सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धाराएँ 77A, 77B और 78 : अपराधों की जांच का अधिकार
Himanshu Mishra
17 Jun 2025 4:53 PM IST

सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (Information Technology Act, 2000) भारत में डिजिटल माध्यमों से संबंधित अपराधों को नियंत्रित करने वाला एक प्रमुख कानून है। इस अधिनियम के तहत, न केवल तकनीकी सुरक्षा और इलेक्ट्रॉनिक लेन-देन की वैधता को मान्यता दी गई है, बल्कि इसने डिजिटल अपराधों से निपटने की विधिक प्रक्रिया भी निर्धारित की है। इस लेख में हम विशेष रूप से धाराओं 77A, 77B और 78 को विस्तार से समझेंगे जो दंड प्रक्रिया, अपराधों की प्रकृति तथा जांच से संबंधित हैं।
धारा 77A: अपराधों का संधि (Compounding of Offences)
धारा 77A यह प्रावधान करती है कि किन अपराधों को अदालत द्वारा संधि योग्य (Compounded) माना जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि कुछ अपराधों में अदालत अभियुक्त और शिकायतकर्ता की आपसी सहमति से मुकदमे को समाप्त कर सकती है, जिससे अभियोजन की औपचारिकता पूरी न करनी पड़े। लेकिन यह सुविधा हर अपराध में नहीं मिलती। केवल वे अपराध जिनमें उम्रकैद या तीन वर्ष से अधिक की सजा का प्रावधान नहीं है, उन्हें संधि किया जा सकता है।
यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि यदि कोई अभियुक्त पूर्व में किसी अपराध में दोषी ठहराया जा चुका है और उस अपराध के लिए उसे अधिक सजा या अलग प्रकार की सजा मिल सकती है, तो ऐसी स्थिति में संधि की अनुमति नहीं दी जाएगी।
इसके अतिरिक्त, अगर कोई अपराध देश की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को प्रभावित करता है या किसी 18 वर्ष से कम आयु के बच्चे या किसी महिला के विरुद्ध किया गया हो, तो ऐसे अपराधों में भी संधि नहीं की जा सकती। यह प्रतिबंध समाज के संवेदनशील वर्गों और राष्ट्रीय हित की रक्षा के उद्देश्य से रखा गया है।
उदाहरण के तौर पर, यदि किसी ने किसी महिला की व्यक्तिगत जानकारी को उसकी सहमति के बिना सार्वजनिक कर दिया हो, तो भले ही वह अपराध तीन वर्ष से कम की सजा वाला हो, फिर भी धारा 77A के अनुसार उसे संधि योग्य नहीं माना जाएगा।
इस धारा के अंतर्गत यह भी प्रावधान है कि अभियुक्त व्यक्ति, जो सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत किसी अपराध में अभियोजन का सामना कर रहा है, वह संबंधित अदालत में संधि की अर्जी दे सकता है। इस प्रक्रिया में दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धाराएं 265B और 265C लागू होंगी। ये धाराएं आपराधिक मुकदमों में समझौते की प्रक्रिया को दर्शाती हैं और अदालत को यह निर्णय लेने का अधिकार देती हैं कि क्या मामला संधि योग्य है या नहीं।
धारा 77B: तीन वर्ष तक की सजा वाले अपराध जमानती माने जाएंगे
धारा 77B यह स्पष्ट करती है कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत जिन अपराधों के लिए तीन वर्ष की सजा निर्धारित की गई है, वे सभी अपराध जमानती (Bailable) होंगे। इसका अर्थ यह है कि ऐसे मामलों में आरोपी को जमानत मिलना उसका कानूनी अधिकार है और पुलिस अधिकारी को बिना न्यायालय की अनुमति के गिरफ्तारी करने की आवश्यकता नहीं होती।
लेकिन जहां सजा तीन वर्ष से अधिक है, वहां अपराध संज्ञेय (Cognizable) माना जाएगा, यानी पुलिस सीधे गिरफ्तारी कर सकती है और मामला दर्ज कर सकती है।
यह प्रावधान न्यायिक प्रक्रिया को अधिक संतुलित और स्पष्ट बनाता है। यह निश्चित करता है कि मामूली अपराधों के मामलों में आरोपी को अनावश्यक रूप से हिरासत में न रखा जाए और गंभीर मामलों में उचित जांच की सुविधा उपलब्ध हो।
मान लीजिए किसी व्यक्ति पर आरोप है कि उसने किसी की सोशल मीडिया प्रोफ़ाइल से जानकारी निकालकर उसे एक वेबसाइट पर पोस्ट किया, जिससे पीड़ित को मानसिक आघात पहुँचा। अगर यह अपराध धारा 72A के अंतर्गत आता है और इसकी सजा तीन वर्ष तक सीमित है, तो आरोपी को जमानत मिलना निश्चित होगा।
धारा 78: अपराधों की जांच का अधिकार (Power to Investigate Offences)
धारा 78 इस बात की व्यवस्था करती है कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के अंतर्गत आने वाले अपराधों की जांच केवल पुलिस निरीक्षक (Inspector) रैंक या उससे ऊपर के अधिकारी द्वारा की जाएगी। सामान्य आपराधिक मामलों में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं होता, लेकिन इस अधिनियम के अंतर्गत यह विशेष प्रावधान रखा गया है जिससे कि केवल प्रशिक्षित और वरिष्ठ अधिकारी ही तकनीकी और संवेदनशील मामलों की जांच करें।
सूचना प्रौद्योगिकी से संबंधित अपराध कई बार तकनीकी होते हैं जिनमें इलेक्ट्रॉनिक डेटा, नेटवर्क गतिविधियाँ, लॉग फाइल्स आदि की गहन जांच की आवश्यकता होती है। यह सुनिश्चित करना कि जांच अधिकारी उपयुक्त अनुभव और प्रशिक्षण के साथ काम करे, न्यायिक प्रणाली की निष्पक्षता और प्रभावशीलता के लिए आवश्यक है।
उदाहरण के तौर पर, यदि किसी कंपनी के सर्वर से डाटा चुराया गया है और उस डाटा का दुरुपयोग किसी विदेशी वेबसाइट पर किया जा रहा है, तो उसकी जांच सामान्य हेड कांस्टेबल या सब-इंस्पेक्टर नहीं कर सकता। धारा 78 के अनुसार यह कार्य पुलिस निरीक्षक या उच्च अधिकारी के लिए आरक्षित होगा।
न्यायिक व्यवस्था में इन धाराओं का महत्व
इन तीनों धाराओं का सम्मिलन न्यायिक प्रक्रिया को और अधिक व्यावहारिक और प्रभावशाली बनाता है। एक ओर जहां धारा 77A सीमित मामलों में समझौते की अनुमति देती है, वहीं धारा 77B यह सुनिश्चित करती है कि मामूली अपराधों में आरोपी को अनावश्यक रूप से जेल में न डाला जाए। इसके साथ ही, धारा 78 यह सुनिश्चित करती है कि तकनीकी प्रकृति वाले अपराधों की जांच केवल अनुभवी अधिकारी ही करें ताकि साक्ष्यों का समुचित विश्लेषण हो सके।
इससे पहले की धाराओं, जैसे धारा 66 (कंप्यूटर संसाधन का अनधिकृत उपयोग) या धारा 67 (अश्लील सामग्री का प्रसारण), में अपराध की परिभाषा और सजा का प्रावधान था, जबकि धारा 77A से 78 तक की धाराएं इन अपराधों की प्रक्रिया से संबंधित हैं। ये धाराएं यह तय करती हैं कि ऐसे अपराधों के मामलों में मुकदमा कैसे चलेगा, कौन जांच करेगा, कब जमानत मिलेगी और किन मामलों में समझौता संभव है।
सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धाराएं 77A, 77B और 78 भारतीय न्याय व्यवस्था में डिजिटल अपराधों से निपटने की प्रक्रिया को सरल, प्रभावशाली और न्यायसंगत बनाती हैं। इन प्रावधानों से यह सुनिश्चित होता है कि अपराधों की गंभीरता के अनुसार न्यायिक प्रक्रिया अपनाई जाए, और पीड़ितों को शीघ्र न्याय मिले।
साथ ही, यह भी सुनिश्चित किया गया है कि जांच की गुणवत्ता उच्च स्तर की बनी रहे, ताकि डिजिटल सबूतों के आधार पर सटीक निर्णय लिया जा सके। यह अधिनियम निरंतर बदलती टेक्नोलॉजी की दुनिया में भारतीय न्याय प्रणाली को सशक्त और प्रासंगिक बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

