Indian Partnership Act, 1932 की धारा 32-36 : 'होल्डिंग आउट' द्वारा भागीदार की देनदारी
Himanshu Mishra
7 July 2025 4:58 PM IST

भागीदार का निष्कासन (Expulsion of a Partner)
भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 (Indian Partnership Act, 1932) की धारा 33 (Section 33) एक भागीदार के निष्कासन (Expulsion) से संबंधित है।
1. निष्कासन के लिए नियम (Rules for Expulsion): किसी भागीदार को भागीदारों के किसी भी बहुमत (Majority of the Partners) द्वारा फर्म से निष्कासित नहीं किया जा सकता है, सिवाय इसके कि जब भागीदारों के बीच के अनुबंध (Contract) द्वारा प्रदान की गई शक्तियों (Powers) का सद्भावना (Good Faith) में उपयोग किया गया हो। इसका मतलब है कि केवल बहुमत के आधार पर किसी भागीदार को बाहर नहीं निकाला जा सकता; निष्कासन तभी वैध है जब यह भागीदारी समझौते में स्पष्ट रूप से उल्लिखित हो और निष्पक्ष तरीके से किया गया हो।
2. निष्कासित भागीदार पर लागू प्रावधान (Provisions Applicable to Expelled Partner): धारा 32 (Section 32) की उप-धारा (2), (3) और (4) के प्रावधान एक निष्कासित भागीदार (Expelled Partner) पर उसी तरह लागू होंगे जैसे कि वह एक सेवानिवृत्त भागीदार (Retired Partner) होता। इसका अर्थ है कि निष्कासित भागीदार भी तीसरे पक्षों के प्रति देनदारी से मुक्ति पा सकता है यदि सार्वजनिक सूचना दी जाती है, और सार्वजनिक सूचना न देने तक उसकी देनदारी जारी रह सकती है।
भागीदार का दिवालियापन (Insolvency of a Partner)
धारा 34 (Section 34) एक भागीदार के दिवालियापन (Insolvency) से उत्पन्न होने वाली स्थितियों को नियंत्रित करती है:
1. दिवालिया घोषित होने पर भागीदारी की समाप्ति (Cessation of Partnership on Adjudication as Insolvent): जहां किसी फर्म में एक भागीदार को दिवालिया घोषित (Adjudicated an Insolvent) किया जाता है, तो वह उस तारीख को भागीदार नहीं रहता है जिस पर दिवालिया घोषित करने का आदेश (Order of Adjudication) दिया जाता है, भले ही फर्म इससे भंग हो या न हो। यह स्वचालित रूप से उसकी भागीदारी समाप्त कर देता है।
2. दिवालियापन के बाद देनदारी (Liability After Insolvency): जहां भागीदारों के बीच एक अनुबंध के तहत फर्म किसी भागीदार के दिवालिया घोषित होने से भंग नहीं होती है, तो उस भागीदार की संपत्ति (Estate of a Partner) जिसे दिवालिया घोषित किया गया है, दिवालिया घोषित करने का आदेश दिए जाने की तारीख के बाद फर्म द्वारा किए गए किसी भी कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं होती है। इसी तरह, फर्म भी दिवालिया भागीदार द्वारा उस तारीख के बाद किए गए किसी भी कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं होती है। यह प्रावधान फर्म और दिवालिया भागीदार दोनों को एक-दूसरे के भविष्य के कार्यों के लिए असीमित देनदारी से बचाता है।
मृतक भागीदार की संपत्ति की देनदारी (Liability of Estate of Deceased Partner)
धारा 35 (Section 35) मृतक भागीदार (Deceased Partner) की संपत्ति की देनदारी से संबंधित है:
जहां भागीदारों के बीच एक अनुबंध के तहत फर्म किसी भागीदार की मृत्यु (Death) से भंग नहीं होती है, तो एक मृतक भागीदार की संपत्ति उसकी मृत्यु के बाद फर्म द्वारा किए गए किसी भी कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं होती है। यह प्रावधान मृतक भागीदार के वारिसों (Heirs) को फर्म के भविष्य के ऋणों (Debts) और देनदारियों (Liabilities) से बचाता है, बशर्ते फर्म मृत्यु पर भंग न हो। यह धारा 28 (2) (Section 28 (2)) से भी संबंधित है, जो पुराने फर्म के नाम के निरंतर उपयोग के बावजूद मृतक भागीदार की संपत्ति की देनदारी को सीमित करती है।
बाहर जाने वाले भागीदार का प्रतिस्पर्धी व्यवसाय चलाने का अधिकार और व्यापार प्रतिबंध में समझौते (Rights of Outgoing Partner to Carry on Competing Business. Agreements in Restraint of Trade)
धारा 36 (Section 36) एक बाहर जाने वाले भागीदार (Outgoing Partner) के अधिकारों और व्यापार प्रतिबंधों (Restraint of Trade) से संबंधित समझौतों पर चर्चा करती है:
1. प्रतिस्पर्धी व्यवसाय चलाने का अधिकार (Right to Carry on Competing Business): एक बाहर जाने वाला भागीदार फर्म के साथ प्रतिस्पर्धा (Competing) करने वाला व्यवसाय चला सकता है और वह ऐसे व्यवसाय का विज्ञापन (Advertise) भी कर सकता है।
हालांकि, किसी विपरीत अनुबंध के अधीन रहते हुए, वह निम्न कार्य नहीं कर सकता:
• (क) फर्म के नाम का उपयोग (Use the Firm Name): वह फर्म के नाम का उपयोग नहीं कर सकता।
• (ख) खुद को फर्म का व्यवसाय चलाने वाले के रूप में प्रस्तुत करना (Represent Himself as Carrying on the Business of the Firm): वह खुद को यह नहीं दिखा सकता कि वह फर्म का व्यवसाय चला रहा है।
• (ग) ग्राहकों को आकर्षित करना (Solicit the Custom): वह उन व्यक्तियों के ग्राहकों को आकर्षित नहीं कर सकता (Solicit the Customer) जो उसके भागीदार न रहने से पहले फर्म के साथ व्यवहार कर रहे थे। ये प्रतिबंध फर्म की सद्भावना (Goodwill) की रक्षा करते हैं।
2. व्यापार प्रतिबंध में वैध समझौते (Valid Agreements in Restraint of Trade): एक भागीदार अपने भागीदारों के साथ एक समझौता कर सकता है कि भागीदार न रहने पर वह एक निर्दिष्ट अवधि (Specified Period) के भीतर या निर्दिष्ट स्थानीय सीमाओं (Specified Local Limits) के भीतर फर्म के समान प्रकृति का कोई व्यवसाय नहीं करेगा। भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (Indian Contract Act, 1872) की धारा 27 (Section 27) में निहित किसी भी बात के बावजूद, ऐसा समझौता मान्य (Valid) होगा यदि लगाए गए प्रतिबंध उचित (Reasonable) हों।
भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 27 (Section 27 of the Indian Contract Act, 1872)
यह धारा व्यापार के प्रतिबंध में समझौतों (Agreements in Restraint of Trade) से संबंधित है। धारा 27 मूल रूप से यह प्रावधान करती है कि हर समझौता जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति किसी भी वैध व्यवसाय (Lawful Profession), व्यापार (Trade) या व्यवसाय को चलाने से प्रतिबंधित होता है, वह शून्य (Void) होता है। इसका अर्थ है कि सामान्य नियम यह है कि आप किसी व्यक्ति को अपना व्यवसाय करने से नहीं रोक सकते।
हालांकि, भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 36 (2) इस सामान्य नियम का एक महत्वपूर्ण अपवाद (Exception) है। यह भागीदार को फर्म से बाहर निकलने पर प्रतिस्पर्धी व्यवसाय चलाने से रोकने के लिए उचित (Reasonable) प्रतिबंधों के साथ एक समझौता करने की अनुमति देता है। 'उचित' (Reasonable) का अर्थ आमतौर पर अवधि (Duration) और भौगोलिक क्षेत्र (Geographical Area) के संदर्भ में होता है। यदि ये प्रतिबंध अनुचित (Unreasonable) हैं, तो वे अमान्य (Invalid) होंगे। यह अपवाद भागीदारी फर्मों को अपने ग्राहकों और सद्भावना को पूर्व भागीदारों से अनुचित प्रतिस्पर्धा (Unfair Competition) से बचाने में मदद करता है।

