जल अधिनियम, 1974 की धारा 39 और 40 : वार्षिक प्रतिवेदन और लेखा-परीक्षा की अनिवार्यता
Himanshu Mishra
4 Sept 2025 9:02 PM IST

जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 का प्रमुख उद्देश्य देश में जल प्रदूषण को नियंत्रित करना और स्वच्छ जल की उपलब्धता सुनिश्चित करना है। यह अधिनियम न केवल प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को विभिन्न नियामक शक्तियाँ प्रदान करता है, बल्कि उनके कार्यों में पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और जवाबदेही को भी अनिवार्य बनाता है।
इसी दृष्टि से अधिनियम की धारा 39 और धारा 40 अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये प्रावधान वार्षिक प्रतिवेदन (Annual Report) और लेखा-परीक्षा (Audit of Accounts) से संबंधित हैं। इन धाराओं के माध्यम से यह सुनिश्चित किया गया है कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की कार्यवाही केवल प्रशासनिक या नियामक न होकर, सार्वजनिक और विधायी निगरानी (Legislative Oversight) के अंतर्गत भी आए।
धारा 39 : वार्षिक प्रतिवेदन (Annual Report)
धारा 39 में यह व्यवस्था की गई है कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Board) और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (State Board), दोनों को प्रत्येक वित्तीय वर्ष के अंत में अपनी गतिविधियों का विस्तृत प्रतिवेदन तैयार करना होगा।
केंद्रीय बोर्ड की जिम्मेदारी
केंद्रीय बोर्ड को हर वित्तीय वर्ष में एक वार्षिक प्रतिवेदन तैयार करना होगा, जिसमें अधिनियम के अंतर्गत किए गए सभी कार्यों का पूरा ब्यौरा शामिल होगा। यह प्रतिवेदन, पिछले वित्तीय वर्ष की गतिविधियों का विवरण देगा। उदाहरण के लिए, यदि वर्ष 2024-25 के कार्यकलापों का प्रतिवेदन बनाना है, तो इसे वित्तीय वर्ष की समाप्ति (31 मार्च 2025) के चार माह के भीतर, यानी 31 जुलाई 2025 तक तैयार कर केंद्र सरकार को सौंपना होगा।
इसके बाद, केंद्र सरकार का दायित्व है कि इस प्रतिवेदन को संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के पटल पर रखा जाए। यह प्रक्रिया नौ माह की अवधि में पूरी होनी चाहिए। इसका उद्देश्य यह है कि संसद बोर्ड की कार्यप्रणाली पर निगरानी रख सके और यदि किसी प्रकार की कमियाँ या चुनौतियाँ सामने आएँ तो उन्हें नीतिगत स्तर पर सुधारा जा सके।
राज्य बोर्ड की जिम्मेदारी
इसी प्रकार, प्रत्येक राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को भी हर वर्ष का प्रतिवेदन तैयार कर राज्य सरकार को चार माह के भीतर सौंपना होगा। राज्य सरकार इसे राज्य विधानमंडल के समक्ष नौ माह की अवधि में प्रस्तुत करेगी। उदाहरण के लिए, राजस्थान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा प्रस्तुत वार्षिक प्रतिवेदन राज्य विधान सभा के समक्ष रखा जाएगा, ताकि विधायकों को बोर्ड की कार्यवाही पर विचार-विमर्श का अवसर मिल सके।
प्रासंगिकता
इस प्रावधान का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि प्रदूषण नियंत्रण जैसे जटिल विषय में पारदर्शिता और जन-जवाबदेही अत्यंत आवश्यक है। यदि बोर्ड अपनी गतिविधियों का स्पष्ट ब्योरा संसद या विधानमंडल को नहीं देगा, तो उनकी कार्यप्रणाली में लापरवाही या मनमानी की संभावना बढ़ सकती है।
धारा 40 : लेखा और लेखा-परीक्षा (Accounts and Audit)
धारा 40 प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की वित्तीय कार्यप्रणाली पर नियंत्रण की व्यवस्था करती है। यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि बोर्ड द्वारा प्राप्त धनराशि और उसका व्यय विधिवत दर्ज हो और स्वतंत्र लेखा-परीक्षण के माध्यम से उसकी जाँच की जा सके।
उपधारा (1): लेखा-प्रबंधन की अनिवार्यता
हर बोर्ड को उचित रूप से अपने लेखे और अन्य वित्तीय अभिलेखों (Records) का रख-रखाव करना होगा। साथ ही, उसे वार्षिक लेखा-विवरणी (Annual Statement of Accounts) भी तैयार करनी होगी। यह विवरणी उस स्वरूप में तैयार होगी, जिसे केंद्र सरकार या राज्य सरकार निर्धारित करेगी।
उपधारा (2) और (3): लेखा-परीक्षक की नियुक्ति
बोर्ड के खातों की जाँच एक ऐसे लेखा-परीक्षक (Auditor) द्वारा की जाएगी, जो कंपनी अधिनियम, 1956 की धारा 226 के अंतर्गत कंपनी का ऑडिटर बनने के योग्य हो। इस लेखा-परीक्षक की नियुक्ति केंद्र या राज्य सरकार द्वारा की जाएगी, किंतु इसके लिए भारत के महालेखा परीक्षक (Comptroller and Auditor General of India - CAG) की सलाह आवश्यक होगी।
उपधारा (4): ऑडिटर की शक्तियां
लेखा-परीक्षक को यह अधिकार है कि वह बोर्ड के सभी लेखा-बही (Books of Accounts), वाउचर, दस्तावेज़ और कार्यालयों का निरीक्षण करे। इसका उद्देश्य यह है कि लेखा-परीक्षण केवल औपचारिकता न रहकर, वास्तविक और गहन हो।
उपधारा (5) से (7): प्रतिवेदन और उसका प्रस्तुतिकरण
लेखा-परीक्षक अपनी रिपोर्ट और जाँचे हुए खातों की प्रतिलिपि संबंधित सरकार को सौंपेगा। इसके बाद,
• केंद्र सरकार संसद के समक्ष इस रिपोर्ट को प्रस्तुत करेगी।
• राज्य सरकार अपनी विधानमंडल के समक्ष रिपोर्ट रखेगी।
इस प्रक्रिया से यह सुनिश्चित होता है कि बोर्ड द्वारा प्राप्त धनराशि (चाहे वह केंद्र या राज्य सरकार से अनुदान, शुल्क या अन्य स्रोतों से प्राप्त हो) का उपयोग उचित और पारदर्शी ढंग से हुआ है।
धारा 39 और 40 की पूर्ववर्ती धाराओं से संबंध
धारा 34 से 38 में बोर्डों के कोष (Fund), अनुदान (Grants), उधार लेने की शक्तियाँ (Borrowing Powers) और बजट (Budget) संबंधी व्यवस्थाएँ दी गई थीं। इन प्रावधानों में यह स्पष्ट किया गया था कि बोर्डों को केंद्र और राज्य सरकारों से अनुदान प्राप्त हो सकता है, वे अपने कोष से व्यय कर सकते हैं और आवश्यकतानुसार उधार भी ले सकते हैं।
धारा 39 और 40 इन प्रावधानों की अगली कड़ी हैं, क्योंकि जब बोर्ड कोष का उपयोग करेगा, तो उसकी वार्षिक गतिविधियों की जानकारी प्रतिवेदन के माध्यम से और उसके वित्तीय व्यय की जाँच लेखा-परीक्षा के माध्यम से सार्वजनिक होगी। इस प्रकार, इन धाराओं का मुख्य उद्देश्य आर्थिक अनुशासन और पारदर्शिता सुनिश्चित करना है।
व्यावहारिक उदाहरण
मान लीजिए, किसी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वर्ष 2023-24 में 200 करोड़ रुपये का व्यय प्रदूषण नियंत्रण परियोजनाओं पर किया। यदि यह प्रतिवेदन विधानमंडल में प्रस्तुत होता है, तो विधायक यह पूछ सकते हैं कि इस व्यय से वास्तविक परिणाम क्या निकले? क्या प्रदूषित नदियों का स्तर सुधरा? क्या औद्योगिक क्षेत्रों में प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र प्रभावी रूप से कार्य कर रहे हैं?
इसी तरह, यदि लेखा-परीक्षा में यह सामने आता है कि बोर्ड ने 10 करोड़ रुपये ऐसे कार्यों पर खर्च किए जिनका कोई व्यावहारिक परिणाम नहीं निकला, तो सरकार उस पर कार्यवाही कर सकती है। यह व्यवस्था न केवल धन के दुरुपयोग को रोकती है, बल्कि बोर्ड को जिम्मेदारीपूर्वक कार्य करने के लिए बाध्य भी करती है।
धारा 39 और 40, जल अधिनियम, 1974 में प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और वित्तीय अनुशासन सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण प्रावधान हैं। धारा 39 के माध्यम से संसद और विधानमंडलों को बोर्ड की वार्षिक गतिविधियों पर निगरानी का अवसर मिलता है, जबकि धारा 40 लेखा-परीक्षा की सख्त व्यवस्था करके वित्तीय गड़बड़ियों को रोकती है।
इन धाराओं का महत्व केवल विधायी औपचारिकता तक सीमित नहीं है, बल्कि वे पर्यावरणीय शासन (Environmental Governance) के मूल तत्वों पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और जन-जवाबदेही को सशक्त बनाती हैं। इस प्रकार, धारा 39 और 40 मिलकर यह सुनिश्चित करती हैं कि जल प्रदूषण नियंत्रण के लिए बनाए गए बोर्ड न केवल कार्य करें, बल्कि अपने कार्यों और व्ययों का सार्वजनिक और विधायी स्तर पर पूर्ण हिसाब भी दें।

