राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 234 से 236: डिफॉल्टर की भूमि का स्वामित्वांतरण और बिक्री की प्रक्रिया
Himanshu Mishra
24 Jun 2025 11:19 AM

राजस्व वसूली के सुसंगठित ढांचे के अंतर्गत, राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धाराएँ 234, 235 और 236 उन विशेष परिस्थितियों की व्याख्या करती हैं जब डिफॉल्टर (बकाया राजस्व देने में असफल भू-स्वामी) की भूमि या उसका हिस्सा राज्य सरकार द्वारा किसी अन्य सह-स्वामी को सौंपा जा सकता है या नीलामी द्वारा बेचा जा सकता है।
धारा 234 – डिफॉल्टर के हिस्से का स्वामित्वांतरण (Transfer of Defaulter's Share)
इस धारा के अनुसार यदि किसी सम्पत्ति के हिस्से, पट्टी (Patti) या सम्पूर्ण एस्टेट (Estate) पर राजस्व बकाया है, तो कलेक्टर, बोर्ड की पूर्व स्वीकृति प्राप्त कर, उस हिस्से को डिफॉल्टर को छोड़कर अन्य सह-स्वामियों को स्थानांतरित कर सकता है। यह स्थानांतरण अधिकतम दस वर्षों के लिए हो सकता है और यह 1 जुलाई से लागू होगा।
यह तब होता है जब सह-स्वामी सहमत हों कि वे बकाया राजस्व राशि सरकार को चुकाएंगे। यह स्थानांतरण एक प्रकार की अस्थायी व्यवस्था होती है जिससे राजस्व की भरपाई की जा सके। हालांकि, इस स्थानांतरण से सह-स्वामियों की संयुक्त एवं पृथक उत्तरदायित्व (Joint and Several Liability) समाप्त नहीं होती—वे अब भी कानूनी रूप से जिम्मेदार रहते हैं।
उदाहरण: किसी गांव की 100 बीघा भूमि में चार सह-स्वामी हैं: राम, श्याम, घनश्याम और मोहन। मोहन के हिस्से (25 बीघा) पर ₹10,000 का राजस्व बकाया है। बाकी तीन सह-स्वामी इस शर्त पर मोहन का हिस्सा लेने को तैयार हैं कि वे ₹10,000 सरकार को देंगे। बोर्ड की अनुमति से कलेक्टर मोहन का हिस्सा अगले दस वर्षों के लिए तीनों के नाम ट्रांसफर कर सकता है, परंतु तीनों फिर भी मिलकर पूरे एस्टेट के लिए उत्तरदायी रहेंगे।
धारा 235 – डिफॉल्टर की जमीन या पट्टी की नीलामी (Sale of Defaulter's Specific Area, Patti or Estate)
अगर कलेक्टर को यह लगे कि अन्य उपाय जैसे संपत्ति की जब्ती, संचालन या सह-स्वामियों को ट्रांसफर पर्याप्त नहीं हैं, तब वह अंतिम विकल्प के रूप में भूमि को नीलाम कर सकता है। यह नीलामी उसी भूमि या हिस्से की होगी जिस पर बकाया राशि लंबित है।
लेकिन इस धारा में एक महत्त्वपूर्ण अपवाद दिया गया है। यदि कोई भूमि उस समय राजकोषीय न्यायालय (Court of Wards) या कलेक्टर के प्रत्यक्ष प्रबंधन में थी, तब उस अवधि में अर्जित बकाया राशि के लिए वह भूमि नीलाम नहीं की जा सकती। यह न्याय और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए है, क्योंकि उन अवधियों में मालिक के पास नियंत्रण नहीं होता।
उदाहरण: यदि एक किसान की 10 बीघा जमीन कलेक्टर के नियंत्रण में दो वर्षों तक थी और उस अवधि के दौरान ₹5,000 की बकाया राशि बनी, तो कलेक्टर उस ₹5,000 की वसूली के लिए उस भूमि को नीलाम नहीं कर सकता।
धारा 236 – बिना भार वाली भूमि की बिक्री (Land to Be Sold Free of Encumbrances)
इस धारा में यह व्यवस्था दी गई है कि नीलामी में जो भूमि बेची जाती है वह बिना किसी ऋण, गिरवी, पट्टे या अनुबंध के मानी जाएगी। इसका अर्थ है कि भूमि का नया खरीदार यह चुन सकता है कि वह पुराने किराएदारों या अनुबंधों को मान्यता देगा या नहीं।
हालांकि, यह नियम हर परिस्थिति में लागू नहीं होता। निम्नलिखित प्रकार की लीज़ या पट्टे इस नियम से मुक्त रहेंगे, यानी वे नीलामी के बाद भी जारी रहेंगे:
• ईमानदारी से बनाई गई लीज़ जिनका उद्देश्य आवास निर्माण, उद्योग-स्थापन, बागवानी, तालाब, नहर, पूजा स्थल या श्मशान/कब्रिस्तान का उपयोग हो।
• ये पट्टे चाहे अस्थायी हों या स्थायी, अगर भूमि का उपयोग अभी भी उसी कार्य के लिए हो रहा है जिसके लिए पट्टा दिया गया था, तो उन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता।
साथ ही, राज्य सरकार चाहे तो नीलामी से पहले आदेश जारी कर सकती है कि कुछ विशिष्ट अधिकार, जो भूमि पर मौजूद हैं, वे नीलामी के बावजूद बने रहेंगे। यह व्यवस्था राज्य सरकार की विवेकाधीन शक्ति है जिससे सार्वजनिक हित की रक्षा की जा सके।
उदाहरण: काशी नामक व्यक्ति ने अपने खेत का एक भाग स्थायी पट्टे पर मंदिर समिति को दिया, जहां एक मंदिर और तालाब बना हुआ है। यदि यह जमीन नीलामी में जाती है तो नया खरीदार उस मंदिर और तालाब के उपयोग को समाप्त नहीं कर सकता, जब तक कि पट्टा वैध है और उपयोग अभी भी वैसा ही बना हुआ है जैसा अनुबंध में कहा गया था।
राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धाराएं 234 से 236 न केवल राजस्व वसूली के वैकल्पिक और प्रभावशाली उपाय प्रदान करती हैं बल्कि भूमि स्वामित्व से जुड़ी सामाजिक, धार्मिक और संवैधानिक जिम्मेदारियों की भी रक्षा करती हैं।
इस प्रक्रिया में प्रशासनिक विवेक, न्यायसंगत अधिकारों का संतुलन और सार्वजनिक हित की प्राथमिकता सुनिश्चित होती है। इन धाराओं की प्रकृति राज्य और नागरिक के संबंधों में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व को मजबूत करती है।
इन प्रावधानों के तहत कलेक्टर को पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं, लेकिन उन्हें सीमाओं और अपवादों के साथ बांधा भी गया है, जिससे भूमि स्वामियों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा भी हो सके।