुछ राज्यों ने इसका विरोध किया।

    न्यायिक अधिकारियों के वेतन निर्धारण के लिए SNJPC द्वारा सुझाया गया फॉर्मूला – पुराने वेतन को 2.81 से गुणा करना और फिर उसे पे मैट्रिक्स की संबंधित श्रेणी में फिट करना – पारदर्शी, सरल और देशभर में एक समानता सुनिश्चित करता है।

    सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाली वृद्धि (Increment After Retirement for Pension Calculation)

    कोर्ट ने SNJPC की उस सिफारिश को भी मान्यता दी जिसमें कहा गया था कि यदि कोई न्यायिक अधिकारी सेवानिवृत्त होने के ठीक अगले दिन वेतनवृद्धि (Increment) का पात्र होता है, तो उसे पेंशन की गणना में शामिल किया जाना चाहिए। यह विषय विभिन्न हाई कोर्ट्स में अलग-अलग निर्णयों के कारण विवादास्पद बना हुआ था।

    सुप्रीम कोर्ट ने Director, KPTCL v. CP Mundinamani (2023) मामले में यह तय किया कि सेवानिवृत्त अधिकारी को पिछले वर्ष की सेवा के लिए उस वृद्धि का लाभ मिलना चाहिए, भले ही वह तकनीकी रूप से सेवा में न हो।

    पिछला बकाया और प्रभावी तिथि (Time-Bound Arrears and Effective Date of Implementation)

    कोर्ट ने निर्देश दिया कि नया वेतनमान और सभी लाभ 1 जनवरी 2016 से लागू माने जाएं, जिससे यह 7वें वेतन आयोग (7th CPC) की तिथि से मेल खाता है। बकाया राशि तीन किश्तों में जून 2023 तक वितरित करने का आदेश दिया गया।

    27 जुलाई 2022 के आदेश और 5 अप्रैल 2023 के पुनरीक्षण आदेश में कोर्ट ने यह साफ किया कि वित्तीय कठिनाइयों का बहाना देकर संवैधानिक आदेशों को टाला नहीं जा सकता।

    महंगाई भत्ता और करियर प्रगति (Dearness Allowance and Assured Career Progression)

    कोर्ट ने SNJPC की सिफारिश को स्वीकार किया जिसमें कहा गया था कि न्यायिक अधिकारियों को महंगाई भत्ता (Dearness Allowance) केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित दरों पर मिलना चाहिए। इससे एकरूपता बनी रहेगी और प्रशासनिक भ्रम नहीं होगा।

    इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने यह भी माना कि Civil Judge (Junior Division) को पहली Assured Career Progression (ACP) दी जानी चाहिए और इसके लिए प्रदर्शन मापदंडों को आसान बनाया जाना चाहिए, जिससे उन्हें पदोन्नति का न्यायसंगत अवसर मिल सके।

    अंतिम निर्देश और भविष्य की योजना (Final Directions and Future Implications)

    कोर्ट ने सभी हाईकोर्ट और राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि SNJPC की स्वीकृत सिफारिशों को बिना देरी के लागू किया जाए। कोर्ट ने यह भी दोहराया कि भविष्य में ऐसी समस्याओं से बचने के लिए एक स्थायी न्यायिक वेतन आयोग (Permanent Judicial Pay Commission) की स्थापना होनी चाहिए।

    यह निर्णय न्यायिक सेवा की गरिमा, सम्मान और स्वतंत्रता को संरक्षित करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। इससे जिला न्यायपालिका को न केवल संवैधानिक मान्यता मिली है, बल्कि वेतन और सेवा शर्तों में उच्च न्यायपालिका के करीब लाने का मार्ग भी प्रशस्त हुआ है।

    सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारत में न्यायिक स्वतंत्रता को सशक्त बनाता है। यह स्पष्ट करता है कि न्यायपालिका की रीढ़ कहे जाने वाले जिला न्यायाधीशों को भी वही सम्मान, वेतन और सुविधा मिलनी चाहिए जो संविधान के अनुसार उनके समकक्ष हाईकोर्ट के न्यायाधीशों को मिलती है। यह फैसला संविधान के मूल सिद्धांत – न्याय, समानता और स्वतंत्रता – को सच्चे अर्थों में साकार करता है।

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