राजस्थान न्यायालय शुल्क और वाद मूल्यांकन अधिनियम, 1961 की धारा 71, 72 और 73
Himanshu Mishra
16 May 2025 10:24 PM IST

राजस्थान न्यायालय शुल्क और वाद मूल्यांकन अधिनियम, 1961 राज्य में न्यायालयों और राजस्व न्यायालयों के समक्ष प्रस्तुत दस्तावेजों तथा वादों पर लगने वाले शुल्क को नियंत्रित करता है। यह अधिनियम यह सुनिश्चित करता है कि न्यायिक कार्यवाही में भाग लेने वाले पक्षकार उचित शुल्क अदा करें और यह शुल्क राज्य सरकार के राजस्व का हिस्सा बने।
इस अधिनियम में विभिन्न प्रकार के शुल्क, शुल्क की वसूली की प्रक्रिया, शुल्क वापसी की स्थिति, मुद्रांक की व्यवस्था, और उनका विनिमय आदि का विस्तृत विवरण दिया गया है। अधिनियम की प्रारंभिक धाराओं में यह बताया गया है कि कब शुल्क लगेगा, कितना लगेगा, किस दस्तावेज पर शुल्क अनिवार्य है और किस पर नहीं।
इस लेख में हम अधिनियम की अंतिम तीन धाराओं – धारा 71, 72 और 73 – का विस्तारपूर्वक अध्ययन करेंगे। ये तीनों धाराएं नियम बनाने की शक्तियों से संबंधित हैं, जो क्रमशः हाईकोर्ट, राजस्व मंडल और राज्य सरकार को प्रदान की गई हैं।
ये प्रावधान इसलिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे अधिनियम की व्यावहारिक कार्यान्वयन प्रक्रिया को सक्षम और नियंत्रित बनाते हैं। किसी भी कानून को प्रभावी रूप से लागू करने के लिए उसके अंतर्गत नियम बनाना आवश्यक होता है। ये धाराएं इसी उद्देश्य की पूर्ति करती हैं।
धारा 71 – हाईकोर्ट को नियम बनाने की शक्ति
धारा 71 यह निर्धारित करती है कि राजस्थान हाईकोर्ट को इस अधिनियम के तहत कुछ विषयों पर नियम बनाने की शक्ति प्राप्त है। यह नियम हाईकोर्ट की अपीलीय क्षेत्राधिकार के अंतर्गत जारी किए गए समन, नोटिस, या अन्य प्रक्रिया संबंधी दस्तावेजों की सेवा और क्रियान्वयन से संबंधित होते हैं। साथ ही, इसके अधीनस्थ सिविल और आपराधिक न्यायालयों द्वारा जारी की गई प्रक्रियाओं के लिए भी ये नियम लागू होंगे।
हाईकोर्ट निम्न विषयों पर नियम बना सकता है। पहला, उन शुल्कों को निर्धारित करना जो न्यायालयों द्वारा जारी किए गए समन या अन्य प्रक्रियाओं की सेवा और क्रियान्वयन के लिए देय होंगे। दूसरा, इन कार्यों को करने वाले कर्मचारियों को दिए जाने वाले पारिश्रमिक को निर्धारित करना।
तीसरा, प्रत्येक जिला और सत्र न्यायाधीश तथा जिला मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देना कि वे अपने-अपने न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों के लिए आवश्यक प्रक्रिया सर्वरों (Process Servers) की संख्या निर्धारित कर सकें। चौथा, प्रत्येक न्यायालय भवन में अंग्रेजी और हिंदी में एक तालिका प्रदर्शित करना जिसमें प्रक्रिया सेवा के लिए देय शुल्क स्पष्ट रूप से दर्शाए गए हों।
यह धारा यह भी कहती है कि हाईकोर्ट द्वारा बनाए गए सभी नियम तभी प्रभावी माने जाएंगे जब उन्हें राज्य सरकार द्वारा अनुमोदित कर दिया जाए। राज्य सरकार इन नियमों में संशोधन कर सकती है और अनुमोदन के बाद इन्हें राजपत्र (Official Gazette) में प्रकाशित किया जाएगा। प्रकाशन के बाद ये नियम अधिनियम का हिस्सा बन जाएंगे और वैधानिक प्रभाव प्राप्त करेंगे।
उदाहरण के लिए, यदि हाईकोर्ट यह नियम बनाता है कि किसी दीवानी वाद में समन तामील करने पर ₹50 शुल्क लगेगा और यह नियम राज्य सरकार द्वारा अनुमोदित कर लिया जाता है, तो यह नियम सभी संबंधित न्यायालयों पर बाध्यकारी होगा।
धारा 72 – राजस्व मंडल को नियम बनाने की शक्ति
धारा 72 में यह प्रावधान किया गया है कि राजस्थान का राजस्व मंडल भी कुछ विषयों पर नियम बना सकता है, लेकिन उसके लिए राज्य सरकार की पूर्व स्वीकृति आवश्यक होगी। यह शक्ति अधिनियम की उस व्यवस्था का हिस्सा है जो राजस्व न्यायालयों द्वारा जारी प्रक्रिया के सेवा और क्रियान्वयन को नियमित करती है।
राजस्व मंडल जिन विषयों पर नियम बना सकता है, वे लगभग वही हैं जो धारा 71 के अंतर्गत हाईकोर्ट के लिए निर्धारित किए गए हैं। ये विषय हैं – राजस्व मंडल और अधीनस्थ राजस्व न्यायालयों द्वारा जारी की गई प्रक्रियाओं के लिए शुल्क निर्धारण, उन कर्मचारियों को पारिश्रमिक जो इन प्रक्रियाओं को तामील करते हैं, कलेक्टरों को यह अधिकार देना कि वे प्रक्रिया सर्वरों की संख्या निर्धारित कर सकें और अंततः अध्याय 6 के अंतर्गत कलेक्टरों को अधिकारों के प्रयोग हेतु मार्गदर्शन देना।
इन नियमों को भी राज्य सरकार की पूर्व स्वीकृति के पश्चात राजपत्र में प्रकाशित किया जाएगा। प्रकाशन के बाद ये नियम अधिनियम का हिस्सा माने जाएंगे और पूरी वैधानिक शक्ति से लागू होंगे।
उदाहरण के लिए, यदि राजस्व मंडल यह नियम बनाता है कि किसी भूमि विवाद में नोटिस तामील करने का शुल्क ₹25 होगा और यह नियम राज्य सरकार द्वारा अनुमोदित और प्रकाशित कर दिया जाता है, तो यह सभी राजस्व न्यायालयों में लागू होगा।
धारा 73 – राज्य सरकार को नियम बनाने की शक्ति
धारा 73 अधिनियम की सबसे व्यापक नियम निर्माण संबंधी धारा है। इसमें राज्य सरकार को अधिनियम के उद्देश्य को पूरा करने के लिए नियम बनाने का अधिकार दिया गया है। राज्य सरकार इन नियमों को राजपत्र में अधिसूचना के रूप में प्रकाशित करेगी और उसके पश्चात ये अधिनियम का हिस्सा बन जाएंगे।
राज्य सरकार निम्न विषयों पर नियम बना सकती है – अधिनियम के अंतर्गत प्रयुक्त होने वाले स्टाम्प की आपूर्ति की व्यवस्था, किसी शुल्क को दर्शाने के लिए कितने स्टाम्प आवश्यक होंगे, प्रयुक्त स्टाम्पों का लेखा-जोखा कैसे रखा जाए, किन परिस्थितियों में कोई स्टाम्प खराब या बेकार माना जाएगा, किन परिस्थितियों में तथा किन अधिकारियों द्वारा उपयोग किए गए या खराब स्टाम्पों के लिए छूट दी जाएगी, स्टाम्पों की बिक्री की प्रक्रिया, केवल कौन व्यक्ति स्टाम्प बेच सकते हैं और उनकी जिम्मेदारियां तथा पारिश्रमिक और अंततः अधिनियम के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आवश्यक सामान्य नियम।
इस धारा के अंतर्गत बने सभी नियमों को राज्य विधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। यदि विधान सभा किसी नियम में संशोधन करती है या उसे अमान्य कर देती है, तो वह नियम उसी रूप में प्रभावी होगा या निरस्त हो जाएगा, जैसा विधान सभा ने तय किया हो। हालांकि, ऐसा कोई संशोधन पूर्व में किए गए कार्यों को अमान्य नहीं करेगा।
उदाहरण के रूप में, यदि राज्य सरकार यह नियम बनाती है कि ₹100 तक के शुल्क के लिए ₹10 का एक ही स्टाम्प प्रयुक्त होगा, और विधान सभा उसे स्वीकार कर लेती है, तो यह नियम लागू हो जाएगा। यदि विधान सभा इसे खारिज कर देती है, तो यह नियम प्रभावी नहीं रहेगा।
धारा 69 और 70 से संबंध
धारा 73 का सीधा संबंध धारा 69 और 70 से है। धारा 69 में यह प्रावधान है कि यदि कोई स्टाम्प खराब हो जाए तो उसका बदला या नकद मूल्य मिल सकता है। धारा 73(d) और 73(e) स्पष्ट रूप से इस बात को नियम निर्माण का विषय बनाती हैं कि किन परिस्थितियों में स्टाम्प खराब माना जाएगा और उनके बदले में कैसे छूट दी जाएगी।
इसी प्रकार, धारा 70 में स्टाम्प विक्रेताओं की जिम्मेदारियों का उल्लंघन करने पर दंड का प्रावधान है और धारा 73(f) में यह कहा गया है कि राज्य सरकार यह नियम बना सकती है कि स्टाम्प केवल कौन बेच सकते हैं और उनकी जिम्मेदारियां क्या होंगी।
धारा 71, 72 और 73 राजस्थान न्यायालय शुल्क और वाद मूल्यांकन अधिनियम, 1961 के शासन-प्रशासन से संबंधित अत्यंत महत्वपूर्ण प्रावधान हैं। ये धाराएं अधिनियम को व्यवहार में लागू करने के लिए आवश्यक नियमों की रूपरेखा प्रस्तुत करती हैं और विभिन्न संस्थाओं को – जैसे हाईकोर्ट, राजस्व मंडल और राज्य सरकार – नियम बनाने की विधिक शक्ति प्रदान करती हैं। इन नियमों के माध्यम से प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित, पारदर्शी और न्यायसंगत बनाया जा सकता है।
इससे यह भी सुनिश्चित होता है कि शुल्क की वसूली, प्रक्रिया सेवा और स्टाम्प की आपूर्ति तथा बिक्री राज्य सरकार के नियंत्रण में रहे और किसी प्रकार की अनियमितता या भ्रष्टाचार की संभावना न रहे। इसलिए इन धाराओं का कार्यान्वयन राज्य की न्यायिक प्रणाली को सुचारू और प्रभावी बनाता है।

