हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 26-27: बच्चों की अभिरक्षा और संपत्ति का निपटारा

Himanshu Mishra

23 July 2025 5:55 PM IST

  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 26-27: बच्चों की अभिरक्षा और संपत्ति का निपटारा

    हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955) न केवल विवाह को नियंत्रित करता है बल्कि इसके विघटन (Dissolution) से उत्पन्न होने वाले महत्वपूर्ण पहलुओं, विशेष रूप से बच्चों के कल्याण (Welfare of Children) और विवाह के समय प्राप्त संपत्ति (Property acquired during marriage) के निपटारे पर भी ध्यान केंद्रित करता है।

    धारा 26 (Section 26) नाबालिग बच्चों की अभिरक्षा (Custody of Minor Children), भरण-पोषण (Maintenance) और शिक्षा (Education) से संबंधित है, जबकि धारा 27 (Section 27) विवाह से संबंधित संपत्ति के निपटान के लिए न्यायालय को अधिकार प्रदान करती है। ये धाराएँ यह सुनिश्चित करती हैं कि वैवाहिक विवादों में भी बच्चों के सर्वोत्तम हित (Best Interests of Children) सर्वोपरि रहें और संपत्ति का न्यायोचित (Equitable) वितरण हो।

    धारा 26. बच्चों की अभिरक्षा (Custody of children)

    इस अधिनियम के तहत किसी भी कार्यवाही में, न्यायालय समय-समय पर, नाबालिग बच्चों की अभिरक्षा (Custody), भरण-पोषण (Maintenance) और शिक्षा (Education) के संबंध में ऐसे अंतरिम आदेश (Interim Orders) पारित कर सकता है और डिक्री में ऐसे प्रावधान (Provisions) कर सकता है जैसा वह न्यायोचित (Just) और उचित (Proper) समझे, जहाँ भी संभव हो, उनकी इच्छाओं (Their Wishes) के अनुरूप।

    डिक्री के बाद, इस उद्देश्य के लिए याचिका (Petition) के आवेदन पर, समय-समय पर, ऐसे बच्चों की अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में ऐसे सभी आदेश और प्रावधान कर सकता है जैसे कि डिक्री प्राप्त करने की कार्यवाही अभी भी लंबित होने की स्थिति में ऐसे डिक्री या अंतरिम आदेशों द्वारा किए जा सकते थे, और न्यायालय ऐसे पहले से किए गए किसी भी आदेश और प्रावधान को समय-समय पर रद्द (Revoke), निलंबित (Suspend) या बदल (Vary) भी सकता है।

    स्पष्टीकरण: यह धारा वैवाहिक कार्यवाही में नाबालिग बच्चों के कल्याण के लिए न्यायालय की व्यापक शक्तियों (Wide Powers) को रेखांकित करती है। यह बच्चों से संबंधित तीन प्रमुख क्षेत्रों को कवर करती है:

    1. अभिरक्षा (Custody): यह तय करना कि बच्चे किसके साथ रहेंगे और कौन उनकी देखभाल करेगा।

    2. भरण-पोषण (Maintenance): बच्चों के जीवन-यापन के खर्चों को कौन वहन करेगा।

    3. शिक्षा (Education): बच्चों की शैक्षिक आवश्यकताओं को कैसे पूरा किया जाएगा।

    महत्वपूर्ण बिंदु:

    • अंतरिम आदेश और डिक्री में प्रावधान: न्यायालय मामले के लंबित रहने के दौरान अस्थायी आदेश (Temporary Orders) दे सकता है और अंतिम डिक्री (Final Decree) में भी स्थायी प्रावधान कर सकता है।

    • बच्चों की इच्छाएँ (Wishes of Children): जहाँ संभव हो, न्यायालय बच्चों की इच्छाओं (विशेषकर बड़े बच्चों की) को ध्यान में रखेगा, लेकिन यह एकमात्र निर्णायक कारक नहीं होता। बच्चों के सर्वोत्तम हित (Best Interests) सर्वोपरि होते हैं।

    • डिक्री के बाद भी आदेश की शक्ति: न्यायालय के पास डिक्री पारित होने के बाद भी, बच्चों की अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा से संबंधित आदेशों को पारित करने, बदलने या संशोधित करने की शक्ति होती है। यह प्रावधान महत्वपूर्ण है क्योंकि बच्चों की ज़रूरतें और परिस्थितियाँ समय के साथ बदलती रहती हैं।

    • रद्द करना, निलंबित करना या बदलना (Revoke, Suspend or Vary): न्यायालय पहले दिए गए किसी भी आदेश को परिस्थितियों में बदलाव के कारण रद्द, निलंबित या बदल सकता है।

    उदाहरण: तलाक की कार्यवाही के दौरान, न्यायालय माता-पिता में से एक को बच्चों की अंतरिम अभिरक्षा दे सकता है और दूसरे को मासिक भरण-पोषण का भुगतान करने का आदेश दे सकता है। अंतिम तलाक की डिक्री में, न्यायालय बच्चों की स्थायी अभिरक्षा और भरण-पोषण तय करेगा। यदि बाद में बच्चों की आयु बढ़ती है और वे अपनी इच्छा व्यक्त करते हैं, या यदि माता-पिता में से किसी की वित्तीय स्थिति बदल जाती है, तो कोई भी पक्ष न्यायालय से आदेश को संशोधित करने के लिए आवेदन कर सकता है।

    परंतु (Provided that) नाबालिग बच्चों के भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में आवेदन, ऐसे डिक्री को प्राप्त करने की कार्यवाही लंबित रहने तक, जहाँ तक संभव हो, प्रतिवादी पर सूचना की तामील (Service of Notice) की तारीख से साठ दिनों के भीतर (Within sixty days) निपटाया जाएगा।

    स्पष्टीकरण: यह परंतुक बच्चों के भरण-पोषण और शिक्षा से संबंधित अंतरिम आवेदनों के त्वरित निपटारे (Expeditious Disposal) को अनिवार्य करता है। यह सुनिश्चित करता है कि बच्चों की तात्कालिक जरूरतों को बिना किसी अनावश्यक देरी के पूरा किया जाए।

    महत्वपूर्ण केस लॉ (Landmark Case Law):

    1. गौरव मेहरा बनाम रीना मेहरा (Gaurav Mehra v. Reena Mehra), 2007 (दिल्ली हाईकोर्ट):

    o इस मामले में न्यायालय ने बच्चों की अभिरक्षा तय करते समय बच्चों के सर्वोत्तम हित (Best Interests of Children) के सिद्धांत पर जोर दिया। न्यायालय ने कहा कि माता-पिता का व्यक्तिगत अधिकार नहीं बल्कि बच्चे का कल्याण ही प्राथमिक विचार है।

    2. संजय बाजपेयी बनाम किरण बाजपेयी (Sanjay Bajpai v. Kiran Bajpai), 2008 (मध्य प्रदेश हाईकोर्ट):

    o इस मामले में न्यायालय ने धारा 26 के तहत "बच्चों की इच्छाओं" पर विचार करने की आवश्यकता को स्पष्ट किया, विशेष रूप से जब बच्चे पर्याप्त समझ और परिपक्वता (Sufficient Understanding and Maturity) रखते हों। हालांकि, न्यायालय ने यह भी कहा कि बच्चे की इच्छा अंतिम नहीं है, और इसका मूल्यांकन अन्य प्रासंगिक कारकों के साथ किया जाना चाहिए।

    धारा 27. संपत्ति का निपटारा (Disposal of property)

    इस अधिनियम के तहत किसी भी कार्यवाही में, न्यायालय डिक्री में ऐसे प्रावधान कर सकता है जैसा वह न्यायोचित (Just) और उचित (Proper) समझे, किसी भी ऐसी संपत्ति के संबंध में जो विवाह के समय या उसके आसपास प्रस्तुत की गई थी, और जो पति और पत्नी दोनों की संयुक्त रूप से (Jointly to both the husband and the wife) हो सकती है।

    स्पष्टीकरण: यह धारा न्यायालय को वैवाहिक कार्यवाही के दौरान एक महत्वपूर्ण शक्ति प्रदान करती है: विवाह से संबंधित कुछ विशिष्ट संपत्तियों का निपटारा (Disposal of Certain Specific Properties related to Marriage) करना। यह शक्ति उन संपत्तियों तक सीमित है जो विवाह के समय या उसके आसपास (At or about the time of marriage) प्रस्तुत की गई थीं, और जो पति और पत्नी दोनों की संयुक्त रूप से थी।

    • यह धारा व्यापक संपत्ति निपटान (Comprehensive Property Settlement) के लिए नहीं है जो विभिन्न विवाहों में अर्जित सभी संपत्तियों को कवर करती है। इसका मुख्य ध्यान उन संपत्तियों पर है जो उपहार के रूप में (जैसे शादी के तोहफे), या दहेज के रूप में, या संयुक्त रूप से खरीदी गई थीं, और जिनका विवाह से सीधा संबंध है।

    • न्यायालय को ऐसी संपत्ति का निपटारा करते समय न्याय और औचित्य (Justice and Propriety) के सिद्धांतों का पालन करना होता है।

    उदाहरण: यदि शादी के समय दुल्हन को उसके माता-पिता द्वारा कुछ गहने दिए गए थे, और शादी के समय दूल्हे और दुल्हन दोनों के परिवारों से कुछ नकद उपहार मिले थे, जिसे एक संयुक्त खाते में रखा गया था, तो तलाक की कार्यवाही में न्यायालय इन गहनों और संयुक्त निधि के उचित निपटारे का आदेश दे सकता है।

    महत्वपूर्ण केस लॉ:

    1. प्रणेश बनाम मंजू (Pranesh v. Manju), 2012 (कर्नाटक हाईकोर्ट):

    o इस मामले में न्यायालय ने धारा 27 के दायरे की व्याख्या की। न्यायालय ने कहा कि यह धारा उन संपत्तियों तक ही सीमित है जो विवाह के समय या उसके आसपास प्रस्तुत की गई थीं और जो पति और पत्नी की संयुक्त संपत्ति (Joint Property) हैं। यह उन संपत्तियों पर लागू नहीं होती जो एक पक्ष की व्यक्तिगत संपत्ति (Individual Property) हैं या जो विवाह के बाद अलग से अर्जित की गई थीं।

    2. पूजा चौहान बनाम प्रवीण चौहान (Pooja Chauhan v. Praveen Chauhan), 2017 (दिल्ली हाईकोर्ट):

    o इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 27 का उद्देश्य पति और पत्नी के बीच उन संपत्तियों का न्यायसंगत वितरण (Equitable Distribution) करना है जो विवाह के कारण उनके संयुक्त कब्जे में आ गई थीं, जैसे शादी के उपहार या गहने जो संयुक्त रूप से दिए गए थे। न्यायालय को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि निपटारा न्यायोचित हो।

    हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 26 और 27 वैवाहिक विवादों के बाद उत्पन्न होने वाले दो महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दों को प्रभावी ढंग से संबोधित करती हैं। धारा 26 बच्चों के कल्याण को सर्वोपरि रखती है, न्यायालयों को उनकी अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में लचीले और स्थायी आदेश पारित करने की शक्ति प्रदान करती है, और बच्चों की इच्छाओं को भी महत्व देती है।

    वहीं, धारा 27 विवाह से संबंधित विशिष्ट संयुक्त संपत्तियों के न्यायोचित निपटारे का प्रावधान करती है। ये धाराएँ कानून को वास्तविक जीवन की स्थितियों के प्रति संवेदनशील बनाती हैं और यह सुनिश्चित करती हैं कि वैवाहिक विघटन के मानवीय और वित्तीय पहलुओं को निष्पक्ष रूप से संभाला जाए।

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