सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 65, 66 और 66A: डिजिटल अपराध, कानूनी प्रावधान और श्रेया सिंघल फैसला

Himanshu Mishra

7 Jun 2025 11:54 AM

  • सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 65, 66 और 66A: डिजिटल अपराध, कानूनी प्रावधान और श्रेया सिंघल फैसला

    आज की डिजिटल दुनिया में जैसे-जैसे इंटरनेट और कंप्यूटर का उपयोग बढ़ रहा है, वैसे-वैसे साइबर अपराध (Cyber Crime) भी तेजी से बढ़े हैं। सरकार ने इन अपराधों से निपटने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (Information Technology Act, 2000) को लागू किया।

    इस अधिनियम का उद्देश्य इंटरनेट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर होने वाले अपराधों को नियंत्रित करना और डिजिटल डेटा को सुरक्षा प्रदान करना है। इस अधिनियम का अध्याय 11 यानी "अपराध (Offences)" बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह कंप्यूटर और नेटवर्क से संबंधित गंभीर अपराधों के लिए सजा का प्रावधान करता है। इस लेख में हम इसी अध्याय की तीन अहम धाराओं—धारा 65, 66 और 66A—की विस्तृत व्याख्या सरल हिंदी में करेंगे।

    धारा 65 – कंप्यूटर स्रोत दस्तावेज़ों के साथ छेड़छाड़ (Tampering with Computer Source Documents)

    यह धारा उन मामलों में लगाई जाती है जब कोई व्यक्ति जानबूझकर (Intentionally) या जानकारी रहते हुए (Knowingly) किसी कंप्यूटर स्रोत कोड (Computer Source Code) को छुपाता है, मिटाता है या बदल देता है, जबकि वह कोड किसी क़ानून के अनुसार संरक्षित किया जाना अनिवार्य होता है।

    कंप्यूटर स्रोत कोड (Computer Source Code) का अर्थ होता है: प्रोग्राम की लिस्टिंग, कंप्यूटर कमांड्स (Commands), डिज़ाइन और लेआउट (Design and Layout), तथा कंप्यूटर के आंतरिक विश्लेषण (Analysis) से जुड़ी कोई भी जानकारी जो इलेक्ट्रॉनिक रूप में होती है।

    मान लीजिए किसी सरकारी विभाग में एक सॉफ़्टवेयर डेवलपर ने विभाग की पूरी वेबसाइट का स्रोत कोड हटा दिया या उसमें बदलाव कर दिया, जिससे वेबसाइट बंद हो गई। अगर वह कोड कानून के तहत संरक्षित होना चाहिए था, तो यह व्यक्ति धारा 65 के अंतर्गत दोषी होगा।

    इस अपराध के लिए अधिकतम तीन साल की कैद, दो लाख रुपये तक जुर्माना या दोनों सजा हो सकती है।

    यह धारा इसीलिए बनाई गई है ताकि कंप्यूटर सिस्टम की पारदर्शिता और अखंडता बनी रहे और कोई व्यक्ति जानबूझकर सिस्टम को नुकसान न पहुंचा सके।

    धारा 66 – कंप्यूटर संबंधित अपराध (Computer Related Offences)

    इस धारा को धारा 43 के विस्तार के रूप में समझा जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति धोखाधड़ी (Fraudulently) या बेईमानी से (Dishonestly) कोई ऐसा कार्य करता है जो धारा 43 के तहत अपराध की श्रेणी में आता है, तो उस पर धारा 66 के अंतर्गत मामला दर्ज किया जा सकता है।

    यहाँ पर "धोखाधड़ी" और "बेईमानी" की परिभाषाएँ भारतीय दंड संहिता की धारा 25 और 24 से ली गई हैं। "Dishonestly" यानी जानबूझकर किसी को लाभ या हानि पहुँचाने के इरादे से किया गया कार्य। "Fraudulently" यानी किसी को धोखा देने के उद्देश्य से की गई गतिविधि।

    धारा 43 के अंतर्गत ऐसे कार्य शामिल हैं जैसे बिना अनुमति कंप्यूटर या नेटवर्क में प्रवेश करना, डेटा को चुराना, कंप्यूटर को नुकसान पहुँचाना, वायरस फैलाना, सिस्टम को बाधित करना आदि।

    मान लीजिए कोई कर्मचारी ऑफिस का डेटा पेनड्राइव में कॉपी करके बाहर बेच देता है या किसी का पासवर्ड हैक करके उसका सोशल मीडिया अकाउंट चला लेता है। यह सब कार्य धारा 66 के अंतर्गत आते हैं।

    इस धारा के तहत सजा तीन साल तक की कैद या पांच लाख रुपये तक का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। यह धारा कंप्यूटर सिस्टम की सुरक्षा के लिए अत्यंत आवश्यक है।

    धारा 66A – आपत्तिजनक संदेश भेजने पर सजा (Punishment for Sending Offensive Messages)

    धारा 66A को वर्ष 2008 में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम में जोड़ा गया था। इसका उद्देश्य था इंटरनेट और संचार उपकरणों के माध्यम से आपत्तिजनक, झूठी, धमकीभरी या घृणा फैलाने वाली जानकारी भेजने वालों पर अंकुश लगाना।

    इस धारा के तहत किसी भी व्यक्ति को सजा दी जा सकती थी अगर वह:

    (a) ऐसा कोई संदेश भेजे जो बहुत ज्यादा आपत्तिजनक हो या धमकी देता हो।

    (b) जानबूझकर झूठी जानकारी फैलाए जिससे किसी को परेशानी, खतरा, अपमान या नफरत हो।

    (c) किसी को बार-बार ईमेल या मैसेज भेजे जिससे वह व्यक्ति परेशान हो जाए या भ्रमित हो जाए।

    इसमें 'Electronic Mail' और 'Electronic Mail Message' की विस्तृत परिभाषा भी दी गई थी, जिसमें टेक्स्ट, ऑडियो, वीडियो आदि सभी प्रकार की इलेक्ट्रॉनिक सामग्री शामिल थी।

    सजा के तौर पर अधिकतम तीन साल की जेल और जुर्माना हो सकता था।

    लेकिन यह धारा बहुत जल्दी विवादों में आ गई क्योंकि इसका दुरुपयोग पुलिस और सरकार द्वारा किया जाने लगा। इसका सबसे बड़ा उदाहरण श्रेया सिंघल केस बना।

    श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार मामला (Shreya Singhal v. Union of India)

    यह मुकदमा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom of Speech and Expression) के अधिकार की रक्षा का सबसे बड़ा उदाहरण बन गया है।

    2012 में मुंबई में एक राजनीतिक नेता की मृत्यु के बाद एक लड़की ने फेसबुक पर एक पोस्ट डाली, जिसमें उन्होंने बंद का विरोध किया था। दूसरी लड़की ने उसे लाइक किया। इसके बाद दोनों को धारा 66A के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। इसने पूरे देश में चिंता और गुस्सा पैदा कर दिया।

    श्रेया सिंघल नाम की लॉ स्टूडेंट ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की। उन्होंने कहा कि धारा 66A बहुत व्यापक (Overbroad), अस्पष्ट (Vague) और असंवैधानिक (Unconstitutional) है। इसमें "Annoyance", "Inconvenience", "Hatred" जैसे शब्दों का कोई निश्चित मतलब नहीं है। इस धारा का उपयोग सरकार अपनी आलोचना को दबाने के लिए कर रही है।

    सरकार ने तर्क दिया कि इस धारा का उद्देश्य अशांति फैलाने वाले संदेशों को रोकना है और यह अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत 'Reasonable Restriction' के अंतर्गत आता है।

    सुप्रीम कोर्ट ने इस पर विचार करते हुए 24 मार्च 2015 को फैसला सुनाया। अदालत ने कहा कि:

    • धारा 66A संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन करती है।

    • यह धारा बहुत अस्पष्ट है और इसका उपयोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने के लिए किया जा सकता है।

    • यह 'Reasonable Restriction' की श्रेणी में नहीं आता।

    इसलिए अदालत ने धारा 66A को असंवैधानिक घोषित कर दिया और इसे निरस्त (Struck Down) कर दिया।

    यह फैसला ऐतिहासिक था और डिजिटल युग में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक नई पहचान मिली।

    धारा 66A के हटने के बावजूद उसका प्रयोग (Use After Striking Down)

    हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में स्पष्ट रूप से कहा कि धारा 66A अब कानून में नहीं है, फिर भी कई मामलों में पुलिस द्वारा इसका प्रयोग जारी रहा। 2021 में एक रिपोर्ट सामने आई जिसमें बताया गया कि देशभर में सैकड़ों मामलों में अब भी एफआईआर धारा 66A के तहत दर्ज हो रही हैं।

    इसके बाद फिर से एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई, जिसमें अदालत ने केंद्र सरकार और राज्यों को सख्त निर्देश दिए कि इस धारा का कोई भी प्रयोग अब पूरी तरह से अवैध (Illegal) है।

    सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 65 और 66 आज भी डिजिटल सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बेहद ज़रूरी हैं। ये धाराएं यह सुनिश्चित करती हैं कि कोई व्यक्ति कंप्यूटर प्रणाली से छेड़छाड़ या धोखाधड़ी नहीं कर सके।

    वहीं धारा 66A का इतिहास यह सिखाता है कि कानून में अस्पष्टता और मनमानी की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। यह एक चेतावनी है कि सरकारें कानूनी प्रावधानों का उपयोग नागरिकों की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए नहीं कर सकतीं।

    श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार का फैसला यह दर्शाता है कि भारत में नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा केवल संविधान से नहीं बल्कि न्यायपालिका की सतर्कता से भी होती है।

    आज, जब इंटरनेट हर व्यक्ति के जीवन का हिस्सा बन चुका है, तब यह ज़रूरी है कि हम कानूनों की सही समझ रखें और अपने डिजिटल अधिकारों और कर्तव्यों को पहचानें। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम का सही और न्यायपूर्ण उपयोग ही भारत को एक सुरक्षित डिजिटल राष्ट्र बना सकता है।

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