राजस्थान कोर्ट फीस और वाद मूल्यांकन अधिनियम, 1961 की धारा 48 और 49: उन Suits का मूल्य निर्धारण जिनके लिए कोई विशेष प्रावधान मौजूद नहीं है
Himanshu Mishra
1 May 2025 3:00 PM

धारा 48 का उद्देश्य उन वादों (Suits) की वैल्यू तय करना है जिनके लिए इस अधिनियम (Act) या किसी अन्य कानून (Law) में स्पष्ट रूप से कोई वैल्यू निर्धारण का तरीका नहीं दिया गया है।
उपधारा (1) कहती है कि यदि किसी वाद (Suit) की वैल्यू तय करने के लिए अदालत की अधिकारिता (Jurisdiction) के उद्देश्य से कोई विशेष प्रावधान मौजूद नहीं है, तो उस वाद की वैल्यू वही मानी जाएगी जो कोर्ट फीस (Court Fees) निकालने के लिए मानी जाती है। यानी, जिस रकम के आधार पर कोर्ट फीस ली जाती है, वही रकम अदालत की अधिकारिता तय करने के लिए भी मानी जाएगी।
उपधारा (2) यह स्पष्ट करती है कि यदि किसी वाद में फिक्स फीस (Fixed Fee) देनी होती है — यानी कोर्ट फीस एक निश्चित रकम होती है — तो अदालत की अधिकारिता के लिए वाद की वैल्यू उसके बाजार मूल्य (Market Value) के आधार पर होगी। यदि बाजार मूल्य तय करना संभव नहीं हो, तो वादी (Plaintiff) को अपने वाद पत्र (Plaint) में खुद से एक उपयुक्त रकम का उल्लेख करना होगा।
उदाहरण (Illustration):
अगर किसी व्यक्ति ने ऐसा वाद दायर किया है जिसमें यह माँग की गई है कि किसी वस्तु पर उसका अधिकार (Ownership) मान्यता प्राप्त करे, लेकिन उस वस्तु की कीमत का कोई तय मानक नहीं है, तो वादी को अपने वाद पत्र में खुद से उस वस्तु की एक कीमत लिखनी होगी। और यही कीमत अदालत की अधिकारिता और कोर्ट फीस दोनों के लिए मान्य होगी।
धारा 49 – अपील या पुनरीक्षण (Appeal or Revision) में अधिकारिता संबंधी आपत्ति की प्रक्रिया (Procedure Where Objection is Taken on Appeal or Revision That a Suit or Appeal Was Not Properly Valued for Jurisdictional Purposes)
(Section 49 – Procedure Regarding Objection to Jurisdiction Based on Valuation)
धारा 49 में उस स्थिति को समझाया गया है जब कोई पक्ष यह आपत्ति उठाता है कि वाद या अपील का मूल्यांकन गलत किया गया है — या तो अधिक (Over-valuation) या कम (Under-valuation) — जिससे कोई ऐसी अदालत ने सुनवाई कर ली जिसकी अधिकारिता नहीं थी। इस धारा के अनुसार, ऐसे मामलों में आपत्तियों को किस प्रकार से और कब उठाना चाहिए, इसका विस्तार से वर्णन किया गया है।
उपधारा (1) कहती है कि सिविल प्रक्रिया संहिता (Code of Civil Procedure), 1908 की धारा 99 में कुछ भी लिखा हो, फिर भी यदि यह आपत्ति उठाई जाती है कि गलत मूल्यांकन के कारण कोई अदालत वाद की सुनवाई कर बैठी जो कि उसे नहीं करनी चाहिए थी, तो अपील अदालत (Appellate Court) केवल दो शर्तों पर ही इस आपत्ति को मानेगी:
(क) यह आपत्ति पहली बार उसी निचली अदालत (Lower Court) में उठाई गई हो जहाँ मुद्दों (Issues) को पहली बार तय किया गया था, या फिर निचली अपील अदालत (Lower Appellate Court) में अपील दायर करते समय अपील पत्र (Memorandum of Appeal) में लिखी गई हो।
(ख) अपील अदालत को लिखित रूप में यह संतोष हो जाए कि वाद या अपील का मूल्यांकन सच में गलत था और इस वजह से वाद या अपील के निपटारे पर प्रभाव पड़ा है।
उदाहरण (Illustration):
मान लीजिए कि एक वादी ने ₹50,000 की वस्तु के लिए ऐसा वाद दायर कर दिया जिसकी सुनवाई की शक्ति सिर्फ सीनियर सिविल जज के पास थी, लेकिन वह वाद जूनियर जज ने सुन लिया। अब यदि प्रतिवादी (Defendant) पहली ही सुनवाई में इस बात की आपत्ति दर्ज करवा देता है, तो वह बाद में अपील में जाकर कह सकता है कि यह सुनवाई गलत कोर्ट में हुई।
उपधारा (2) यह कहती है कि यदि उपधारा (1)(क) में बताए गए तरीके से आपत्ति ली गई थी, लेकिन अपील अदालत को यह विश्वास नहीं हुआ कि दोनों शर्तें (यानी गलत मूल्यांकन और उसके कारण वाद के निपटारे में पूर्वाग्रह) पूरी हुई हैं, और अपील अदालत के पास बाकी अपील के निपटारे के लिए जरूरी सामग्री है, तो वह वाद को ऐसे ही निपटा सकती है जैसे कि कोई अधिकारिता की कमी नहीं थी।
उदाहरण (Illustration):
अगर अपील अदालत को लगता है कि वाद की सुनवाई भले ही गलत कोर्ट में हुई हो लेकिन इस कारण से न तो न्याय पर असर पड़ा और न ही वादी या प्रतिवादी को नुकसान हुआ, तो वह अपील को मेरिट (Merit) पर सुनकर निर्णय दे सकती है।
उपधारा (3) के अनुसार, अगर आपत्ति सही तरीके से उठाई गई थी और अपील अदालत को पूरा विश्वास हो जाता है कि वाद का मूल्यांकन वास्तव में गलत था और इससे वाद के निर्णय पर प्रभाव पड़ा है, लेकिन उसके पास बाकी अपील की सुनवाई के लिए जरूरी सामग्री उपलब्ध नहीं है, तो वह अपील को उचित प्रक्रिया के अनुसार निपटाएगी।
यदि वह वाद को वापस निचली अदालत में भेजती है (Remand), या मुद्दे तय करके भेजती है, या अतिरिक्त साक्ष्य (Evidence) मंगवाती है, तो उसे यह काम उसी अदालत से कराना होगा जो उस वाद को सुनने की अधिकारिता (Jurisdiction) रखती है।
उदाहरण (Illustration):
मान लीजिए कि किसी वाद को ₹2 लाख का दिखाकर जूनियर कोर्ट में दायर किया गया, लेकिन उसकी असली कीमत ₹10 लाख थी। इससे वाद उच्च स्तर की कोर्ट के क्षेत्र में आता था। अगर यह आपत्ति समय से उठाई गई हो और अपील कोर्ट को लगे कि इससे न्याय में हानि हुई है, और उसे जरूरी कागजात भी न मिले हों, तो वह वाद को फिर से सक्षम अदालत में भेज सकती है।
उपधारा (4) यह स्पष्ट करती है कि यह पूरी धारा केवल अपील अदालतों तक सीमित नहीं है, बल्कि वह अदालतें भी जिनके पास पुनरीक्षण (Revision) की शक्ति है — जैसे कि धारा 115, सिविल प्रक्रिया संहिता (Code of Civil Procedure, Section 115) के तहत — वे भी इसी प्रक्रिया को अपना सकती हैं, जहाँ तक यह लागू हो सकती है।
राजस्थान कोर्ट फीस और वाद मूल्यांकन अधिनियम, 1961 का अध्याय V अदालतों की अधिकारिता और कोर्ट फीस को लेकर स्पष्ट और व्यावहारिक दिशा देता है। धारा 48 यह सुनिश्चित करती है कि ऐसे वाद जिनके लिए कोई विशेष नियम नहीं है, उनका मूल्यांकन कैसे किया जाए।
वहीं धारा 49 यह बताती है कि यदि मूल्यांकन गलत हो जाए और इससे अधिकारिता पर असर पड़े तो उस स्थिति में क्या प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए। यह कानून न्याय की पारदर्शिता (Transparency) और प्रभावशीलता (Efficiency) बनाए रखने के लिए आवश्यक सुरक्षा उपाय (Safeguards) प्रदान करता है।