सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के अध्याय X की धाराएं 48, 57 से 60 : अपीली अधिकरण
Himanshu Mishra
5 Jun 2025 3:16 PM

सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (Information Technology Act, 2000) भारत में साइबर कानून से संबंधित प्रमुख कानून है, जो डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक लेन-देन, साइबर अपराध, डेटा सुरक्षा और इलेक्ट्रॉनिक प्रमाणन को कानूनी मान्यता देता है।
इस अधिनियम के अध्याय X में "अपील अधिकरण" (Appellate Tribunal) की व्यवस्था की गई है। यह अधिकरण उन मामलों की सुनवाई करता है जिनमें कोई व्यक्ति नियंत्रक (Controller) या न्यायनिर्णय अधिकारी (Adjudicating Officer) के आदेश से असंतुष्ट होता है।
धारा 48 - अपीली अधिकरण (Appellate Tribunal)
इस धारा के अनुसार, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के अंतर्गत अपीली अधिकरण वही होगा जो पहले से टेलीकॉम विनियामक प्राधिकरण अधिनियम, 1997 (TRAI Act) की धारा 14 के अंतर्गत स्थापित किया गया था, जिसे Telecom Disputes Settlement and Appellate Tribunal (TDSAT) कहा जाता है।
2017 के वित्त अधिनियम के तहत जब Part XIV of Chapter VI प्रभाव में आया, तब से TDSAT को सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के अपीली अधिकरण के रूप में अधिसूचित कर दिया गया।
इसका अर्थ यह है कि अब सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम से जुड़े मामलों में अपील करने के लिए कोई नया अधिकरण नहीं बनेगा, बल्कि TDSAT ही इन मामलों की सुनवाई करेगा। केंद्र सरकार अधिसूचना द्वारा यह तय करेगी कि कौन-से विषय और कौन-से स्थान पर यह अधिकरण अपना अधिकार क्षेत्र लागू करेगा।
उदाहरण: यदि किसी व्यक्ति पर नियंत्रक ने डिजिटल सर्टिफिकेट के दुरुपयोग के लिए ₹2 लाख का दंड लगाया है, और वह व्यक्ति उस आदेश से असंतुष्ट है, तो वह व्यक्ति अपीली अधिकरण यानी TDSAT में जाकर अपील कर सकता है।
धारा 57 - अपील का अधिकार (Appeal to Appellate Tribunal)
इस धारा के तहत, यदि किसी व्यक्ति को नियंत्रक या न्यायनिर्णय अधिकारी द्वारा दिए गए आदेश से आपत्ति है, तो वह व्यक्ति अपीली अधिकरण में अपील कर सकता है। लेकिन यदि यह आदेश दोनों पक्षों की सहमति से दिया गया हो, तो फिर अपील नहीं की जा सकती।
यह अपील संबंधित आदेश की प्रति प्राप्त होने की तिथि से 45 दिन के भीतर करनी होती है। अपील एक निर्धारित प्रारूप में और निर्धारित शुल्क के साथ दाखिल की जाती है। यदि अपील 45 दिन के भीतर नहीं हो पाती और व्यक्ति यह साबित कर देता है कि वह वैध कारणों से विलंबित हुई, तो अधिकरण विलंब से की गई अपील को भी स्वीकार कर सकता है।
अपील प्राप्त होने पर अधिकरण दोनों पक्षों को सुनवाई का अवसर देगा और उसके बाद यह निर्णय देगा कि मूल आदेश को बनाए रखा जाए, बदला जाए या रद्द कर दिया जाए।
इसके अलावा, अपीली अधिकरण यह प्रयास करेगा कि वह अपील को छह माह के भीतर निपटा दे।
उदाहरण: किसी व्यवसायी पर एक न्यायनिर्णय अधिकारी ने यह कहते हुए ₹1 करोड़ का जुर्माना लगाया कि उसने ग्राहकों का डेटा असुरक्षित तरीके से स्टोर किया था। व्यवसायी इस आदेश से संतुष्ट नहीं है और 30 दिन बाद अपीली अधिकरण में अपील करता है। यदि सब कुछ उचित पाया गया, तो अधिकरण 6 माह के भीतर उसका निर्णय दे देगा।
धारा 58 - अपीली अधिकरण की प्रक्रिया और शक्तियाँ (Procedure and Powers of the Appellate Tribunal)
यह धारा बताती है कि अपीली अधिकरण को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908) की कठोर प्रक्रिया का पालन करने की आवश्यकता नहीं है। इसके बजाय, उसे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों (Principles of Natural Justice) द्वारा निर्देशित किया जाएगा।
यह अधिकरण अपने तरीके से कार्य करने के लिए स्वतंत्र है, और यह भी तय कर सकता है कि वह किस स्थान पर बैठेगा और कैसे कार्यवाही करेगा। इस प्रकार, अधिकरण को प्रक्रिया तय करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है।
धारा 58(2) में कहा गया है कि अधिकरण को कुछ शक्तियाँ सिविल न्यायालय जैसी प्राप्त हैं:
जैसे –
• किसी व्यक्ति को बुलाना और शपथ पर उसका बयान लेना।
• दस्तावेज़ों या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की खोज और प्रस्तुति की मांग करना।
• हलफनामा (affidavit) पर साक्ष्य स्वीकार करना।
• गवाहों और दस्तावेजों की जांच के लिए आयोग जारी करना।
• अपने निर्णयों की समीक्षा करना।
• किसी आवेदन को अनुपस्थिति में खारिज करना या एकपक्षीय (ex parte) निर्णय देना।
• अन्य ऐसे मामले जिन्हें नियमों द्वारा निर्धारित किया जा सकता है।
हर कार्यवाही न्यायिक मानी जाएगी, यानी भारतीय दंड संहिता की धारा 193 और 228 (जो झूठी गवाही और न्यायालय का अपमान करने से संबंधित हैं) इस पर लागू होंगी। यह अधिकरण दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 195 और अध्याय XXVI के तहत सिविल न्यायालय माना जाएगा।
उदाहरण: अगर अपील में कोई गवाह झूठा बयान देता है, तो उसे भारतीय दंड संहिता के तहत सजा हो सकती है, क्योंकि यह कार्यवाही न्यायिक मानी जाती है।
धारा 59 - कानूनी प्रतिनिधित्व का अधिकार (Right to Legal Representation)
धारा 59 यह स्पष्ट करती है कि अपीलकर्ता स्वयं अधिकरण में उपस्थित होकर अपनी बात रख सकता है, या फिर किसी कानूनी अधिवक्ता (Legal Practitioner) को अधिकरण के समक्ष अपनी ओर से उपस्थित होने के लिए नियुक्त कर सकता है।
अगर अपीलकर्ता कोई संस्था है, तो वह अपने किसी अधिकारी को भी अधिकरण के समक्ष पेश होने का अधिकार दे सकती है।
उदाहरण: यदि कोई व्यक्ति एक कंपनी के प्रतिनिधि के रूप में अपील करता है, तो वह कंपनी अपने लीगल ऑफिसर को अधिकरण में भेज सकती है, या किसी वकील की नियुक्ति भी कर सकती है।
धारा 60 - सीमा अधिनियम का अनुप्रयोग (Limitation)
धारा 60 में कहा गया है कि सीमा अधिनियम, 1963 (Limitation Act, 1963) की प्रावधानों को अपीली अधिकरण में की जाने वाली अपीलों पर भी, यथासंभव, लागू किया जाएगा।
इसका अर्थ है कि समय सीमा और देरी से संबंधित नियम वही होंगे जो सामान्य दीवानी मामलों में होते हैं। इससे अपील की प्रक्रिया एक निश्चित समय सीमा के भीतर पूरी करने में सहायता मिलती है।
उदाहरण: अगर किसी व्यक्ति को नियंत्रक का आदेश 1 जनवरी को मिला और वह अपील 20 मार्च को करता है (जबकि 45 दिन की सीमा 15 फरवरी को समाप्त हो गई थी), तो उसे यह बताना होगा कि अपील में देरी का कारण क्या था। यदि कारण पर्याप्त पाया गया, तो अधिकरण उसकी अपील स्वीकार कर सकता है।
सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के अध्याय X की धाराएं डिजिटल और साइबर विवादों के न्यायिक समाधान की प्रक्रिया को स्पष्ट रूप से निर्धारित करती हैं। अपीली अधिकरण (TDSAT) को एक सशक्त मंच के रूप में निर्धारित किया गया है जो डिजिटल अनुशासन और न्याय सुनिश्चित करने का कार्य करता है। इसके द्वारा यह सुनिश्चित किया गया है कि नियंत्रक या न्यायनिर्णय अधिकारी के निर्णय से असंतुष्ट व्यक्ति को न्याय का अवसर प्राप्त हो।
धाराओं 48, 57 से 60 के माध्यम से यह बताया गया है कि अपील कैसे दायर की जा सकती है, किस अधिकारी के समक्ष की जा सकती है, अधिकरण की कार्यप्रणाली क्या होगी, कौन-कौन कानूनी प्रतिनिधित्व कर सकते हैं और समयसीमा क्या होगी। इन प्रावधानों की व्यावहारिक और न्यायिक उपयोगिता भारत के साइबर कानून ढांचे को मज़बूत करती है और नागरिकों को पारदर्शी न्यायिक प्रक्रिया प्रदान करती है।